- एम.एस. स्वामीनाथन राजनेताओं से लेकर नौकरशाहों, शिक्षाविदों, पत्रकारों, छात्रों और आम लोगों तक सभी के साथ बड़ी ही आसानी से जुड़ जाया करते थे। उनकी यही खासियत उनकी सबसे बड़ी ताकत भी थी।
- देश के लिए स्वामीनाथन का प्रमुख योगदान हरित क्रांति के लिए उनका काम था, जिसे भुलाना नामुमकिन है।
- हरित क्रांति एक ऐसा कदम था जिसने भारत को संकट से उबरने में मदद की। लेकिन यह दीर्घकालिक टिकाऊ समाधान नहीं था। और स्वामीनाथन इस बात को अच्छे तरीके से जानते थे। फाउंडेशन की ओर से चलाई जा रही अनुसंधान-विकास परियोजनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है।
जाने-माने कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन ने 28 सितंबर को आखिरी सांस ली और इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उन्होंने 7 अगस्त को अपना 98वां जन्मदिन मनाया था। स्वामीनाथन का स्वास्थ्य पिछले कुछ सालों से खराब चल रहा था। उनकी पत्नी की कुछ साल पहले ही मौत हो चुकी है।
देश के लिए स्वामीनाथन का प्रमुख योगदान नोबेल पुरस्कार विजेता नॉर्मन बोरलॉग के साथ चावल और गेहूं की अधिक उपज देने वाली किस्मों को उगाने के लिए किया गया काम था। यह देश के कृषि इतिहास में एक ऐसा कदम था जिसे भारत की हरित क्रांति के रूप में जाना जाता है। हरित क्रांति ने भारतीय किसानों को सहायता पैकेज दिया और कुछ ही सालों में मदद के लिए दूसरों की तरफ देखने वाला देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बन गया।
कुछ सालों पहले आजाद हुआ देश, 1960 के दशक में काफी ज्यादा भोजन की कमी का सामना कर रहा था और पीएल480 योजना के जरिए अमेरिका से मिलने वाली खाद्य सहायता पर निर्भर था। इसके चलते राष्ट्रीय गौरव जिस अपमान और राजनीतिक असुरक्षा से गुजर रहा था, उसे कम करके नहीं देखा जा सकता था। ऐसा कहा जाता है कि जब भारत के तत्कालीन कृषि मंत्री सी. सुब्रमण्यम खाद्यान्न की अधिक खेप के लिए अमेरिका गए तो वहां उन्हें अपमानित किया गया। उन्होंने यह बात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बताई। उन्होंने पूछा कि क्या कृषि उत्पादन और उत्पादकता में सुधार के लिए कोई तकनीकी समाधान है, तो भारतीय वैज्ञानिकों का जवाब काफी सकारात्मक था। हरित क्रांति को शुरू करने और उसका समर्थन करने के लिए बड़े स्तर पर एक राजनीतिक फैसला किया गया।
स्वामीनाथन एक वरिष्ठ वैज्ञानिक और शोधकर्ता के रूप में और बाद में इसके महानिदेशक के रूप में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) से जुड़े थे। मेक्सिको में नॉर्मन बोरलॉग ने उच्च उपज देने वाली खाद्यान्न किस्मों को विकसित करने में अच्छी-खासी सफलता पा ली थी। ये किस्में उर्वरक जैसे बाह्य पदार्थों पर अच्छी प्रतिक्रिया दे रहे थे और उच्च उत्पादकता और उत्पादन देने में काफी आगे थे। स्वामीनाथन ने भारत में इन तकनीकों को अपनाने के लिए बोरलॉग के साथ काम किया।
यह देश में हरित क्रांति की शुरुआत थी।
सिंचाई वाले इलाकों में लॉन्च की गई इस योजना में किसानों को उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक, कृषि लोन और मार्केटिंग सहायता दी गई।
इसके चलते खाद्य आत्मनिर्भरता बढ़ गई। लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थ भी कम नहीं थे। इस बात को इस बात से आँका जा सकता है कि 1970 के दशक से शुरू होने वाला अधिकांश भारतीय इतिहास इसी आत्मनिर्भरता की पीठ पर सवार है।
“उनकी प्रशंसा के शब्द मेरे लिए पदक के समान हैं।”
मैं 1992 में चेन्नई चला गया था और मैं तभी से एम.एस. स्वामीनाथन को जानता हूं। तब एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (MSSRF) हाल ही में अपनी बिल्डिंग में स्थानांतरित हुआ था। 1990 के दशक के दौरान स्वामीनाथन ने कई अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन किया। इन सम्मेलनों में दुनिया भर के कई जाने-माने लोगों ने भाग लिया। मैं ‘द हिंदू बिजनेस लाइन’ का एक युवा पत्रकार था और मुझे इन बैठकों को कवर करने का काम सौंपा गया था। हालांकि मुझसे सिर्फ उद्घाटन और समापन कार्यक्रम को कवर करने की उम्मीद की गई थी, लेकिन मुझे वहां रुकने और विशेषज्ञों को सुनना काफी अच्छा लगता था। मैं इनमें से कुछ बैठकों में दिन भर बैठा रहता और गहराई से सारी बातों को समझने की कोशिश करता। एक दिन स्वामीनाथन मेरे पास आये और बोले, “काश तुम्हारे जैसे और भी पत्रकार होते, गोपी!” ये शब्द मेरे लिए किसी पदक के समान थे।
1990 का दशक तेजी से आगे बढ़ने वाला समय था। राजनीतिक रूप से यह गठबंधन का दौर था और इसमें सार्वजनिक चर्चा की काफी गुंजाइश थी।
भारत ने 1992 के रियो शिखर सम्मेलन में उल्लिखित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन और जैव विविधता सम्मेलन पर हस्ताक्षर किए थे। और उसके तुरंत बाद ही सरकार ने जैव विविधता अधिनियम तैयार करने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। स्वामीनाथन को कानून का मसौदा तैयार करने वाली पहली समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। इसके लिए कई बैठकें एमएसएसआरएफ में हुईं।
इस बीच, 1994 में विश्व व्यापार संगठन समझौता हुआ। यह समझौतों की एक ऐसी भूलभुलैया थी कि लोगों को इसे समझने के लिए काफी समय लगाना पड़ा था। आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों के संबंध में विवाद यूरोप से भारत में फैल रहे थे।
इन चर्चाओं के साथ-साथ कुछ अन्य चर्चाएं भी थीं जिनमें स्वामीनाथन की व्यक्तिगत रुचि थी। वे ‘एवरग्रीन’ क्रांति यानी बाजरा के महत्व और लंबे समय में कुपोषण से निपटने के बारे में थीं।
एमएसएसआरएफ इनमें से कई चर्चाओं का केंद्र बन गया। एक दशक बाद भी, जब स्वामीनाथन ने किसान आयोग की अध्यक्षता की, तब भी चर्चाएं जारी रहीं और आगे बढ़ रही थीं।
अंतरराष्ट्रीय रिसर्च से जुड़ना
जब अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान के लिए सलाहकार समूह (CGIAR) के तहत कृषि अनुसंधान संगठनों का अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क अपने अनुसंधान केंद्र स्थापित करने के लिए जगह की तलाश कर रहा था, तो भारत इससे चूक गया। अंतर्राष्ट्रीय राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट (IRRI) फिलीपींस चला गया। भारत खासतौर पर IRRI को अपने यहां चाहता था। इसकी बड़ी वजह थी क्योंकि यह देश चावल के उत्पादन में आगे रहने वाले देशों में एक है। इस तरह से जब अगले CGIAR केंद्र का प्रस्ताव आया, तो भारत ने तत्परता से प्रतिक्रिया दी। स्वामीनाथन ने उस समिति की अध्यक्षता की, जिसने सेमी-एरिड ट्रोपिक्स (ICRISAT) के लिए इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट के लिए जमीन की तलाश की थी। 1970 के दशक की शुरुआत में समिति को ICRISAT के लिए हैदराबाद के बाहर प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली काली और लाल मिट्टी वाली जमीन मिल गई।
1980 के दशक में स्वामीनाथन IRRI के महानिदेशक बने। लेकिन एक विवाद खड़ा हो गया। दरअसल उन पर पद पाने के बदले में रायपुर में क्षेत्रीय चावल अनुसंधान संस्थान में एकत्र भारतीय चावल जर्मप्लाज्म को IRRI में स्थानांतरित करने का आरोप लगाया गया था।
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आरोप दो मायनों में ग़लत था। एक तो यह कि स्वामीनाथन बिना बदले के भी इस पद के लिए बड़े दावेदारों में से एक थे और दूसरा ये कि 1992 के जैविक विविधता पर कन्वेंशन से पहले आनुवंशिक संपदा को वैश्विक कॉमन्स का हिस्सा माना जाता था। और कृषि अनुसंधान ऐसे आदान-प्रदान के आधार पर ही बढ़ता था।
हरित क्रांति के कई आलोचकों भी रहे हैं। और यह सही भी है – क्योंकि जो कुछ भी हासिल किया गया है उसकी आलोचना की जा सकती थी और की भी जानी चाहिए थी। हरित क्रांति के लिए सरकारी बुनियादी ढांचे ने सिंचाई वाले इलाकों में किसानों के लिए उच्च उपज वाली किस्मों के बीज, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, ऋण और विस्तार सेवाएं लीं – जो 1960 के दशक में भारत की एक तिहाई कृषि भूमि को कवर करती थी। इसका मतलब यह हुआ कि दो-तिहाई को नजरअंदाज कर दिया गया। इसलिए अगर पंजाब की हिंसा सिंचित इलाकों से निकलकर आई, तो माओवादी आंदोलन वर्षा आधारित इलाकों से उभरा। इसके अलावा, भूमि और जल निकायों में सारा रासायनिक प्रदूषण हरित क्रांति के बाद के दशकों में ही हुआ है।
हालांकि, यह सब उस बदनामी के सामने फीका पड़ गया, जिसे भारत को खाद्य असुरक्षा की स्थिति में झेलना पड़ता। 1960 के दशक के बाद के दशकों में चंद्रयान सहित लगभग सभी चीजें उसी आत्मनिर्भरता के कारण थीं।
हरित क्रांति एक पैकेज था जिसने भारत को खाद्य संकट से उबरने में मदद की। यह दीर्घकालिक टिकाऊ समाधान नहीं था। स्वामीनाथन को इसके बारे में पता था। फाउंडेशन की ओर से की जा रही कई अनुसंधान-विकास परियोजनाओं से स्पष्ट होता है।
अगर पुरस्कारों की बात करें तो स्वामीनाथन को तीनों पद्म पुरस्कार, रेमन मैग्सेसे पुरस्कार और विश्व खाद्य पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। वह नोबेल शांति पुरस्कार की सूची में भी शामिल हो चुके हैं।
मैं निजी तौर पर कह सकता हूं कि स्वामीनाथन राजनेताओं से लेकर नौकरशाहों, शिक्षाविदों, पत्रकारों, छात्रों और आम लोगों तक सभी से बड़ी आसानी से जुड़ जाते थे। और उनकी यही खासियत उनकी सबसे बड़ी ताकत थी।
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बैनर तस्वीर: एम.एस. स्वामीनाथन अपनी लाइब्रेरी में। तस्वीर-एमएसएसआरएफ/फ़्लिकर