- छत्तीसगढ़ में बंदरों के उत्पात ने नया रूप ले लिया है। बंदरों के डर से लोग दलहन और तिलहन की फसलों से दूरी बनाने लगे हैं। नुकसान के डर से लोग सब्जियां उगाना भी कम कर रहे हैं। राज्य के कई गांव में लोगों को चौकीदार तक रखना पड़ रहा है।
- बीते कुछ सालों में छत्तीसगढ़ में दलहन और तिलहन की फसल का रकबा कम हुआ है। कई फसलों के रकबे में 30 से 35 फीसदी तक कमी आई है।
- बंदरों के संख्या के रोकथाम को लेकर राज्य स्तर पर सरकार की कोशिशें अब तक नाकाम रही हैं।
छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाको के किसान, बंदरों से परेशान हैं। बंदरों का झुंड खेत में तैयार फसलों को चट कर जा रहा है। बंदरों से होने वाले नुकसान के कारण कई इलाकों में छोटे किसानों ने दलहन-तिलहन की फसल लगानी बंद कर दी है। चना, मूंगफली, तिल, तिवरा और अरहर की खेती बुरी तरह से प्रभावित हुई है। राज्य सरकार के आंकड़े भी बताते हैं कि इन फसलों का रकबा पिछले कुछ सालों में तेज़ी से घटा है। कई इलाकों में बंदर हमलावर हो रहे हैं और लोगों को भी निशाना बना रहे हैं।
इन बंदरों से बचने के लिए कहीं चौकीदार रखे जा रहे हैं तो कहीं शिकारियों को बुलाया जा रहा है। पिछले कुछ सालों में बंदरों को मार डालने के भी मामले सामने आए हैं। लेकिन पूरे राज्य में फैले मकाक और लंगूर प्रजाति के बंदरों से छुटकारा मिलता नज़र नहीं आ रहा है।
बालोद ज़िले के दुर्गी टोला के लोगों ने पिछले कुछ सालों में गांव में बड़ी संख्या में फलदार पेड़ों को कटवा दिया। आम, इमली, अमरुद, जामुन जैसे बरसों पुराने इन पेड़ों को काटे जाने को लेकर गांव के नौजवान लोकेश कुमार कहते हैं, “इन पेड़ों के कारण बंदरों ने गांव के लोगों का जीना हराम कर रखा था। जिनके खेत या घर के पीछे आम या इमली के पेड़ थे, उन्हें तो एक फल नसीब नहीं होता था। सारा कुछ बंदर ही खा जाते थे। ऐसे में लोगों ने पेड़ों को काटना ही उचित समझा।”
गांव के बुजुर्ग संतराम ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “गांव में धान के अलावा दलहन और तिलहन की फसल भी हम लोग बरसों से लेते रहे हैं। लेकिन बंदरों के कारण पिछले चार-पांच सालों से गांव में तिलहन-दलहन की फसल लेना बंद हो गया है।”
हालांकि पड़ोसी ज़िले राजनांदगांव के सिवनी कला गांव की भी हालत ऐसी ही है। लेकिन गांव के लोगों ने बंदरों से निपटने के लिए अब गांव में एक चौकीदार नियुक्त किया है। गांव के 51 साल के संतोष कुमार कहते हैं, “गांव में सोयाबीन की खेती के कारण लंगूरों का आना-जाना बढ़ गया तो हमारे सामने बड़ी मुश्किल पैदा हो गई। फिर गांव के लोगों ने मिल कर एक चौकीदार नियुक्त किया। हर घर से अनाज के अलावा, महीने के 30 रुपये इस चौकीदार को दिए जाते हैं।”
लेकिन चौकीदार रखने के बाद भी लंगूरों का आना-जाना कम भर हुआ है, ख़त्म नहीं हुआ है। गांव की सरपंच गोमती मरकाम के पति सालिकराम का कहना है कि चौकीदार की नियुक्ति के बाद भी लगभग 4.6 एकड़ की उनकी खेती में, हर साल बंदरों के कारण चार से पांच हज़ार रुपये की फसलों का नुकसान अब भी उठाना पड़ता है। साल दर साल यह नुकसान बढ़ता जा रहा है।
मुश्किल में है बाड़ी
बालोद या राजनांदगांव ज़िले के ये गांव अपवाद नहीं हैं। अलग-अलग इलाकों में किसानों से चर्चा करने पर पता चलता है कि राज्य के 28 में से 18 ज़िलों में, लोग बंदरों के कारण किसान परेशान हैं।
पिछले कुछ सालों में बंदरों की समस्या तेज़ी से बढ़ी है। खेत की फसलों को तो ये बंदर चट कर ही रहे हैं, घरों के पीछे लगी बाड़ी की सब्जियों को इन बंदरों से बचाना मुश्किल हो रहा है। छोटे किसानों को भी हर दिन की सब्जी के लिए बाज़ार का रुख करना पड़ रहा है। बड़े और व्यावसायिक फॉर्म हाउस में उगने वाली सब्जियों की क़ीमत भी आसमान पर रहती हैं, इसलिए गांव के लघु और मध्यमवर्गीय किसानों का सारा बजट गड़बड़ा रहा है।
रायपुर में एक निजी अस्पताल के मुख्य चिकित्सक डॉक्टर सत्यजीत साहू ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “गांवों में पोषण की समस्या पिछले कुछ सालों में तेज़ी से बढ़ी है। खान-पान का संतुलन गड़बड़ाया है और छोटे किसान और उनका परिवार दाल और साग-भाजी से दूर हो गया है। इसके पीछे एक बड़ा कारण तो यही है कि छोटे और मंझोले किसानों ने सब्जी-भाजी और दाल उगाना ही लगभग बंद कर दिया है।”
धान का भंडार कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में धान की कटाई के तुरंत बाद उन खेतों में ‘उतेरा’ के तौर पर दाल के बीज छिड़क दिए जाते थे। स्वाभाविक नमी के कारण दाल की फसल उग जाती थी। लेकिन बंदरों के कारण पिछले दस सालों से ‘उतेरा’ की परंपरा ही ख़त्म होने को है।
धमतरी के किसान मुनेश्वर यादव कहते हैं, “उतेरा में जो दलहन होती थी, उसका हरा या सूखा चारा गाय-भैंस जैसे दुधारु पशुओं के लिए बहुत उपयोगी होता था। इसे खिलाने से दूध की मात्रा बढ़ जाती थी। लेकिन उतेरा ख़त्म हुआ तो ये चारा भी ख़त्म हो गया और गाय-भैंस का दूध की क्षमता भी बुरी तरह से प्रभावित हुई है।”
घट गया दलहन-तिलहन का रकबा
किसान नेता और इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय प्रबंध मण्डल के सदस्य आनंद मिश्रा का मानना है कि पिछले दस सालों में बंदरों की समस्या तेज़ी से बढ़ी है। इस मुद्दे पर पिछली सरकार में भी कई बार किसानों ने बड़े सम्मेलन करके इन मुद्दों को उठाया लेकिन इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो सकी।
उनका कहना है कि जिन किसानों के पास फेंसिंग या चहारदीवारी है या जिन गांवों में चौकीदार या शिकारी की व्यवस्था है, वहां ही किसान दलहन-तिलहन की फसल ले पा रहे हैं।
आनंद मिश्रा ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “इस समस्या की गंभीरता का अहसास किसी को नहीं है। केवल किसान ही समझ सकता है कि बंदरों के कारण उसकी खेती कितनी बुरी तरह से प्रभावित हुई है। बंदर दिन के अलावा रात को भी खेतों पर हमला बोल रहे हैं। वन्यजीवों से फसलों के नुकसान के मामले में मुआवजे का प्रावधान है। हकीकत ये है कि राज्य में बंदरों के कारण सर्वाधिक फसलों का नुकसान हो रहा है लेकिन बंदरों से होने वाले नुकसान के मुआवजे का कोई प्रावधान ही नहीं है। हालत ये है कि बंदरों के कारण छोटे और मंझौले किसान, दलहन-तिलहन जैसी फसलें लेना कम या बंद कर चुका है।”
राज्य सरकार के आंकड़े भी बताते हैं कि साल दर साल दलहन-तिलहन जैसी फ़सलों का रकबा राज्य में कम होता चला गया है। हालांकि कृषि के जानकार मानते हैं कि दलहन-तिलहन और दूसरी फसलों का रकबा कम होने के पीछे एक कारण यह भी है कि राज्य में धान का समर्थन मूल्य 2500 रुपये होने के बाद लोगों ने धान की फसल लगाने पर अधिक ध्यान दिया है। लेकिन सभी यह स्वीकार करते हैं कि छोटे और मंझौले किसानों के दलहन-तिलहन नहीं उगाने के पीछे बंदरों की सबसे बड़ी भूमिका है।
कृषि विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध 2019 तक के आंकड़े बताते हैं कि 2015 से 2019 के बीच राज्य में मूंग दाल का रकबा 64.34 फीसदी तक कम हो गया है। इसी तरह इन पांच सालों में अरहर का रकबा 65.11 हज़ार हेक्टेयर से घट कर 35.81 हज़ार हेक्टेयर रह गया है। यानी इन पांच सालों में किसानों ने 45 फीसदी हिस्से में अरहर लगाना बंद कर दिया है। राज्य में 2015 में 120.13 हज़ार हेक्टेयर में सब्जी लगाई गई थी। 2016 में सब्जी का रकबा बढ़ कर 143.38 हज़ार हेक्टेयर हो गया लेकिन 2019 में यह 95.39 हज़ार हेक्टेयर में सिमट कर रह गया। दूसरी फसलों का भी यही हाल है।
बंदरों द्वारा खेती के नुकसान के साथ-साथ बच्चों और महिलाओं पर भी हमले की घटनाएं भी सामने आने लगी हैं। बंदरों के कारण खपरैल घरों में रहने वालों की मुश्किलें पिछले कुछ सालों में तेज़ी से बढ़ी हैं। खपरैल घरों पर बंदरों के इधर से उधर भागने-दौड़ने के कारण तो नुकसान होता ही है, भोजन की तलाश में बंदर खपरे हटा कर छत के रास्ते से घर में घूसने की कोशिश भी करते हैं। यही कारण है कि जिन खपरैल छतों की मरम्मत साल-दो साल में होती थी, अब साल में दो बार उनकी मरम्मत करनी होती है।
बालोद ज़िले के अर्जुनी गांव की कुसुम मौर्य बताती हैं कि बंदरों से परेशान हो कर इस साल परिचितों और रिश्तेदारों से पैसे उधार ले कर उन्हें पक्का घर बनवाना पड़ा। गांव की अगेश्वरी नायक ने भी कर्ज ले कर पिछले साल आधा घर पक्का करवाया है। कबीरधाम ज़िले के कर्रा गांव के रहने वाले बुजुर्ग बोधन रजक कहते हैं, “जंगल कटे तो बंदर गांव-कस्बे की तरफ़ आने लगे। पिछले दस सालों में इनका आना तेज़ी से बढ़ा है और एक झुंड में कम से कम 20 से 30 बंदर होते हैं। इन बंदरों के कारण एक कमरा का पक्का घर बनवाना पड़ा।”
रोकथाम की कोशिश नाकाम
इन बंदरों से बचाव के लिए समय-समय पर कुछ उपाय भी किए गए लेकिन ऐसे उपाय नाकाफी साबित हुए हैं। रायगढ़ ज़िले में तो एक सर्वसुविधायुक्त बंदर नसबंदी केंद्र भी स्थापित किया गया। प्रशिक्षण के लिए पशु चिकित्सकों को हिमाचल प्रदेश भेजा गया। नसबंदी का काम भी शुरु किया गया लेकिन इन बंदरों को पकड़ना सबसे मुश्किल काम था, जिसके लिए कभी कोई कार्ययोजना ही नहीं बनी। मादा बंदरों की नसबंदी की कोई व्यवस्था नहीं थी। नसबंदी के दौरान उपलब्ध दवाओं की भी कमी थी। ऐसे में बीस से भी कम बंदरों की नसबंदी के बाद, लाखों रुपये खर्च कर शुरु की गई बंदरों की नसबंदी की योजना कुछ सालों के भीतर ही दफ़्न हो कर रह गई।
छत्तीसगढ़ में बंदरों के कारण कृषि और जनजीवन में आए बदलाव पर विस्तृत शोध कर चुकीं वन्य जीव विशेषज्ञ मीतू गुप्ता का कहना है कि जंगल के भीतर पिछले कुछ सालों में फलदार पेड़ों की संख्या कम हुई है। जंगल भी कटे हैं और उनमें कई तरह की खनन परियोजनाएं शुरु हुई हैं। यही कारण है कि बंदर समेत अन्य वन्यजीव अब मानव आबादी वाले इलाके में प्रवेश कर रहे हैं।
राज्य सरकार की वन्यजीव बोर्ड की सदस्य मीतू गुप्ता ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “बंदरों से बचाव के लिए चौतरफा प्रयास करने होंगे। उनके हज़ारों साल के घरों को छेड़ने की आदत बंद करनी होगी। एक ही तरह के पौधों का रोपण, भोजन-पानी की कमी जैसे मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा। जंगल के भीतर फलदार पौधे लगाने होंगे, सीड बॉल डालने होंगे। नसबंदी के लिए ठोस कार्ययोजना बनाना होगा। साथ ही साथ फसल चक्र परिवर्तन को भी प्रोत्साहित करना होगा। ”
हालांकि राज्य के कृषि मंत्री रवींद्र चौबे का कहना है कि इसके लिए राज्य स्तर पर योजना बनाना नाकाफी होगा। वे मानते हैं कि बंदरों के कारण राज्य में बारहों महीने छप्पर पर उगने वाली तुरई, कुम्हड़ा, लौकी, जैसी सब्जियां अब लोगों ने लगाना बंद कर दिया है।
रवींद्र चौबे ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “बंदरों का असर खेती पर पड़ा तो है लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं कि किसानों ने तिलहन-दलहन लगाना कम कर दिया है। उसके पीछे दूसरे कारण भी हैं। जहां तक बंदरों का सवाल है तो इसके लिए राज्य अगर कोई कार्ययोजना बनाए तो भी उसके बेहतर परिणाम मिलेंगे, इसमें मुझे संशय है। यह कोई छत्तीसगढ़ भर की समस्या तो है नहीं। इसके लिए तो राष्ट्रीय स्तर पर कार्ययोजना बनानी होगी।”
कार्ययोजना बनाने का जिम्मा केंद्र सरकार के पाले में डालने पर बहस की पूरी गुंजाइश है लेकिन इतना तो तय है कि जब तक सरकारें इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठातीं, तब तक तो ग्रामीण आबादी को इन बंदरों की समस्या से हर दिन जूझना ही होगा।
बैनर तस्वीरः पिछले कुछ सालों में बंदरों की समस्या तेज़ी से बढ़ी है। खेत की फसलों को तो ये बंदर चट कर ही रहे हैं, घरों के पीछे लगी बाड़ी की सब्जियों को इन बंदरों से बचाना मुश्किल हो रहा है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल