- ओडिशा के सिमलीपाल जंगल में बीते कई दिनों से आग लगी हुई है। इस जंगल को एशिया का दूसरा सबसे बड़ा बायोस्फीयर रिजर्व माना गया है।
- सरकार जंगल में आग बुझाने की कोशिश कर रही है। इस घटना के बाद से संरक्षित वन पर किसका नियंत्रण हो इसको लेकर बहस तेज हो गयी है।
- वन विभाग इस आग के पीछे वहां रह रहे वनवासियों को जिम्मेदार मानता है, जबकि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया से मिली जानकारी बताती है कि वन अधिकार के तहत बसे लोगों के इलाके को आग से बहुत कम नुकसान हुआ है।
- जानकारों का मानना है कि जंगल की आग के बाद टाइगर रिजर्व के पास इंसान और जानवरों के बीच का संघर्ष बढ़ेगा। गांव वाले कह रहे हैं कि आग की तपिश से बचने के लिए हाथियों के कुछ झुंड गांव का रुख कर रहे हैं।
ओडिशा के सिमलीपाल राष्ट्रीय उद्यान और टाइगर रिजर्व में भीषण आग लगी हुई है। वन विभाग तकरीबन एक महीने से यहां आग बुझाने की कोशिश कर रहा है पर सफलता हासिल नहीं हो पायी है। इसे एशिया का दूसरा सबसे बड़ा बायोस्फीयर रिजर्व माना जाता है। बायोस्फीयर रिजर्व यानी एक विशेष पारिस्थितिकी तंत्र जिसमें वनस्पति और जीवों के लिए विशेष वातावरण होता है। एशिया का सबसे बड़ा बायोस्फीयर रिजर्व गुजरात के कच्छ में है।
सिमलीपाल के जंगल की आग को बुझाने के प्रयासों के बीच आग लगने के पीछे की जिम्मेदारी तय करने को लेकर तीखी बहस छिड़ी हुई है। राष्ट्रीय उद्यानों पर वन विभाग का अधिकार हो या इसे वनवासियों के जिम्मे छोड़ दिया जाए, इस मुद्दे पर भी चर्चा तेज है।
जंगल में पहली बार आग की खबर 11 फरवरी को आयी। 10 मार्च को हुई बारिश के बाद से राष्ट्रीय उद्यान में कुछ राहत भी मिली है। वन विभाग का हालिया बयान कहता है कि अब जंगल की आग काबू में है। हालांकि कुछ हिस्से में आग अभी भी लगी हुई है।
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) के आंकड़े बताते हैं कि कि 11 फरवरी से 15 मार्च के बीच सिमिलिपाल टाइगर रिजर्व (एसटीआर) के अंदर कुल 348 फायर प्वाइंट पाए गए हैं। इसके अतिरिक्त बारिपदा डिवीजन में 1242, करंजिया डिवीजन में 964 और रायरंगपुर में 926 हैं। बायोस्फीयर रिजर्व में चार डिवीजन हैं – एसटीआर (दक्षिण और उत्तर), बारीपाड़ा, करंजिया और रायरंगपुर।
स्थानीय लोग, संरक्षणकर्ता इस आग को लेकर अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं। जबकि वन विभाग का मानना है कि साल के पेड़ों वाले जंगल में आग लगने की घटना सामान्य है। क्षेत्रीय मुख्य वन संरक्षक एम योगाजयनंदजा जो कि सिमलीपाल टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर भी हैं, कहते हैं, “सिमलीपाल में आग लगना सामान्य बात है। लेकिन इस वर्ष ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं।” इनका मानना है कि इस साल फरवरी में कम बारिश की वजह से ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं।
“बारिश की कमी की वजह से सूखे पत्तों ने जंगल में तेजी से आग फैलाने का काम किया,” वह कहते हैं।
सिमलीपाल स्थित दुधियानी के रेंज अधिकारी सरोज पांडा कहते हैं कि बायोस्फीयर रिजर्व के अलावा आसपास के इलाके में भी आग का प्रभाव है। जंगल में स्थापित फायर अलार्म ने मार्च के पहले सप्ताह में 686 स्थानों पर 21,185 बार आग लगने का संकेत दिया।
ढेंकानाल, कंधमाल, अनुगुल, कालाहांडी, संबलपुर, कोरापुट, क्योंझर और जाजपुर जैसे इलाके में जंगल की आग लगने की सूचना आई है।
जलवायु को बचाने के लिए संघर्षरत रंजन पांडा कहते हैं कि जंगल की आग के पीछे जलवायु परिवर्तन भी एक वजह है। “सूखे की वजह से धरती में नमी जाती रही। वन विभाग को चाहिए कि वन संरक्षण के लिए स्थानीय लोग और उनके पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करे,” वह कहते हैं।
वनवासियों के नियंत्रण वाले इलाके में आग का कम प्रकोप
क्षेत्रीय मुख्य वन संरक्षक एम योगाजयनंदजा, वन अधिकारी आदित्य पांडा और वन्यजीव कार्यकर्ता बिस्वजीत मोहंती का मानना है कि बायोस्फीयर रिजर्व के बीच आग लगने में इंसानी गतिविधियों का हाथ है। उनका कहना है कि स्थानीय आदिवासी समाज जंगल में आग लगाकर जमीन साफ करना चाहता है, ताकि महुआ और तेंदू पत्ता इकट्ठा करने में उन्हें सुविधा हो। वह शिकार के लिए भी ऐसा कर सकते हैं। हालांकि, फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के द्वारा जो जानकारी सामने आ रही है उससे पता चलता है कि जिन इलाके में वन अधिकार कानून के तहत जंगल पर लोगों को अधिकार दिए गए हैं वहां आग से अपेक्षाकृत कम नुकसान हुआ है। कुछ इलाकों में गांव वालों ने तत्काल आग पर काबू भी पा लिया था।
गुदगुदुया पंचायत के कौनरबिल के जंगल में आग लगने के तुरंत बाद चार मार्च को इसपर काबू पा लिया गया। वहां जंगल के किसी अधिकारी को जाने की जरूरत ही नहीं हुई, एक ग्रामीण ने बताया। एक अन्य ग्रामीण गुंजाराम बोदरा कहते हैं कि सात मार्च को कोल्हा गांव से सटे जंगल में आग लग गई जिसे गांव वालों ने ही बुझाया।
जो क्षेत्र सामुदायिक वन अधिकार के तहत बनी समितियों के हाथ में है वहां आग पर तेजी से काबू पाया जा सका।
इलाके में जंगलों पर शोध करने वाले हेमंता कुमार साहू ने कहा कि जिन गांवों को सामुदायिक अधिकार के तहत जंगल पर अधिकार दिए गए, जंगल के उस हिस्से को ग्रामीणों ने आग से बचाकर रखा है।
आदिवासी समुदायों पर शोध करने वाले वाय गिरी राव कहते हैं कि जिन स्थानों से स्थानीय लोगों को विस्थापित किया गया है वहां आग लगने की घटनाएं बढ़ी हैं। वहीं जंगल के कोर इलाके में होने के बावजूद भी खेजुरी गांव में आग नहीं लगी क्योंकि वहां अब भी लोग रह रहे हैं। अन्य कोर इलाके में आग लगने के स्थानों में वृद्धि देखी गई है। ये वह इलाके हैं जहां से लोगों को पूरी तरह से विस्थापित कर दिया गया है। यहां अब तक आग पर पूरी तरह से काबू भी नहीं पाया जा सका है।
स्थानीय वनवासी वन विभाग के लिए शिकारियों और लकड़ी माफिया की आवाजाही की सूचना देने का एक महत्वपूर्ण तंत्र भी हैं। इसके अलावा आग लगने पर सबसे पहले वही उसे बुझाने की कोशिश करते हैं और वन विभाग को सूचना भी देते हैं। उनके वहां से विस्थापित होने के बाद शिकार और जंगल की आग की घटनाओं में वृद्धि आई है, राव कहते हैं। उन्होंने कहा कि जंगल में शिकार करने वाले लोग भी आग लगा देते हैं।
एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का एक राष्ट्रीय स्तर का शोध मैन इन बायोस्फीयर कहता है कि सिमलीपाल में इंसानों की मौजूदगी से जंगल के विस्तार में मदद मिली है। वर्ष 2013 में प्रकाशित इस शोध के मुताबित लोगों के जंगल के प्रति योगदान को नजरअंदाज करके उन्हें वहां से विस्थापित करने का तरीका कामयाब नहीं हुआ।
बफर जोन स्थित गांव अस्टाकुआंर के सरपंच मोहंती बिरुआ पूछते हैं कि हजारों गांव वाले जो काम करते हों, क्या वह काम बाहरी कर्मचारियों से करवाया जा सकता है?
सिमलीपाल बायोस्फीयर में आठ लाख से अधिक आदिवासी समाज के लोग रहते हैं। ये करीब 1,461 गांवों में फैले हुए हैं। उनमें से 43 गांवों को जंगल पर सामुदायिक अधिकार मिला है और 200 निस्तार के इलाकों को चिन्हित किया गया है।
मयूरभंज के जाशीपुर के पूर्व जिला परिषद सदस्य चक्रधर हेमब्राम का मानना है कि महुआ की वजह से यह आग लगाने का आरोप सही नहीं है। “यह आरोप बिल्कुल निराधार है। जंगल के कोर और बफर इलाके में मुश्किल से महुआ के पेड़ मिलते हैं। वही इलाके आग से अधिक प्रभावित है,” उन्होंने कहा।
साहू का भी मानना है कि वन विभाग यह आरोप लोगों को जंगल से दूर भगाने के लिए लगा रहा है। उन्होंने अधिकारियों पर वन अधिकार कानून की अवहेलना का आरोप लगाया। साहू कहते हैं कि कायदे से वन अधिकार कानून के तहत ग्राम सभा को जंगल के प्रबंधन का अधिकार होना चाहिए, जबकि वन विभाग ने एक इको-डेवलपमेंट कमेटी बनाकर उसमें अधिकारी बिठा दिए हैं। “इससे काम तो कुछ नहीं होता, बल्कि गांव वालों के बीच गफलत होती है,” वह कहते हैं।
पर्यटन और बाहरी लोगों को जिम्मेवार मानते हैं स्थानीय लोग
गैर लाभकारी संस्था ग्राम स्वराज के सचिव दीपक पानी कहते हैं कि बायोस्फीयर के भीतर बढ़ते पर्यटन की वजह से ऐसी घटनाएं बढ़ रही है। वह कहते हैं कि जंगल के सच्चे रक्षक स्थानीय समुदाय को वहां से बाहर किया जा रहा है, जबकि बाहरी पर्यटकों को जंगल के बीच लाया जा रहा है। “इस वजह से जंगल पर काफी दबाव है और जानवरों का घर छिनने के साथ वहां प्रदूषण भी बढ़ रहा है,” वह कहते हैं।
बारेहिपरानी पंचायत के सरपंच जुझेर बंनसिंह कहते हैं कि स्थानीय लोगों के सहयोग से चेक डैम और सड़क बनाने के बजाए, वन विभाग बाहर से आए मजदूरों को काम दे रहा है। बाहर से आए लोग अक्सर जंगल के कायदे तोड़ते हैं और बीड़ी-सुगरेट सुलगाकर जंगल में फेक देते हैं। सूखे पत्तों पर सिगरेट फेंकने से आग लगने की घटनाओं सामने आती हैं।
मयूरभंज की राजसी परिवार से संबंध रखने वाली अक्षिता भंज देव ने जंगल की आग पर चिंता जताते हुए कहा कि वन विभाग द्वारा आग को सामान्य बताना चिंताजनक है।
“जंगल के भीतर हजारों लोग आग से लड़ रहे हैं। जंगल से 15 मिनट में ही हमारे आवास बेलगड़िया पैलेस पर आग पहुंच सकता है,” वह कहती हैं।
खतरे में सिमलीपाल का वन्य जीवन
जंगल की आग की वजह से हिरण, भालू, हाथी और बाघ के अलावा कई दूसरे पशु-पक्षी और सरीसृपों पर जान का खतरा बन आया है। ग्राम स्वराज के पानी कहते हैं कि धुएं की वजह से मधुमक्खियों पर भी खतरा बन आया है।
जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिक प्रत्युष पी महापात्रा हते हैं कि मधुमक्खियां अगर खत्म हुईं तो पूरे जंगल की जैवविविधता खतरे में आ जाएगी।
जानकार को अंदेशा है कि आग के बाद जानवर और इंसानों के बीच टकराव बढ़ सकता है।
बेलाडिहा, रंगदा, कंछीपाड़ा और रघुनाथपुर के जंगल के ग्रामीणों का कहना है कि उन्होंने जंगली हाथी को सात मार्च को गांव की तरफ आते देखा। आग की तपिश की वजह से वे गांव की रुख कर रहे हैं। कई ग्रामीणों ने भंजाकिया के पास झाराफुला में आग की वजह से झुलसे एक हिरण को बचाया।
क्या समुदाय के हाथों अधिक सुरक्षित है जंगल
शोधकर्ताओं और जानकारों ने समय-समय पर जंगल पर स्थानीय समुदाय के अधिकार की वकालत की है ताकि जंगल सुरक्षित रह सके।
एक्शन एड के प्रोग्राम मैनेजर और शोधकर्ता घासीराम पांडा करते हैं कि पेसा एक्ट के तहत ग्राम पंचायतों के पास पंचायत के भीतर के जंगल पर अधिकार होना चाहिए। वन अधिकार कानून 2006 ने इस कानून को और मजबूती दी है। बावजूद इसके स्थानीय लोगों को आग पर काबू पाने में शामिल नहीं किया जाता है।
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट कहती है कि ओडिशा की एक तिहाई आबादी जंगल के भीतर या आसपास बसती है। अगर 40 फीसदी जंगल पर स्थानीय लोगों के नियंत्रण में हो जाए तो जंगल के आग पर आसानी से काबू पाया जा सकता है, घासीराम कहते हैं।
उन्होंने इस मामले की निगरानी के लिए 8 मार्च को गठित टास्कफोर्स से आग्रह किया कि वह भी स्थानीय लोगों की भूमिका बढ़ाने पर विचार करे। अलबत्ता यह चिंता की बात है कि इस टास्क फोर्स में सभी पक्ष को शामिल किया गया है सिवाय इन स्थानीय लोगों के, घासीराम का कहना है।
बैनर तस्वीरः जाशीपुर बफर इलाके में जंगल की आग। इस मुद्दे पर गठित टास्कफोर्स में स्थानीय समुदाय को नहीं शामिल किया गया है।तस्वीर- प्रगति प्रवा