- तटीय जलीय खेती संशोधन कानून, 2023 में जलीय फार्मों (एक्वाकल्चर) की ओर से पहले किए गए उल्लंघनों को अपराध की श्रेणी से हटाने का प्रावधान है। पारंपरिक मछुआरों को डर है कि इससे उल्लंघनों को और ज्यादा बढ़ावा मिलेगा।
- झींगा उत्पादन भारत को विदेशी मुद्रा दिलाने वाले प्रमुख क्षेत्र है। लेकिन इसे भूजल और सतही पानी की लवणता और समुद्र में प्रदूषण बढ़ाने के साथ ही सार्वजनिक भूमि को हड़पने का आरोप भी लगाया जाता है।
- मछुआरा संगठनों का आरोप है कि झींगा फार्म अक्सर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं। इसके चलते उन पर ग्रीन ट्रिब्यूनल में मुकदमे भी चलते हैं, लेकिन नए कानून को पिछली तारीख से लागू करना पिछले उल्लंघनों से उन्हें छूट दे देगा।
“ट्रैवलिंग-प्रोजेक्ट भाई भाई, एक डोरी-ते फांसी चाय”
(ट्रॉउलिंग और झींगा कल्चर भाई-भाई हैं और दोनों को एक ही रस्सी से लटकाने की जरूरत है)
बांग्ला में लिखी गई ये लाइनें 1990 के दशक से पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के छोटे और सीमांत मछुआरों के बीच विरोध का एक लोकप्रिय नारा रहा है। ‘प्रोजेक्ट‘ शब्द झींगा फार्मों के बारे में बताता है। अब, मछुआरों को लगता है कि सरकार ने तटीय जलीय कृषि प्राधिकरण संशोधन कानून, 2023 के पारित होने के साथ उन्हें खत्म करने की पूरी तैयार कर ली है।
दरअसल, पारंपरिक मछुआरों के संगठन दक्षिणबंगा मत्स्यजीबी फोरम के अध्यक्ष देबासिस श्यामल ने कहा, “तटीय पश्चिम बंगाल के मछुआरे झींगा फार्म को खत्म करने की मांग कर रहे हैं। हम नियमों के बड़े पैमाने पर उल्लंघन के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन कर कर रहे हैं और नियमों के बार-बार उल्लंघन के खिलाफ प्रशासन को मांग-पत्र सौंप रहे हैं। अब, नए कानून ने ना सिर्फ सभी अवैध झींगा फार्मों को नियमित कर दिया है, बल्कि उनके खिलाफ कार्रवाई करने के प्रावधानों को भी हटा दिया है।”
मूल कानून में बदलाव से जुड़ा विधेयक अगस्त के दूसरे हफ्ते में संसद से पारित हुआ था। इसने तटीय जलीय कृषि को “पर्यावरण (संरक्षण) कानून, 1986 के तहत जारी तटीय विनियमन क्षेत्र अधिसूचना के तहत अनुमत गतिविधि” घोषित किया। जलीय कृषि गतिविधियों से तटीय क्षेत्र प्रबंधन नियमों के उल्लंघन को अपराध से मुक्त कर दिया। इसमें सभी गैर-कानूनी जलीय फार्म को नियमित करने का भी प्रावधान है। यह कानून पिछली तारीख यानी 16 दिसंबर 2005 से प्रभावी है।
श्यामल ने कहा, “झींगा उद्योग की ताकत ने पहले ही सीमांत यानी छोटे मछुआरों को अपनी चपेट में ले लिया है।” “हम वास्तव में निराश और हताश महसूस कर रहे हैं।”
जलीय खेती के लिए नीतियों में ढील देने का इतिहास
तट के आस-पास जलीय खेती, खासकर झींगा को लेकर चिंताएं नई नहीं हैं। 1990 के दशक में ओडिशा के चिल्का झील क्षेत्र से लेकर तमिलनाडु में हालिया आंदोलन तक, पूरे भारत के पारंपरिक मछुआरे सालों से इसका विरोध करते आ रहे हैं।
हालांकि, सरकार का दावा है कि कानून में बदलाव “लाखों छोटे सीमांत मछुआरों को कई एजेंसियों से सीआरजेड (CRZ) मंजूरी नहीं लेने की सुविधा देता है।” लेकिन छोटे और सीमांत किसानों के संगठनों की दलील इससे अलग है।
नेशनल प्लेटफॉर्म फोर स्मॉल स्केल फिश वर्कर्स के राष्ट्रीय संयोजक प्रदीप चटर्जी ने आरोप लगाया, “तटीय पर्यावरण के साथ-साथ लाखों छोटे मछली मजदूरों और किसानों की आजीविका पर राजनीति और पूंजी की एकजुट ताकत की तरफ से यह सबसे वीभत्स हमलों में से एक है।”
उन्होंने कहा, “पूरे भारत के समुद्र तट पर झींगा की खेती में छोटे और सीमांत मछुआरों की हिस्सेदारी ऊंट के मुंह में जीरे जितनी है। समाज का अमीर और जमीनों का मालिक वर्ग इस काम को कर रहा है। “झींगा से सरकार को विदेशी मुद्रा मिलती है और इसीलिए सीमांत मछुआरों के हितों की बलि दी गई है।”
इस साल की शुरुआत में छपे एक शोध पत्र में इसी तरह की टिप्पणियां की गई हैं। इसमें कहा गया है कि “जलीय खेती करने वाले किसान राजनीतिक और आर्थिक पूंजी में अपेक्षाकृत प्रभावशाली हैं” और क्षेत्र में झींगा फार्मों की बढ़ोतरी के चलते धान के रकबे में गिरावट आई है। साथ ही, मछली पकड़ने के मैदान और पीने का पानी भी प्रदूषित हुआ है।
पेपर में कहा गया है, “हमारे नतीजों से पता चलता है कि नीति बनाने वालों को खारे पानी में होने वाली जलीय खेती और तटीय भूमि के साथ ही ग्रामीण आजीविका पर होने वाले संभावित और न बदले जा सकने वाले खतरों पर ज़्यादा गंभीरता दिखाने की जरूरत है।”
चटर्जी के मुताबिक, लगभग एक करोड़ छोटे और सीमांत मछुआरे सीधे समुद्री मछली पकड़ने में लगे हुए हैं और लगभग इतने ही लोगों परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। हालांकि, मछली पालन से जुड़े आंकड़ों पर सरकार की हैंडबुक: 2022 में समुद्री मछुआरों की संख्या लगभग पचास लाख बताई गई है, जिसे चटर्जी कम बताने का दावा करते हैं।
भारत में छोटे और सीमांत मछुआरों के अलग-अलग संगठनों के नेताओं ने आरोप लगाया कि सुप्रीम कोर्ट के 1996 के फैसले ने 1991 के तटीय विनियमन क्षेत्र (सीआरजेड) अधिसूचना के तहत निषिद्ध क्षेत्रों में झींगा फार्म की स्थापना की अनुमति नहीं दी थी। पहले इसे 2005 के तटीय एक्वाकल्चर प्राधिकरण कानून से कमजोर किया गया। फिर इस कानून को 2011 और 2019 की तटीय विनियमन क्षेत्र (सीआरजेड) अधिसूचनाओं और उनमें किए गए बदलावों के जरिए और कमजोर कर दिया गया।
तमिलनाडु के नागापट्टिनम में स्थित नेशनल फिशवर्कर्स फोरम के आरवी कुमारवेलु ने कहा, “झींगा खेती को और ज्यादा कठिन बनाकर तटीय पारंपरिक मछली पालन को खत्म करने की योजना अब पूरी हो गई है।”
उनके अनुसार, नागपट्टिनम और मयिलादुथुराई जिलों में कम से कम 1,890 झींगा फार्म हैं। इनमें से लगभग आधे मौजूदा नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं। उन्हें आशंका है कि ऐसी परिपाटी अब और ज्यादा व्यापक हो जाएगी, क्योंकि सरकार ने अपराध के खिलाफ कार्रवाई का विकल्प हटा दिया है।
संशोधन में तीन साल तक की अवधि के लिए जेल के प्रावधानन को हटा दिया गया है और सरकार के शब्दों में, “सिविल अपराध को अपराधमुक्त करने के सिद्धांत के मुताबिक सिर्फ जुर्माना लगाया गया है।”
बड़ी हुई पुरानी चिंताएं
भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की एक रिपोर्ट के एक साल से भी कम समय में जलीय खेती गतिविधियों का यह गैर-अपराधीकरण हुआ है। इसमें इस पर रोशनी डाली गई है कि “खेती और झींगा पालन के लिए भूमि की प्रतिस्पर्धी मांग” से ओडिशा के तट के साथ मैंग्रोव, अवैध कचरे को बहाने का खतरा बढ़ रहा था। आंध्र प्रदेश में जलीय फार्म कोरिंगा वन्यजीव अभयारण्य (सीडब्ल्यूएलएस) को प्रदूषित कर रहे थे और आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में तटीय जलीय कृषि इकाइयां नियमों को ताक पर रखकर लगाई गईं।
इसमें यह भी बताया गया है कि तटीय विनियमन के लिए शीर्ष एजेंसी राष्ट्रीय तटीय क्षेत्र प्रबंधन प्राधिकरण (एनसीजेडएमए) “सीआरजेड उल्लंघनों पर कार्रवाई की निगरानी और चर्चा में असरदार तरीके से शामिल नहीं थी, जो इसे सौंपी गई जिम्मेदारियों में से एक थी।”
एनसीजेडएमए ने उल्लंघनों की निगरानी और इसके बाद की जाने वाली कार्रवाई के संबंध में राज्य इकाइयों (एससीजेडएमए) की गतिविधियों की निगरानी नहीं की और चेतावनी दी कि “निगरानी और कानून को लागू कराने की कमी के चलते तटीय पारिस्थितिकी के विनाश को रोकने के लिए जो व्यवस्था की गई है, वह असरदार नहीं है।”
संशोधित कानून लागू होने के बाद, सरकार ने घोषणा की कि उसका इरादा “तटीय जलीय खेती प्राधिकरण की कुछ परिचालन प्रक्रियाओं को ठीक करके तटीय जलीय कृषि में व्यापार को सुगम बनाना है।” उसे उम्मीद है कि यह क्षेत्र अब “प्रजातियों के विविधीकरण और क्षेत्र विस्तार के रूप में अगली बड़ी छलांग लगाने के लिए तैयार है।”
तटीय जलीय कृषि, खासकर झींगा पालन, भारत में सबसे अच्छा खाद्य उत्पादक क्षेत्र है। इससे अच्छी-खासी विदेशी मुद्रा मिलती है। भारत के समुद्री उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एमपीईडीए) के अनुसार, पिछले दशक के दौरान मात्रा और मूल्य दोनों के मामले में फ्रोजन झींगा सबसे ज्यादा निर्यात की गई वस्तु है। भारत ने 2019-20 के दौरान 488.912 करोड़ डॉलर मूल्य के 6.52 लाख मीट्रिक टन (मीट्रिक टन) फ्रोजन झींगा का निर्यात किया गया। यह मात्रा में 50.58% और समुद्री आय के मामले में 73.21% ज्यादा थी।
एक अनुमान के मुताबिक लगभग 12 लाख परिवार सीधे और परोक्ष रूप से इस क्षेत्र पर निर्भर हैं। कुल मिलाकर, मई 2020 तक 61,044.89 हेक्टेयर (41,624.70 हेक्टेयर का जल प्रसार क्षेत्र) के कुल खेती क्षेत्र के साथ 39,705 झींगा फार्म सरकार के पास पंजीकृत थे।
हालांकि, 2018 के एक पेपर में बताया गया है कि “झींगा जलीय खेती के तहत वास्तविक क्षेत्र और तटीय जलीय खेती प्राधिकरण द्वारा अनुमोदित क्षेत्र के बीच अंतर बताता है कि झींगा फार्म का बड़ा हिस्सा मंजूरी के बिना चल रहा है।”
पारंपरिक मछुआरों पर असर
एक तरफ झींगा पालन उद्योग ने नए कानून का तहे दिल से स्वागत किया है और सरकार को धन्यवाद दिया है। लकिन दूसरी तरफ कारीगर मछुआरे इससे काफी चिंतित हैं।
आंध्र प्रदेश स्थित डेमोक्रेटिक पारंपरिक फिशर्स एंड फिश वर्कर्स फोरम (DTFWF) के देबाशीष पॉल के अनुसार, झींगा फार्म पारंपरिक मछुआरों की ओर से इस्तमाल की जाने वाली सार्वजनिक जमीन को हड़प लेते हैं। कचरे को समुद्र में बहा देते हैं और इससे मछली उत्पादन में कमी होती हैं। इसके चलते आसपास के क्षेत्र में भूजल और सतही जल में लवणता बढ़ जाती है।
उन्होंने बताया कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के कुछ हालिया आदेशों ने उनकी उम्मीद जगी थी। लेकिन नए कानून ने अवैध खेतों को खत्म करने के लिए ऐसे सभी अदालत या न्यायाधिकरण के आदेशों को रद्द कर दिया है।
कानून कहता है, “किसी भी तटीय जलीय खेती गतिविधि को हटाने या बंद करने या उससे जुड़ी किसी भी ढांचे के खत्म करने से संबंधित किसी भी फैसले या आदेश या निर्देश का किसी भी न्यायालय द्वारा कोई प्रवर्तन नहीं किया जाएगा… जैसे कि उप-धारा (1) के प्रावधान और किए गए संशोधन की धारा 13 की उपधारा (8) हर समय पर लागू रही है।”
यह बदलाव अहम है, क्योंकि 29 सितंबर, 2022 के आदेश में एनजीटी ने कहा कि सीएए कानून पंजीकरण के बिना किसी भी गतिविधि को दंडनीय अपराध बनाता है और इसकी धारा 13 की उप-धारा 8 “एचटीएल (HTL) से 200 मीटर के भीतर और सीआरजेड क्षेत्र के भीतर खाड़ियों, नदियों और बैकवाटर में जलीय खेती पर पाबंदी लगाती है। ” इस सेक्शन की इस व्याख्या के आधार पर एनजीटी ने फैसला दिया कि हाई टाइड लाइन (एचटीएल) से 200 मीटर के भीतर या तटीय विनियमन क्षेत्र (सीआरजेड) –I क्षेत्रों में हैचरी को “स्थापित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती”। वे सीआरजेड-III क्षेत्रों में “पूर्व अनुमति के साथ “200 मीटर से ज्यादा दूर लगाए जा सकते हैं।
एनजीटी ने तमिलनाडु के संदर्भ में फैसला सुनाया था, “एचटीएल के 200 मीटर के दायरे में कोई भी हैचरी जो कि ‘नो डेवलपमेंट जोन‘ या सीआरजेड-आई क्षेत्रों में है, अवैध होगा और इसे तुरंत हटा दिया जाएगा।” एनजीटी ने सीएए से उनके खिलाफ मुकदमा शुरू करने और पिछले उल्लंघनों के आधार पर लगाए जाने वाले मुआवजे का आकलन करने को कहा था।
अब, संशोधित कानून ने पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है कि ऐसे पिछले आदेश अमान्य हैं।
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बैनर तस्वीर: विरोध-प्रदर्शन करने वाले कार्यकर्ताओं का मानना है कि झींगा उद्योग के मुनाफे के लिए सीमांत मछुआरों के हितों की बलि दी गई है। तस्वीर – टिमोथी ए. गोंसाल्वेस/विकिमीडिया कॉमन्स।