- गुजरात के कच्छ जिला का संगनारा गांव अपने जंगल को बचाने के लिए संघर्षरत है। पिछले 15 सालों में कुकुरमुत्तों के तरह क्षेत्र में फैल चुके पवनचक्कियों की वजह से यहां के जंगल खतरे में हैं।
- गांव का संघर्ष, अक्षय ऊर्जा परियोजना को लेकर राज्य सरकार की अनियोजित और अड़ियल रुख को दर्शाता है।
- विशेषज्ञों का मानना है कि पवन चक्की के अलावा उसके सहायक संरचना जैसे बिजली के तारों की वजह से इलाके के वन्यजीव, विशेष तौर पर राष्ट्रीय पक्षी मोर पर बुरा असर हो रहा है।
जंगल में प्रवेश करते ही चना राना रबारी लकड़ी का एक टुकड़ा उठाते हैं। उन्हें लकड़ी के सहारे उबड़-खाबड़ और कांटेदार वनस्पतियों से भरे रास्ते को आसानी के साथ पार करने में मदद मिलेगी। “ये खैर है, इसका गोंद खाने से हड्डी मजबूत होती है। यह बाजार में 400 रुपया किलो बिकता है”, यह कहते हुए उन्होंने पेड़ के छाल से सुनहरा गोला तोड़ लिया। उन्होंने गुगगल, बोर और खाकरा के पेड़ों की तरफ इशारा किया। इन पेड़ों का उपयोग रेज़िन (गोंंद जैसा पदार्थ), फल और आयुर्वेदिक दवा के रूप में किया जाता है। इसके बाद 50 वर्षीय रबारी ने हमें साही के पेड़ और बरगद पेड़ों के जंगल के पास ले गए जहां मोर आराम फरमाते हैं। बरगद के पेड़ों के बीच की शांति में पवनचक्की से आती घड़-घड़ की आवाज लागातार खलल डाल रही थी।
रबारी को लोग चनाभाई के नाम से भी जानते है। वे मालधारी या चरवाहा समुदाय से आते हैं। चरवाहे की भूमिका में काम करते हुए भी उन्होंने शौकिया तौर पर वनस्पति विज्ञान की जानकारी भी हासिल कर ली है। वनस्पति विज्ञानी बन गए हैं। उन्हे गुजरात के कच्छ जिला के जंगलों में पाये जाने वाले सभी घास, झाड़ी और पेड़ों की पहचान है।
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार यह देश का अकेला बचा हुआ उष्णकटिबंधीय कांटेदार जंगल है। रबारी, कच्छ जिला के नाखात्राना ब्लाक स्थित संगनारा गांव के रहने वाले हैं। इस गांव के लोग जंगल और यहां के खास प्रजाति के मोर को पवनचक्की से बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
“यहां मीठा झाड़ यानी उपयोगी पेड़ हैं। लेकिन सरकार इन पेड़ों को अनुपयोगी पेड़ होने का दावा करती है और जंगल में पवन चक्की लगाने के लिए कम्पनियों को अनुमति दे रही है,” मोंगाबे-हिन्दी के साथ अपनी बात साझा करते हुए गांव की लक्ष्मी पटेल रोने लगती हैं।
गुजरात सरकार जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए हरित उर्जा को बढ़ावा दे रही है। लेकिन, पवन चक्की उद्योग मालिकों की लापरवाही से पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील कच्छ में पर्यावरण और लोग कहीं पीछे छूट गए हैं। 45,674 वर्ग किलोमीटर में फैला कच्छ भारत का सबसे बड़ा जिला है। यहां तीन अलग-अलग तरह की पारिस्थितिकी मौजूद है जिसमें तटीय क्षेत्र, पहाड़ी क्षेत्र और मरुभूमि शामिल है। गुजरात में 1600 किलोमीटर लंबी तट-रेखा है जो देश का सबसे बड़ा तटीय क्षेत्र है। .
राष्ट्रीय पवन ऊर्जा संस्थान के आकलन के अनुसार देश में सबसे ज्यादा पवन उर्जा उत्पादन की सम्भावना (22.75%) गुजरात में है। 2022 में पूरे देश में 40,129 मेगावाट पवन उर्जा उत्पादन क्षमता थी, और गुजरात में 8900 मेगावाट क्षमता थी। यह तमिलनाडु के बाद दूसरा अधिक उत्पादन सम्भावना वाला राज्य है। सोलर एनर्जी कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, जो देश में अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के कार्यान्वयन की देखरेख करता है, के पास अकेले कच्छ जिले में 6,095 मेगावाट की पवन ऊर्जा परियोजनाएं हैं।
पवन चक्की शुरुआत में सूरजबारी से लेकर मांडवी तक के तटीय इलाके में स्थापित किया गया, लेकिन अब यह अंदरुनी इलाके में फैल रहा है। इसका कारण मृदा धारण क्षमता (एसबीसी) है। मृदा धारण क्षमता का मतलब मिट्टी की भार सहने की क्षमता से है। कच्छ के पहाड़ी क्षेत्र में मृदा धारण क्षमता ज्यादा होने के कारण पवन-चक्की स्थापित करने में खर्च कम होता है और इसके देख -रेख का खर्चा भी तटीय इलाके के तुलना में कम आता है। तटीय इलाके में सेलाइन हवा यानी खारी हवा के कारण देख-रेख का खर्चा ज्यादा होता है।
संगनारा के सरपंच (ग्राम प्रधान) शंकरलाल पटेल ने कहा, “लोगों ने शुरू में पवन चक्कियों का स्वागत किया था लेकिन धीरे-धीरे वे स्थानीय पारिस्थितिकी, जल स्रोतों और गांव में पारस्परिक संबंधों पर इसके असर को महसूस करने लगे।”
2019 में, संगनारा के लोग नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में गए और मांग की कि गांव की सीमा के भीतर की सभी पवनचक्की परियोजनाओं को खत्म कर दिया जाए।
किस तरह शुरू हुई संगनारा में पवन चक्कियां
संगनारा गांव के 1400 लोगों की आबादी मुख्य रूप से खेती और पशुपालन के साथ गोंद जैसे वनोपज बेचकर गुजर-बसर करती है। गांव का आधिकारिक चारागाह (गौचर) लगभग 486 एकड़ (197 हेक्टेयर) है जो लगभग 800 हेक्टेयर के कांटेदार जंगल में जाकर मिल जाता है। गुजरात के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (पीसीसीएफ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, जंगल में 28 पौधों की प्रजातियां और सात जानवरों की प्रजातियां हैं। इनमें चिंकारा, डेजर्ट कैट (रेगिस्तानी बिल्ली), लकड़बग्घा, लोमड़ी, नीलगाय, कांटेदार पूंछ वाली छिपकली और रेगिस्तानी मॉनिटर शामिल हैं।
लेकिन एक ऐतिहासिक भूल के कारण इस जंगल को राज्य के राजस्व रिकॉर्ड में ‘बंजर भूमि’ के रूप में नामित किया गया है। 1996 में टी.एन गोदावर्मन थिरुमूलपद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को डिक्शनरी के परिभाषा के अनुसार जंगल को चिह्नित करने का मापदंड तय करने का आदेश दिया। अदालत ने ऐसा करते समय जंगल के जमीन पर मालिकाना हक़ को नजरंदाज करने को कहा और क्षेत्र को जंगल के रूप में चिह्नित किया।
हालांकि गुजरात सरकार इस कवायद को पूरा नहीं कर पाई। कच्छ पश्चिम डिवीजन के उप वन संरक्षक (डीसीएफ) तुषार पटेल ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “उस समय कच्छ में ऐसे किसी भी क्षेत्र की पहचान नहीं की गई थी, क्योंकि जंगल पर्याप्त घने नहीं थे।”
एनजीटी की याचिका में कहा गया है कि अगर इसे डीम्ड वन घोषित किया गया होता, तो गैर-वन उद्देश्यों के लिए जमीन के डायवर्जन और शुद्ध वर्तमान मूल्य के भुगतान के लिए केंद्र सरकार की अनुमति के बाद ही किसी भी गतिविधि की अनुमति दी जाती।
2015 में, सुजलॉन कंपनी को संगनारा में 11 पवन चक्कियों को स्थापित करने की स्वीकृति मिली। इस तरह यह स्वीकृति प्राप्त करने वाली पहली कंपनी थी। इस कंपनी ने 2017 तक सात मिलें स्थापित कीं और एक की नींव रखी। प्रत्येक मिल को मिल मशीनरी और ट्रांसमिशन लाइनों के परिवहन के लिए रास्ते के अधिकार के साथ एक हेक्टेयर भूमि आवंटित की जाती है।
“शुरुआत में, यह ठीक था। लेकिन फिर, हमने न केवल मिल के लिए बल्कि परिवहन और ट्रांसमिशन लाइनों के लिए भी लापरवाही से पेड़ काटने और पहाड़ियों को समतल करते देखा,” शंकरलाल पटेल ने कहा। उन्होंने कहा, “कंपनी ने कलेक्टर द्वारा दिए गए अनुमति पत्र में उनकी आवश्यकता के अनुसार तारों को इंसुलेट भी नहीं किया था और यहीं पर अब मोरों को बिजली के झटके लग रहे हैं,” उन्होंने कहा।
ग्रामीणों को और झटका लगा। 2019 तक, संगनारा में अडानी, टोरेंट पावर और ग्रीन इंफ्रा सहित तीन कंपनियों के कुल 29 और मिलों को मंजूरी दी गई थी। इसमें से टोरेंट पावर के तहत 10 और अडानी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड के तहत सात ने अभी तक काम शुरू नहीं किया है, लेकिन ग्रीन इंफ्रा, जिसे 12 मिलें आवंटित की गई थीं, ने उनमें से चार पर नींव का काम शुरू कर दिया। शंकरलाल पटेल ने आरोप लगाया, “जिला कलेक्टर के आदेश के बावजूद किसी भी पेड़ को काटने से पहले अनुमति लेने की आवश्यकता के बावजूद उन्होंने बिना किसी को बताए 500 से अधिक पेड़ काट दिए।”
ग्रामीणों ने मामलातदार (ब्लॉक राजस्व अधिकारी) से शिकायत की और कंपनी को बाद में 304,950 रुपये का जुर्माना देने के लिए कहा गया। पीसीसीएफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर बाकी मिलें योजना के अनुसार शुरू होती हैं तो संगनारा के जंगल से 20,000 से अधिक पेड़ों को काटने की जरूरत होगी।
सुजलॉन की एक पवनचक्की की नींव अधूरी रह गई थी। “उन्होंने यह नींव 2016 में बनाई थी लेकिन दो साल तक वापस नहीं आए। इस बीच हमने पाया कि 1984 में तैयार किए गए नक्शे के अनुसार यह जगह हमारे गौचर के अंदर है। 2018 में कंपनी यह कहकर वापस आई कि नए नक्शे के अनुसार बिंदु गौचर के बाहर है। तब से, गांव ने किसी भी मशीनरी को अंदर जाने की अनुमति नहीं दी है, ”संगनारा के निवासी अंबालाल पटेल ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
“प्रक्रिया को प्रख्यापन कहा जाता है जिसके अनुसार नक्शा बनाने के लिए नई तकनीक का उपयोग किया गया था। इससे सीमा में मामूली बदलाव आया। नए राजस्व मानचित्र के अनुसार, पवनचक्की बिंदु गौचर के अंदर नहीं है,” नखतराना के डिप्टी कलेक्टर मेहुल बरसारा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। अंबालाल पटेल ने इस बात का जबाव देते हुए कहा कि केवल संगनारा के लिए ऐसा क्यों हुआ। इस तकनीक का उपयोग आसपास के गांव में क्यों नहीं किया गया। उन्होंने सवाल किया। खेती और पशुपालन पर निर्भर संगनारा गांव भुज से नखतराना तक राजमार्ग पर एक आम दृश्य दिखता है, वह है सबसे आगे अनार के पेड़ और पृष्ठभूमि में पवनचक्की। कच्छ के बाकी हिस्सों के विपरीत, जो पानी की आपूर्ति के लिए नर्मदा नदी की नहरों पर निर्भर है, नखतराना में भूजल के बेहतर भंडार हैं और इस प्रकार, बागवानी फल-फूल रही है। किसान कपास और अरंडी के अलावा अनार, आम, खरबूजा और मूंगफली जैसी फसलें उगाते हैं।
“अनार और आम दोनों को फूलों के मौसम में परागण के लिए मधुमक्खी की आवश्यकता होती है। पिछले पांच वर्षों में मधुमक्खी की आबादी में भारी गिरावट आई है। लोगों को मधुमक्खी के बक्सों को रुपये के हिसाब से किराए पर लेना पड़ रहा है। 2,500 प्रति माह। पहले जंगल से मधुमक्खियां आती थीं। मिलों के शोर और घटते जंगल ने उन्हें दूर जाने के लिए मजबूर कर दिया है,” यहां के किसान धवल पटेल ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
गांव में गौचर के अंदर एक मंदिर के पास पक्षियों के लिए अनाज फैलाने की परंपरा है। किसान जयंती पटेल ने कहा, “गौरैया,विभिन्न प्रकार के तोते और मोर जैसे पक्षियों की यहां अच्छी आबादी है।” लेकिन पवन चक्कियों से लगातार चहचहाना पक्षियों को दूर भगा रहा है, उन्होंने कहा।
“यहां तक कि मवेशी भी शोर से डर जाते हैं। मानसून के दौरान बिजली के झटके से मरने वाले जानवरों के मामले बढ़ गए हैं,” मालधारी समुदाय की माघी बेन ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
पवन चक्कियों से होने वाला ध्वनि प्रदूषण मनुष्य के लिए भी एक समस्या है। संगनारा के मालधारी इलाके घोड़जिपर में सड़क के दोनों ओर एक-एक पवनचक्की है। मिलों में से एक के बगल में एक प्राथमिक विद्यालय है जहां बच्चे इस शोर से परेशान रहते हैं।
“रात के शांत और सर्दियों में, शोर विशेष रूप से परेशान करता है। साथ ही पूर्णिमा की रात घरों में घूमने वाली चक्की की छाया पड़ती है, जिससे नींद में खलल के कारण सिरदर्द और चिड़चिड़ापन होता है,” घोड़जिपर निवासी हंसा रबारी ने पवनचक्की की ओर इशारा करते हुए मोंगाबे-हिन्दी को अपनी समस्या बताई।
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अगस्त 2021 में, संगनारा गांव के लोगों ने कच्छ में कई गैर-सरकारी संगठनों के साथ, सुजलॉन की अधूरी पवनचक्की पर विरोध प्रदर्शन किया। ग्रीन इंफ्रा और सुजलॉन ने तब से अपनी शेष साइटों पर निर्माण छोड़ने का फैसला किया है। शंकरलाल पटेल ने साझा किया, “हमने अभी तक अडानी और टोरेंट के 17 स्थानों को लेकर कुछ नहीं सुना है।”
अगस्त 2021 में ग्रीन इन्फ्रा ने 2.5 किलोमीटर लम्बी ट्रांसमिशन का काम शुरू किया। यह लाइन संगनारा हो कर गुजरेगी। हम लोगों ने उन्हें इसे जमीन के अन्दर बिछाने या कम से कम तारों को विद्युत् –रोधी बनाने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। शंकर लाल पटेल मिलों के खिलाफ गांव वालों का एक जुट रहने के बात पर जोर देते हैं।
ट्रांसमिशन तार के कारण मोर की मौत
कच्छ में पवन चक्की के ट्रांसमिशन लाइन के कारण मोरों की मौत की खबरें पिछले तीन सालों से सुर्खियां बटोर रहा है। संगनारा में चार मोरों के पोस्टमोरटम रिपोर्ट ने बिजली के कारण मौत की पुष्टी किया है।
कैयान रबारी मोंगाबे-हिन्दी से शिकायत करते हुए कहते हैं, “हम ये भी नहीं जानते की कितने मोर मर रहे हैं। सियार और कुत्ते उनके शव को खा जाते हैं। जंगल में जब कोई मालधारी मोर को मरा हुआ देखता है तो वह सरपंच को बुलाता है और हमें इसके बारे में पता चलता है,“ उन्होंने कहा।
कच्छ जिला मुख्यालय भुज शहर के प्रकृतिविद नवीन बापट ने मोंगाबे- हिन्दी को बताया, “मोर की मौजूदगी किसी जंगल की बेहतर स्थिति को दिखाता है। यह कांटेदार जंगल के पारिस्थितिक का सबसे बेहतर प्रजाति है। मोर कैटरपिलर और कीटों को मारकर कृषि को मदद करता है। मोर नहीं रहने की स्थिति में खेतों में कीटनाशक का उपयोग जरुर बढ़ जायेगा।”
संगनारा से 15 किलोमीटर दूर रोहा दो साल पहले करंट लगने से 50 मोर के मौत होने के कारण सुर्खियों में था। जिला प्रशासन ने गांव के 2 किलोमीटर की परिधि को सुरक्षित क्षेत्र घोषित किया। रोहा गांव के पुष्पेन्द्र सिंह जडेजा कहते हैं, “2 किलोमीटर लम्बी भूमिगत ट्रांसमिशन लाइन बिछाया गया था और खम्भों पर जाल लगाया था। इन खम्भों पर मोर बसेरा डालते थे। इसके बाद भी मोरों के मौत जारी रहने पर और 2 किलोमीटर तक तार को विद्युत रोधी बनाया गया।
डीसीएफ दीपक पटेल कहते हैं की मोर सामाजिक जीव है और गांव के आसपास रहता है। गांव में उसे खाना भी मिल जाता है। मोरों के 80 प्रतिशत मौत गांव के दो किलोमीटर के परिधि में हुआ है। पिछले 3-4 साल में बिजली के कारण मोरों के मौत का बढ़ना ट्रांसमिशन लाइन बढ़ने के कारण हुआ है। मेरे विचार में इस क्षेत्र में बिजली के तार बिछाने का अनुमति नहीं देनी चाहिए। तुषार पटेल उल्लू जैसे जीवों के प्रजनन पैटर्न पर पवन चक्की के प्रभाव पर अध्ययन करने का कोशिश कर रहे हैं क्योंकि उल्लुओं के ध्वनि-आवृति पवन चक्की के शोर से मेल नहीं खाता।
कम्पनियां जब कलेक्टर से पवन चक्की लगाने का अनुमति मांगती हैं तो प्रक्रिया के तहत वन विभाग से रायशुमारी होती है। पटेल मोंगाबे- हिन्दी को बताते हैं, “वन विभाग का जमीन नहीं होने पर भी हम उन्हें बर्ड गार्ड, कील, रिफ्लेक्टर और यहां तक की विद्युत् रोधी तार लगाने के लिए कहते हैं। हम उन्हें दो केबल के बीच कम से कम 2 मीटर का फासला रखने को कहते हैं। इससे पक्षी के यहां बैठने पर झटका नहीं लगता। लेकिन इन शर्तों के पालन करवाने की जिम्मेदारी अंततः कलेक्टर पर है। मोर, वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 में अनुसूची 1 (विलुप्त होने वाली प्रजाति ) में आता है। वन विभाग ने कम्पनियों के खिलाफ लापरवाही बरतने का मुकदमा किया है। हालांकि सभी मुकदमे लंबित हैं।
नाम ना छापने के शर्त पर सुजलॉन कम्पनी के एक इंजिनियर ने बताया की वन विभाग ने पवन उर्जा कम्पनियों को तारों को जमीन के नीचे बिछाने या तार और खम्भों को विद्युत् –रोधी बनाने के लिए कहा है लेकिन यह काम खर्चीला है और तकनीकी रूप से चुनौतीपूर्ण है। उन्होंने कहा कि तार को विद्युत् –रोधी बनाने के लिए प्लास्टिक स्लीव की जरुरत होगी। प्रति मीटर प्लास्टिक स्लीव की कीमत 600 से 700 रुपया है, इसका मतलब 6 लाख रुपया प्रति किलोमीटर। एक सब स्टेशन 15-20 किलोमीटर दूर होता है। एक मिल के लिए कम से कम तीन बिजली तारों की जरुरत होगी। जमीनी स्थिति के आधार पर यह खर्च करोड़ों में होगा। जमीन के नीचे तार बिछाने पर खोदने और रखरखाव का अलग खर्च है। ऊपर से बारिश के समय यह खतरनाक भी हो सकता है।
भुज के पर्यावरण कार्यकर्त्ता सुरेन्द्र सिंह जडेजा कहते हैं, “अगर कोई निरोना (नखात्रना ब्लाक का एक दूसरा गांव) जाएगा तो उन्हें आसमान में तारों की जगह सिर्फ बिजली की तार दिखेगा। सभी कम्पनियों की अलग लाइन है। पवन चक्की राजस्व बंजर जमीन पर होने के बावजूद ट्रांसमिशन लाइन गौचर, कृषि-जमीन, जंगल और यहां तक रिहाइशी इलाकों से होकर गुजरती है।”
तारों के कारण से जमीन खरीदने और बेचने में भी समस्या हो रहा है। “इलाके में सर के ऊपर से तार के गुजरने के कारण जमीन की कीमत कम हो गई है। गांव के दूसरे निवासी राउजी पटेल कहते हैं, “अगर हम अपने कृषि जमीन का उपयोग बदलना चाहते हैं तो इन तारों के कारण हमें कम्पनियों से अनुमति लेनी होगी।”
कांटेदार जंगल
टी. एन गोदावर्मन थिरूमूलपद मुकद्दमे में कंचन चोपड़ा ने 2008 में सुप्रीम कोर्ट के सामने एक रिपोर्ट प्रस्तुत किया था। इस रिपोर्ट के अनुसार ट्रॉपिकल कांटेदार जंगल 6 पारिस्थिक वर्गों में चौथा वर्ग में आता है। प्राकृतिक पारिस्थितिक बहाली के लिए काम करने वाले शोधकर्ता पंकज जोशी ने मोंगाबे- हिन्दी को बताया, “कच्छ में भारत का सबसे बड़ा कांटेदार जंगल है, बशर्ते उसे जंगल रहने दिया जाय। सरकार, परियोजनाओं को मंजूरी देने के समय हजारों साल से इस इलाके में रहने वाले स्थानीय प्रजाति पर, ध्यान नहीं देती है। एक बार जंगल बर्बाद हो जाने के बाद कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी (सीएसआर)के लाख कवायद से भी जंगल वापस नहीं आ सकता।”
सिद्दार्थ डाबी एक्सेटर विश्वविद्यालय में कच्छ के पवन उर्जा का पारिस्थितिक और सामाजिक प्रभाव पर शोध करते हैं। वे कहते हैं, “काटेदार जंगल को खत्म करने से, इन पहाड़ी क्षेत्र के नीचे के जलस्तर के लिए, मुश्किल हो सकती है।”
हम हाशिये की पारिस्थितिक पर चर्चा कर रहे हैं न की हम पश्चिम घाट के किसी विशेष जंगल पर बात कर रहे हैं। इसके सूखे घास, पत्थर और कांटेदार पेड़ के कारण इसे उतना महत्व नहीं मिलता है जितने महत्व का यह हक़दार है। लेकिन ये अलग बात है की इसकी लकड़ी को मूल्यवान नहीं समझा जाता है।”
कच्छ का 80 प्रतिशत जमीन राजस्व विभाग का है। डाबी के अनुसार कच्छ में पशुधन की आबादी मनुष्य के तुलना में तीन गुना ज्यादा है। वह कहते हैं कि जमीन के उपयोग को इस परिप्रेक्ष में देखना चाहिये। इसे बंजर जमीन के रूप से परिभाषित कर देने से ही यह जमीन बंजर नहीं हो जाती। गौचर और बंजर जमीन की सीमारेखा गतिशील है क्योंकि दोनों की पारिस्थितिक एक है। नाखात्रना में जानवरों की संख्या के अनुपात में गौचर भूमि बहुत कम है, इसलिये लोग इस जमीन पर आश्रित हैं।
उप वन संरक्षक पटेल कहते हैं कि 70 मीटर के पवनचक्की ब्लेड के परिवहन के लिए एक घुमावदार रास्ते पर 100 मीटर और सीधा रास्ता पर 15 मीटर सीधा रास्ता की जरूरत होती है। पवनचक्की के स्थान तक बनी अस्थायी सड़क देशी घास को बर्बाद कर देता है जिसके कारण पशुओं के आने-जाने के रास्ते में बदलाव होता है। रास्ते को समतल करने के कारण पानी की निकासी भी प्रभावित होती है। ट्रक के टायर के साथ नया बीज आ जाता है और इसके कारण परिस्थिति बदल जाती है। घास के वापस उगने के हिसाब से। डाबी कहते हैं कि ये बहुत मामूली बदलाव लग सकता है लेकिन मालधारी इसके प्रभाव को समझते हैं।
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बैनर तस्वीरः संगनारा गांव के 1400 लोगों की आबादी मुख्य रूप से खेती और पशुपालन के साथ गोंद जैसे वनोपज बेचकर गुजर-बसर करती है। तस्वीर- रवलीन कौर