- जानकारों का कहना है कि इस साल जुलाई और अगस्त में हुई तीन चीतों की मौत की वजह उनकी त्वचा पर हुए घावों में संक्रमण है, क्योंकि मानसून के दौरान उनके फर में नमी के चलते उनके घावों में कीड़े हो गए थे।
- रेडियो कॉलर के नीचे नमी से जलन और घाव के चलते संक्रमण से पहले भी भारतीय चीतों की मौत हुई है।
- भारत में चीतों को लाए जाने के बाद कुल नौ मौतें हुई हैं। इनमें छह युवा चीते और तीन शावक शामिल हैं। स्थिति पर नज़र रखने वाले जानकारों का कहना है कि बेहतर प्रबंधन और बेहतर देखभाल से इनमें से सात मौतों को टाला जा सकता था।
पिछली तीन मौतें एक महीने से कुछ ज्यादा वक्त के दरम्यान हुईं। इन मौतों की वजह चीतों के रेडियो कॉलर के नीचे घावों में अंडे देने वाले कीड़ों और सेप्टीसीमिया को माना जाता है। यह जीवन को खतरे में डालने वाला खून के प्रवाह से जुड़ा संक्रमण है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने एक आधिकारिक बयान में इलाज को “अटकलों और अफवाह” के रूप में खारिज कर दिया। मीडिया रिपोर्टों ने बाद में ऐसी तस्वीरें प्रसारित की, जिनसे यह संकेत मिला कि मौतें मुख्य रूप से कटे हुए घावों में संक्रमण के चलते हुईं।
दो अगस्त को चीता धात्री की मौत के बाद नामीबिया के चीता संरक्षण कोष (सीसीएफ) ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (इससे पहले ट्विटर) पर एक आधिकारिक बयान पोस्ट किया। इसमें कहा गया, “कूनो नेशनल पार्क पशु-चिकित्सक टीम की मदद से सीसीएफ ने शव का परीक्षण किया। मौत की वजह कीड़ों का संक्रमण (मायासिस) था। दो नर चीतों की मौत का भी यही कारण था। यही वजह थी कि हम धात्री को फिर से पकड़ने के लिए उस पर नज़र रख रहे थे।”
सीसीएफ नामीबिया के संरक्षण कार्यक्रम का सदस्य है। इसका संचालन वन्यजीवों के जिम्मेदारीपूर्ण प्रबंधन के लिए प्रतिबद्ध जमीन मालिकों के समूहों द्वारा किया जाता है। 1990 से काम कर रहा सीसीएफ जंगल में चीतों के संरक्षण के लिए दुनिया भर में सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर काम करता है। संस्था ने नामीबिया से भारत तक आठ चीतों को लाने में भी मदद की थी।
धात्री को तीन जून को उसके बोमा (बाड़) से जंगल में छोड़ा गया था। जुलाई में, उसके रेडियो कॉलर में खराबी के बाद वह लगभग चार दिनों तक लापता थी। उसका पता लगाने और उसे दोबारा पकड़ने की कोशिशों के दौरान, टीम को दो अगस्त को धात्री मृत मिली।
धात्री की मौत के बाद, चार और चीते कीड़ों से संक्रमित पाए गए हैं। जो चीते अभी भी जीवित हैं उनके रेडियो कॉलर हटा दिए गए हैं।
सीसीएफ ने एक्स (इससे पहले ट्विटर) पर एक अन्य पोस्ट में कहा, “हमने बाकी बचे चीतों से कॉलर हटा दिए हैं। हालांकि हम उनकी निगरानी उपकरणों के लिए बेहतर कॉलर सामग्री विकसित कर रहे हैं और इसका परीक्षण कर रहे हैं। दो मादा चीता अभी भी बाहर हैं; हम व्यापक स्वास्थ्य मूल्यांकन और किसी भी जरूरी इलाज के लिए उन्हें वापस लाने के लिए काम कर रहे हैं।
उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में मौसम के पैटर्न में अंतर
कूनो में पशु–चिकित्सकों (जो भारत और अफ्रीका से हैं) ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि उन्होंने इस तरह की बीमारी के बारे में सोचा भी नहीं था, क्योंकि उन्होंने पहले नामीबिया या दक्षिण अफ़्रीका में ऐसी बीमारी देखी ही नहीं थीं – जहां चीते नमी के कारण कॉलर में कीड़े पनपने से संक्रमित हो गए थे। जानकारों का यह भी कहना है कि उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में मौसम के पैटर्न में अंतर है। चीतों के बचने की खराब दर में इसकी भी कुछ भूमिका है।
भारत उत्तरी गोलार्ध में है। जबकि चीते दक्षिणी गोलार्ध के देशों से लाए गए थे। दोनों ही गोलार्ध में मौसम का पैटर्न एक-दूसरे से अलग है । नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका, दक्षिणी गोलार्ध के दो बहुत ज्यादा शुष्क देश हैं। यहां से चीतों को उत्तरी गोलार्ध में स्थित मध्य प्रदेश लाया गया था, जो भारी मानसून के लिए जाना जाता है। कूनो में सालाना लगभग 764 मिलीमीटर बारिश होती है। यहां मानसून हर साल कम से कम ढाई महीने तक रहता है।
भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के पूर्व डीन और इस प्रोजेक्ट के कर्ता-धर्ता वाईएस झाला ने मोंगाबे-इंडिया से बातचीत में कहा “हम इसके लिए तैयार नहीं थे।” झाला इस साल की शुरुआत में डब्ल्यूआईआई से सेवानिवृत्त हुए थे। उन्होंने कहा, “जानवरों की जैविक लय (बायोरिदम) और फोटोपीरियड जलवायु में बदलाव के हिसाब से खुद को ढालने में अहम भूमिका निभाते हैं।”
झाला ने घावों में कीड़ों की मौजूदगी की वजहों को भी साझा किया। उन्होंने कहा कि जब चीतों को यहां लाया गया था, तब दक्षिणी गोलार्ध में सर्दी थी और जानवर सर्दियों वाले मोटे फर में थे। वे अभी भी खुद को अभ्यस्त बनाने की प्रक्रिया में ही थे। इसके अलावा, नामीबियाई और दक्षिण अफ़्रीकी चीतों ने कभी भी कूनो की तरह भारी बारिश का अनुभव नहीं किया था।
भारत मौसम विज्ञान विभाग के भोपाल केंद्र के ड्यूटी ऑफिसर एसएन साहू ने मीडिया को बताया था कि कूनो नेशनल पार्क (केएनपी) में एक जून से 15 जुलाई तक 321.9 मिमी बारिश हुई, जो दी गई अवधि के लिए सामान्य बारिश 161.3 मिमी से ज़्यादा है।
झाला ने कहा, “हमने सोचा था कि अगर जानवरों को गर्मी लगती है, तो वे छाया में रहना पसंद करेंगे और भारत की जलवायु में ढलने के बाद धीरे-धीरे अपने सर्दियों के फर को बदल देंगे। लेकिन हमें नहीं पता था कि उनके बालों में नमी बरकरार रहेगी और इतनी बड़ी समस्या हो जाएगी।”
प्रोजक्ट से जुड़े दक्षिण अफ्रीका के एक चीता विशेषज्ञ झाला की बातों से सहमत हैं। इस जानकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “ऐसा लगता है कि चीतों की गर्दन पर घने बाल (संभवतः मोल्टिंग की गैर-मौजूदगी के चलते) ज्यादा बारिश और नमी के साथ मिलकर फर को गीला रखते हैं और आखिर में परजीवी (विशेष रूप से टिक) की समस्या में योगदान दे रहे हैं।” उन्होंने कहा, “अफ्रीका में इस तरह की समस्याएं बहुत कम देखी जाती हैं, जहां एक कम समय में बारिश इतनी ज्यादा नहीं होती है।”
नामीबिया में चीता संरक्षण कोष के निदेशक लॉरी मार्कर ने कहा कि हालांकि उन्होंने नामीबिया में चीतों पर कीड़ों और मक्खियों को देखा है, लेकिन वहां रेडियो-कॉलर वाले चीतों में ऐसे मामले नहीं देखे गए हैं।
झाला ने पुष्टि करते हुए कहा कि कॉलर मुख्य समस्या नहीं थी। लेकिन चीते अपने घावों को चाटने और साफ कर पाने में अक्षम थे क्योंकि कॉलर से इस काम में बाधा आ गई थी और इससे ही बैक्टीरिया और कीड़े पनपे।
जानकारों का कहना है कि इस समस्या से पीड़ित अन्य चार चीतों को पकड़कर उनका कॉलर हटाने का फैसला बिल्कुल सही था। कॉलर को अस्थायी तौर पर हटाने और फर को काटने से त्वचा ज्यादा आसानी से सूख जाएगी और इलाज में तेजी आएगी।
रेडियो कॉलर और कीड़ों से संक्रमण
भारत में पहले भी कीड़ों और सेप्टीसीमिया के चलते रेडियो कॉलर वाले बाघों की मौतें देखी गई हैं। सितंबर 2014 में पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में कैद में पाली गई बाघिन टी-4 की गर्दन के चारों ओर त्वचा के नीचे घाव हो गए थे और उसकी मौत भी मिलती-जुलती परिस्थितियों में हुई थी। यह भारत में अपनी तरह की पहली मौत थी।
मध्य प्रदेश के सेवानिवृत्त मुख्य वन्यजीव वार्डन आलोक कुमार ने कहा, “इस तरह का संक्रमण कोई नई बात नहीं है। लेकिन समय पर कार्रवाई से हमें जानवरों को बचाने में मदद मिली है। हमने रेडियो कॉलर वाले बाघों में ये समस्या देखी है।”
टी-4 की मौत के छह महीने बाद, मार्च 2015 में पश्चिम बंगाल के सुंदरबन में रेडियो कॉलर वाली एक और बाघिन मृत पाई गई। उसके रेडियो कॉलर के नीचे कटे हुए घाव थे। महाराष्ट्र के ताडोबा अंधारी टाइगर रिजर्व (टीएटीआर) में बाघिन टी-161 की मार्च 2022 में उसके रेडियो कॉलर के नीचे कीड़ों के संक्रमण से मौत हो गई थी।
हालांकि, झाला ने कहा कि रेडियो कॉलर के नीचे कीड़े पनपने के चलते मौत की आशंका एक प्रतिशत से भी कम है। झाला ने कहा, “मैंने अपने कार्यकाल के दौरान 150 से ज्यादा जानवरों को कॉलर लगाया है और एशियाई शेर और मकाक में इस तरह के संक्रमण देखे हैं। जब हमें पता चला कि जानवरों के घाव हैं, तो हमने कॉलर हटा दिए और उनका इलाज किया। वे जल्दी ठीक हो गए।”
वन्यजीव जीवविज्ञानी और जैव विविधता सहयोग के समन्वयक रवि चेल्लम ने झाला के विचारों को दोहराया। उन्होंने कहा, “रेडियो कॉलर ही इन जानवरों की मौत की वजह नहीं है। हमें यह अध्ययन करने की जरूरत है कि क्या अफ्रीकी चीते भारत में कुछ कीड़ों और परजीवियों के प्रति संवेदनशील हैं और क्या कॉलर इन्हें पनपने के लिए अनुकूल सूक्ष्म माहौल देते हैं। ”
लापरवाही और बेहतर प्रबंधन का अभाव
प्रोजेक्ट की समझ रखने वाले एक वैज्ञानिक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि जुलाई में दो चीतों की मौत सरासर लापरवाही का नतीजा थी और इसे रोका जा सकता था। विशेषज्ञ ने कहा कि यह ‘शर्मनाक‘ है कि कूनो में चार पशु-चिकित्सकों और अफ्रीकी विशेषज्ञों की मौजूदगी के बावजूद दो जानवरों की मौत हो गई।
वैज्ञानिक ने कहा, “वे वैज्ञानिकों को अपना काम नहीं करने दे रहे हैं और नौकरशाह और राजनेता ही इसे अंजाम दे रहे हैं। आसानी से रोकी जा सकने वाली इन दो मौतों के पीछे वैज्ञानिकों तक पहुंच की कमी ही कारण है। वे संकट में पड़े जानवर के लक्षणों को पहचानने में असमर्थ थे और उन्होंने यह सवाल नहीं किया कि दोनों जानवर क्यों खरोंच रहे थे और उनकी गर्दन के चारों ओर मक्खियाँ क्यों थीं। ”
वैज्ञानिक ने कहा कि अधिकारी अब हालात से अपना पल्ला झाड़ने और जवाबदेही से बचने के लिए चीता एक्शन प्लान में अनुमानित मौतों का जिक्र कर रहे हैं। चीता एक्शन प्लान में क्षेत्रीय लड़ाई, प्रतिस्पर्धी शिकारियों के साथ संघर्ष, मानव-पशु संपर्क और प्राकृतिक वजहों से होने वाली मौतों को ध्यान में रखा गया है। वास्तव में, यह लगभग 50% मृत्यु दर का अनुमान लगाता है, लेकिन सिर्फ चीतों को छोड़ने के बाद न कि सख्त निगरानी के तहत कैद में।
यह देखते हुए कि चीतों को यहां लाने के प्रोजेक्ट का राजनीतिक महत्व है। इन मौतों के चलते प्रोजेक्ट पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ रहा है। मोंगाबे-इंडिया ने जिन कई लोगों से बात की, उन्होंने नाम नहीं बताना बेहतर समझा।
‘चीतों की मौत को रोका जा सकता था’
पिछले महीने मोंगाबे-इंडिया से बात करते हुए चेल्लम ने कहा था कि जुलाई तक हुई तीन शावकों समेत आठ में से सात मौतों को रोका जा सकता था। इनमें शासा, एक युवा चीता है। इस चीते की नामीबिया से लाए जाने से पहले से ही सेहत खराब थी। उन्होंने पूछा, “अब सवाल यह उठता है कि भारत सरकार बीमार चीते को लाने के लिए क्यों सहमत हुई और उसे परिवहन के दौरान ज्यादा तनाव से गुजरना पड़ा और फिर उसे नए माहौल में खुद को ढालना पड़ा?”
एक अन्य मादा दक्षा की मौत तब हुई, जब दो नर चीतों ने उस पर हमला कर दिया। ऐसा तब हुआ, जब उन्हें संभोग के लिए उसके बाड़े में छोड़ा गया था। चेल्लम ने पूछा, “जब अधिकारियों ने चीते को बाड़े के अंदर लाने का प्रयास किया तो दक्षा की मौत हो गई। इसके बाद भारत में जन्मे चार शावकों में से तीन की लू के चलते मौत भी सवालों के घेरे में है। अगर उनका जन्म मार्च 2023 में हुआ है तो इसका मतलब है कि संभोग भारत में बाड़े में हुआ था। कैद में रखे गए चीतों से संभोग कराने की इतनी जल्दी क्यों थी जबकि यह उन्हें छोड़े जाने के बाद मुक्त वातावरण में स्वाभाविक रूप से हो सकता था?”
उन्होंने कहा कि एक अन्य चीते उदय के मामले में, कार्डियो-पल्मनेरी विफलता को मौत का कारण बताया गया है, लेकिन इसका कारण (आखिरी वजह) अभी भी तय नहीं हो पाई है। “चीतों की लगातार निगरानी की जा रही थी, फिर भी ये नौ मौतें हुईं। चेल्लम ने कहा, यह हमारे तरीक़े का फिर से मूल्यांकन करने और निर्णायक रूप से काम करने का समय है।
हालांकि, मध्य प्रदेश के नए प्रधान मुख्य वन संरक्षक असीम श्रीवास्तव ने कहा कि जानवरों की देखभाल करने वाली टीम के कामकाज का इतनी कठोरता से मूल्यांकन करना सही नहीं है क्योंकि वे चौबीसों घंटे काम कर रहे थे और लापरवाही का कोई सवाल ही नहीं था।
उन्होंने कहा, “यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने 2020 के आदेश में कहा था कि चीतों को सिर्फ प्रयोग के आधार पर देश में लाया जाएगा। तो, जब हम अच्छी तरह से जानते हैं कि यह एक प्रयोग है, तो टीम से हर चीज़ की भविष्यवाणी करने की उम्मीद किस तरह की जा सकती है? ऐसे प्रयोगों में जहां पर्यावरण के साथ घुलने-मिलने जैसे कई कारक, जिनमें बैक्टीरिया, वायरस और कीट शामिल हैं, काम करते हैं, कभी-कभी अभूतपूर्व और अप्रत्याशित परिस्थितियां बन जाती हैं।”
आगे का रास्ता
जिन चार अन्य चीतों में कीड़े पाए गए थे, कथित तौर पर उनका जुलाई के आखिर में इलाज किया गया था। अब वे अपने रेडियो कॉलर के बिना क्वारंटीन वाले बाड़े में हैं। तब से अन्य चीतों के कॉलर हटा दिए गए हैं।
श्रीवास्तव ने कहा, “चारों चीतों पर इलाज का अच्छा असर हो रहा है और पूरी तरह से ठीक होने के बाद उन्हें बड़े बाड़े में वापस छोड़ दिया जाएगा।”
हालांकि, मोंगाबे-इंडिया ने जिस पशु-चिकित्सकों से बात की, उनमें से एक ने स्थिति की विवादास्पद प्रकृति को देखते हुए नाम नहीं बताना बेहतर समझा। उन्होंने कहा कि उन्हें जानवरों के स्वास्थ्य के बारे में कोई जानकारी नहीं है क्योंकि चीतों के इलाज के बाद से उन्होंने उन्हें नहीं देखा है। लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि वे पूरी तरह ठीक हो जाएंगे।
जानकार अब सोच रहे हैं कि क्या ये चीते भारत की जलवायु के हिसाब से ढल पाएंगे और अगले मानसून तक अपनी बायोरिदम और फोटोपीरियड बदल पाएंगे।
कूनो पशु-चिकित्सक का सुझाव है कि अगले साल मानसून शुरू होने से पहले सभी चीतों का लंबे समय तक काम करने वाली एंटी-पैरासिटिक दवा से इलाज किया जाए और फिर उनकी सावधानीपूर्वक निगरानी की जाए कि क्या ये समस्या दोबारा होती है।
दूसरी ओर, झाला का अनुमान है कि भारत के मौसम के हिसाब से खुद को ढालने के लिए उनके लिए एक साल का समय पर्याप्त होगा। उन्होंने कहा, “अगर समस्या दोबारा होती है और हम ज्यादा मृत्यु दर देख सकते हैं, तो हमें उत्तरी गोलार्ध में सोमालीलैंड और इथियोपिया जैसे अफ्रीकी देशों से चीतों को लाना पड़ सकता है क्योंकि वे शायद बेहतर तरीके से ढल पाएं।”
हालांकि, चेल्लम इस रणनीति से असहमत हैं और ज्यादा चीतों को लाने से पहले एक बहुत बड़ा उपयुक्त आवास विकसित करने पर जोर देते हैं। उन्होंने कहा, “उचित और पर्याप्त आवास के बिना, ज्यादा चीतों को लाने का कोई मतलब नहीं है। ज्यादा विख्यात सफ़ारी पार्क बनाने से समस्या का हल नहीं निकलेगा। वास्तविक रणनीति हमारी पिछली गलतियों से सीखने और जानवरों को लाने से पहले 4,000 से 5,000 वर्ग किलोमीटर में बेहतर आवास बनाने पर ध्यान केंद्रित करने में है। हम इनकी आवास जरूरतों की उपेक्षा करते हुए ठीक-ठाक आबादी के लिए अफ्रीकी देशों से ज्यादा चीते लाने पर भरोसा नहीं कर सकते। ”
श्रीवास्तव ने कहा कि प्रोजेक्ट की सफलता या विफलता का आकलन करने के लिए 10 महीने का समय बहुत कम है। उन्होंने कहा, “हमें किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले प्रोजेक्ट को कम से कम तीन से पांच साल का समय देना होगा।”
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बैनर तस्वीर: 2022 में कूनो राष्ट्रीय उद्यान में छोड़े जाने के लिए तैयार रेडियो कॉलर वाला नामीबियाई चीता। तस्वीर- चीता कंजर्वेशन फंड।