- केंद्र सरकार के कैबिनेट ने हाल ही में देश की नई राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) को मंजूरी दी। इसके तहत जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए भारत के नए स्वैच्छिक लक्ष्यों की घोषणा की गई।
- पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले सभी 193 देशों को समय-समय पर विश्व समुदाय को यह बताना होता है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर वे क्या कदम उठा रहे हैं और क्या लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। यह जानकारी लिखित रूप से एनडीसी के तौर पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) को देनी होती हैं।
- भारत सरकार ने अपने नए एनडीसी में 2050 तक देश के कुल ऊर्जा के 50 प्रतिशत जरूरतों को गैर-जीवाश्म ईंधन से पूरा करने का लक्ष्य रखा है। वहीं 2070 तक देश को उत्सर्जन मुक्त बनाने का भी लक्ष्य रखा गया है।
- विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के एनडीसी के माध्यम से की गई प्रतिबद्धता स्वागतयोग्य है लेकिन जलवायु परिवर्तन को रोकने में लगने वाले वित्त, कमजोर नीति और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सहायता की कमी के कारण नवीन ऊर्जा का विकास देश में बाधित हो सकता है।
केंद्र सरकार की कैबिनेट ने हाल ही में अपनी राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) को मंजूरी दी। एनडीसी में लिखे भारत के नए लक्ष्यों और प्रतिबद्धताओं को अब संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) को सौंप दिया जाएगा। पेरिस समझौते के अनुसार इसपर हस्ताक्षर करने वाले भारत समेत सभी 193 देशों को एनडीसी की घोषणा करनी होती है। इसमें इन सभी देशों को बताना होता है कि ग्रीन हाउस गैस को कम करने के लिए क्या लक्ष्य तय हुआ है। यह जानकारी यूएनएफसीसीसी को बताना होता है।
एनडीसी से तात्पर्य नैशनली डिटरमाइंड कान्ट्रब्यूशन है यानि जलवायु परिवर्तन से निपटने में एक देश का स्वैच्छिक निर्धारित योगदान। हाल ही में सरकार द्वारा मंजूर किए गए इस एनडीसी से, भारत के जलवायु परिवर्तन को रोकने के एक्शन प्लान की झलक भी मिलती है। इसे 2021-2030 के बीच लागू किया जाएगा। अपने नए एनडीसी में भारत ने घोषणा की है कि 2030 तक देश के कुल स्थापित ऊर्जा क्षमता का 50 प्रतिशत गैर-जीवाश्म ईंधन-आधारित होगा। इसमें हाइड्रो या कहें पनबिजली भी शामिल है। हालांकि भारत ने 2021 में हुई ग्लासगो के कॉप 26 सम्मेलन में घोषणा की थी कि 2030 तक गैर-जीवाश्म स्रोतों से 500 गीगावाट के ऊर्जा उत्पादन की क्षमता विकसित की जाएगी। लेकिन इस बात का जिक्र नए एनडीसी दस्तावेज़ में नहीं किया गया है। इसी तरह कॉप 26 में उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य की घोषणा की गयी थी जिसका जिक्र नए एनडीसी में नहीं किया गया है। हालांकि भारत के नए और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री आर.के. सिंह ने कहा है कि भारत सरकार गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से 500 गीगावाट ऊर्जा प्राप्त करने की अपनी पहले की घोषणा से पीछे नहीं हट रही है।
नए एनडीसी में 2030 तक अपनी उत्सर्जन तीव्रता (अपने सकल घरेलू उत्पाद की प्रति इकाई उत्सर्जन) को 45 प्रतिशत तक कम करने की बात भी कही गयी है। वहीं 2070 तक भारत को उत्सर्जन मुक्त बनाने की बात भी दोहराई गयी है।
वर्तमान में देश में कुल बिजली पैदा करने की स्थापित क्षमता 404 गीगावाट है। केन्द्रीय बिजली प्राधिकरण (सीईए) के आंकड़े बताते हैं कि अधिकांश बिजली (50 प्रतिशत) कोयले से पैदा होती है जबकि ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोत 28 प्रतिशत और हाइड्रो ऊर्जा की कुल स्थापित क्षमता 12 प्रतिशत है।
अपने नए एनडीसी में सरकार ने कहा है कि यह नीति, देश में नवीन ऊर्जा के क्षेत्र में नए रोजगार के अवसरों को बढ़ावा दे सकती है जबकि देश में निर्माण और निर्यात को भी बल मिल सकता है। भारत सरकार का कहना है कि ऐसे कदम से देश में कम उत्सर्जन वालें विकल्प जैसे इलेक्ट्रिक वाहन, नए रचनात्मक तकनीक और ग्रीन हाइड्रोजन को भी बल मिलेगा।
अपनी घोषणा में सरकार ने यह भी कहा कि देश के लक्ष्य को हासिल करने में रेलवे से काफी मदद मिलेगी। पहले के निर्धारित लक्ष्य के अनुसार रेलवे को 2030 तक उत्सर्जन मुक्त बनाने की योजना चल रही है। इससे छः करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा।
एनडीसी में भारत सरकार ने जोर डाला है कि विकसित देश, भारत जैसे विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए वित्तीय सहायता और आधुनिक तकनीक हासिल करने में मदद करें। बीते दशक में विकासशील देशों और पिछड़े देशों को जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए आर्थिक मदद की जरूरत की बात उठती रही है। विकसित देशों ने पेरिस समझौते और अन्य अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों में वित्तीय सहायता देने की घोषणा भी की है।
नवीन ऊर्जा क्षेत्र में निवेश की चुनौती
इस क्षेत्र में काम कर कर रहे विशेषज्ञों का मानना हैं कि भारत द्वारा विश्व के सामने एनडीसी के द्वारा की गई घोषणाएं न्यायसंगत हैं। लेकिन भविष्य का रास्ता चुनौतियों से भरा है। विशेषज्ञों ने नवीन ऊर्जा से जुड़े बहुत सी चुनौतियों की चर्चा की जो भारत में कार्बन उत्सर्जन की कमी और नवीन ऊर्जा के विकास में रोड़ा सिद्ध हो रही हैं।
भरत जयराज वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई) इंडिया में निदेशक (ऊर्जा) का काम करते हैं और ऊर्जा से जुड़े मामलों के जानकार हैं। उन्होने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि भारत के नए एनडीसी के माध्यम से देश में उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए भारत की प्रतिबद्धता को लेकर स्थिति अब स्पष्ट हो रही है।
“2021 में ग्लासगो के कॉप 26 सम्मेलन में भारत ने यह बात कही थी कि 2030 तक भारत के कुल ऊर्जा क्षमता का 50 प्रतिशत भाग गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा के माध्यम से आएगा। लेकिन उस समय यह स्पष्ट नहीं था कि यह कुल स्थापित क्षमता के बारे में था या कुल उत्पादन के बारे में। अब एनडीसी में यह स्पष्ट किया गया है कि अब भारत 2030 तक देश में कुल स्थापित ऊर्जा में से 50 प्रतिशत ऊर्जा गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा के माध्यम से पैदा करने की कोशिश करेगा,” जयराज ने बताया।
जयराज यह भी बताते हैं कि पिछले कुछ दशकों में भारत में नवीन ऊर्जा का अच्छा विकास हुआ है। वो कहते हैं कि 2009 में भारत ने 2020 तक 20 गीगावाट सौर ऊर्जा के विकास का लक्ष्य रखा था। उसे पूरा करने के बाद 2015 में सरकार ने 2022 तक नवीन ऊर्जा की क्षमता को बढ़ा के 175 गीगावाट तक करने का लक्ष्य भी रखा।
“भारत ने कोरोना महामारी और विकास की चुनौतियों के बावजूद नवीन ऊर्जा के क्षेत्र में अच्छी-खासी क्षमता हासिल की। अब जब सरकार से नई एनडीसी को मंजूरी मिली है तो हमारें पास लक्ष्य और उसके ओर बढ़ने के रास्ते साफ हैं। चूंकि जलवायु परिवर्तन पूरे विश्व की समस्या है और सबको साथ में लड़ने की जरूरत है। इसलिए इस लड़ाई में विकसित देशों को आगे आना होगा और विकासशील देशों की मदद करनी होगी। इसका वादा विकसित देश पहले कर चुके हैं,” जयराज ने कहा।
हालांकि यह अब तक वादा ही रहा है। विकसित देशों से कमजोर देशों को अब तक कोई वित्तीय मदद नहीं मिली है। विकसित देशों ने 2009 में कोपेनहैगेन में आयोजित कॉप 15 में वादा किया था कि 2020 तक वे विकासशील देशों के लिए 10 अरब डॉलर प्रति वर्ष देंगे। इसकी शुरुआत 2020 से होनी थी। इस समयसीमा के तीन साल गुजर गए पर अब तक ऐसा नहीं हो पाया है। भारत सरकार ने अपने नए एनडीसी में इस मांग को पुनः दोहराया है।
शांतनु श्रीवास्तव इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईईएफए) में ऊर्जा फाइनेंस के विश्लेषक हैं। उन्होनें मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि नए एनडीसी से आने वाले दिनों में भारत में स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश करने के इच्छुक निजी निवेशकों का विश्वास बढ़ेगा।
“कोई भी विदेशी निवेशक अगर भारत में नवीन ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश करना चाहता है तो वो यह बात जरूर देखेगा कि क्या देश में उस क्षेत्र को लेकर कोई लंबी योजना या नीति है या नहीं। नए एनडीसी एक ऐसी ही नीति है जिससे निवेशकों का भरोसा बढ़ेगा। नवीन ऊर्जा के क्षेत्र में विदेशी निवेश के दृष्टिकोण से यह अच्छा संकेत है,” श्रीवास्तव ने कहा।
विकसित देशों से जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए दिये जाने वाले आर्थिक सहायता की कमी के प्रश्न पर श्रीवास्तव ने कहा कि यह सहायता सामान्यतः कोई खास नहीं होती और इसे पाने में बहुत सी जटिलताएं पेश आती हैं। बातचीत में श्रीवास्तव पर्यावरण, सामाजिक और गवर्नेंस (ईएसजी) फ़ाइनेंस की वकालत करते हैं। इसके अंतर्गत ग्रीन बॉन्ड और दूसरी सेवाएं ली जा सकती हैं। उन्होनें पिछले कुछ सालों में एनटीपीसी, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, अदानी ग्रीन्स एवं दूसरे कुछ कंपनियों द्वारा इस विकल्प से लाभ लेने के उदाहरण भी दिये।
आईईईएफ़ए के जून 2022 के एक रिपोर्ट में भी भारत के नवीन ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश की कमी की बात की गयी है। यह रिपोर्ट कहती है कि 2021-22 में भारत में इस क्षेत्र में निवेश 125 प्रतिशत बढ़ा है लेकिन इसे और रफ्तार देने की जरूरत हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि अगर भारत को 2030 के लक्ष्यों को पाना है तो प्रति वर्ष भारत को 30 अरब डॉलर से 40 अरब डॉलर की जरूरत होगी। इसकी तुलना में पिछले साल यह निवेश केवल 14.5 अरब डॉलर ही रहा।
कोयले पर निर्भरता और अन्य चुनौतियां
कुछ और विशेषज्ञों का कहना हैं कि भारत सरकार के नवीन ऊर्जा के विकास में लिए गए कदम समुचित नहीं रहे हैं और बहुत से गलत नीतियों के कारण जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे पर कठोर कदम नहीं उठाए जा सके।
रंजन पांडा, ओडिशा के सम्बलपुर शहर में रहने वाले एक पर्यावरणविद है जो जलवायु परिवर्तन और अंतर्राष्ट्रीय जलयावु सम्मेलनों पर होने वाले मुद्दों पर नजर रखते हैं। उन्होने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि सरकार का नवीन ऊर्जा जैसे सोलर ऊर्जा के विकास को लेकर रहने वाली नीति ज़्यादातर बड़े शहरों और बड़े निवेशकों तक सीमित रही है।
“अगर हम चाहते हैं आने वाले दिनों में जीवाश्म ईंधन का प्रयोग कम हो तो दूर-दराज के क्षेत्र में हमें इसकी मांग और आपूर्ति पर ध्यान देना होगा। अगर सोलर जैसे विकल्प सस्ते और आराम से स्थानीय जगहों जैसे छोटे शहरों में मिलने लगे तभी लोग प्रदूषण करने वाले ईंधन से छुटकारा पा सकेंगे। आप सोलर रूफ़टॉप का ही उदाहरण लीजिये। यह ज्यादार बड़े शहरों में बड़े तबके के लोगों तक सीमित है क्योंकि यह न तो सस्ती है न ही आसानी से उपलब्ध। अतः हमें ऐसी नीति की जरूरत है जो हर तबके के ग्राहकों को नवीन ऊर्जा की ओर मोड़ने में मदद करे,” पांडा ने बताया।
केन्द्रीय बिजली प्राधिकरण (सीईए) के आंकड़ें कहते हैं कि देश में आज कुल ऊर्जा उत्पादन में से 50 प्रतिशत ऊर्जा केवल कोयले के जलने से आता है। सीईए के आंकलन की माने तो 2029-30 तक कोयले पर निर्भरता 33 प्रतिशत तक होने की संभावना हैं जबकि गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा 64 प्रतिशत तक हो सकती है। हालांकि पांडा कहते हैं कि देश में कोयला खदानों को बंद करने के लिए जिस गति से कम करना चाहिए था वो नहीं हुआ है और अगर ऐसा ही चलता रहे तो भारत अपने एनडीसी में बताए गए लक्ष्यों को नहीं पूरा कर पाएगा।
वही छत्तीसगढ़ में रह रहे कोयला मामलों के जानकार और अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि एनडीसी में जो भी लक्ष्य रखा गया है वह बहुत ही कम है।
“भारत ने अपने नए एनडीसी प्लान के तहत 2030 तक कुल ऊर्जा की स्थापित क्षमता में से 50 प्रतिशत क्षमता की पूर्ति गैर-जीवाश्म ईंधन से करने की ठानी है। जबकि भारत सरकार के उपक्रम सीईए का आंकलन खुद कहता है की 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन से 64 प्रतिशत ऊर्जा का उत्पादन होना संभव है। यानि सरकार ने जो एनडीसी मे माध्यम से लक्ष्य रखा है वो बहुत ही कमजोर है और बिल्कुल भी महत्वाकांक्षी नहीं हैं। ऐसी स्थिति में देश में कोयले की खपत बढ़ेगी जिसे अधिक मांग के नाम पर न्यायसंगत बताने की कोशिश की जा सकती हैं,” श्रीवास्तव ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
बैनर तस्वीर-दिल्ली के मयूर विहार इलाके में चल रहा एक इलेक्ट्रिक बस। तस्वीर-मनीष कुमार
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