- बेमौसम बारिश, बढ़ती हीटवेव, चक्रवात और मौसम के समय में बदलाव कच्छ में मिट्टी के बर्तन बनाने वालों और हथकरघा कारीगरों को प्रभावित कर रहे हैं। ये कारीगर अपनी कला और अपनी आजीविका के लिए मुख्य तौर पर प्राकृतिक स्रोतों और तय मौसम पर आश्रित होते हैं।
- भारत के मौसम विभाग और अन्य एजेंसियों की रिपोर्ट कहती है कि कच्छ में अब पहले की तुलना में ज्यादा तेज बारिश हो रही है। साथ ही, बीते कुछ सालों में हीटवेव और चक्रवाती घटनाओं की संख्या बढ़ गई हैं।
- प्राकृतिक डाई के तौर पर इस्तेमाल होने वाले पौधों की स्थानीय प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं, जंगली पौधों का प्रजातियां बढ़ती जा रही हैं और मिट्टी का काम करने वालों की मिट्टी में खारापन बढ़ता जा रहा है। इस सबमें बदलते मौसम और अन्य पर्यावरणीय प्रभावों के चलते कच्छ जिले में आर्थिक नुकसान बहुत हो रहा है।
गुजरात के कच्छ में समुद्र के निचले इलाको में बसे गांव टुना में रहने वाले रजाक भाई बैठे-बैठे आसमान में उमड़ते बादलों को देख रहे हैं। रजाक भाई कुम्हार का काम करते हैं और अपने गांव में बचे गिनती के कुम्हारों में से एक हैं जो अब भी इस पारंपरिक पेशे से जुड़े हुए हैं। कहा जाता है कि पानी को जितना ठंडा टुना में बने मिट्टी के बर्तन रख सकते हैं उतना कहीं और के बर्तन नहीं रख सकते। कच्छ की तपा देने वाली गर्मी में भी इन बर्तनों में रखा पानी ठंडा ही रहता है। इन बर्तनों में रखा पानी ताजा और मीठा होता है।
रजाक भाई कहते हैं, “पिछले तीन-चार सालों की तरह गर्मियां बहुत छोटी थीं। गर्मियों की शुरुआत में बारिश हो रही थी और फिर बिपरजॉय चक्रवात और बारिश ले आया। ऐसे मौसम में इन मिट्टी के बर्तनों को कौन खरीदेगा?”
अपने विविध शिल्प और कारीगरी के लिए मशहूर यह क्षेत्र मुख्य तौर पर प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है। अब जलवायु परिवर्तन जैसे कि बेमौसम बारिश, हीटवेव और चक्रवात की बढ़ती घटनाएं कच्छ क्षेत्र के कारीगरों को बुरी तरह प्रभावित कर रही हैं। कुछ लोगों के लिए, जैसे कि टुना के कुम्हारों के लिए ये बदलाव हानिकारक हैं और इससे उनकी कला और शिल्प किसी काम की नहीं बची है।
उत्पादन का मौसम छोटा और खराब कच्चा माल
अपनी चुनौतियों के बारे में बात करते हुए रजाक भाई कहते हैं, “हम आमतौर पर मिट्टी के बर्तन बनाते हैं और उन्हें साल के ज्यादातर समय यानी मॉनसून को छोड़कर लगभग 8 महीने बेचते हैं। हालांकि, पिछले तीन सालों से हम छह या साढ़े छह महीने ही इसे बेच पा रहे हैं। बाकी के समय यहां बारिश ही होती रहती है।” इस बेमौसम और बहुत ज्यादा बारिश ने यहां की मिट्टी को ज्यादा खारा बना दिया है। ये लोग समुद्र के तल की मिट्टी लाकर उससे बर्तन बनाते हैं। इसके अलावा, बारिश ज्यादा और बार-बार होने से मिट्टी की ढलाई में भी समस्या आती है। साथ ही, बारिश के चलते उन भट्टियों को जलाना और बर्तन को पकाना भी चुनौती भरा हो जाता है जिनमें बर्तन तैयार किए जाते हैं।
बेमौसम बारिश, ज्यादा हीटवेव और चक्रवात और मौसम में थोड़ा सा अंतर होने से मिट्टी के कारीगर, बुनकर और कुम्हार भी प्रभावित हो रहे हैं।
टुना से 50 किलोमीटर और भुज से 6 किलोमीटर दूर के भुजोड़ी के एक बुनकर वी शामजी बदलती जलवायु को ऊन/धागों की खराब गुणवत्ता के लिए जिम्मेदार मानते हैं। भुजोड़ी को बुनकरों के गांव के तौर पर जाना जाता है और यहां के ऊनों के शॉल, स्टॉल और अन्य कपड़ों की स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खरीदारी होती है।
अपने जैसे बुनकरों की चुनौतियों के बारे में बताते हुए शामजी कहते हैं कि सर्दियां आने में देरी होने से ऊन की गुणवत्ता पर असर पड़ रहा है। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “इससे पहले हम भेड़ों से बाल साल भर में दो बार उतारते थे। एक बार फरवरी में सर्दियां खत्म होने पर और दूसरी बार जुलाई की शुरुआत में। अब सर्दियां फरवरी के आखिर तक रहती हैं, ऐसे में हम भेड़ों के बाल मार्च के पहले हफ्ते में काट पाते हैं। इसी के चलते दूसरी कटाई भी प्रभावित होती है।” उनका दावा है कि इस बदलाव की वजह से ऊनों की गुणवत्ता पर भी असर पड़ा है।
ठीक इसी तरह ज्यादा समय तक गर्मी पड़ने से भेड़ों और अन्य जानवरों के लिए चारा मिलने में भी दिक्कत आ रही है। एक और बुनकर राणा जयमाल वनकर कहते हैं, “यही वजह है कि ऊन ज्यादा खुरदुरे हो रहे हैं।”
कच्छ की बदलती जलवायु
कच्छ जलवायु परिवर्तन का काफी बुरा असर झेल रहा है जो कि पिछले कुछ सालों में स्पष्ट तौर पर दिखने भी लगा है। भारत के मौसम विभाग की मनोरमा मोहंती और भू-विज्ञान मंत्रालयक कमलजीत रे के एक रिसर्च पेपर के मुताबिक, पिछले तीन दशकों (1984 से 2013 तक) में कच्छ में औसत बारिश 378 मिमी से बढ़कर 674 मिमी हो गई है।
विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि अरब सागर के ऊपर मॉनसून की शुरुआत और आखिर में चक्रवाती घटनाओं की वजह से कच्छ में बारिश के दिनों की संख्या में बढ़ोतरी हो गई है। गुजरात के आपदा प्रबंधन संस्थान की एक रिपोर्ट कहती है कि 2001 से 2019 के बीच अरब सागर के ऊपर चक्रवाती घटनाओं की संख्या और उनकी रफ्तार में बढ़ोतरी हुई है।
भारत के मौसम विभाग में मेटेरोलॉजी के निदेशक एम मोहापात्रा के मुताबिक, समुद्र के सतह का तापमान बढ़ने की वजह से ये घटनाएं हो रही हैं।
उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “साल 1990 से ही अरब सागर के ऊपर तेज चक्रवात की घटनाओं की संख्या और उनकी रफ्तार में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है।” हीटवेव की संख्या बढ़ने की एक वजह यह भी हो सकती है। गुजरात के राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के मुताबिक, राज्य में पिछले एक दशक में तेजी से बदली जलवायु, शहरीकरण और उद्योगीकरण की वजह से हीटवेव की संख्या और उसकी रफ्तार में बढ़ोतरी हुई है।
दुर्लभ होती जा रही हैं स्थानीय पौधों की प्रजातियां
जलवायु में ऐसे बदलाव की वजह से ही संभवत: कुछ स्थानीय पौधों की प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। ये प्रजातियां कच्छ की आंशिक तौर पर शुष्क रहने वाली मिट्टी में पैदा होती हैं। ये प्रजातियां यहां के कारीगरों के लिए कच्चे माल का अहम स्रोत थीं। अब या तो ये बेहद कम हो गई हैं या फिर एकदम लुप्त हो गई हैं।
कच्छ में कारीगरों के साथ एक संस्था खमीर काम करती है। इस संस्था ने पर्यावरण एक्शन ग्रुप कल्पवृक्ष के साथ काम किया और 2019 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में इन पौधों के नाम इकट्ठा किए हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है, ‘बावड़ या देसी बबूल (Acacia Nilotica) का इस्तेमाल राबड़ी घाघरे में काले रंग की प्राकृतिक डाई बनाने में किया जाता है।’ यहां की राबड़ी समुदाय की महिलाएं अच्छे से कढ़ाई किए हुए घाघरे पहनती हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि समय के साथ इस बबूल का मिलना मुश्किल हो गया है और इसकी जगह गांडो बावल (Prosopis juliflora) ने ले ली है।
यह गांडो बावल इस पौधे की एक जंगली प्रजाति है। IUCN के मुताबिक, बाहरी जंगली प्रजातियां जैव विविधिता के नुकसान और प्रजातियों के लुप्त होने की अहम वजह हैं। इसके अलावा, इन जंगली प्रजातियों का प्रसार अक्सर खराब जलवायु परिवर्तन की वजह बनता है।
इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि धागों के नीले रंग के लिए डाई के तौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला Indigofera tinctoria भी कच्छ के इलाके में अब दुर्लभ होता जा रहा है। भोजुड़ी में धागों से चटाई बनाने वाले एक बुनकर वी नारण कहते हैं, “पहले बेर का पौधा आसानी से मिल जाती था और इसी से लाख निकालकर उससे प्राकृतिक लाल डाई बनाई जाती है। अब यह मिलता ही नहीं है।”
ऐसी ही समस्याएं कपड़ों पर ब्लॉक प्रिंटिंग और बैटिक प्रिंटिंग करने वालों के सामने भी आकर खड़ी हो गई हैं। खमीर के घटित लहेरू ने मोंगाबे इंडिया से बातचीत में बताया, “बेमौसम और बहुत ज्यादा होने वाली बारिश ने ब्लॉक और बैटिंग प्रिंटिंग से बनने वाले कपड़ों का उत्पादन प्रभावित किया है।” उदाहरण के लिए, अजरख (Ajrakh) ब्लॉक प्रिंटिंग में प्राकृतिक डाई का इस्तेमाल करके कपड़े 16 चरण में तैयार किए जाते हैं। इसमें कपड़ों को धूप में सुखाना सबसे अहम चरण है। यही वजह है कि मॉनसून के समय लगभग चार महीने के लिए काम रोकना पड़ता है। अब बेमौसम बारिश ने इसके उत्पादन पर बहुत ज्यादा असर डाला है।
खालिद खत्री जो कि ऐसी ही छपाई करते हैं, उन्होंने मोंगाबे इंडिया से बातचीत में कहा, “हमने बिपरजॉय चक्रवात के समय बारिश होने के चलते अपना काम 8 से 10 दिन के लिए पूरी तरह से रोक दिया था। इस साल गर्मी के समय भी उम्मीद से काफी ज्यादा बारिश हुई थी।” इसका नतीजा यह हुआ था कि आर्थिक नुकसान काफी ज्यादा हो गया।
बदलाव के प्रति लचीलापन
हालांकि, रजाक भाई अपना काम जारी रखेंगे। वह कहते हैं, “मुझे इसके अलावा कुछ नहीं आता और वैसे भी इतने सालों तक चाक पर झुके-झुके काम करने की वजह से मेरी कमर अब झुक गई है। मैं दूसरे लोगों की तरह दिहाड़ी करके नहीं कमा सकता हूं।”
वहीं, लहेरू को भरोसा है कि कच्छ के कारीगर इन बदलावों के प्रति लचीले बने रहेंगे। वह कहते हैं, “कुछ भी हो जाए, प्राकृतिक स्रोतों पर पूरी तरह से निर्भरता पिछले कुछ सालों में अब कम होती जा रही है।” उदाहरण के लिए, पहले की तरह सिर्फ प्राकृतिक डाई के बजाय अब आर्टिफिशियल रंगों का इस्तेमाल किया जा रहा है। चाहे यह बाजार की ताकतों की वजह से हो कि फैक्ट्री में बने सस्ते मिट्टी के बर्तनों की तुलना में हाथ से बने बर्तनों को बनाए रखना है या जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां हों, कच्छ के कारीगर जानते हैं कि इस संकट में बचे रहने और अपनी परंपरा को बचाए रखने के लिए प्रकृति के नियमों का पालना करना और बदलावों के प्रति खुद को ढालना जरूरी है।
बैनर इमेज: टुना में रजाक भाई की बेटी सई हाथ से बर्तनों को रंगती हुई। फोटो: अजेरा परवीन रहमान।