- हिमालयी फूल बुरांश (Rhododendron arboreum) के पौधों के कुछ हिस्से ईंधन और लकड़ी के अहम स्रोत होते हैं। साथ ही, ये पोषक तत्वों से भरपूर भी होते हैं। इनके फूलों से खाने की चीजें भी बनाई जाती हैं।
- इसकी मांग और प्रचार में बढ़ोतरी से इसे इकट्ठा करने वालों और व्यापारियों में प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी है।
- इस कमेंट्री को लिखने वाले लेखकों का मानना है कि बुरांश के संरक्षण के लिए यह जरूरी है कि फसल निकालने के लिए टिकाऊ तरीके अपनाए जाएं।
- इस कमेंट्री में दिए गए विचार लेखकों के हैं।
वनों पर निर्भर समुदायों की जीविका वनों में मिलने वाली जैव विविधता से और समृद्ध होती है। इससे वह वनों में आसानी से जीवित रहते हैं और उनका जीवन आसान होता है। हिमालय के जंगलों में कई प्रकार की प्रजातियां भरपूर मात्रा में पाई जाती हैं। इसमें से 40 प्रतिशत तो ऐसी हैं जो सिर्फ भारतीय महाद्वीप में ही पाई जाती है। इनमें भरपूर मात्रा में औषधीय गुण होते हैं, उपचार में उपयोगी होती हैं, लोगों की मूलभूत जरूरतों को पूरा करती हैं, आर्थिक आत्मनिर्भरता देती हैं और ग्रामीण क्षेत्रों को आजीविका के साधन भी उपलब्ध कराती हैं। गढ़वाल हिमालय में पाया जाने वाला बुरांश इन्हीं प्रजातियों में से एक है। इसे उम्मीद के प्रतीक के रूप में देखा जाता है क्योंकि यह गरीबी मिटाने में उपयोगी और इन समुदायों के सतत विकास में भी काफी काम आता है।
रोडोडेंड्रोन आरबोरेयम (Rhododendron arboreum) को स्थानीय तौर पर बुरांश के रूप में जाना जाता है। यह खूबसूरत पौधा हमेशा हरा-भरा रहता है और इसमें गहरे लाल रंगे के फूल खिलते हैं और इसकी छाल गुलाबी भूरे रंग की होती है। यह पौधा Ericacaeae फैमिली का हिस्सा है और मूल रूप से हिमालय में 1,200 से 4,000 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाता है। इसका पेड़ 20 मीटर तक ऊंचा हो सकता है और इसमें 3 से 7 इंच की गाढ़े हरे रंग की पत्तियां होती हैं जिसके नीचे चांदी या सोने के रंग के फर पाए जाते हैं। बुरांश के फूलों में खुशबू होती भी है और नहीं भी होती है। फरवरी से अप्रैल के बीच खिलने वाले ये फूल नलीदार या फनल के आकार के होते हैं और इनके अंदर सफेद, गुलाबी और नीले रंग भरे होते हैं। इसके फल बेलनाकार और मुड़े हुए होते हैं और उन पर लंबाई में कटे के निशान होते हैं। इनके फलों में सितंबर से अक्टूबर के बीच गोलाकार बीज होते हैं। रोडोडेंड्रोन का नाम ग्रीक भाषा के शब्द ‘रोडो’ (rhodo) से आया है जिसका मतलब गुलाब होता है और ‘डेंड्रोन’ (dendron) का मतलब पेड़ होता है। मुख्य तौर पर इसके पौधे उत्तरी शीतोष्ण क्षेत्र में और नमी वाली अम्लीय मिट्टी में पाए जाते हैं। इनकी शुरुआत हिमालय की घाटियों से होती है और दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ इलाकों तक ये पाए जाते हैं। बुरांश के फूलों को उत्तराखंड का राजकीय पौधा और नागालैंड और हिमाचल प्रदेश का राजकीय फूल और नेपाल का भी राष्ट्रीय फूल कहा जाता है।
पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के दिल में बुरांश की जगह बेहद खास है और उनकी आजीविका के लिए भी यह अहम है। इसके तने की लकड़ी ईंधन का काम करती है, यह काफी टिकाऊ होती है इस वजह से इससे कई उत्पाद जैसे कि उपकरणों के हैंडल और गिफ्ट बॉक्स बनाए जाते हैं। साथ ही, इसकी खास खुशबू और उपयोगिता के लिए भी इसे जाना जाता है। इसमें पोटैशियम, कैल्शियम, आयरन और विटामिन सी भरपूर मात्रा में पाया जाता है। इसी वजह से इसे भूख बढ़ाने के लिए भी खाया जाता है। साथ ही, इससे पहाड़ी और मौसमी बीमारियों से भी राहत मिलती है। इसके फूलों को पारंपरिक रूप से कई स्वादिष्ट चीजें बनाने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। इससे अचार, जूस, जैम, सिरप, शहद और स्क्वैश जैसी चीजें बनाई जाती हैं। साथ ही, पूजाओं में भी इसके फूल चढ़ाए जाते हैं। इसके फूलों से गुरांस नाम की एक शराब भी बनाई जाती है जो हिमालय के कुछ गांवों में उद्योग की तरह भी चलती है। गढ़वाल क्षेत्र में भरपूर खिले बुरांश के फूलों को देखना बेहद शानदार होता है और यह फूल हर पर्यटक को अपनी ओर खींचता है।
बुरांश में कई अहम फायटोकेमिकल जैसे कि फ्लैवोनॉइड, सैपोनिन और टैनिन पाए जाते हैं। इनमें कई तरह के औषधीय गुण होते हैं और इनसे एंटी-इन्फ्लेमेटरी, एंटीऑक्सीडेंट, एंटी डायबेटिक और हेपैटोप्रोटेक्टिव से जुड़े फायदे भी होते हैं। इसके औषधीय गुणों की वजह से ही आयुर्वेद, पारंपरिक चाइनीज दवाओं और तिब्बत की दवाओं में भी इसका भरपूर इस्तेमाल किया जाता रहा है। इस पौधे के अलग-अलग हिस्सों का इस्तेमाल मरीजों के इलाज में होता है।
मौसम, उपलब्धता, ऊंचाई और फूल खिलने के समय और पैटर्न के मुताबिक, बुरांश के फूल मार्च से जून के बीच इकट्ठा किए जाते हैं। आमतौर पर इन्हें औरतें इकट्ठा करती हैं। दूरी के हिसाब से इनकी कीमत 30 रुपये से लेकर 70 रुपये प्रति किलो तक होती है। सूखे हुए फूल 550 रुपये से लेकर 900 रुपये प्रति किलो तक बिकते हैं। ग्रामीण उद्योगों में इनसे जूस, शराब, स्क्वैश, चटनी और जैम जैसी चीजें बनाई जाती हैं जिन्हें पैक करके और लेबल लगाकर थोक विक्रेताओं को बेच दिया जाता है। हालांकि, ज्यादातर वैल्यू एडिशन बिना पर्याप्त ब्रांडिंग और लेबलिंग के ही होता है और गांव के लोग, ग्रामीण उद्योग और एनजीओ ही इसे तैयार करके बेचते हैं। खराब मूलभूत सुविधाओं और प्रोसेसिंग के पुराने और पारंपरिक तरीकों की वजह से इन उत्पादों की गुणवत्ता ज्यादा अच्छी नहीं होती। वैसे तो कुछ उद्योगों के खुद के लोकल ब्रांड हैं लेकिन कम उत्पादन की वजह से उन्हें जिले के बाहर कोई नहीं जानता। ऐसे में स्थानीय समुदाय आधारित संगठनों के पास मौका है कि वे प्रोसेसिंग के इस काम के अपने मार्केट को और बढ़ाएं और ग्रामीण परिवारों के लिए रोजगार के ज्यादा अवसर पैदा करें। इन फूलों को इकट्ठा करने और इनसे बनाए जाने वाले उत्पादों को बेचने से होने वाली कमाई ने गढ़वाल के पहाड़ी इलाकों के दूर-दराज में रहने वाले लोगों को काफी समृद्ध बनाया है। मांग और प्रचार में बढ़ोतरी के साथ ही फूल को इकट्ठा करने वाले और इसका कारोबार करने वालों के बीच प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी है।
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बुरांश के संरक्षण के लिए हार्वेस्टिंग के सही तरीकों का इस्तेमाल जरूरी है। इसके लिए जरूरी है कि हर पेड़ से सिर्फ 60 प्रतिशत फूलों को तोड़ा जाए और 40 प्रतिशत फूलों को बीज के लिए छोड़ दिया जाए। फूलों को तोड़ने के लिए डालियों को न काटा जाए और पेड़ पर चढ़कर ही फूल तोड़े जाएं। खाने पीने की चीजों और दवाओं या उससे जुड़े उत्पादों में बुरांश के व्यावयासिक इस्तेमाल की और संभावनाएं तलाशी जाएं। ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देने और सेहत पर ध्यान देने वाले ग्राहकों को टारगेट करके और ब्रांडिंग करके इस सेक्टर को बढ़ाया जा सकता है। बुरांश के पौधरोपण को चरणबद्ध तरीके से करके फूलों की उपलब्धता में अंतर को कम किया जा सकता है।
(राकेश जी नायर मार्केटिंग के क्षेत्र में डॉक्टरल स्कॉलर हैं। विनय शर्मा आईआईटी रुड़की के डिपार्टमेंट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज में प्रोफेसर हैं। लेखकों ने उत्तर-पश्चिमी हिमालय में सतत आजीविका के विकास को बढ़ोतरी देने के लिए औषधीय गुणों वाले पौधों पर गहन रिसर्च की है।)
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बैनर तस्वीर: स्थानीय तौर पर बुरांश के नाम से जाना जाने वाला Rhododendron arboreum खूबसूरत और हरा-भरा पेड़ होता है जिस पर गाढ़े लाल रंग के फूल आते हैं और इसका तना गुलाबी भूरे रंग का होता है। तस्वीर- अनिल विजयेश्वर डंगवाल।
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