- उत्तर-पूर्व भारत में संरक्षित क्षेत्रों में भूमि का स्वामित्व और उसकी देखरेख का जिम्मा स्थानीय स्वदेशी समुदायों के पास है। संरक्षित क्षेत्रों की सीमा बढ़ाने के लिए इन क्षेत्रों में कम्यूनिटी रिजर्व (सीआर) नामित किए गए हैं।
- आवास के नुकसान के कारण उत्तर-पूर्व भारत की स्तनपायी प्रजातियों की संख्या कम हुई है।
- ये आदिवासी समुदाय स्तनपायी प्रजातियों के लिए अभयारण्य के रूप में काम कर सकते हैं ताकि ये जानवर बड़े पैमाने पर खंडित हो चुके परिवेश में पनपते रहें और वहां बने रहें।
- तमाम साझेदारों के साझा संरक्षण प्रयास और भविष्य में किए जाने वाले अध्ययन, क्षेत्र में प्रजातियों के संरक्षण में सहायता कर सकते हैं।
एक अध्ययन में पाया गया है कि कम्युनिटी रिजर्व (सीआर) यानी आदिवासी समुदायों द्वारा प्रबंधित संरक्षित क्षेत्र, संरक्षण प्राथमिकताओं और समुदायों की आजीविका की जरूरतों को संतुलित करने के लिए एक उपयोगी साधन है। इस अध्ययन में मेघालय में स्तनपायी प्रजातियों के संरक्षण में सीआर के महत्व और उसकी भूमिका की पड़ताल की गई है।
मौजूदा समय में पूर्वोत्तर भारत में लगभग 205 ऐसे सामुदायिक रिजर्व हैं, जो संरक्षित क्षेत्रों की तुलना में आकार में छोटे होने के बावजूद वहां कई प्रजातियों को आश्रय दे रहे हैं।
सलीम अली सेंटर फॉर ऑर्निथोलॉजी एंड नेचुरल हिस्ट्री (SACON), कोयंबटूर, तमिलनाडु और वन एवं पर्यावरण विभाग, शिलांग, मेघालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, प्राकृतिक आवासों में मानवीय गतिविधियों के कारण पूर्वोत्तर भारत में जंगली स्तनपायी आबादी में गिरावट आई है।
अवैध कटाई, खनन, स्थान्तरित खेती, बस्तियों का विस्तार आदि के कारण बड़े पैमाने पर जानवरों के आवास का नुकसान हुआ है। इस साल जनवरी में प्रकाशित अध्ययन में विस्तार से बताया गया है कि इससे क्षेत्र में मानव-वन्यजीव संघर्ष में बढ़ोतरी हुई है और जैव विविधता को काफी नुकसान पहुंचा है।
अध्ययन में कहा गया है कि भारत में, एक तिहाई से अधिक स्वदेशी समुदाय पूर्वोत्तर में रहते हैं। ये समुदाय परंपरागत रूप से जीवन निर्वाह के लिए मांस का शिकार करते रहे हैं। हालाँकि, हाल के कुछ सालों में वन्यजीव व्यापार की मांगों के चलते उनके द्वारा शिकार किए जाने की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं।
अध्ययन से निष्कर्ष
अध्ययन में मेघालय के री भोई जिले में पांच सीआर की पड़ताल की गई थी। इनके नाम हैं जिरांग सीआर (जेसीआर), नोंगसांगु सीआर (एनसीआर), लुम जुसोंग सीआर (एलजेसीआर), पदाह किंडेंग सीआर (पीकेसीआर) और रेड नोंगबरी सीआर (आरएनसीआर)। स्तनधारियों की विविधता और मौजूदा संख्या की जांच के लिए कैमरा ट्रैप, टोही सर्वेक्षण और अर्ध-संरचित प्रश्नावली सर्वे का इस्तेमाल किया गया था।
प्रश्नावली सर्वे को सीआर के आसपास रहने वाले खासी के स्थानीय कृषि समुदाय को लक्षित किया गया था। उनका उद्देश्य स्तनधारियों की जनसंख्या प्रवृत्ति, शिकार, मांस-खाना और मानव-वन्यजीव संघर्ष को लेकर इस समुदाय की धारणा को जानना था। सर्वेक्षण में सात गांवों को शामिल किया गया और कुल 75 व्यक्तियों से बातचीत की गई।
स्तनपायी प्रजातियों की संख्या को लेकर उत्तरदाताओं की अपने जिले के आधार पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं। उदाहरण के लिए, जेसीआर के उत्तरदाताओं ने अक्सर जंगली सूअर, हाथियों को देखे जाने की जानकारी दी। इसी तरह, तेंदुआ और तेंदुआ बिल्ली (लेपर्ड कैट) को देखने की सूचना देने वाले ज्यादातर उत्तरदाता आरएनसीआर से थे।
एसएसीओएन के एक शोधकर्ता और अध्ययन के सह-लेखक होन्नावल्ली एन. कुमारा कहते हैं, “कुछ सीआर में इनमें से कुछ प्रजातियां मौजूद नहीं हैं और हो सकता है कि कुछ समय पहले ही उन्हें ख़त्म कर दिया गया हो। खासतौर पर तेंदुआ काफी चालाक होता है और हो सकता है कि कई उत्तरदाताओं ने उसे देखा ही न हो।”
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अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक, अधिकांश उत्तरदाताओं ने कहा कि उनके क्षेत्रों में वन्यजीवों के गायब होने के दो मुख्य कारण निवास स्थान के नुकसान और उनका कम होते जाना है। कुछ उत्तरदाताओं ने प्रजातियों की संख्या में गिरावट के अन्य कारणों के तौर पर बदले की भावना से की गई हत्या और ऐतिहासिक शिकार का जिक्र किया। लेकिन ज्यादातर लोगों ने यही कहा कि शिकार अब प्रचलित नहीं है।
पेपर के अनुसार, हालांकि इस क्षेत्र में समय के साथ शिकार में कमी आई है, लेकिन देश में वन्यजीव कानूनों के बारे में शिक्षा और जागरूकता की कमी इस विचार को बढ़ावा दे रही है कि सामुदायिक जंगलों में शिकार करना अवैध नहीं है। इसके अलावा, जबकि स्थानीय समुदाय कुछ प्रकार के मांस जैसे अनगुलेट्स को खाना पसंद करते हैं। दरअसल जिस भी शिकार को पकड़ने में वो सक्षम होते हैं, उसका मांस खा लेते हैं।
आवास के नुकसान का कारण जंगल की आग के साथ-साथ अवैध कटाई और स्थांतरित खेती जैसी प्रथाओं को बताया गया। प्राकृतिक परिदृश्य में आए इन बदलावों ने क्षेत्र में स्तनपायी प्रजातियों की संख्या को प्रभावित किया है। इन प्रजातियों के भूमि उपयोग पैटर्न कैसे बदल गए हैं? यह जानने के लिए और अधिक शोध की जरूरत है।
बार्किंग डियर, सांभर और चीनी पैंगोलिन जैसी कई प्रजातियों की संख्या काफी कम हुई है। यह बात उत्तरदाताओं द्वारा इन प्रजातियों को दुर्लभ रूप से देखे जाने से साफ होती है, लेकिन मकाक, जंगली सूअर, हाथी और लेपर्ड कैट जैसी अन्य प्रजातियां अभी भी काफी संख्या में मौजूद हैं। इनकी संख्या में वृद्धि हुई है। पेपर के अनुसार, “यह उत्तरदाताओं का एकतरफा नजरिया हो सकता है क्योंकि ऐसी प्रजातियां उनकी फसल और पशुधन को अधिक नुकसान पहुंचाते हैं, जाहिर है कि इनके देखे जाने की संभावना अधिक है।”
भविष्य की दिशा
शिकार को कम करने के लिए आउटरीच या जागरूकता कार्यक्रमों के बारे में कुमारा कहते हैं, “वन विभाग सहित कुछ एजेंसियां मूल लोगों के साथ बातचीत करने का प्रयास कर रही हैं। क्योंकि ज्यादातर प्रजातियां पहले से ही गंभीर रूप से शिकार की जा चुकी हैं, इसलिए हम सिर्फ बची हुई आबादी पर ध्यान दे रहे हैं।
कुमारा को यह भी लगता है कि स्थानीय लोककथाएं और टैबू (वर्जनाएं) मौजूदा स्तनधारी प्रजातियों के संरक्षण को प्रभावित करती हैं। वह कहते हैं “सदियों से उन्होंने (स्थानीय समुदायों) वर्जनाओं वाली एक या दो प्रजातियों को छोड़कर सभी का शिकार किया है। ऐसे स्थितियों में सही एजेंसियों और निरंतर प्रचार के जरिए ही संरक्षण कार्य संभव हो सकता है। हलांकि, सभी प्रजातियों का संरक्षण करना बहुत मुश्किल है। लेकिन हूलॉक गिब्बन जैसी प्रजातियों को संरक्षित किया जा सकता है क्योंकि (उनके शिकार को लेकर) उनके बीच कुछ वर्जनाएं हैं।”
कुमारा ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “हमारा अध्ययन स्थापित सीआर पर पहली बार आधारभूत डेटा दे रहा है। मुझे उम्मीद है कि डेटाबेस सीआर और संरक्षण की आगे की योजना बनाने में मदद करेगा।”
अध्ययन के महत्व पर जोर देते हुए मैसूर यूनिवर्सिटी के जाने-माने प्रोफेसर और अध्ययन से जुड़े एक स्वतंत्र विशेषज्ञ मेवा सिंह ने कहा, “यह अध्ययन पूर्वोत्तर भारत में संरक्षण और कुछ हद तक समुदाय के लिए संसाधन के रूप में सीआर के महत्व पर प्रकाश डालता है। उस क्षेत्र की जमीन पर समुदाय का मालिकाना हक है और छोटी प्रबंध समितियां विभिन्न आकारों (आमतौर पर छोटे) के इन रिजर्व की देखभाल करती हैं।”
वह बताते हैं कि देश के बाकी हिस्सों में सीआर की तरह के कुछ प्रयास किए गए हैं, जैसे कि पवित्र वन, जो ज्यादातर हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रों में पाए जाते हैं। उन्होंने आगे कहा, “वे मुख्य रूप से हिंदुओं के साथ-साथ जैन, बौद्ध और सिखों की धार्मिक प्रथाओं के कारण संरक्षित हैं। पूर्वोत्तर की तरह, ये वन भी दुर्लभ वनस्पतियों और जीवों के भंडार हैं। मैंने इन्हें केरल और कर्नाटक के कुर्ग क्षेत्र में कई स्थानों पर देखा है। इनमें ऐसे झरने भी हैं जो स्थानीय समुदाय के इस्तेमाल के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध कराते हैं। भारत सरकार इन वन क्षेत्रों की भूमिका के प्रति बहुत जागरूक रही है। वर्ष 2002 में वन्यजीव संरक्षित संशोधन में, इन सभी को संरक्षित ढांचे के तहत लाया गया था।”
उन्होंने कहा, “इन सीआर या पवित्र वनों की तरह, हमारे पास पश्चिमी घाट में कुछ जगहों पर वर्षावन भी हैं, ये दोनों संरक्षित क्षेत्रों के अंदर और चाय बागानों में फैले हुए हैं।” वह बताते हैं कि कैसे विभिन्न पेड़ों पर रहने वाली प्रजातियां इन क्षेत्रों को कई तरीकों से इस्तेमाल करती हैं। वह कहते हैं, “उदाहरण के लिए लॉयन-टेल मकाक को ही लें। क्योंकि ये वर्षावन से बाहर नहीं जाते हैं, इसलिए इन बंदरों का एक समूह इन क्षेत्रों में अकेला रह सकता है। दूसरी ओर, उसी क्षेत्र में नीलगिरि लंगूर उतने प्रभावित नहीं हैं क्योंकि वे सड़क के किनारे के पेड़ों पर रह सकते हैं, जमीन पर दौड़ते हैं, और चाय के बागानों में पेड़ों पर लटकते फिरते हैं, और इसलिए इन क्षेत्रों के बीच यहां-वहां रहने में सक्षम हैं।”
सिंह कहते हैं, “वन अवशेष, चाहे वे किसी भी रूप में हों, जैव विविधता के महत्वपूर्ण भंडार हैं और ऐसे स्थानों की सुरक्षा के लिए अधिकारियों, स्थानीय समुदाय, गैर सरकारी संगठनों और वैज्ञानिकों के बीच सहयोग जरूरी है।”
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बैनर तस्वीरः नर हूलॉक गिब्बन। तस्वीर– मिराज हुसैन/विकिमीडिया कॉमन्स