- भारत में रेडियो कॉलर के इस्तेमाल से रेडियो टेलीमेट्री का कई तरीकों से अध्ययन किया जाता है। इनमें वन्यजीवों की गतिविधियों और व्यवहार के बारे में पता लगाना और सीखने से लेकर मानव-जानवर संघर्ष को कम करने तक के इस्तेमाल शामिल हैं।
- किसी जानवर को रेडियो कॉलर लगाने की प्रक्रिया जोखिम और चुनौतियों से भरी है। इसमें जानवर को सुरक्षित रूप से स्थिर करना और सरकारी नियंत्रण और तकनीक के एकाधिकार को तोड़ना शामिल है।
- उम्मीद है कि भारत में बने रेडियो कॉलर से, रेडियो कॉलर खरीदने और इस्तेमाल में आने वाली भारी लागत कम हो जाएगी। साथ ही, संरक्षण कोशिशों को भी धार मिलेगी।
रेडियो कॉलर, वन्यजीवों की निगरानी के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक लोकप्रिय तकनीक है। लेकिन, हाल के महीनों में कूनो में लाए गए चीतों के साथ हुए हादसे के बाद से इनकी साख पर असर पड़ा है। मध्य प्रदेश के कुनो राष्ट्रीय उद्यान में नौ चीतों की मौत में से कम से कम तीन की वजह चीतों पर निगरानी के लिए लगाए गए रेडियो कॉलर से हुए संक्रमण को माना जाता है। हालांकि, रेडियो कॉलर का इस्तेमाल करके जंगली जानवरों का टेलीमेट्री अध्ययन वास्तव में वन्यजीव अनुसंधान में बेहद उपयोगी और बेशकीमती तरीका है। संरक्षण अध्ययन के लिए उपलब्ध पशु व्यवहार, प्रवासन, जनसंख्या गतिशीलता वगैरह पर ज्यादातर साहित्य, दुनिया भर में लगभग आधी शताब्दी और भारत में तीन दशकों से ज्यादा समय तक इस तकनीक के असर के इस्तेमाल का नतीजा है।
किसी क्षेत्र की पारिस्थितिकी में रेडियो टेलीमेट्री का इस्तेमाल करने वाला अनुसंधान 1960 के दशक की शुरुआत में विलियम डब्ल्यू. कोचरन की ओर से शुरू किया गया था। लेकिन यह क्रेगहेड बंधुओं (फ्रैंक और जॉन क्रेगहेड) की तरफ से अमेरिका के येलोस्टोन नेशनल पार्क में ग्रिजली भालू के शानदार अध्ययन के साथ बड़े स्तर पर सामने आया। ग्रिज़ली की आबादी घट रही थी। उनकी पारिस्थितिकी, घरेलू क्षेत्र, व्यवहार या सर्दियों के महीनों में अपनी लंबी अनुपस्थिति के दौरान उन्होंने क्या किया, इसके बारे में बहुत कम जानकारी थी। शोधकर्ता मेल और फियोना सनक्विस्ट दो अन्य प्रमुख नाम हैं जिन्होंने जंगली बिल्लियों पर अपने अध्ययन के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया।
अमेरिकी फिश एंड वाइल्डलाइफ सर्विस के एलडी मेक को वन्यजीव रेडियो टेलीमेट्री को प्रशिक्षण और परीक्षण के लिए 1976 में भारत में लाने का श्रेय दिया जाता है। यह जानकारी तीन दशकों तक भारत में रेडियो टेलीमेट्री की 2014 में की गई समीक्षा में दी गई है। प्रोजेक्ट टाइगर के तत्वावधान में 1976 से 1980 तक दो सांभर, तीन नीलगाय, दो चीतल और एक जंगली सूअर को ट्रैक किया गया था। एक बाघ को एक एशियाई हाथी और एक एशियाई शेर को रेडियो कॉलर लगाया गया था। परियोजना के चलते, पशु रेडियो-ट्रैकिंग की एक पुस्तिका प्रकाशित की गई जो रेडियो ट्रैकिंग पर विचार करने वाले शोधकर्ताओं के लिए एक मैनुअल के रूप में काम करती है।
रेडियो टेलीमेट्री का भारत आना
भारत में पहली बार पूरी तरह रेडियो-टेलीमेट्री अध्ययन 1983 में हैदराबाद में भारतीय वन्यजीव संस्थान के मगरमच्छ अनुसंधान केंद्र द्वारा किया गया था। उन्होंने चंबल नदी में 12 घड़ियालों पर नजर रखने के लिए एक ट्रांसमीटर उपकरण लगाया। इसके बाद भारत में ऐसे कई अध्ययनों का रास्ता खुल गया। एशियाई हाथी पहला जानवर था जिसे 1985 में भारत में मुदुमलाई वन्यजीव अभयारण्य में रिसर्च के लिए रेडियो कॉलर लगाया गया था। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी की ओर से ऑपरेशन मासिनागुडी नामक एक परियोजना में दो हाथियों को रेडियो कॉलर लगाए गए और फिर इन्हें ट्रैक किया गया।
इसके बाद 90 के दशक की शुरुआत में संरक्षणवादी और बाघ विशेषज्ञ उल्लास कारंत ने भारत में सबसे बेशकीमती माने जाने वाले बाघों पर रेडियो कॉलर का इस्तेमाल करते हुए पहला अध्ययन किया गया। उनके व्यवहार और पारिस्थितिकी को समझने के लिए चार बाघों को रेडियो-कॉलर लगाया गया। इसमें यह जानकारी पता करना भी शामिल था कि वे पश्चिमी घाट के मलनाड क्षेत्र में नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान में किस तरह रह रहे हैं।
इसके बाद के दशकों में रेडियो-कॉलर से जुड़े कई अध्ययन किए गए। प्रौद्योगिकी में UHF/VHF (अल्ट्रा हाई फ्रीक्वेंसी/वेरी हाई फ्रीक्वेंसी) तकनीक (जो अभी भी इस्तेमाल की जाती है) का इस्तेमाल करने वाले हाथ में पकड़े जाने वाले ट्रैकर से लेकर ज़्यादा बेहतर GSM और उपग्रह प्रौद्योगिकी तक कई प्रगति देखी गई। इससे शोधकर्ताओं के लिए ट्रैकिंग ज़्यादा सटीक और कम मुश्किल हो गई। पहले वाले में पैदल, वाहन या कुछ मामलों में हवा से (पश्चिम में) मैन्युअल ट्रैकिंग की ज़रूरत होती थी। जबकि उपग्रह तकनीक शोधकर्ताओं को दूर से गतिविधियों की निगरानी करने की सुविधा देती है, क्योंकि रेडियो कॉलर से सिग्नल उपग्रह के जरिए कंप्यूटर पर भेजे जाते हैं।
भारत में रेडियो कॉलरिंग और टेलीमेट्री के इस्तेमाल में सबसे आगे रहने वाले लोगों में एक कारंत ने कहा, “कॉलरिंग उपकरणों का उपयोग करने वाली रेडियो टेलीमेट्री शोधकर्ताओं को ट्रैक किए गए जानवर के बारे में बारीक जानकारी इकट्ठा करने में मदद करती है।” उनके छह साल के लंबे अध्ययन से नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान में बाघों के घनत्व और उनके आहार के बारे में बहुत कुछ पता चला। बाद में उन्होंने साइंटिफिक अमेरिकन में लिखा कि उन्होंने नागरहोल में बाघों के निवास क्षेत्र को छोटा पाया, जिससे पता चलता है कि संरक्षित पार्कों में बाघों की आबादी का घनत्व पहले की तुलना में ज्यादा हो सकता है। उन्होंने लिखा कि उनके काम से मलनाड बाघों के आहार के बारे में कई जानकारी सामने आई, जिससे उन्हें “उनके द्वारा मारे गए शिकार के बदबूदार शव” मिले।
जंगल में जानवरों पर निगरानी रखने का सबसे अच्छा तरीका
शुरुआती टेलीमेट्री अध्ययनों ने अध्ययन की गई प्रजातियों और आवासों में स्पष्ट पूर्वाग्रह दिखाया था। इनमें ज्यादातर हाथी, तेंदुए और बाघ जैसे स्थलीय स्तनधारियों पर ज्यादातर ध्यान केंद्रित किया गया था। साथ ही, हिमालय जैसे कठिन इलाकों में प्रजातियों को बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया गया था। लेकिन, अब चीजें पूरी तरह बदल गई हैं।
संरक्षण वैज्ञानिक और एटीआरईई (अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन एनवायर्नमेंट एंड इकोलॉजी) में सेंटर फॉर पॉलिसी डिजाइन के निदेशक अबी टी. वनक चार प्रजातियों (2015 से अब तक) – भारतीय लोमड़ी, सुनहरे सियार, जंगली बिल्लियों और धारीदार लकड़बग्घे – की आवाजाही पर नज़र रखते हैं। वह यह समझने के लिए इन जानवरों पर नजर रखते हैं कि वे महाराष्ट्र के पुणे जिले में खुले प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र और खेती वाली जगहों पर किस तरह खुद को बचाए रखते हैं। उन्होंने कहा, “हमने पाया कि अक्सर मानव बस्तियों में देखी जाने वाली भारतीय लोमड़ियां घास के मैदानों पर बहुत ज्यादा निर्भर करती हैं। अगर घास के मैदानों को नहीं बचाया गया, तो हम पूरी तरह से इस प्रजाति को खो देंगे।” उन्होंने कहा कि अन्य हैरान करने वाली खोजें जैसे कि जंगली बिल्लियां के प्राकृतिक आवास सामान्यवादी हैं। सियार इंसान की ओर से तैयार की गई जगहों (जैसे खेती की जमीन) का इस्तेमाल करना पसंद करते हैं। वहीं लकड़बग्घे, जिन्हें पहले मायावी माना जाता था, इंसानों की अधिकता वाली जगहों पर तेजी से देखे जा रहे हैं। ये सभी जानकारियां रेडियो कॉलरिंग का इस्तेमाल करके जानवरों की गतिविधियों पर नजर रखने से सामने आई हैं।
पहली बार, भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के वैज्ञानिकों की ओर से 2015 में हिमालयी भेड़ियों पर जीपीएस (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) कॉलर लगाए गए थे। डब्ल्यूआईआई के संरक्षण वैज्ञानिक साल्वाडोर लिंगदोह ने कहा, “हिमालयी भेड़िया संभवतः जीपीएस टेलीमेट्री डिवाइस के साथ कॉलर किया जाने वाला सबसे ऊंचाई पर रहने वाला स्थलीय स्तनपायी है।” इलाके की सुदूरता और वहां की विषम परिस्थितियों के चलते, रेडियो ट्रैकिंग शायद हिमालयी प्रजातियों की गतिविधि पारिस्थितिकी को समझने का एकमात्र तरीका है।
रेडियो टेलीमेट्री के एप्लीकेशन को कुछ कैनिड प्रजातियों जैसे निशाचर जानवरों और जंगलों के बहुत अंदर रहने वाले या हाथियों जैसे लंबे, मौसमी प्रवास करने वाले जानवरों पर नजर रखने के अध्ययन में प्रमुखता मिलती है। भारत में रेडियो टेलीमेट्री का एक अन्य अहम एप्लिकेशन इंसानों और हाथियों के बीच संघर्ष को कम करना है। ऐसी घटनाओं से बचने के लिए स्थानीय समुदायों को चेतावनी भेजने के लिए “समस्याग्रस्त” हाथियों या झुंडों को ट्रैक करने के लिए हाथियों की रेडियो कॉलरिंग की गई है। कर्नाटक के कोडागु में डब्ल्यूआईआई के प्रोजेक्ट एसोसिएट थम्मैया चेकेरा ने कर्नाटक वन विभाग के सहयोग से किए गए एक प्रोजेक्ट के लिए 28 ऐसे हाथियों को रेडियो-कॉलर से जोड़ा है। उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि अक्सर इंसानों के साथ संघर्ष में आने वाले हाथियों की आवाजाही पर नज़र रखने से कोडागु और हसन जिलों में मृत्यु दर (मानव और पशु दोनों) में कमी आई है, जो बड़ी संख्या में मानव-हाथी संघर्ष की रिपोर्ट करते हैं।
कई जोखिमों और चुनौतियों वाली तकनीक
हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जंगली जानवर, खास कर हाथी या गैंडे जैसे बड़े आकार और साथ ही मांसाहारी जानवरों में रेडियो कॉलर लगाना जोखिम और चुनौतियों से भरा हुआ है। लक्षित जानवर को पहले शांत करने वाली दवा की सही खुराक देकर स्थिर करने की जरूरत होती है। यह शायद सबसे जटिल प्रक्रिया है। बहुत ज्यादा दवा जानवर को खतरे में डाल सकती है और इसकी बहुत कम मात्रा शोधकर्ता को खतरे में डाल सकती है। एक बार जब ऑपरेशन पूरा हो जाता है, तो जानवर को इसका असर कम करने वाली दवा दी जानी चाहिए, ताकि यह पक्का हो सके कि वह स्वस्थ और सही तरीके से जंगल में वापस चला जाए।
पीएस ईसा ने कहा कि हाथियों को जब स्थिर किया जाता है, तो उन्हें अपनी तरफ गिरना चाहिए, जिसे वैज्ञानिक रूप से “पार्श्व लेटना” कहा जाता है। जबकि छाती के बल गिरने से संभावित रूप से उनके अंदरुनी अंगों को नुकसान हो सकता है। ईसा केरल वन अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक हैं, जो पहले हाथी रेडियो-कॉलरिंग परियोजना (ऑपरेशन मासिनागुडी) का हिस्सा थे।
अध्ययन के लिए प्रियंका नाम की हथिनी को सबसे पहले रेडियो-कॉलर लगाया गया था। वह छाती के बल गिर गई और कॉलर लगाने के बाद जब पहले वाली दवा के असर को कम करने के लिए फिर दवा दी गई, तो वह नहीं उठी। लेकिन तेजी से सोच वाले पशुचिकित्सक ने स्थिति को अच्छी तरह से मैनेज किया और प्रियंका अपने झुंड में शामिल होने के लिए वापस चली गई और अनुसंधान टीम को अपनी प्रजाति के बारे में बहुमूल्य जानकारी भेजी। ईसा ने एक और घटना को याद किया, जहां हाथी को स्थिर करने के लिए डाला गया तीर ठीक से नहीं लगा और टीम का एक सदस्य पर पीछे से भालू ने हमला कर दिया। युवा चिकित्सक लक्ष्य की तलाश में झाड़ियों में गया था। क्रेगहेड बंधुओं की अनुसंधान पद्धति पर एक वीडियो में 200 किलोग्राम से ज्यादा वजन वाले एक बड़े नर भालू को ऑपरेशन के बीच में जागते हुए दिखाया गया है, जिससे शोधकर्ता भाइयों को जीवन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
रेडियो कॉलर को ठीक से फिट करना पड़ता है, ताकि जानवरों की आवाजाही में बाधा ना आए और आने वाले समय में जानवर के संभावित वजन घटाने या बढ़ने और गर्दन की परिधि में बदलाव को ध्यान में रखा जा सके। कारंत ने कहा कि एकत्र किया गया डेटा विज्ञान और संरक्षण को आगे बढ़ाने के लिए उपयोगी होना चाहिए। उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “गंभीर सवालों के जवाब खोजने में ही इस तकनीक का इस्तेमाल होना चाहिए, नहीं तो ये टेक्नोलॉजी का दुरुपयोग है।”
देसी तकनीक समय की जरूरत
चेकेरा ने बताया कि रेडियो कॉलरिंग एक असरदार उपकरण है, लेकिन इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। हाथियों के लिए रेडियो कॉलर की कीमत साढ़े चार लाख रुपए तक हो सकती है। वहीं एक सप्ताह तक चलने वाले उन्हें फिट करने के काम में तीन लाख रुपए और लगते हैं। इसके लिए ऐसी स्वदेशी तकनीकों को विकसित करने की ज़रूरत है, जिस पर कम खर्च आए।
इकोलॉजिस्ट अभिजीत कुमार ने इस जरूरत के जवाब में Arcturus.Inc की शुरुआत की। उनकी ओर से बनाए गए रेडियो कॉलर की कीमत यूरोपीय कॉलर का लगभग पंद्रहवां हिस्सा थी। पिछले साल उनकी कंपनी चालू होने के बाद से उन्होंने उनमें से लगभग 100 कॉलर बेचे हैं। बेहतर यूरोपीय उपकरणों के प्रोटोटाइप का इस्तेमाल करते हुए, कुमार के जो रेडियो कॉलर बनाए हैं, वे लोरा और जीएसएम नामक लंबी दूरी की दो अलग-अलग प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल करते हैं। ये दोनों तकनीक स्थानीय जरूरतों के हिसाब से हैं। कुमार ने कहा, “मैंने कई जानवरों के लिए रेडियो कॉलर बनाए हैं, जिनमें लगभग एक किलोग्राम वजन वाली सिवेट बिल्लियों से लेकर हाथी तक शामिल हैं।” उनके रेडियो कॉलर का उपयोग फिलहाल देश के अलग-अलग वन विभागों द्वारा किया जा रहा है।
कारंत रेडियो टेलीमेट्री अध्ययन पर सरकार के एकाधिकार को भारत में संरक्षण क्षेत्र में बेहतर रिसर्च के लिए सबसे बड़ी बाधा के रूप में देखते हैं। जिन जानकारों से मोंगाबे-इंडिया ने बात की, उन्होंने बताया कि भारी कागजी कार्रवाई और लालफीताशाही ने उन्हें अध्ययन के लिए रेडियो कॉलरिंग तकनीक पर विचार करने से रोक दिया है। उनका कहना है कि जंगल में रेडियो कॉलरिंग अध्ययन के व्यापक एप्लीकेशन और उपयोग को देखते हुए, अब संरक्षण की खातिर इसके उपयोग को लोकतांत्रिक बनाने का समय आ गया है।
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बैनर तस्वीर: रेडियो कॉलर वाला एक हाथी 18 मई, 2023 को कर्नाटक के हसन जिले के सकलेशपुर के पास एक कॉफी बागान से गुजर रहा है। तस्वीर – अभिषेक एन चिन्नप्पा।