- ब्लैक कार्बन एक तरह का वायु प्रदूषक है और इसे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने के लिए भी जिम्मेदार माना जाता है। वार्मिंग बढ़ाने में कार्बन डायऑक्साइड के बाद ब्लैक कार्बन का नाम आता है। ब्लैक कार्बन का निर्माण जीवाश्म ईंधन और बायोमास के अधूरे जलने और अन्य प्राकृतिक स्रोतों से होता है।
- हाल ही में किए गए एक मॉडलिंग अध्ययन से पता चलता है कि ब्लैक कार्बन उत्सर्जन बढ़ने से पूर्वोत्तर भारत में प्री-मानसून सीज़न में कम तीव्रता वाली वर्षा में कमी आई है, लेकिन मूसलाधार बारिश में बढ़ोतरी हुई है।
- लंबे समय के रुझान बताते हैं कि जहां प्री-मानसून बारिश कम हो रही है, वहीं इस क्षेत्र में एरोसोल बढ़ रहा है। पूर्वोत्तर में जीवाश्म ईंधन और बायोमास जलाना ब्लैक कार्बन के प्रमुख स्रोत हैं। गंगा के मैदानों से भी ब्लैक कार्बन का कुछ हिस्सा पूर्वोत्तर भारत में पहुंचता है।
असम के तेजपुर में रहने वाले शाहजहां से हमने एक सवाल पूछा। आपको किस तरह का चिकन पसंद है, एलपीजी चूल्हे वाला या खुले में जलावन वाले चूल्हे पर पका हुआ? उन्होंने बिना किसी लाग लपेट के कहा लकड़ी जलाकर हल्की आंच पर पका चिकन करी उन्हें बेहद पसंद है।
शाहजहां पेशे से किसान हैं और अतिरिक्त आय के लिए एक कम्यूटर टेक्नीशियन के तौर पर भी कुछ घंटे काम करते हैं। उनका घर ब्रह्मपुत्र नदी की कछार पर स्थित है। उनके गांव में अधिकतर घरों में एलपीजी चूल्हा है लेकिन लोग लकड़ी जलाकर ही भोजन पकाना पसंद करते हैं।
शाहजहां ने जो महसूस किया है वह पांचवे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों में भी दिखता है। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि लोग एलपीजी कनेक्शन होने के बावजूद, भोजन पकाने के लिए इसका उपयोग नहीं करते हैं। “एलपीजी का उपयोग तब किया जाता है जब हमें हड़बड़ी में चाय परोसने, दूध गर्म करने या नहाने के लिए पानी गर्म करने की आवश्यकता होती है। जलावन की लकड़ी में आग पकड़ने में अधिक समय लगता है, लेकिन एकबार यह जलना शुरू हो जाए तो इसपर पका भोजन स्वादिष्ट होता है,” शाहजहां कहते हैं।
एलपीजी की बढ़ती कीमत एक और बाधा है। उन्होंने आगे कहा, “तीन से चार साल पहले हमने एलपीजी सिलेंडर 550 रुपये में खरीदा था। अब लागत लगभग 1000 रुपए से अधिक है। इसके विपरीत, खोरी (फसल को सहारा देने के लिए इस्तेमाल किए गए बांस के खंभे) का उपयोग हमारे लिए आसान है।”
धुएं से होने वाले नुकसान के सवाल पर वह कहते हैं कि कुछ वर्षों से लकड़ी का चूल्हा घर के बाहर जलाया जाता है, ताकि धुंए से नुकसान न हो।
बायोमास जलने से अन्य प्रदूषक तत्वों के अलावा ब्लैक कार्बन नामक छोटे कण भी निकलते हैं। ब्लैक कार्बन जीवाश्म ईंधन, जैव ईंधन, बायोमास जैसे प्राकृतिक स्रोतों के अधूरे जलने से बनता है। जंगल में लगी आग भी इसमें योगदान करती है। वायु प्रदूषक वातावरण में प्रकाश अवशोषित कर सूरज की गर्मी सोखता है जिससे वातावरण गर्म होता है। यह कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में बेहद कम समय के लिए वातावरण में रहता है। कार्बन डायऑक्साइड सदियों तक वातावरण में बना रह सकता है। इसकी तुलना में ब्लैक कार्बन, वातावरण में कुछ ही दिनों के लिए रहता है। इसका ग्लोबल वार्मिंग में काफी योगदान है। वातावरण को गरम करने में ब्लैक कार्बन एरोसोल का प्रभाव कार्बन डाइऑक्साइड के बाद दूसरे स्थान पर हैं। इसमें कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में कई लाख गुना अधिक गर्मी-सोखने की शक्ति है और यह हवा के सहारे लंबी दूरी तक उड़ सकता है।
शाहजहां के परिवार की रसोई तेजपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग के नवोदित वैज्ञानिकों के द्वारा किए जा रहे सर्वेक्षण स्थलों में शामिल है।शोधकर्ता यहां नियमित रूप से एक एथेलोमीटर के साथ आते हैं। इस उपकरण का इस्तेमाल ब्लैक कार्बन को इकट्ठा करने और उसका विश्लेषण करने के लिए होता है। इसे हम आमतौर पर कालिख के रूप में जानते हैं। ये शोधकर्ताब्लैक कार्बन और एरोसोल स्रोतों के बारे में अधिक जानकारी हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं।
“तीन साल पहले एलपीजी का उपयोग शुरू करने से पहले, हमने एक बायोगैस कुक स्टोव स्थापित किया था। लेकिन इससे निकले कचरे को निपटाने की चुनौतियां थीं। हमने स्वेच्छा से एलपीजी की ओर रुख किया जब हमने देखा कि आस-पड़ोस के अन्य लोग भी एलपीजी का उपयोग कर रहे हैं,” शाहजहां कहते हैं।
पूर्वोत्तर भारत में ब्लैक कार्बन का प्रभाव
पूर्वोत्तर भारत में ईंधन इस्तेमाल में हो रहे बदलाव को समझना जरूरी है, क्योंकि हाल के वर्षों में यहां वर्षा का पैटन बदला है। इस साल भी प्री मॉनसून के महीनों में धीरे-धीरे बारिश होने के बजाए मूसलाधार बारिश देखने को मिली है। इस वजह से जन-जीवन और आजीविका पर गहरा असर हुआ है।
पूर्वोत्तर भारत में प्रदूषण कम करने के लिए स्वच्छ खाना पकाने की योजनाओं और परिवहन नीतियों के कड़े कार्यान्वयन के अलावा दूसरी तरफ भी देखना जरूरी है। वह है गंगा के मैदानों में उत्सर्जन को कम करना और ब्रह्मपुत्र नदी बेसिन क्षेत्र में प्रदूषण नियंत्रण के साथ जलवायु कार्रवाई पर मिला-जुला प्रयास करना।
तेजपुर विश्वविद्यालय के रजा रफीकुल हक और उनकी टीम ने पाया कि ब्रह्मपुत्र नदी के बेसिन में तेजपुर के आसपास ब्लैक कार्बन की अधिकता है। यह इंडो गंगा के मैदानों (आईजीपी) के स्तर के लगभग बराबर है।
“ब्रह्मपुत्र नदी बेसिन क्षेत्र में, हम परिवहन, ईंट भट्टों, चाय बागानों और कृषि और घरेलू बायोमास जलने में जीवाश्म ईंधन जलने (कोयला, पेट्रोल) से ब्लैक कार्बन की उपस्थिति देखते हैं। पूर्वोत्तर में आईजीपी (मुख्य रूप से प्री-मानसून में) और प्रायद्वीपीय भारत और पड़ोसी देश बांग्लादेश (मानसून के मौसम में) से एयर मास ट्रांसपोर्ट के माध्यम से पर्याप्त मात्रा में ब्लैक कार्बन आता है। इसमें ईंट भट्टों से आए कार्बन की भारी मात्रा होती है,” हक कहते हैं।
“जब हम शोध के समय आंकड़े इकट्ठा कर रहे थे, तब हमने मानसून के महीनों में बहुत सारे कोयले से निकला हुआ ब्लैक कार्बन देखा। इस जानकारी से हम हैरान थे क्योंकि इन महीनों में ईंट भट्टों का संचालन बंद हो जाता है। लेकिन यह पूर्वोत्तर भारत में चाय उद्योगों के लिए पीक सीजन है और वे अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए कोयला जलाने पर निर्भर हैं,” उन्होंने समझाया।
IIT-गुवाहाटी की वायु और ध्वनि प्रदूषण प्रयोगशाला में कार्यरत शरद गोखले का कहना है कि ब्लैक कार्बन सहित एरोसोल, आईजीपी के सबसे करीब पूर्वोत्तर भारत के पश्चिमी भाग को प्रभावित करते हैं।
गोखले की लैब में हालिया मॉडलिंग अध्ययन से पता चला है कि बढ़ते ब्लैक कार्बन उत्सर्जन से बारिश के तरीकों में बदलाव होता है। इसकी वजह से धीमी पर लंबे समय तक होने वाली बारिश में कमी आती है। वहीं कम समय में तेज बारिश होने की संभावना अधिक बढ़ जाती है। सह-लेखक और शोधकर्ता नीलदीप बर्मन बताते हैं कि उच्च एयरोसोल मात्रा की उपस्थिति वर्षा के बनने की प्रक्रिया को दबा देती है, जिससे कम तीव्रता वाली बारिश कम होती है। “लेकिन ब्लैक कार्बन की वजह से नमी का स्तर बढ़ा जाता है। बढ़ी हुई ब्लैक कार्बन ऊपरी वायुमंडल में अधिक नमी को स्थानांतरित करने में भी मदद करती है। यह बादल के पानी को ऊपरी वायुमंडल में ले जाता है, जहां यह बर्फ/ओलों में परिवर्तित हो जाता है। बर्फ/ओलों के पिघलने से भारी वर्षा होती है,” बर्मन ने कहा।
ब्लैक कार्बन के स्रोत
पूर्वोत्तर भारत में जब बारिश की बात होती है तो प्री-मानसून बारिश का एक विशेष स्थान है।
“यदि आप पूर्वोत्तर में वर्षा के मौसमी वितरण को देखते हैं, तो प्री-मानसून में हुई वर्षा की मात्रा मानसून वर्षा के बाद दूसरे स्थान पर है। यदि आप सांख्यिकीय रुझानों को देखते हैं, तो प्री-मानसून महीनों में वर्षा पूर्वोत्तर राज्यों में औसत वार्षिक वर्षा के बराबर होती है, ” आईआईटी-खड़गपुर के महासागरों, नदियों, वायुमंडल और भूमि विज्ञान केंद्र (कोरल) में जलवायु वैज्ञानिक जयनारायणन कुट्टीपुरथ कहते हैं। .
इन्हीं महीनों में पूर्वोत्तर भारत में एरोसोल लोडिंग (हवा में धूलकणों या ब्लैक कार्बन की मात्रा) सबसे अधिक होती है।
वह आगे कहते हैं, “पूर्वोत्तर भारत में, प्री-मानसून सीजन में एयरोसोल लोडिंग अपेक्षाकृत अधिक है। लंबी अवधि के रुझान बताते हैं कि जहां प्री-मानसून बारिश कम हो रही है, वहीं इस क्षेत्र में एरोसोल बढ़ रहा है। भारत के इस हिस्से में एयरोसोल और बारिश के बीच संबंध का पता करने के लिए रिसर्च के लिए आंकड़े मिलने की काफी संभावना है।”
कुट्टीपुरथ का कहना है कि फरवरी, मार्च और अप्रैल के प्री-मॉनसून महीनों में पूर्वोत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि अवशेष जलने, विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में खेती के तरीकों को जलाने से भी हवा में ब्लैक कार्बन का स्तर बढ़ताहै। पूर्वोत्तर भारत में प्री-मानसून महीनों में जलने वाला बायोमास और भारतीय गंगा के मैदानो (आईजीपी) में लगाई जाने वाली आग, दो प्रमुख कारण है।
नीलदीप बर्मन का कहना है कि उनके शोध से पता चलता है कि गंगा के मैदानों से ब्रह्मपुत्र बेसिन या पूर्वोत्तर भारत में आने वाले ब्लैक कार्बन का कुल अनुपात, ब्रह्मपुत्र बेसिन में उत्पन्न होने वाले से अधिक है। असम को केंद्र में रखते हुए आईआईटी गुवाहाटी की प्रयोगशाला में राजर्षि शर्मा शोध कर रहे हैं। 2018-2019 के दौरान राज्य में ब्लैक कार्बन उत्सर्जन सूची बनाकर, शर्मा ब्लैक कार्बन को फैलाने वाले क्षेत्रों का विश्लेषण कर रहे हैं।
यहां प्रमुख प्रदूषण फैलाने वाले क्षेत्र परिवहन, उद्योग, आवासीय ईंधन (बायोमास और मिट्टी के तेल सहित), गैर-परिवहन क्षेत्रों में खुले में लगाई जाने वाली आग और डीजल की खपत शामिल है।
“जब जीवाश्म ईंधन और बायोमास स्रोतों में विभाजित किया गया, तो हमने देखा कि जीवाश्म ईंधन ने कुल उत्सर्जन का लगभग 60% योगदान दिया, जबकि बायोमास जलने का योगदान 40% था। उम्मीद के मुताबिक शहरी क्षेत्रों (जैसे कामरूप मेट्रोपॉलिटन जिला) में वाहन ब्लैक कार्बन के प्राथमिक स्रोत हैं। लेकिन आवासीय ईंधन की खपत (प्रकाश के लिए बायोमास जलाने और मिट्टी के तेल के लैंप के रूप में) उपनगरीय और ग्रामीण क्षेत्रों में ब्लैक कार्बन का प्राथमिक स्रोत निकला। इससे ग्रामीण इलाकों में खपत हो रही ऊर्जा के स्वरूप का पता चलता है।
“शहरी क्षेत्रों में परिवहन का विद्युतीकृत करने, कोयले के बजाए नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल, वाहनों को नवीनतम ऑटो उत्सर्जन मानदंडों (बीएस-VI) में अपग्रेड करने और स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन का इस्तेमाल करने की नीतियां पहले से ही लागू हैं। हमें उन पर सख्ती से अमल करने और जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है,” गोखले कहते हैं।
पल्लव पुरोहित, जो इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम्स एनालिसिस (IIASA), ऑस्ट्रिया में ऊर्जा नीति और प्रदूषण प्रबंधन अनुसंधान पर काम करते हैं, कहते हैं कि बाद में नई नीतियों को लागू करना और राज्यों और पड़ोसी देशों (यानी, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और पाकिस्तान) के बीच क्षेत्रीय सहयोग के माध्यम से उन्हें शामिल कर अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
स्थानीय और सीमाओं के पार वायु प्रदूषण दोनों समस्याओं में सबसे अधिक योगदान देने वाले प्रदूषक हैं, सल्फर डाई ऑक्साइड (SO2), नाइट्रस ऑक्साइड (NOx), अमोनिया (NH3), वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOCs), और महीन कण पदार्थ (PM2.5)। इनके उत्सर्जन का स्रोत वही है जिससे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करना और वायु गुणवत्ता सुधार के प्रयासों में स्पष्ट तौर पर समानता है। इसके बावजूद भारत की वायु गुणवत्ता और मौसम पूर्वानुमान और अनुसंधान प्रणाली (सफर) के संस्थापक परियोजना निदेशक गुफरान बेघ का कहना है कि देश में जलवायु वैज्ञानिकों और वायु गुणवत्ता अनुसंधान समुदाय के बीच तालमेल की कमी है। “ब्लैक कार्बन के मुद्दों पर काम करते हुए हमारे पास एक तीर से दो शिकार करने का अनूठा अवसर है,” बेग ने मोंगाबे-इंडिया को बताया।
असम स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एसएपीसीसी) और अन्य जलवायु परिवर्तन से संबंधित गतिविधियों के कार्यान्वयन का समन्वय करने वाली सरकारी संस्था असम क्लाइमेट चेंज मैनेजमेंट सोसाइटी (एसीसीएमएस) ने संशोधित एसएपीसीसी (2021-2030) का मसौदा तैयार किया है। मसौदे में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को झेल सकने और इसके प्रभावों को कम करने पर ध्यान दिया गया है। एसीसीएमएस ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि हानिकारक उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए शहरी परिवहन और कम प्रदूषण से ईंट उत्पादन की तकनीक और इलेक्ट्रिक वाहनों की शुरुआत की जा रही है।
तेजपुर विश्वविद्यालय के हक का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और स्वच्छ हवा के लिए नीतियां स्थानीय वास्तविकताओं, प्रथाओं और जेंडर को ध्यान में रखकर बननी चाहिए।
“चूंकि बायोमास जलने का पूर्वोत्तर भारत में क्षेत्रीय वायु गुणवत्ता और वर्षा की विशेषताओं पर काफी प्रभाव पड़ता है। पहले उन घरों को एलपीजी की आपूर्ति करना समझ में आता है जिनके पास भूमि नहीं है। भूमि के अभाव में वे बायोमास का उत्पादन नहीं कर सकते हैं और इसके बजाय स्वच्छ ईंधन (एलपीजी) पर निर्भर हैं। भूमि वाले किसान परिवारों के लिए, एक तरीका स्वच्छ चूल्हे उपलब्ध कराना जरूरी है, जो मौजूदा चूल्हों की तुलना में बायोमास को अधिक कुशलता से और सफाई से जलाते हैं,” हक ने तेजपुर के संदर्भ में कहा।
“हाल के वर्षों में, हमारे घर में महिलाओं की युवा पीढ़ी शिक्षा की वजह से बायोमास जलने के स्वास्थ्य प्रभावों के बारे में जागरूक हैं। इसलिए वे लकड़ी के जलने वाले स्टोव की तुलना में एलपीजी पसंद करते हैं। वे रसोई के चूल्हे को जलाने के लिए बायोमास एकत्र करने के लिए श्रम करने के लिए भी उत्सुक नहीं हैं। एलपीजी का उपयोग करने से उन्हें अन्य कार्यों को करने के लिए समय की बचत होती है,” शाहजहां ने समझाया।
बैनर तस्वीर– दिल्ली में प्रदूषण, भारत-गंगा के मैदान (IGP) का हिस्सा। तस्वीर– तारकेश्वर रावत/विकिमीडिया कॉमन्स