- मध्यप्रदेश के नर्मदापुरम और हरदा जिले में पिछले कुछ सालों में गर्मी में मूंग फसल का रकबा तेजी से बढ़ा है। नर्मदापुरम मध्यप्रदेश में मूंग उत्पादन में सबसे अव्वल जिला बन गया है। मूंग के किसान बंपर उत्पादन ले रहे हैं, पर दूसरी ओर यह मिट्टी पर बड़ा संकट बन रहा है।
- मूंग लगाने के लिए किसान रबी फसल की पराली को जला रहे हैं, इससे मिट्टी के सूक्ष्म पोषक तत्व खत्म हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मिट्टी को खुद को दोबारा ताकतवर बनने का समय भी नहीं मिल पा रहा है, इसका असर यह हो रहा है कि मिट्टी भी कठोर हो रही है, उसकी नमी सोखने की क्षमता कम हो रही है और खरपतवार ज्यादा हो रही है।
- जिले के किसान इसे महसूस कर रहे हैं कि आने वाले समय में यह एक बड़ा संकट बन सकता है। मूंग की यह फसल अगले कुछ सालों में मिट्टी, पर्यावरण और मनुष्य की सेहत के लिए नुकसानदेह साबित होगी।
मध्य प्रदेश गेहूं उत्पादन में देश में दूसरे स्थान पर आता है। यहां के नर्मदापुरम जिले की मिट्टी को एशिया की सबसे उपजाऊ मिट्टी माना जाता है और गेहूं उत्पादन के मामले में यह जिला पंजाब को भी टक्कर देता है।
बीते कुछ वर्षोॆ से प्रदेश के साथ-साथ इस जिले में भी पराली जलाने की समस्या बढ़ी है। जानकार इस समस्या के पीछे तीसरी फसल लेने को एक वजह मानते हैं।
पराली की समस्या पर केंद्रित मोंगाबे-हिन्दी तीन भाग की एक सीरीज प्रकाशित कर रहा है। पेश है इस सीरीज का दूसरा भाग। पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
मध्यप्रदेश के नर्मदापुरम (पुराना नाम- होशंगाबाद) जिले के किसानों को उम्मीद थी कि इस साल उन्हें गेहूं की फसल का अच्छा उत्पादन मिलेगा, लेकिन इस साल जब फसल कटकर आई तो किसान हैरान थे। इस साल अच्छे मौसम के बावजूद भी फसल का औसत उत्पादन पिछले सालों की अपेक्षा दो से तीन क्विंटल प्रति एकड़ कम था। यह उस जिले की बात है जहां की मिट्टी को जिला गजटियर में एशिया की सबसे उपजाऊ मिट्टी बताया जाता रहा हो और उत्पादन के मामले में पंजाब को टक्कर दी हो। किसान इस बात पर हैरान हैं कि इस साल भी जब मौसम बेहतर उत्पादन के लिए एकदम अनुकूल है तो फिर उत्पादन आखिर क्यों घट रहा है? यहाँ की मिट्टी क्यों पहले से ज्यादा कमजोर होती जा रही है? क्या इसकी वजह तीसरी फसल है?
आइए जानते हैं कि यह तीसरी फसल क्या है?
दरअसल नर्मदापुरम और हरदा ऐसे जिले हैं जहां कि अब बड़ी मात्रा में गर्मी के दो महीनों में तीसरी फसल ली जा रही है। तवा नदी पर बने तवा बांध में पानी उपलब्ध होने और सरकार द्वारा पानी छोड़े जाने से यह संभव हो पा रहा है। पिछले कुछ सालों से इन दोनों ही जिलों में मूंग बोने का क्षेत्र लगातार बढ़ा है।
कृषि विभाग नर्मदापुरम से मिले आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2020-21 में जिले में 2,30,057 हेक्टेयर और हरदा जिले में 1,17,680 हेक्टेयर जमीन पर मूंग की जायद फसल ली गई। इन दोनों ही जिलों में इस साल क्रमश: 3,45,080 और 1,76,520 मेट्रिक टन का उत्पादन हुआ। मध्यप्रदेश कृषि विभाग की वेबसाइट के मुताबिक प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी 1,500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा। साल दर साल इसका आंकड़ा बढ़ा है। कृषि विभाग से प्राप्त जानकारी के मुताबिक देश एवं प्रदेश में नर्मदापुरम सबसे अधिक मूंग फसल लेने वाला जिला है। मौजूदा वर्ष में यहां लगभग 2.95 लाख हेक्टेयर में मूंग लेने का लक्ष्य रखा गया है। दूसरे स्थान पर रायसेन जिला है, यहां 1.60 लाख हेक्टेयर में मूंग ली जाएगी। तीसरे स्थान पर हरदा जिला है, यहां 1.40 लाख हेक्टेयर में मूंग ली जाएगी।
नर्मदापुरम जिले में सिंचाई की सुविधा आने के बाद आए कृषि बदलावों के बारे में बात करते हुए इस जिले की कृषि पर बारीक नजर रखने वाले प्रोफेसर कश्मीर सिंह उप्पल बताते हैं, “नर्मदापुरम जिले में पहले महज एक ही फसल ली जाती थी। इसमें भी मोटे अनाज ज्यादा शामिल थे। साल 1970 के दशक में यहां पर तवा बांध आ जाने से हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ। इसके बाद यहां पर रबी के मौसम में गेहूं, चना और खरीफ के मौसम में सोयाबीन की फसल ली जाने लगी। शुरूआत में इसने बम्पर उत्पादन दिया और बीज का रंग काला होता था इसलिए इसे काला सोना कहा गया।”
“हालांकि बाद में इसका उत्पादन कम होता गया, और ऐसा भी कहा जाने लगा कि इससे जमीन खराब हो रही है। सोयाबीन के स्थान पर धान की फसल ने जगह ले ली। इसके बाजजूद दो फसलों के बीच इतना फासला होता था कि जमीन को थोड़ी राहत मिल जाती थी। पर इस नई किस्म की खेती ने जमीन का चैन छीन लिया है,” उन्होंने बताया।
आपको बता दें कि नर्मदापुरम और हरदा दोनों पहले एक ही जिले थे। वर्ष 1998 में हरदा अलग जिला बनाया गया। वर्ष 2022 में होशंगाबाद जिले का नाम बदलकर नर्मदापुरम कर दिया गया। यह दोनों ही जिले कृषि प्रधान जिले हैं। हालांकि 1970 से पहले यहां की कृषि भी वर्षा आधारित थी।
नर्मदापुरम के पास के किसान राजेश सामले बताते हैं कि तीसरी फसल आने के बाद इस इलाके का फसल चक्र बदल गया है। “गेहूं की फसल मार्च के अंतिम सप्ताह में पककर तैयार हो जाती है, और अगले एक सप्ताह में कट भी जाती है। पहले फसल काटने से लेकर, निकालने तक में तकरीबन महीने भर का समय लग जाता था। अब हारवेस्टर आ जाने के बाद से यह काम महज सप्ताह भर में ही हो जाता है। दूसरी ओर जिले में बारिश अच्छी होने से गर्मी में भी तवा बांध का पानी दिया जाने लगा। इससे गर्मी में तीसरी फसल का दायरा तो बढ़ गया, लेकिन जमीन का सुकून गायब हो गया। अब इन दोनों जिलों में नगद फसलों का बोलबाला है,” राजेश बताते हैं।
दरअसल, मूंग की फसल महज दो महीने में तैयार होती है, और इसके लिए जरूरी होता है कि अप्रैल के पहले सप्ताह तक बोनी पूरी हो जाए। यह जल्दबाजी इसलिए होती है क्योंकि मध्यप्रदेश में तकरीबन 15 जून तक मानसून की आमद हो जाती है। जून के पहले सप्ताह तक इस फसल को काटकर मंडी तक पहुंचाने में पंद्रह दिन का समय और चाहिए होता है। इसलिए जैसे ही गेहूं की फसल खेतों में कटती है वैसे ही जल्दबाजी में गेहूं के अवशेषों को आग लगा दी जाती है।
इसके दो नुकसान हो रहे हैं, पहला तो जमीन को बिलकुल भी आराम नहीं मिल पा रहा जिससे कि वह खुद को अगली फसल के लिए तैयार कर सके। और दूसरा आग लगा देनी की घटनाओं में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है।
भोपाल स्थित राष्ट्रीय मृदा संस्थान के सीनियर रिसर्चर डॉक्टर नरेन्द्र कुमार लेंका बताते हैं कि खेतों को अगली फसल के लिए तैयार करने के लिए नरवाई में आग लगा देना मिट्टी की सेहत को सबसे नुकसान में डाल देता है, इससे मिट्टी के सूक्ष्म पोषक तत्व ख़तम हो रहे हैं और मिट्टी कि उपजाऊ क्षमता पर बुरा असर पड़ रहा है।
नर्मदापुरम जिले की सिवनी मालवा तहसील के पत्रकार वीरेन्द्र तिवारी कहते हैं, “खेतों में नरवाई (पराली) जलाने के कई साइड इफेक्ट सामने आते हैं। खेतों की आग गांव तक पहुंच जाती है या फिर खड़ी फसल को भी अपनी चपेट में लेती है। मार्च अप्रैल में सबसे ज्यादा घटनाएं सामने आती हैं, कई बार तो गांव में मकानों को आग ने चपेट में ले लिया है। पिछले साल बाबई गांव में दो सौ एकड़ में लगी थी, यहाँ तक कि कई घटनाओं में किसान इस आग में जलकर मर भी गए, पर यह सिलसिला रुका नहीं है। अब किसानी का सिस्टम ही ऐसा बन गया है कि आग लगाने के अलावा कोई विकल्प नहीं हो, यह बहुत भयावह है।”
वीरेंद्र तिवारी का इशारा नरवाई से भूसा बनाने के लिए चलाई जा रही भूसा मशीनों की तरफ है, इन भूसा मशीनों की ब्लेड बहुत नीचे से चलती है, और कई बार खेत में पड़े पत्थरों से टकराने की वजह से या ऐसी ही कई और लापरवाहियों से आग लग जाती हैं। इससे बचने के लिए प्रशासन तकरीबन हर साल ही खेतों में आग लगाने और दिन के समय में भूसा मशीन चलाने पर प्रतिबंध लगाता है और दंडात्मक कार्रवाई की भी चेतावनी देता है। लेकिन इस चेतावनी का कोई असर नहीं होता। पिछले सालों में ऐसी कार्रवाईयां न के बराबर हुई हैं।
नरवाई या पराली जलाने की समस्या के निराकरण के लिए उपायों को तलाशने का दावा करने वाली सरकार मूंग की फसल लगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रही है और इसे किसानों की आय दोगुनी होने के लक्ष्य से जोड़कर भी दिखा रही है। सरकार खुद समर्थन मूल्य पर मूंग की फसल खरीद भी रही है। मूंग के फसल को मिलते इतने प्रोत्साहन के बाद किसानों का इस फसल की ओर आकर्षित होना लाज़मी है, लेकिन नरवाई जलाकर मूंग फसल के लिए जमीन तैयार करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प भी नहीं है।
थुआ गाँव के किसान नीलेश बांके बताते हैं कि यहाँ की किसानी अब किसानी कम व्यापार ज्यादा हो गयी है। “नगदी फसलों ने किसान की जीवनशैली बदल दी है, इसके लिए उसे बिना मिट्टी की परवाह किए ज्यादा से ज्यादा कमाना है, बहुत सामान्य से नियम को भी नहीं माना जा रहा जैसे फसलों को बदल-बदल कर बोना, या एक फसल खाली छोड़ देना ताकि मिट्टी को सुकून मिले, पर एक फसल तो क्या एक दिन भी खाली नहीं मिल रहा, इसके दो असर हो रहे हैं, पहला तो मिट्टी साल दर साल कठोर हो रही है, पहले जहाँ फसल में दो पानी देने से काम चल जाता था, वहीँ अब फसल को चार बार पानी पिलाना पड़ रहा है, और दूसरा कई किस्म की खरपतवार बढ़ती जा रही है। यह बेहद चिंता की बात है, नहीं संभले तो अगले कुछ सालों में यहाँ की जमीन बंजर हो जाएगी,” नीलेश बताते हैं।
और पढ़ेंः नर्मदापुरम: गेहूं की नहीं बढ़ रही उपज, उर्वरकों के बेतहाशा इस्तेमाल ने बढ़ाई चिंता
पर्यावरण की चिंता करने वाले नर्मदापुरम निवासी निर्मल शुक्ल कहते हैं कि जिले में किसानी समृद्ध होने से आर्थिक विकास तो हुआ लेकिन पर्यावरण का बहुत विनाश हो रहा है। “नरवाई जलाने से खेतों के आसपास लगे पेड़ भी ख़तम हो रहे हैं। एक और समस्या है मूंग पर डाले जाने वाले अत्यधिक रसायन और दवाईयों पर। यह फसल मौसम के बहुत अधिक संवेदनशील है। ग्रीष्कालीन मूंग पर अत्याधिक कीटनाशकों का छिड़काव किया जा रहा है। इतना ही नहीं फसल को बारिश से पहले पकाने के लिये उस पर नींदानाशकों का छिड़काव भी किया जा रहा है जिसे देसी भाषा में सफाया भी कहा जाता है,” निर्मल कहते हैं।
पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और विधायक सीताशरण शर्मा कई मंचों पर यह बोल चुके हैं, “मूंग की यह तीसरी फसल ऐसा करके हम जहर की खेती कर रहे हैं, यह पर्यावरण और मनुष्यता के लिए घातक है।” नर्मदापुरम के कृषि उपसंचालक जेआर हेड़ाऊ कहते हैं कि जायद की मूंग की फ़सल किसानों के लिये अतरिक्त आमदनी और जमीन को उपजाऊ बनाने के लिहाज़ से एक बेहतर विकल्प था लेकिन किसानों ने जो तरीका अपनाया है वह घातक है।
बैनर तस्वीरः खेतों को अगली फसल के लिए तैयार करने के लिए नरवाई में आग लगा देना मिट्टी की सेहत को सबसे नुकसान में डाल देता है, इससे मिट्टी के सूक्ष्म पोषक तत्व ख़तम हो रहे हैं और मिट्टी कि उपजाऊ क्षमता पर बुरा असर पड़ रहा है। तस्वीर- राकेश कुमार मालवीय/मोंगाबे
पर्यावरण से संबंधित स्थानीय खबरें देश और वैश्विक स्तर पर काफी महत्वपूर्ण होती हैं। हम ऐसी ही महत्वपूर्ण खबरों को आप तक पहुंचाते हैं। हमारे साप्ताहिक न्यूजलेटर को सब्सक्राइब कर हर शनिवार आप सीधे अपने इंबॉक्स में इन खबरों को पा सकते हैं। न्यूजलेटर सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।