- दुनिया भर में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, भारत के नौ राज्य जलवायु जोखिम के लिहाज से 50 सबसे कमजोर क्षेत्रों में से हैं। इस अध्ययन में विश्व के 2,600 क्षेत्रों के बिल्ट-अप एरिया को उनके जलवायु जोखिम के हिसाब से रैंक किया गया है।
- चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत के 50 से अधिक प्रांत दुनिया के 100 शीर्ष जलवायु संवेदनशील क्षेत्रों में शामिल हैं।
- अध्ययन में फिजिकल जलवायु जोखिमों का मूल्य तय करना, सरकार द्वारा जोखिमों को समझने और जलवायु अनुकूल बुनियादी ढांचे में अधिक निवेश के लिए रूपरेखा बनाने का प्रस्ताव है।
जलवायु परिवर्तन से बुनियादी ढांचे पर बढ़ रहे जोखिम के मामले में भारत सबसे ऊपर के देशों में शामिल है। हाल ही में आई वैश्विक भौतिक जलवायु जोखिम रिपोर्ट (ग्लोबल फिजिकल क्लाइमेट रिस्क रिपोर्ट) में ये बात कही गई है। इस रिपोर्ट को क्रॉस डिपेंडेंसी इनिशिएटिव (एक्सडीआई/XDI) ने तैयार किया है। यह संगठन भौतिक जलवायु जोखिम के विश्लेषण में माहिर हैं। इसने दुनिया भर में 2,600 क्षेत्रों का आकलन किया है और उन्हें साल 2050 में जलवायु जोखिमों के हिसाब से रैंक किया है। यह पाया गया कि 2050 में 50 सबसे अधिक जोखिम वाले राज्यों और प्रांतों में 80% चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका या भारत में हैं।
इस रिपोर्ट का नाम सकल घरेलू जलवायु जोखिम 2023 है। रिपोर्ट में वैश्विक स्तर पर 32 करोड़ संपत्तियों का विश्लेषण करके और जलवायु मॉडल, अनुमानों, उपग्रह की तस्वीरों और उपलब्ध सरकारी आंकड़ों का इस्तेमाल करके दुनिया भर के कई प्रांतों को रैंक किया गया है। रैंकिंग जलवायु परिवर्तन से जुड़े आठ खतरों के लिए इन क्षेत्रों की संवेदनशीलता पर आधारित है। इनमें नदी और सतह पर बाढ़, तटीय बाढ़, बहुत ज्यादा गर्मी, जंगल में आग, मिट्टी में बदलाव (सूखा से संबंधित), अत्यधिक हवा और गलाने वाली ठंड शामिल हैं।
रैंकिंग के आधार पर नौ भारतीय राज्य, दुनिया के शीर्ष 50 जोखिम वाले देशों और प्रांतों में शामिल हैं। इनमें बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, राजस्थान, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और केरल हैं।
इनमें बिहार भारत का सबसे संवेदनशील राज्य है। यह वैश्विक स्तर पर 22वें पायदान पर है। इसके बाद उत्तर प्रदेश (25), असम (28) और राजस्थान (32) हैं।
यह रैंकिंग प्रांतों के कुल क्षति अनुपात पर आधारित है। क्षति अनुपात उस संपत्ति को फिर से बनाने पर होने वाले खर्च के एक अंश के रूप में चरम मौसमी घटनाओं से क्षतिग्रस्त संपत्तियों से वार्षिक औसत हानि को संदर्भित करता है।
रिपोर्ट में कहा गया है, “इस मेट्रिक के लिए रैंकिग ऊपर वाले राज्यों, प्रांतों और क्षेत्रों को दिखाती है। इन जगहों पर कुल निर्मित (बिल्ट-अप) क्षेत्र के बड़े हिस्से को जलवायु परिवर्तन और चरम मौसमी घटनाओं से नुकसान सहना पड़ेगा। भले ही उस क्षेत्र की सीमा छोटी हो।”
रिपोर्ट में 1990 और 2050 के बीच प्रतिशत में नुकसान में बढ़ोतरी का भी विश्लेषण किया गया है। भारत में शीर्ष नौ सबसे संवेदनशील राज्यों में, असम ने अपने नुकसान में सबसे ज्यादा 331 प्रतिशत की वृद्धि देखी है। इसके बाद बिहार (141%), उत्तर प्रदेश (96%) और महाराष्ट्र (81%) का स्थान है।
एक्सडीआई भौतिक जलवायु जोखिम और एडेप्टेशन का विश्लेषण करने वाली संस्था है। यह संस्था कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बैंकों, निवेशकों और वित्तीय नियामकों के साथ काम करती है। उन्हें जलवायु जोखिम पर डेटा उपलब्ध कराती है। एक्सडीआई के कार्ल मैलन ने इस साल 20 फरवरी को रिपोर्ट के लॉन्च के दौरान कहा, “हमने डेटा के एक बड़े सेट के माध्यम से दुनिया भर में लगभग 32 करोड़ संपत्तियों का विश्लेषण किया। यह इस तरह के मॉडलिंग में इस्तेमाल होने वाले अन्य डेटासेट से लगभग 100 से 500 गुना बड़ा है। यह डेटा खास समय और खास क्षेत्र के बारे में बात करता है। उनके जलवायु जोखिम के बारे में बताता है। निवेशक और सरकारें इसका इस्तेमाल ऐसे क्षेत्रों में निवेश की योजना बनाते समय जलवायु जोखिम के बारे में बेहतर फैसला लेने के लिए कर सकती हैं।”
एक्सडीआई के सीईओ रोहन हैमडेन ने कहा कि उप-संप्रभु और क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु जोखिम के आंकड़ों के लिए निवेशकों की मांग को ध्यान में रखते हुए रिपोर्ट जारी की गई है। शोधकर्ताओं ने दावा किया कि स्थानीय प्रांतीय स्तर के डेटा के साथ दुनिया भर में निर्मित एरिया पर जलवायु जोखिम का यह अपनी तरह का पहला आकलन था।
एडेप्टेशन के लिए धन जुटाने की ज़रूरत
एक्सडीआई की प्रवक्ता जॉर्जीना वुड्स ने रिपोर्ट के लॉन्च के दौरान कहा, “देशों को अपने जोखिम को समझने और इससे जुड़ी उन ऐडप्टेशन योजनाओं पर तेजी से आगे बढ़ने की जरूरत है जो वित्त पोषित हैं और जलवायु परिवर्तन से पार पाने के लिए बनाए गए कानूनों से समर्थित हैं और निवेशकों को आकर्षित कर सकते हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि जोखिम के मामले में दुनिया के शीर्ष सौ में शामिल सभी भारतीय राज्यों में बाढ़ से क्षति का सबसे ज्यादा खतरा है।
यह पूछे जाने पर कि सरकारें रैंकिंग का उपयोग किस तरह करे, उन्होंने मोंगाबे-इंडिया से कहा, “हमारे मॉडलिंग के नतीजे वित्तीय बाजारों में जलवायु परिवर्तन के भौतिक जोखिम का मूल्य तय के महत्व को रेखांकित करते हैं। यानी वैश्विक एडेप्टेशन के लिए वित्त की व्यवस्था बढ़ाना और नुकसान रोकने के लिए सहयोग को बढ़ावा देना। दुनिया भर में एडेप्टेशन के लिए वित्तीय व्यवस्था में बहुत बड़ा अंतर है। जलवायु परिवर्तन जोखिम से बचाव को ध्यान में रखते हुए बुनियादी ढांचे में बहुत कम निवेश होता है। देशों और प्रांतीय सरकारों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल निवेश ढांचा बनाने और जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए भूमि के इस्तेमाल और शहरी योजना बनाने के लिए निवेशकों के साथ जुड़ने की ज़रूरत है।
एक्सडीआई टीम ने दावा किया कि निवेशकों के लिए, वैश्विक नतीजे दिखाते हैं कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचने की कोई सुरक्षित जगह नहीं है। वुड्स ने कहा, “इसका मतलब है कि निवेश से बचना विकल्प नहीं है और जलवायु परिवर्तन को बिगड़ने से रोकने के लिए एकमात्र रास्ता एडेप्टेशन, लचीलापन और इसे कम करने के लिए कदम उठाना है।”
वहीं अन्य अंतरराष्ट्रीय अध्ययन भी जलवायु अनुकूल बुनियादी ढांचे में कम निवेश की ओर इशारा करते हैं। क्लाइमेट पॉलिसी इनिशिएटिव (सीपीआई/CPI) की दिसंबर 2022 की रिपोर्ट में पाया गया कि जहां “जलवायु जोखिम के हिसाब से बनाए गए बुनियादी ढांचे” पर खर्च प्रति एक डॉलर के विपरीत उन बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर 87 डॉलर खर्च किए गए थे जो जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखकर नहीं बनाई गई थी। अध्ययन में मौत और आर्थिक नुकसान को कम करने के लिए जलवायु अनुकूल बुनियादी ढांचे में ज्यादा निवेश की वकालत की गई है। सीपीआई के ग्लोबल लैंडस्केप ऑफ क्लाइमेट फाइनेंस ने बताया कि दुनिया भर में 90 फीसदी से ज्यादा जलवायु वित्त को नवीन ऊर्जा, कम कार्बन पैदा करने वाले परिवहन के साधनों, कृषि और कचरा प्रबंधन जैसी गतिविधियों में लगाया गया है। दूसरी तरफ, एडेप्टेशन और जलवायु परिवर्तन के हिसाब से बुनियादी ढांचा खड़ा करने में निवेश काफी कम है।
सीपीआई की राजश्री पद्मनाभि ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि अधिकांश एडेप्टेशन वित्त को बहुपक्षीय और राष्ट्रीय विकास वित्त संस्थानों जैसे सार्वजनिक संस्थानों के माध्यम से निवेश किया गया था। इसलिए निजी संस्थानों को और ज्यादा निवेश करने की जरूरत है।
उन्होंने कहा, “निश्चित रूप से मिटिगेशन, एडेप्टेशन और लचीलापन की बात आने पर वैश्विक निवेश में असंतुलन है। लचीलापन और एडेप्टेशन की दिशा में ज्यादा राशि की जरूरत है। पेरिस समझौते के अनुच्छेद 2.1(सी) में यह भी कहा गया है कि सभी वित्तीय निवेश को कम कार्बन उत्सर्जन और जलवायु अनुकूल विकास से जोड़ा जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में, हम जो निवेश कर रहे हैं उसमें जलवायु-लचीलापन शामिल होना चाहिए। हम हर साल बुनियादी ढांचे के निवेश में खरबों डॉलर खर्च करते हैं। जलवायु आधारित बुनियादी ढांचे में तुरंत निवेश से मौत रोकी जा सकेंगी। जलवायु परिवर्तन से आने वाली मुश्किलों को कम किया जा सकेगा और आने वाले दशकों में आर्थिक नुकसान से बचा जा सकेगा।”
हालांकि एक्सडीआई की जॉर्जीना वुड्स ने कहा कि जहां तक भारत का संबंध है, तो भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने जलवायु जोखिम के खुलासे की दिशा में कदम उठाना शुरू कर दिया है। उन्होंने कहा, “सरकार एक बिंदु से आगे जलवायु परिवर्तन के जोखिमों को सहन नहीं कर सकती है। सरकार इन सभी लागतों को पूरा करने में सक्षम नहीं हो सकती है। बड़ी संख्या में निवेशक हैं जो जलवायु अनुकूल परियोजनाओं में निवेश करना चाहते हैं। उन्हें उसी के लिए एक ढांचे की जरूरत है। हमें निजी क्षेत्र द्वारा जलवायु लचीलापन बुनियादी ढांचे को सक्षम करने के लिए राष्ट्रीय एडेप्टेशन योजनाओं और सरकारी ढांचे की आवश्यकता है।“
आरबीआई ने पिछले साल जलवायु जोखिमों पर भारतीय बैंकों के सर्वेक्षण के अलावा जलवायु जोखिम ढांचे को नियंत्रित करने के लिए नियम बनाने पर भी सुझाव भी मांगे थे। केंद्र सरकार ने पिछले साल जलवायु वित्त पर संसद को बताया था कि उसने कोलेशन फॉर डिजास्टर रेजिलिएंट इन्फ्रास्ट्रक्चर (सीडीआरआई/CDRI) लॉन्च किया है। यह जलवायु और आपदा जोखिमों के खिलाफ नए और मौजूदा बुनियादी ढांचे को अनुकूल बनाने की अवधारणा को प्रोत्साहित करता है। सीडीआरआई राष्ट्रीय सरकारों, संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों, बैंकों, वित्तीय संस्थानों, शिक्षाविदों और अन्य की अंतरराष्ट्रीय साझेदारी का परिणाम है। इसे सितंबर 2019 में संयुक्त राष्ट्र जलवायु कार्रवाई शिखर सम्मेलन के दौरान लॉन्च किया गया था।
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