- बिहार सरकार जैविक कॉरिडोर योजना के तहत गंगा से सटे 13 जिलों में जैविक खेती करवा रही है।
- हालांकि जैविक खेती से जुड़े किसान कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं जो भविष्य के लिए बेहतर संकेत नहीं है।
- इन किसानों के अनुसार जैविक पद्धति से उपज तो कम हो ही रही है, बाजार नहीं होने से मुनाफा कमाने लायक दाम भी नहीं मिल रहा। किसानों का यह भी कहना है कि जैविक पद्धति से खेती करने पर कीड़े-मकोड़े अधिक लगते हैं और फसलों को बचाने के लिए प्रभावी दवाइयां नहीं हैं।
- जानकारों का कहना है कि बिहार सरकार को जैविक खेती की सफलता के लिए सही मॉडल अपनाने की जरूरत है।
बीते फरवरी महीने में आम बजट पेश करते हुए केंद्र सरकार ने देशभर में खासकर गंगा नदी की धारा के पांच किलोमीटर के दायरे में जैविक खेती को प्रोत्साहित करने पर खासा जोर दिया। हिमालय की गंगोत्री ग्लेशियर से निकलने वाली गंगा नदी भारत में उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल समेत कुल 10 राज्यों से होकर गुजरती है और इसका कैचमेट एरिया 86,1404 वर्ग किलोमीटर है। गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक इस नदी की लम्बाई करीब 2,525 किलोमीटर है। और अगर वित्तमंत्री निर्मल सीतारमण की घोषणा की मानें तो इस क्षेत्र में नदी के किनारे जैविक खेती को प्रोत्साहित किया जाएगा।
मजेदार यह है कि बिहार सरकार ने ठीक इसी तर्ज पर दो साल पहले जैविक कॉरिडोर योजना शुरू की थी। गंगा के किनारे के 13 जिलों- पटना, बक्सर, भोजपुर, सारण, वैशाली, समस्तीपुर, खगड़िया, बेगूसराय, लखीसराय, भागलपुर, मुंगेर, कटिहार और नालंदा में जैविक कॉरिडोर विकसित किया जा रहा है।
हालांकि, न ही बिहार सरकार और ना ही केन्द्रीय वित्तमंत्री ने यह स्पष्ट किया है कि गंगा के 5 किलोमीटर के दायरे में ही जैविक खेती करने के पीछे क्या तर्क है।
बहरहाल, केंद्र सरकार की ये योजना कितनी सफल होगी, ये तो अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन, मोंगाबे-हिन्दी ने बिहार में शुरू हुई जैविक कॉरिडोर योजना की जमीनी पड़ताल की तो इसमें जमीनी सूरत एकदम अलग दिखी।
बिहार की जैविक खेती कॉरिडोर योजना?
जैविक खेती कॉरिडोर योजना बिहार सरकार की महात्वाकांक्षी योजनाओं में एक है। इस योजना के तहत गंगा नदी से सटे 13 जिलों में जैविक खेतों को प्रोत्साहित करना है। जैविक कॉरिडोर के लिए कम से कम 25 एकड़ खेत का कलस्टर होना जरूरी है जिसमें कम से कम 25 किसान होने चाहिए। जैविक खेती करने वाले किसानों को प्रति एकड़ के हिसाब से सलाना 11500 रुपए दिये जाते हैं। ये अनुदान अधिकतम दो एकड़ खेत के लिए दिया जा सकता है।
अनुदेश के मुताबिक, अनुदान की राशि अधिकतम तीन वर्षों तक दी जाएगी। लेकिन अनुदान के साथ शर्तें भी हैं। शर्त ये है कि 11,500 रुपए में से कम से कम 6,500 रुपए का नेशनल प्रोग्राम ऑर आर्गेनिक प्रोडक्शन (एनपीओपी) प्रमाणित खाद और प्लास्टिक का ड्रम खरीदना होगा। बाकी बचे 5,000 रुपए से वर्मी कम्पोस्ट का ढांचा तैयार करना होगा।
जैविक उत्पादों का बाजार नहीं, सस्ते में उपज बेचने की मजबूरी
बिहार की राजधानी पटना से करीब 45 किलोमीटर दूर वैशाली जिले के रूसुलपुर तुर्की गांव में 414 एकड़ खेत जैविक कॉरिडोर का हिस्सा है और इसमें कुल 351 किसान जुड़े हुए हैं। इस कॉरिडोर में किसान बुद्धन सिंह के दो एकड़ खेत शामिल हैं।
अपने खेत में टमाटर लगाने वाले बुद्धन सिंह अपना दर्द कुछ ऐसे बयान करते हैं, “जैविक पद्धति से एक किलो टमाटर उगाने में 10 रुपए खर्च हुए हैं, लेकिन बाजार में भाव ही नहीं मिल रहा है। एक व्यापारी से बात की, तो वो 12 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से टमाटर खरीदने को तैयार हुआ। एक अन्य व्यापारी 14 रुपए देने को तैयार है, लेकिन मुझे तुरंत टमाटर बेचना होगा। अगर दो-तीन दिन रुक गया, तो टमाटर का भाव गिर जाएगा और लागत भी नहीं निकल पाएगी।”
बाजार की दिक्कत सिर्फ टमाटर तक सीमित नहीं है। दूसरी फसल भी उन्हें इसी तरह बेचनी पड़ती है। “हमें धान और गेहूं को भी वही कीमत मिलती है जो कीमत रासायनिक खाद का इस्तेमाल कर उत्पादन करने वाले किसानों को दी जाती है,” उन्होंने कहा, “सब्जी मंडी में जाकर अगर व्यापारी को कहता हूं कि मैंने सब्जी जैविक तरीके से उगाई है तो लोग हंसी उड़ाते हैं।”
रूसुलपुर तुर्की प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड उन किसानों का संगठन है, जो जैविक खेती कर रहे हैं। संगठन के प्रबंध निदेशक कामेश्वर सिंह कुशवाहा बाजार की गैरमौजूदगी को जैविक खेती में बड़ी बाधा मानते हैं। उन्होंने कहा, “जैविक उत्पादों के लिए अलग से कोई बाजार नहीं है। इसका नुकसान ये होता है कि किसानों को औने-पौने दाम पर उपज बेचना पड़ता है, जबकि खर्च अधिक हो जाता है।” “जैविक उत्पादों की बिक्री के लिए पंजीकृत जैविक मंडी होनी चाहिए और हर कलस्टर के लिए अलग अलग मार्केट बनना चाहिए,” कुशवाहा ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा। उन्होंने ये भी कहा कि इसको लेकर वे कई बार जिला कृषि कार्यालय को कह चुके हैं, लेकिन वहां से कोई सकारात्मक जवाब नहीं आता है।
बाजार की समस्या केवल रूसुलपुर तुर्की के किसानों की समस्या नहीं है। मोंगाबे-हिन्दी ने वैशाली के अलावा गंगा से सटे पटना जिले के मोकामा टाउन और बक्सर के किसानों से भी बात की। उन्होंने भी जैविक उत्पाद केंद्रित बाजार नहीं होने की बात कही।
उपज कमजोर, फसलों में लगते हैं ज्यादा कीड़े
मोकामा से लेकर वैशाली तक के किसान जो जैविक खेती कर रहे हैं, उनसे बात करने पर दो बातें सामने आती हैं। उपज कम होना और बड़े स्तर पर जैविक फसलों में कीड़े लगना।
हर जगह के किसान फसलों में लगने वाले कीड़ों से खासा परेशान रहते हैं। किसानों का कहना है कि कीड़े भगाने वाली जो भी जैविक दवाइयां हैं, वे असर नहीं करती हैं। नतीजतन किसानों को मजबूरी में फसल बचाने के लिए रासायनिक कीटनाशक का इस्तेमाल करना पड़ता है। बुद्धन सिंह अभी बैगन में लगे कीड़े से परेशान हैं। उन्होंने कहा, “अक्सर फसलों में कीड़े लग जाते हैं। अभी बैगन में पिछले हफ्ते ही कीड़े लग गये थे, जैविक दवाई दी गई, लेकिन बहुत असर नहीं हुआ। अगर रासायनिक कीटनाशक इस्तेमाल नहीं करेंगे, तो बैगन की फसल पूरी तरह बर्बाद हो जाएगी।” सिर्फ बैगन ही नहीं कई अन्य फसलों के साथ यह शिकायत सुनने को मिली।
मोकामा के एक जैविक कलस्टर की यात्रा के दौरान वहां के किसानों ने गेहूं, मटर, चने और बैगन के पौधे दिखाए, जो रासायनिक पद्धति से उगाई गई फसलों की तुलना में बेहद कमजोर थे और उनमें फलियां भी कम थीं। एक किसान ने बैगन के पौधे दिखाए और बताया कि ये पौधे सालभर पहले लगाये गये थे, लेकिन अब तक इसमें फूल नहीं आये हैं। मटर और चने के पौधों में भी बेहद कम फलियां आई थीं।
मोकामा के एक किसान नितेश कुमार ने कहा, “रासायनिक खाद से जब खेती करते थे, तो एक एकड़ में 8 क्विंटल गेहूं होता था, लेकिन अब जैविक पद्धति से खेती करता हूं, तो चार क्विंटल से भी कम गेहूं उपजता है। पहले गेहूं बेच भी लेता था, लेकिन अब उत्पादन इतना कम हो रहा है कि घर में ही खपत हो जाती है।” नीतेश कुमार पिछले दो साल से एक एकड़ में जैविक खेती कर रहे हैं।
जैविक खेती के लिए अनुदान अपर्याप्त
जैविक खेती के लिए बिहार सरकार ने वित्तवर्ष 2020-2021 में 250 करोड़ रुपए आवंटित किये थे। वहीं, वित्तवर्ष 2021-2022 और 2022-2023 के बजट में बिहार सरकार ने जैविक खेती के लिए क्रमशः 145-145 करोड़ रुपए मंजूर किये थे।
किसानों को एक एकड़ के लिए 11,500 रुपए अनुदान के तौर पर मिलते हैं, जिसे किसान अपर्याप्त मानते हैं। अव्वल तो उनका का कहना है कि 11,500 रुपए लागत से काफी कम है और दूसरी बात कि ये अनुदान साल में सिर्फ एक बार मिलता है, जबकि कई इलाकों में किसान अपने खेत में दो से तीन फसल लेते हैं। वैशाली में दो एकड़ में जैविक खेती कर रहे राजेश्वर पटेल कहते हैं, “एक सीजन में खेती पर 22 से 23 हजार रुपए खर्च हो जाते हैं, लेकिन अनुदान मिलता है इसका आधा। इसके अलावा कृषि विभाग का दबाव है कि एनपीओपी प्रमाणित जैविक खाद ही खरीदना है, जो खुले बाजार के मुकाबले दोगुनी कीमत पर मिलता है।”
राजेश्वर पटेल की बातों का समर्थन मोकामा के किसान भी करते हैं। नाम नहीं छापने की शर्त पर एक किसान कहते हैं, “खुले बाजार में एनपीके (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम) 200 रुपए प्रति लीटर मिलता है, जबकि एनपीओपी प्रमाणित एनपीके 500 रुपए में मिलता है। वहीं, फॉस्फेट रिच ऑर्गैनिक मैनुर (पीआरओएम) खुले बाजार में 200 रुपए में 50 किलोग्राम बिकता है, लेकिन एनपीओपी प्रमाणित यही खाद हमलोगों को 1000 रुपए में 50 किलोग्राम खरीदना पड़ता है। यही स्थिति दूसरे खाद के साथ भी है।”
अनुदान के रुपए से वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने की बात करें, तो इस मामले में भी जमीनी हकीकत काफी अलग है। वैशाली के जिन दो किसानों से मोंगाबे-हिन्दी ने बात की, उनमें से किसी ने भी वर्मी कम्पोस्ट का ढांचा नहीं बनाया है। कामेश्वर सिंह कुशवाहा ने कहा, “ज्यादातर किसानों के पास मवेशी नहीं है और वर्मी कम्पोस्ट के लिए गोबर चाहिए, तो वर्मी कम्पोस्ट बनाकर क्या करेंगे।” “रसूलपुर तुर्की प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड से जुड़े 351 किसानों में से मुश्किल से 10 से 15 प्रतिशत किसानों ने ही वर्मी कम्पोस्ट का ढांचा बनाया है,” एक सूत्र ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
अनुदान जैविक के लिए, खेती हो रही रासायनिक!
आंकड़ों के अनुसार जून 2021 तक बिहार के कुल 13 जिलों में 21,608 किसान जैविक खेती कर रहे हैं। वहीं, बिहार स्टेट सीड एंड ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन एजेंसी (बीएसएसओसीए) से मिले आंकड़े बताते हैं कि अब तक 25,000 किसानों को जैविक सर्टिफिकेट दिया जा चुका है और अन्य 25,000 किसानों के सर्टिफिकेशन की प्रक्रिया चल रही है।
बीएसएसओसीए के डायरेक्टर सुनील कुमार पंकज ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “सर्टिफिकेट के लिए किसानों से आवेदन मिलने के बाद हमारी टीम तीन बार फील्ड विजिट करती है और वहां से सैम्पल इकट्ठा कर लेबोरेटरी में जांच करती है।” उन्होंने कहा, “जितने किसान आवेदन करते हैं, उनमें से 2-3 प्रतिशत किसानों का सैम्पल लैब में फेल हो जाता है क्योंकि इन सैम्पल्स में रासायनिक खाद पाया जाता है।”
इसका मतलब यह है कि जैविक कॉरिडोर का हिस्सा बन चुके बहुत सारे किसान रासायनिक खाद का इस्तेमाल करते हैं। बक्सर, पटना और वैशाली के फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनियों से मोंगाबे-हिन्दी की बातचीत में भी ये पता चला कि बहुत सारे किसान अनुदान तो नियमित ले रहे हैं, लेकिन जैविक खेती नहीं कर रहे हैं। बक्सर के एक विश्वस्त सूत्र ने बताया, “जिले में आधिकारिक तौर लगभग 1000 किसान जैविक कॉरिडोर का हिस्सा हैं, लेकिन इनमें से सिर्फ 25 प्रतिशत किसान ही जैविक तरीके से खेती कर रहे हैं। बाकी किसान रासायनिक खाद का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन अनुदान सरकार से ले रहे हैं।”
पटना में एक किसान समूह में 60 से ज्यादा किसान हैं, जो आधिकारिक तौर पर जैविक कॉरिडोर का हिस्सा हैं, लेकिन एक सूत्र ने कहा कि महज 4-5 किसान ही पूर्णतः जैविक पद्धति से खेती कर रहे हैं। बक्सर में भी यही हाल है।
कृषि अधिकारी भी इस तथ्य से अवगत हैं। बक्सर जिले के जिला कृषि अधिकारी मनोज कुमार कहते हैं, “जिले में जैविक कॉरिडोर में शामिल किसानों में 50 प्रतिशत के आसपास ऐसे किसान है, जो रासायनिक खाद का इस्तेमाल कर रहे हैं। इन्हें रोकना मुश्किल है क्योंकि इसके लिए बारीक निगरानी की जरूरत है। सबसे प्रभावी उपाय है किसानों को जागरूक करना। हमलोग वो काम कर रहे हैं।”
मोकामा के टाल फार्मर प्रोड्यूसर लिमिटेड, जो एक जैविक कलस्टर का संचालन करता है, के इंटरनल इंस्पेक्टर अंजन कुमार ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “हमसे किसान लगातार शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें जैविक पद्धति से उत्पादन कम हो रहा है और मार्केट नहीं मिलने से उन्हें मुनाफा नहीं हो रहा है, लोकिन फिर भी हम उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं।”
क्या बिहार ने जैविक खेती के लिए गलत मॉडल चुना?
जैविक खेती को लेकर जो दिक्कतें किसानों ने मोंगाबे-हिन्दी के साथ साझा कीं, वह कोई नई बात नहीं है। जर्नल ऑफ क्रॉप एंड वीड नाम के एक जर्नल में साल 2017 में बिहार के समस्तीपुर जिले के जैविक गांव श्रीचंदपुर कोठिया के किसानों से बातचीत के आधार पर छपे शोधपत्र में भी इसी तरह की समस्याएं बताई गई हैं। इस गांव को बिहार का पहला जैविक गांव कहा जाता है।
इस गांव 100 किसानों का विस्तृत इंटरव्यू के आधार पर शोधकर्ताओं ने शोधपत्र में लिखा कि महंगे ऑर्गेनिक इनपुट्स, जैविक उत्पादों के लिए अपर्याप्त बाजार, कम उत्पादन और कम कीमत जैविक खेती में बड़े बाधक हैं।
मोंगाबे-हिन्दी ने वैशाली और मोकामा के जैविक कलस्टर का दौरा किया, तो कई किसानों ने बताया कि जैविक खेती में कैसे कम खर्च पर अधिक उपज ली जा सकती है और या किस तकनीक से अच्छी खेती हो सकती है, इन सबको लेकर कभी कोई बैठक नहीं होती है। मोकामा के तो एक किसान ने कहा कि दो साल में एक-दो बार ही जैविक खेती को लेकर बैठक हुई होगी।
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फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियों (एफपीओ) भविष्य को लेकर चिंतित हैं। जैसे बक्सर की एक फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी से जुड़े विनोद तिवारी ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “किसानों में जैविक खेती की ट्रेनिंग नहीं है, उन्हें मार्केट नहीं मिल रहा है। इसके अलावा भी बहुत सारी समस्याएं हैं। इन समस्याओं पर अगर सरकार ने ध्यान नहीं दिया, तो जैविक खेती कागजों में सिमट कर रह जाएगी।”
इन सबके बीच, जैविक खेती के जानकारों का कहना है कि बिहार सरकार ने जो मॉडल अपनाया है, वह मॉडल ही गलत है और इस मॉडल से जैविक खेती को विफल होना तय है।
आशा-किसान स्वराज से जुड़ी कविता कुरुगंती ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “देश में बाजार तो बड़ी समस्या है, लेकिन जैविक खेती में किसानों को बाजार का लालच दिया जाएगा, तो जैविक खेती टिकाऊ नहीं रह पाएगी। जिस दिन मार्केट का सपोर्ट नहीं मिलेगा, वे रासायनिक खेती की तरफ चले जाएंगे। सरकार को इस पर फोकस करना चाहिए कि जैविक खेती में कैसे खर्च को घटाकर किसानों की आय बढ़ाई जाए।”
“अगर किसान रासायनिक की तरफ जा रहे हैं, तो इसमें किसानों की गलती नहीं है, बल्कि सरकार की गलती है क्योंकि सरकार ने सही मॉडल नहीं अपनाया है,” उन्होंने कहा।
वे आंध्रप्रदेश का उदाहरण देते हुए कहती हैं, “ऐसा लगता है कि बिहार में केंद्र सरकार की परम्परागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) के कम्पोनेंट के तहत जैविक खेती की जा रही है। आंध्रप्रदेश में पीकेवीआई के दिशानिर्देश को बदलवा कर लागू किया गया और वहां 7 लाख किसान अभी सफलतापूर्वक जैविक खेती कर रहे हैं और हर साल नये किसान जुड़ भी रहे हैं। आंध्रप्रदेश में सरकार ने न अनुदान दिया और न ही बाजार का लालच। उसने किसानों की जानकारी समृद्ध की कि कैसे कम खर्च में अधिक उपज ली जा सकती है। बिहार में भी इसी तरह के मॉडल को अपनाने की जरूरत है।”
बिहार के कृषि विभाग के सॉयल कंजर्वेशन के डायरेक्टर बैंकटेश नारायण सिंह ने कम उत्पादन, मार्केट और किसानों में अनिच्छा की बात स्वीकार की। उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “किसान खुद से जैविक खेती को अपनाएं, तो वो ज्यादा कारगर होगा। हमलोग किसानों को जैविक खेती की बारीकियां समझाने के लिए लगातार ट्रेनिंग कार्यक्रम चलाने जा रहे हैं। इसके साथ ही जिले में जैविक उत्पादों के लिए अलग मार्केट बनाने पर भी काम कर रहे हैं।”
बैनर तस्वीरः वैशाली जिले के रूसुलपुर तुर्की गांव में 414 एकड़ खेत जैविक कॉरिडोर का हिस्सा है और इसमें कुल 351 किसान जुड़े हुए हैं।। तस्वीर- उमेश कुमार राय