- एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदूषित सिंधु-गंगा के मैदान में 10 राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास कम खर्च के चलते हर साल वित्तिय अधिशेष (फायनेंशियल सरप्लस) होता है। कार्यबल और बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की बजाय इस फंड का इस्तेमाल फिक्सड डिपोजिट में निवेश करने के लिए किया जाता है।
- सरकारी अनुदान न के बराबर होने के कारण, बोर्ड औद्योगिक इकाइयों से लिए जाने वाले सहमति शुल्क (कंसेंट फी) और एफडी पर मिलने वाले ब्याज पर काफी ज्यादा निर्भर करते हैं। इस वजह से प्रभावी ढंग से काम करने की उनकी क्षमता में रुकावटें आई हैं।
- विशेषज्ञ भारत में प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की प्रशासनिक, वित्तीय और तकनीकी क्षमता में सुधार के लिए उनके कामकाज के तरीके में बदलाव की बात कह रहे हैं।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि गंभीर वायु प्रदूषण का सामना करने वाले सिंधु-गंगा के मैदान में 10 राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के पास हर साल धन की अधिकता यानी वित्तिय अधिशेष होता है।
यह कुछ पिछली रिपोर्टों और व्यापक धारणा के विपरीत है, जिसमें कहा गया था कि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के पास वित्त और उनके प्रबंधन से संबंधित चुनौतियां हैं, जिसके कारण उनकी सेवाएं या कामकाज पर असर पड़ता है।
दिल्ली स्थित थिंक टैंक, सीपीआर ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत इकट्ठा की गई जानकारी और विभिन्न राज्यों के नियामक कर्मचारियों के साक्षात्कार से मिली जानकारी का इस्तेमाल करके राज्य प्रदूषण बोर्डों के वित्तीय हालत का अध्ययन किया है। जिन 10 प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की समीक्षा की गई वे पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, झारखंड और पश्चिम बंगाल से हैं।
सीपीआर रिपोर्ट के अनुसार, ज्यादातर प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के पास तीन वित्तीय वर्षों (2018 से 2021 तक) में अधिशेष फंड था। इसी पर रिपोर्ट आधारित थी। इसमें पाया गया कि कई बोर्डों ने पूरी राशि खर्च नहीं की थी और अधिशेष को बैंक फिक्सड डिपॉजिट में निवेश किया गया था।
अनुसंधान टीम ने बोर्डों के द्वारा हर साल मिलने वाले ब्याज आय पर डेटा का इस्तेमाल करके प्रत्येक बोर्ड द्वारा निवेश की गई धनराशि का अनुमान लगाया। ये आंकड़े उन्हें अपनी आरटीआई के जवाब में मिले थे। हर वित्तीय वर्ष के लिए एक मानक ब्याज दर का इस्तेमाल किया गया था, जिसके आधार पर निवेश की गई अनुमानित मूल राशि का हिसाब-किताब लगाया गया था।
अध्ययन में पाया गया कि वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान अनुमानित निवेश 29 अरब रुपये था। सांकेतिक अनुमान के अनुसार, पश्चिम बंगाल 7.7 अरब रुपये की जमा राशि के साथ सूची में सबसे ऊपर है, जबकि झारखंड में 23.5 करोड़ रुपये का निवेश करके लिस्ट में सबसे नीचे है।
अन्य राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों ने भी वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान अधिशेष धनराशि को बैंक सावधि जमा में निवेश किया। अध्ययन के अनुमान के अनुसार, हरियाणा ने अनुमानित रूप से 6.08 अरब रुपये का निवेश किया, राजस्थान ने 5.74 अरब रुपये का निवेश किया, दिल्ली ने 3.75 अरब रुपये का निवेश किया, पंजाब ने 2.15 अरब रुपये का निवेश किया, उत्तराखंड ने 1.73 अरब रुपये का निवेश किया, छत्तीसगढ़ ने 1 अरब रुपये का निवेश किया, बिहार ने 630 करोड़ रुपये का निवेश किया और उत्तर प्रदेश ने 540 करोड़ रुपये का निवेश किया।
पहले ऐसी रिपोर्टें आई थी जिनमें कहा गया था कि वित्तीय संसाधनों की कमी और अकुशल वित्तीय प्रबंधन राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के कामकाज पर असर डाल रहा है। ये न सिर्फ हवा की गुणवत्ता में सुधार करने बल्कि पानी और अपशिष्ट प्रबंधन की उनकी अन्य जिम्मेदारियों में असफल होने के प्रमुख कारणों में से एक हैं।
उदाहरण के लिए, सेंटर फॉर क्रॉनिक डिजीज कंट्रोल के 2020 के एक अध्ययन में नेशनल एम्बिएंट एयर क्वालिटी मानकों के सामने आने वाली बाधाओं में से एक के रूप में वित्तीय बाधाओं का हवाला दिया गया था। अध्ययन में कहा गया है, “अपर्याप्त फंडिंग की वजह से कर्मचारियों की संख्या काफी कम है और इसके चलते वायु प्रदूषण नियंत्रण के मामलों की कम जांच और उन पर कम ध्यान दिया जाता है”। रिपोर्ट में जिन लोगों से बातचीत की गई थी, उनमें से ज्यादातर ने अपनी दैनिक जिम्मेदारियों को पूरा करने और प्रशिक्षित कर्मचारियों को नियुक्त करने के लिए पैसे की कमी को एक चुनौती के रूप में भी माना था।
नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की 2009 की एक अन्य रिपोर्ट में इन बोर्डों के वित्तीय संसाधनों में बढ़ोतरी और सुधार की सिफारिश की गई थी। इसमें कहा गया था कि कुछ मामलों में, कर्मचारियों ने अपने साक्षात्कार में वित्तीय बाधाओं और बजटीय प्रतिबंधों को कर्मचारियों की कमी का कारण बताया है। रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी, “बोर्डों में कर्मचारियों और वित्तीय संसाधनों को बढ़ाने और सुधारने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की जरूरत है।”
फंड का कम इस्तेमाल
बैंक में किए गए फिक्सड डिपोजिट से मिलने वाले ब्याज ने प्रदूषण नियामक बोर्डों को सकारात्मक बैलेंस शीट बनाए रखने में मदद की है, जिसका मतलब है अधिक संपत्ति, कम देनदारियां और इसलिए बेहतर मूल्य। सीपीआर रिपोर्ट से पता चलता है कि बोर्ड की तरफ से कम पैसा खर्च किया गया था। साल 2018-19 से 2020-21 तक तीन वित्तीय वर्षों के दौरान दस बोर्डों में औसत फंड उपयोग दर 48% थी। अध्ययन के तीन सालों में फंड की औसत उपयोग दर पंजाब में सबसे अधिक 71% थी, जबकि उत्तराखंड में यह सबसे कम 25% थी। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि राष्ट्रीय राजधानी में, जो अक्सर खराब वायु प्रदूषण से जूझती रहती है, फंड का इस्तेमाल सिर्फ 35% था।
रिपोर्ट बताती है कि फंड का कम इस्तेमाल इन संस्थानों के भीतर वार्षिक आय और व्यय की सटीक भविष्यवाणी करने और उसके अनुसार व्यय योजना बनाने में वित्तीय विशेषज्ञता की कमी का तरफ इशारा करता है।
जहां एक ओर फंड का सही ढंग से प्रबंधन नहीं किया जाता है, वहीं दूसरी ओर, बोर्ड को कर्मचारियों की कमी और प्रदूषण निगरानी और प्रयोगशाला परीक्षण के लिए अपर्याप्त बुनियादी ढांचे का सामना करना पड़ता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि कम खर्च के बावजूद, इन तीन वित्तीय वर्षों के दौरान कर्मचारियों के वेतन और भत्ते आधे से अधिक खर्च में शामिल थे।
कई राज्यों में बुनियादी ढांचे की अपर्याप्त स्थिति के बावजूद, इन वर्षों के दौरान लैब टेस्ट सुविधाओं सहित नए बुनियादी ढांचे पर खर्च का हिस्सा 11% तक कम था।
रिपोर्ट में फिर कहा गया कि रिसर्च, डेवलपमेंट और अध्ययन पर खर्च उनके कुल व्यय का सिर्फ 2% था।
उद्योग पर निर्भर राजस्व मॉडल
सीपीआर रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि प्रदूषण बोर्डों के लिए, अधिशेष फंड निवेश पर मिलने वाले ब्याज के साथ औद्योगिक इकाइयों से लिया जाने वाला सहमति शुल्क (कंसेंट फी) मुख्य राजस्व स्रोत हैं। पहले, प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के पास जल उपकर जैसे कई राजस्व स्रोत थे, लेकिन माल और सेवा कर (जीएसटी) शुरू होने के बाद इस राजस्व स्रोत को बंद कर दिया गया था। बोर्डों को सरकार की तरफ से मिलने वाला अनुदान भी न के बराबर है।
रिपोर्ट के अनुसार, अध्ययन किए गए तीन वित्तीय वर्षों के दौरान 10 बोर्डों की कुल आय का औसतन 53% उन उद्योगों से लिए गए सहमति शुल्क से आया है, जिन्हें राज्य में अपनी इकाइयां स्थापित करने और संचालित करने की अनुमति दी गई थी।
इन सालों के दौरान उनकी आय का अन्य 23% फिक्सड डिपॉजिट, बचत खातों और एडवांस में किए गए निवेश से मिलने वाले ब्याज से आया है।
रिपोर्ट के अनुसार, इन दो घटकों यानी सहमति शुल्क और ब्याज से मिलने वाली आय ने बोर्ड के कुल राजस्व में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। लेकिन प्रभावी ढंग से विनियमित करने की उनकी क्षमता को कम कर दिया है।
इसे और समझाते हुए, रिपोर्ट के सह-लेखक और सीपीआर फेलो भार्गव कृष्णा ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि क्योंकि अधिशेष फंड के निवेश से बोर्ड को हर साल अपने राजस्व का लगभग एक-चौथाई कमाने में मदद मिलती है, बोर्ड कर्मचारियों की भर्ती और अन्य जरूरी बुनियादी ढांचे जैसे तकनीकी प्रयोगशालाओं आदि पर खर्च बढ़ाकर इस पैसे को हाथ से निकलने नहीं देना चाहता है। वर्तमान में भले ही इन सबकी कितनी ही जरूरत क्यों न हो।
भार्गव ने कहा कि इस सबके चलते, इसके कामकाज पर खासा असर पड़ा रहा है। क्योंकि बोर्डों के पास पर्याप्त तकनीकी ग्राउंड स्टाफ नहीं है, इसलिए उन्होंने औद्योगिक संयंत्रों और कारखानों के जरूरी आवधिक निरीक्षण जैसे कार्यों को तीसरे पक्ष के लेखा परीक्षकों को सौंप दिया है। लेकिन बोर्ड के पास यह जांचने के लिए कोई आंतरिक तंत्र नहीं है कि क्या ये ऑडिट सटीक हैं, जमीनी हकीकत को दर्शाते हैं और औद्योगिक इकाइयां पर्यावरण मानकों का अनुपालन कर रही हैं या नहीं।
उन्होंने 2013 में गुजरात में किए गए एक अध्ययन का हवाला दिया, जिसमें सबूत दिया गया था कि तीसरे पक्ष के ऑडिटरों की कार्यप्रणाली या फिर कारखाने के मालिकों द्वारा नियुक्त अधिकारियों के हितों के टकराव का एक स्पष्ट मामला था। उनकी रिपोर्टें हमेशा सटीक नहीं होती हैं और उनके काम की बहुत कम निगरानी होती है।
उनके अनुसार, समाधान सरल है: सरकार को इन बोर्डों को ठीक-ठाक पैसा मुहैया कराना चाहिए ताकि वे अपनी कमाई के सीमित स्रोत पर निर्भर न रहें। उनके उचित प्रशासनिक और तकनीकी कर्मचारियों और नियामक बुनियादी ढांचे को बनाए रखने के लिए यह पैसा पर्याप्त होना चाहिए।
उन्होंने कहा, “हमारी रिपोर्ट से पता चलता है कि अध्ययन किए गए तीन वित्तीय वर्षों के दौरान इन 10 संबंधित बोर्डों की राज्य सरकारों की ओर से मिलने वाला सहायता अनुदान सिर्फ 4% था। चूंकि इसके पास सीमित आय स्रोत हैं, इसलिए नियामक निकायों के लिए रिक्त पदों को भरने और अपनी तकनीकी विशेषज्ञता में सुधार पर ज्यादा खर्च नहीं करने की आदत बन गई है।”
सीपीआर रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि टीम ने जिन उत्तरदाताओं से बात की थी, उनके अनुसार, 2019 में एनजीटी के आदेश ने, बोर्डों को पर्यावरणीय मुआवजा लगाने की अनुमति देते हुए, जीएसटी में जल उपकर को शामिल करने पर होने वाली राजस्व के नुकसान की भरपाई के लिए एक रास्ता सुझाया था।
लेकिन जन विश्वास विधेयक में वायु अधिनियम (एयर एक्ट) और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन , जो मौजूदा समय में भारतीय संसद में लंबित है, नियामक व्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव का प्रस्ताव करता है। इसमें पर्यावरणीय मुआवज़ा लगाने समेत कई निर्णयात्मक शक्तियां केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त समिति के हाथों में दी जाएंगी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि इस स्तर पर यह स्पष्ट नहीं है कि मौजूदा नियामक व्यवस्था और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की भूमिका के लिए इसका क्या मतलब है।
पुनर्गठन की जरूरत
साल 2017 में गठित 15वें वित्त आयोग के सदस्य अजय नारायण झा ने 2019 में भारत में राष्ट्रीय स्वच्छ हवा कार्यक्रम शुरू करने में मदद की थी। उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के वित्तीय प्रदर्शन और उनके कामकाज में आने वाली बाधाओं का विश्लेषण करने के मामले में यह समय पर आई रिपोर्ट है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
झा ने कहा, “इस पर चर्चा करते हुए मैं आगे कहूंगा कि हमें राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को दो अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में पुनर्गठित करने की जरूरत है। बोर्डों में एक कार्यक्षेत्र को उच्च वैज्ञानिक और तकनीकी मानक स्थापित करने का ध्यान रखना चाहिए। जबकि दूसरों को पर्यावरणीय मानदंडों के निरीक्षण और कानून जैसे नियमों के जरूरी पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए।
उन्होंने कहा, जैसा कि रिपोर्ट में भी बताया गया है, औद्योगिक इकाइयों का निरीक्षण तीसरे पक्ष के लेखा परीक्षक करते हैं। इससे हितों का टकराव पैदा होता है क्योंकि इन्हें फैक्ट्री मालिकों द्वारा खुद से काम पर रखा जाता है। झा ने कहा, “मुझे लगता है, राज्य बोर्डों को खास तौर पर अपने काम पर ध्यान देना चाहिए। यह तभी संभव होगा जब इन एजेंसियों को उचित रूप से मजबूत किया जाएगा।”
वह इस बात से सहमत हैं कि बढ़ते वायु और जल प्रदूषण को लेकर बड़ी संख्या में लोगों के बीच चिंताएं बढ़ रही हैं। स्वच्छ हवा और पानी हासिल करने के लिए नियामक ढांचे को मजबूत करने के साथ-साथ वैज्ञानिक मापदंडों को अपडेट करने पर विभिन्न स्तरों पर चर्चा चल रही है। उन्होंने कहा कि भविष्य में इसके सार्थक परिणाम सामने आएंगे।
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