- उत्तर प्रदेश के मथुरा और हाथरस जिले में खारे पानी में श्रिम्प (समुद्र में पाई जाने वाली मछली या झींगा का एक प्रकार) पालन को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित किया जा रहा है।
- खारे पानी के प्रति सहनशीलता की वजह से इन जिलों में सफेद पैर वाले श्रिम्प पालन का व्यवसाय फल-फूल रहा है।
- उत्तर भारत में श्रिम्प-पालन में सफलता मिलने से बड़ा बदलाव आ सकता है। खासकर इस क्षेत्र के किसानों के लिए। बंजर भूमि में खारे पानी के जलजमाव वाले क्षेत्र में अगर श्रिम्प-पालन होने लगे तो यहां के स्थानीय लोगों को लंबी-अवधि के लिए रोजगार की सुरक्षा मिल सकती है।
कुछ सालों पहले, उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले के रहने वाले कमल कुमार केशवानी ने सरकारी परियोजना के तहत श्रिम्प-पालन की शुरुआत की थी। ऐसे जीव का पालन जो मूलतः खारे पानी में रहना पसंद करता है। लेकिन उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में इसके पालन से ना केवल स्थानीय लोगों को रोजगार मिलने की संभावना बढ़ी है बल्कि देश के मत्स्य-निर्यात में भी विस्तार की संभावना बढ़ी है।
श्रिम्प-पालन से केशवानी इतने प्रभावित हैं कि वह भी इसको और विस्तार देने की सोच रहे हैं। वर्तमान में वह करीब 7.9 एकड़ क्षेत्र में श्रिम्प-पालन करते हैं।
इतना ही नहीं, इनका श्रिम्प-पालन, अन्य किसानों के लिए मॉडल का काम भी करने लगा है। आस-पास के गांव के लोग जो इसमे रुचि रखते हैं, यहां से बीज से लेकर श्रिम्प-पालन से जुड़े जरूरी सलाह-मशवरे में मदद ले सकते हैं।
स्थानीय प्रशासन की मदद से केशवानी उन्हें बीज, चारा, परामर्श और सबसे महत्वपूर्ण, बाजार में उत्पाद ले जाने की सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं। “उत्तर भारत में श्रिम्प-पालन की सफलता किसानों के लिए गेम-चेंजर साबित हो सकती है। इसके अनेक लाभ हैं। खारे बंजर भूमि पर श्रिम्प की खेती में स्थानीय लोगों को रोजगार मिलने की अपार संभावनाएं हैं,” उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए कहा।
इन जिलों में श्रिम्प-पालन एक सरकारी परियोजना के पायलट के आधार पर शुरू हुई थी। इसका उद्देश्य था यह जानना कि क्या देश के उन क्षेत्रों में जो कृषि गतिविधियों के लिए अनुपयुक्त हैं, को जलीय जीवों के पालन के लिए उपयोग किया जा सकता है! इस योजना की अब तक की सफलता को संतोषप्रद कहा जा सकता है।
“फिलहाल मथुरा जिले में इस श्रिम्प-पालन में 27 किसान लगे हैं और साल के अंत तक, 50 और लोगों के इससे जुड़ने की संभावना है,” चौहान कहते हैं। राज्य सरकार ने इसकी क्षमता को देखते हुए इस परियोजना का विस्तार राज्य के आगरा और अलीगढ़ संभाग के खारे पानी वाले क्षेत्र में भी करने का निर्णय लिया है।
श्रिम्प आखिर क्या बला है!
श्रिम्प सामान्यतः खारे पानी में पाया जाने वाला एक जीव है। दस पैरों वाले इस जीव को प्रॉन या झींगा भी कहा जाता है।
मथुरा जिले में मत्स्य विभाग के एक अधिकारी महेश चौहान कहते हैं, “सफेद पैरों वाले श्रिम्प (Litopenaeus vannamei) को इस क्षेत्र में इसलिए पसंद किया जा रहा है क्योंकि यह खारे पानी के प्रति सहनशील है।” इसका विकास भी तेजी से होता है और बीज-विकसित करने में भी कम समय लगता है। इसके मुकाबले अन्य प्रॉन का बीज बनने में अधिक समय लगता है और वे अन्य बीमारियों को लेकर संवेदनशील भी होते हैं।
लेकिन उत्तर भारत में इस प्रजाति के संवर्धन की कुछ सीमाएं भी हैं। भारत में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के तटीय क्षेत्रों में इस जीव का पालन किया जाता है। वहां आमतौर पर तापमान पूरे वर्ष एक समान रहता है। यह इस श्रिम्प के विकास के लिए अधिक अनुकूल होता है। “यह जीव अत्यधिक सर्दी या गर्मी नहीं झेल सकता। इसलिए यह अक्टूबर के बाद उत्तर भारत में मुश्किल से जीवित रह पाता है। दिसंबर से फरवरी के कम तापमान वाले समय में इसका जीवित रहना मुश्किल हो जाता है। इसलिए, अधिकांश किसान केवल अप्रैल-मई से जुलाई-अगस्त तक ही इसकी खेती कर सकते हैं,” समुद्री-जीवों पर शोध करने वाली सुधा झा बताती हैं।
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क्या हैं इस श्रिम्प-पालन के फायदे!
जिन तालाबों में श्रिम्प-पालन किया जाता है वे औसतन एक एकड़ में फैले होते हैं। इनकी गहराई पांच फीट के करीब होती है। “लार्वा से बने बीज आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के पंजीकृत श्रिम्प-पालन केंद्र से खरीदे जाते हैं। इन केंद्रों के मालिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे श्रिम्प के बीजों को उत्तर-भारत में मौजूद खारे-पानी के अनुकूल इन बीजों (छोटे-छोटे श्रिम्प) को ढालें। ताकि उत्तर भारत में लाने के बाद ये जीव बचे रहे हैं और उनका पालन किया जा सके।
किसानों को तालाब निर्माण, बीज का चयन, सही उर्वरकों का चयन, चारा और प्रोबायोटिक्स, विभिन्न रासायनिक मापदंडों के नियंत्रित रखने, जलवाहकों के उपयोग, पानी से श्रिम्प निकालने कि विधि और उसको बाजार में बेचने को लेकर प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशासन मिट्टी और पानी के महत्वपूर्ण मापदंडों जैसे पीएच, कुल क्षारीयता, कैल्शियम, मैग्नीशियम, लवणता और पोटाश के परीक्षण में तकनीकी सहायता भी उपलब्ध कराता है। श्रिम्प के जीवित रहने और विकास के लिए इन रासायनिक पदार्थों का नियत मात्रा में होना जरूरी है।
श्रिम्प का आकार 100 दिनों में बढ़कर लगभग 25-30 ग्राम हो जाता है। “एक एकड़ में करीब 2 टन श्रिम्प का उत्पादन हो जाता है। लेकिन यह सब इसपर तय होता है कि कितने श्रिम्प के बीज डाले गए, इनकी विकास दर क्या है और मृत्यु दर क्या है! इसको दिल्ली और फरीदाबाद की मंडियों में बेचा जाता है जहां औसतन 250 से 300 रुपये प्रति किलो की कीमत मिल जाती है। किसानों को एक एकड़ से करीब 3 लाख रुपये की कमाई हो जाती है,” चौहान बताते हैं।
लेकिन श्रिम्प-पालन में कुछ अड़चनें भी आतीं हैं। किसानों को अक्सर बीज, श्रिम्प के लिए जरूरी भोजन (रेडीमेड फ़ीड) और प्रोबायोटिक्स आदि जैसे चीजें बड़ी मुश्किल से मिलती हैं। बाजार में श्रिम्प की कीमत में भी उतार-चढ़ाव होता रहता है। चौहान बताते हैं, “कोरोनावायरस महामारी से भी इस साल इसके व्यवसाय पर प्रभाव पड़ा है। ना सिर्फ सप्लाइ-चेन बल्कि श्रिम्प का उत्पादन भी इससे प्रभावित हुआ है।”
निर्यात बढ़ाने के सरकारी उद्देश्य से कदम-ताल
भारत में मत्स्य-पालन के निर्यात से होने वाली आय को 2024-25 तक दोगुना करने का लक्ष्य रखा गया है। वर्ष 2018-19 में 137.58 लाख मीट्रिक टन का निर्यात हो रहा था। इसे 2024-25 तक 220 लाख मीट्रिक टन तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए भारत सरकार ने उत्तर भारत में एक निर्यात केंद्र बनाने पर काम शुरू कर दिया है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जिन्हें प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना (पीएमएसवाई) के तहत मत्स्य-पालन के विस्तार के लिए चिह्नित किया गया है। इसका उद्देश्य मत्स्य पालन क्षेत्र में महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे में 2024-25 तक 20,050 करोड़ रुपये का निवेश करना है। इसके मद्देनज़र उत्तर प्रदेश के मथुरा और हाथरस जिलों में खारे पानी में श्रिम्प-पालन को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया जा रहा है।
नमकीन पानी आमतौर पर वहां मिलता है जहां नदियां जाकर समुद्र में मिलती हैं। यह समुद्री जल की तुलना में कम खारा होता है लेकिन मीठे पानी की तुलना में अधिक नमकीन होता है। पानी कितना खारा है वह इससे तय होता है कि उसमें नामक की मात्रा कितनी है। खारे पानी में आमतौर पर 0.5 ग्राम/लीटर (या 0.5 भाग प्रति हजार) से 30 ग्राम/लीटर (30 पीपीटी) के बीच नामक पाया जाता है। “लेकिन भारत के कई अंतर्देशीय राज्यों में, आपको 5 पीपीटी और 15 पीपीटी के बीच लवणता वाला भूमिगत जल मिलेगा। खासकर राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में ऐसे कई क्षेत्र मिल जाएंगे, ”अनिल कुमार अवस्थी कहते हैं जो एक स्वतंत्र भूविज्ञानी हैं।
इंटरनेशनल सॉयल एंड वाटर कंजर्वेशन रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, आने वाले और बाहर जाने वाले नमक के बीच असंतुलन के कारण यमुना नदी के कुछ क्षेत्र में मिट्टी और पानी का लवणीकरण हुआ है। इसका मायने याह है कि इन क्षेत्रों में पानी में खारापन बढ़ा है। अगर सिंचाई के पानी में नमक की मात्रा 0.5 पीपीटी से ऊपर हो जाए तो यह अधिकतर पेड़-पौधों के लिए नुकसानदायक हो जाता है। उच्च सोडियम का स्तर भी मिट्टी को कठोर बनाता है। इससे मिट्टी में पानी सोखने की क्षमता कम हो जाती है। अवस्थी ने कहा, “ऐसी जमीन पर सीमित कृषि की जा सकती है। क्योंकि अधिकांश सब्जियां और फसलें इस खारे पानी को नहीं झेल सकते।”
ऐसे क्षेत्रों में कुछ विशेष प्रकार के वनस्पतियों और जीवों का ही विकास हो सकता है। पर खारे पानी में पाए जाने वाले जीवों का पालन किया जा सकता है। इसलिए, मथुरा और हाथरस जिलों के इन क्षेत्रों में सफेद-पैर वाले श्रिम्प का पालन किया जा सकता है। इन क्षेत्रों में 2014-15 में इसके शुरुआत हुई थी। लेकिन कोई खास सफलता नहीं मिली। पर हाल में पीएमएसवाई तथा भारत सरकार के उत्तर-भारत में निर्यात केंद्र विकसित करने की योजना से इसे गति मिली है।
बैनर तस्वीर: यह प्रतीकात्मक तस्वीर फिलीपींस में ली गयी है। उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में श्रिम्प पालन का काम शुरुआ हुआ है। खारे पानी मे फलने-फूलने वाले इस जीव के पालन से स्थानीय लोगों को रोजगार मिलने की संभावना है। तस्वीर: जज फ़्लोरो/ विकिमीडिया कॉमनस