- भोज वेटलैंड क्षेत्र में मौजूद भोपाल का बड़ा तालाब, शहर की प्यास बुझाता है। हालांकि, शहर का फैलता दायरा इस तालाब के लिए मुश्किलें बढ़ा रहा है।
- तालाब को बचाने के लिए दो दशक पहले प्रकृति आधारित संरक्षण के प्रयास किए गए। इसमें तालाब किनारे जंगल लगाना और मिट्टी को बहने से रोकने के इंतजाम भी किए गए।
- इन प्रयासों की मदद से तालाब के पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने की कोशिश हो रही है। तमाम प्रयासों के बावजूद तालाब के पानी की गिरती गुणवत्ता चिंता का सबब है।
सुबह के सात बज रहे हैं। लेकिन भोपाल के बोरवन जंगल में रात का अंधेरा पेड़ों की ओट में छिपा बैठा है। चिड़ियों की चहचहाहट के बीच अपनी सेहत को लेकर फिक्रमंद लोग दौड़कर पसीना बहाने की कोशिश में हैं। पर घने जंगल में बहती ठंडी हवा में ऐसा कर पाना मुश्किल प्रतीत हो रहा है। मध्य प्रदेश की व्यस्त राजधानी भोपाल में शहर के बीच स्थित यह जंगल, भोज वेटलैंड इलाके में बड़ा तालाब किनारे स्थित है। इस तालाब को स्थानीय लोग भोजताल, बड़ा तालाब, बड़ी झील या अपर लेक के नाम से जानते हैं।
बड़े तालाब के संरक्षण के लिए बोरवन जंगल को दो दशक पहले लगाया गया था। भोज वेटलैंड प्रोजेक्ट के तहत इस तालाब को बचाने के लिए इस तरह की कई कोशिशें हुई हैं। भोज वेटलैंड को रामसर साइट की मान्यता भी मिली हुई है।
चार दशक पहले तालाब की स्थिति काफी बदतर होने लगी थी।
रामसर की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक भोज वेटलैंड दो मानव निर्मित तालाब- बड़ा तालाब और छोटा तालाब के मिलने से बनता है। बड़े तालाब का निर्माण 11वीं सदी में कोलांस नदी के ऊपर बांध बनाकर किया गया था। छोटा तालाब, बड़े तालाब से रिसे हुए पानी से बना था।
जब इस तालाब की स्थिति खराब होने लगी तो इसे बचाने के लिए कई प्राकृतिक उपाय किए गए। इसमें बोरवन का जंगल लगाना, तालाब से गाद निकालना, खर-पतवार हटाना और आसपास के खेतों में जैविक खेती करना शामिल है। ये प्रयास साल 1995 से लेकर 2005 तक किए गए। बोरवन जंगल के अलावा दूसरे छोर पर तालाब किनारे पड़ी बंजर जमीन पर 445.8 हेक्टेयर में फैला वन विहार नेशनल पार्क बनाना भी इन्हीं प्रयासों में शामिल था।
बड़े तालाब के संरक्षण के लिए हुई प्रकृति आधारित कोशिशों पर एक शोध में सह लेखक की भूमिका निभाने वाले वैज्ञानिक पंकज कुमार कहते हैं कि संरक्षण के प्रयासों के बावजूद तालाब के पानी की गुणवत्ता में कमी आ रही है। साथ ही, इन प्रयासों की वजह से भूजल स्तर में गिरावट को भी नहीं रोका जा सका है। कुमार इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (आइसर) से जुड़े हैं।
“शोध में हमने पाया है कि तालाब संरक्षण के लिए जंगल, कैचमैंट एरिया में मिट्टी कटाव रोकने के लिए घास लगाने सहित स्थानीय संसाधनों पर जोर देने की जरूरत है,” कुमार ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
भोजताल का पानी 84 गांवों तक फैले कैचमेंट एरिया से होकर आता है। यह 362 वर्ग किलोमीटर में, सीहोर और भोपाल दो जिलों तक फैला हुआ है। इसका 80 फीसदी कैचमैंट कृषि भूमि है और पांच फीसदी जंगल। बचा हुआ हिस्सा शहरीकरण की चपेट में है।
कुमार का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के समय में नेचर बेस्ड सॉल्यूशन यानी प्रकृति आधारित समाधान को अधिक तवज्जो देने की जरूरत है। इसके लिए लंबे समय की योजना और तैयारी की जरूरत होगी।
“वैज्ञानिकों ने कई सुझाव दिए हैं। मसलन इंजीनियरिंग के सहारे संरक्षण, जल संवर्धन, स्थानीय कैचमैंट के बारे में अच्छी समझ विकसित करना आदि। अगर इस मुताबिक तैयारी की गई तो भविष्य में जलवायु परिवर्तन के हालात में भी तालाब को बचाया जा सकेगा,’ कुमार कहते हैं।
कैचमैंट बचाने से होगा वेटलैंड का संरक्षण
दो दशक पहले बड़ा तालाब के कैचमैंट की स्थिति बदतर थी। वन विहार नेशनल पार्क के निदेशक एके जैन उस समय को याद करते हुए कहते हैं, “तालाब से सटे पहाड़ी ढलान वाले इलाके में ईंट भट्टे थे। बारिश के दौरान पानी के साथ मिट्टी बहकर तालाब में मिल जाती थी। यह क्षेत्र उस समय प्रेमपुरा, धर्मपुरी और अमखेड़ा गांवों के राजस्व भूमि और खेतिहर जमींदारों के अधीन था। झील के आसपास बस्तियां बसी थी। यह जमीन अब वन विहार के पास है।”
तालाब को बचाने की कोशिश चार दशक पहले शुरू हुई। तब इसके कैचमेंट को समझने के लिए एक शोध किया गया था।
“संरक्षण के लिए एक समिति का गठन किया गया था और इस क्षेत्र को वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के तहत लाया गया। 388.89 हेक्टेयर सरकारी राजस्व भूमि और स्थानीय लोगों की 56.92 हेक्टेयर जमीन को वन विहार राष्ट्रीय उद्यान के रूप में 1983 में अधिसूचित किया गया था,” जैन ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में बताया।
इस पहल के साथ ही तालाब और इस भूमि को बचाने के लिए एक वन विकसित किया गया।
1971 के रामसर कन्वेंशन के तहत 2002 में भोज वेटलैंड को अंतरराष्ट्रीय महत्व के स्थान के रूप में मान्यता दी गई। भोज वेटलैंड को बचाने के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने जापान बैंक ऑफ इंटरनेशनल कोऑपरेशन से वित्तीय सहायता ली। इस मदद के सहारे 1995 से 2005 तक कई प्रकृति-आधारित समाधान लागू किए गए। सरकार ने झील की परिधि के आसपास खेती, चराई और अतिक्रमण जैसी गतिविधियों पर अंकुश लगाया। पानी में अतिक्रमण और मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए चारों ओर कई स्थानीय प्रजातियों के पेड़ लगाए।
मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए 12 वर्षों में बड़े तालाब के वाटरशेड क्षेत्र के लगभग 10 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 17 लाख पेड़ लगाए गए।
पर्यावरण विभाग के प्रमुख सचिव और पर्यावरण योजना और समन्वय संगठन (एप्को), मध्य प्रदेश में महानिदेशक अनिरुद्ध मुखर्जी बताते हैं कि परियोजना का मूल उद्देश्य पानी की गुणवत्ता में सुधार के साथ-साथ इन झीलों की भंडारण क्षमता में वृद्धि करना था। इसके लिए बोरवन सहित शहर में और भी जंगल लगाए गए। यहां 51 प्रजातियों के पौधें लगाए गए। पौधों को उनके औषधीय गुण, बायोमास और अत्यधिक तापमान के साथ-साथ अत्यधिक वर्षा झेलने की क्षमता के हिसाब से चुना गया था।
“हमने पानी के बहाव और मिट्टी के कटाव को धीमा करने के लिए तालाब के किनारे एक दीवार बनाई है। इसे रिटेनिंग वाल कह सकते हैं। वन विहार में खस की घास भी लगाई गई है। खस न केवल मिट्टी कटाव रोकता है बल्कि पानी की सफाई भी करता है। आज वन विहार में पौधों की लगभग 700 प्रजातियां हैं, बड़ी संख्या में मुक्त घूमने वाले शाकाहारी जीव जैसे सांभर, चित्तीदार हिरण, काले हिरण, पक्षियों की 266 प्रजातियां और तितलियों की 36 प्रजातियां हैं। बाघ, तेंदुए, लकड़बग्घा, शेर, भालू आदि कई मांसाहारी जानवर भी यहां मौजूद हैं। हालांकि, आगंतुकों की सुरक्षा के लिए मांसाहारी जीव को बाड़ों में रखा गया है,” जैन ने कहा।
एप्को से जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिक सुब्रत पाणी कहते हैं, “मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार भी तालाब संरक्षण परियोजना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। कैचमेंट एरिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों के अंतर्गत आता है। इन क्षेत्रों में कई किसान यूरिया और फॉस्फेट जैसे रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करते हैं, जिसका पानी की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इससे निपटने के लिए, हमने किसानों को रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर जैविक खाद का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित और प्रशिक्षित किया। किसानों को यह प्रशिक्षण देने में एनजीओ और एप्को सहित कई संगठनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।”
पक्षी संरक्षण के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन भोपाल बर्ड्स से जुड़ी संगीता राजगीर ने भोपाल जिले के भोज वेटलैंड के जलग्रहण क्षेत्र बरखेड़ी, बिशनखेड़ी, खानूगांव, गोरागांव जैसे क्षेत्रों में कई किसानों को पक्षी सारस क्रेन के संरक्षण के लिए शिक्षित किया। सारस क्रेन की घटती आबादी के बारे में जागरूकता फैलाने की उनकी 2010 की परियोजना के अंतर्गत उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर किसानों को इन पक्षियों पर रासायनिक कीटनाशकों के हानिकारक प्रभावों के बारे में शिक्षित किया। धीरे-धीरे उन्हें जैविक उर्वरकों और रसायनों पर स्विच करने के लिए प्रेरित किया।
जैविक खेती अपनाने के दौरान पेश आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालते हुए राजगीर ने कहा, “जैविक उर्वरकों और कीटनाशकों के साथ समस्या यह है कि वे महंगे हैं। जैविक खाद का इस्तेमाल करने पर उत्पादन भी प्रभावित होता है। किसानों को पहले से ही कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण शुरू में हमें उन्हें मनाने में दिक्कत आई। लेकिन धीरे-धीरे कुछ किसानों ने इसे ट्रायल के तौर पर शुरू किया और जब उन्हें अच्छे नतीजे मिले तो उन्होंने जैविक खेती करने का फैसला किया।
“संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। हालांकि हमारे पास सटीक आंकड़े नहीं हैं, लेकिन मैं कह सकता हूं कि भोपाल जिले के परियोजना स्थलों के लगभग 30% किसानों ने इन 10 वर्षों में पहले ही जैविक खेती अपना ली है,” वह कहती हैं।
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भोपाल बर्ड्स के मोहम्मद खालिक का कहना है कि उनके हस्तक्षेप की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भोज वेटलैंड में पक्षियों की प्रजातियों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। “2002 में, यहां पक्षियों की मुश्किल से 30 प्रजातियां थीं, लेकिन अब यह संख्या 250 से अधिक हो गई है। सभी प्रकार के स्थानीय और प्रवासी पक्षी हैं। इनमें ग्रे-लेग्ड गीज़, रेड-क्रेस्टेड पोचार्ड और फ्लेमिंगो शामिल हैं। ये पक्षी सर्दियों में यहां आने लगे हैं। यह पानी की गुणवत्ता में सुधार का संकेतक है।”
ऊपरी और निचली झीलों में बहने वाले कचरे के प्रवाह को रोकना भी जलाशयों को बहाल करने में एक महत्वपूर्ण कारक रहा है। ठोस कचरे को झील में जमा होने से रोकने के लिए भोपाल नगर निगम ने कई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट और कचरा संग्रह प्रणाली का निर्माण किया।
कई प्रयासों के बावजूद, कुछ चुनौतियों सामने हैं। खालिक कहते हैं। “शहरीकरण, अतिक्रमण, रासायनिक कीटनाशक और झील में ठोस कचरा फेंकना आदि कुछ प्रमुख चुनौतियां हैं जिनका हम सामना कर रहे हैं। हमें इन प्रयासों को जारी रखने की आवश्यकता है। हमें यह भी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि जैव विविधता को नकारात्मक रूप से प्रभावित होने से बचाने के लिए इन क्षेत्रों में कोई पेड़ नहीं काटा जाए,” उन्होंने कहा।
बैनर तस्वीर: वेटलैंड की रक्षा के लिए प्रकृति-आधारित समाधानों ने जल सुरक्षा में सुधार, जैव विविधता में वृद्धि, और एक विकासशील शहर में एक सार्वजनिक स्थान की रक्षा करने में मदद की है। शुचिता झा/मोंगाबे