- संघर्ष वाले इलाकों में महीनों तक हुए विरोध प्रदर्शनों के बाद धान खाने वाले जंगली हाथियों यानी अरिकोंबन को केरल से तमिलनाडु भेजा गया था।
- हाथियों को एक जगह से दूसरी जगह भेजने के बारे में की गई स्टडी बताती हैं कि इससे अस्थायी तौर पर तो तनाव कम हो सकता है। हाथियों को नई जगह पर छोड़े जाने के बाद भी कई बार वह वही गतिविधियां करते हैं या फिर ये हाथी फिर से रिहायशी इलाकों में प्रवेश कर सकते हैं।
- वन्यजीव विशेषज्ञों का कहना है कि हाथियों के घूमने के इलाकों को ट्रैक करना, हाथियों को देखने के लिए अलर्ट लाइट लगाना, स्थानीय नागरिकों में जागरूकता फैलाना और सही तरीके से इलेक्ट्रिक बाउंड्री तैयार करने जैसे तरीकों से लंबे समय के लिए हाथियों और इंसानों के टकराव को रोका जा सकता है।
केरल के लोग शायद इस साल की शुरुआत के उन दृश्यों को कभी भुला नहीं पाएंगे जिनमें देखा गया कि एक हाथी को ट्रक पर लादा गया था और ट्रक एक तीखे मोड़ पर मुड़ रहा था। बेहोशी की हालत में यह हाथी इस बात से बिल्कुल अंजान था कि जहां वह पैदा हुआ और 35 सालों तक रहा उसे उसी जंगल से हटाया जा रहा है।
यह ‘अरिकोंबन’ एपिसोड एक छोटी सी रिपोर्ट के साथ शुरू हुआ, जहां चिन्नाक्कनाल में राशन की दुकान चलाने वाले एक शख्स ने अनुरोध किया था कि उसकी दुकान को एक मजबूत बिल्डिंग में शिफ्ट किया जाय क्योंकि एक जंगली हाथी लगातार उसकी दुकान की दीवार गिरा रहा था ताकि वह चावल और गेहूं के नए स्टॉक में से राशन खा सके।
कुछ ही दिनों में यह हाथी अरिकोंबन (अरि यानी चावल और मलयालम में हाथी को कोंबन कहा जाता है) मीडिया और जनता की नजरों में आ गया और इस हाथ के हर कदम को लाइव दिखाया जाने लगा। अरिकोंबन के बारे में बताने के लिए ‘हत्यारा’ और ‘दुष्ट’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाने लगा। रिपोर्ट के मुताबिक, इस हाथी ने 11 लोगों की जान ले ली। हालांकि, ज्यादातर मामले पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हुए और कुछ आदिवासी समुदायों ने भी इन दावों को खारिज किया।
भावनाएं चरम पर थीं और कुछ ही समय में मामला इस कदर उछला कि कुछ मंत्री, विपक्षी नेता और सोशल मीडिया यूजर्स तरह-तरह के विरोधाभासी सुझाव देने लगे कि इंसान और हाथी के टकराव से कैसे निपटा जाए। इन सुझावों में हाथी को जाने से मारने से लेकर जंगल में फलदार वृक्ष लगाने और टकराव वाले इलाकों से लोगों को बाहर शिफ्ट करने जैसे सुझाव शामिल थे।
भारी दबाव में आने के बाद केरल सरकार ने अप्रैल 2023 के आखिरी हफ्ते में अरिकोंबन को दूसरे जगह भेजने की प्रक्रिया शुरू की। सबसे पहले इसे बेहोश किया गया, इसे रेडियो कॉलर लगाया गया और कुमकी (जंगली हाथियों को फंसाने के लिए प्रशिक्षित हाथी) हाथियों की मदद से राज्य के ही पेरियार टाइगर रिजर्व में छोड़ दिया गया।
इस घटना को चार महीने के विरोध प्रदर्शनों, संघर्ष और सालों की अनिश्चितता का अंत माना जा रहा था। हालांकि, नशे की हालत में ले जाए जा रहे हाथी को देखकर रातों रात बहुत सारे लोगों का दिल तोड़ दिया और अभी तक ‘हत्यारा’ कहे जा रहे अरिकोंबन को अब केरल में ‘पशु क्रूरता का शिकार’ कहा जाने लगा।
उस समय चिन्नाक्कनाल के एक आदिवासी समूह ने प्रदर्शन किया कि अरिकोंबन को अपने घर में वापस लाया जाए। इस इलाके के मूल निवासी होने के नाते ये लोग सदियों से हाथियों के साथ ही जीते आए हैं। उनका कहना है कि हाल में जंगलों में बसे लोगों को ही इन हाथियों से समस्या होने लगी है। इस सबके अलावा इन लोगों का यह भी दावा है कि जिस हाथी को पकड़ा गया उसने कभी किसी की जान ली ही नहीं। बाद में तमिलनाडु के चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन श्रीनिवास रेड्डी ने भी इस दावे को ही बढ़ावा दिया।
हालांकि, केरल सरकार ने अभी तक इस ‘मिशन अरिकोंबन’ पर 80 लाख रुपये खर्च कर दिए हैं और नतीजा यह हुआ है कि यह हाथी नई जगह पर रहने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है। इस हाथी को जहां छोड़ा गया था वह वहां से 23 किलोमीटर दूर चलकर पड़ोसी राज्य तमिलनाडु के शहर कमबम के एक रिहायशी इलाके में पहुंच गया। इससे वहां से लोग परेशान हो गए हैं और अब तमिलनाडु सरकार ने इस हाथी को कहीं और भेजने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। इस बार इस हाथी को तमिलनाडु के मुंडाथुराई टाइगर रिजर्व में छोड़ा जाना है।
वन्यजीवों का मुद्दा बन गया सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा
तमिलनाडु के चीफ वाइल्ड लाइफ वॉर्डन श्रीनिवास रेड्डी भरोसा दिलाते हैं कि इस नए इलाके में हाथी के लिए पर्याप्त पानी और ताजा चारा है इसलिए वह यहीं रहेगा। हालांकि, अरिकोंबन अभी भी घूम रहा है जैसा कि वाइल्ड लाइफ बायोलॉजिस्ट्स का भी अनुमान था। हाथियों को एक जगह से दूसरी जगह भेजने के बारे में साल 2012 में हुई एक स्टडी में कहा गया था कि एक बार कहीं भेजे गए हाथियों को बार-बार अलग-अलग जगहों पर भेजे जाने पर उनकी जान भी जा सकती है।
हाथियों को उनके आस-पास के इलाकों से अक्सर जनता और राजनीतिक दबाव में पकड़ा और दूसरे इलाकों में भेजा जाता है। इससे यह तनाव अस्थायी तौर पर तो कम हो सकता है लेकिन यह संभव है कि वैसी ही या फिर उससे भी गंभीर समस्या किसी और जगह पर पैदा हो जाए। स्टडी में कहा गया है कि इससे हाथियों के मरने की संख्या भी बढ़ सकी है। इस रिसर्च पेपर में शोधार्थियों ने ऐसे कुल 12 हाथियों के ट्रांसलोकेशन की ‘समस्या’ का अध्ययन किया गया और निष्कर्ष निकला कि इससे इंसान और हाथी के टकराव को कम करने की संभावना और हाथी संरक्षण के लक्ष्य पर भी खराब असर पड़ता है। इस स्टडी के तहत जिन हाथियों पर नजर रखी गई वे बाद में इंसानों के साथ टकराव में लिप्त लिखे और उनमें छोड़े जाने के बाद की गतिविधियों में पकड़े जाने की जगह से जुड़ी गतिविधियों की छाप देखी गई। भले ही नई जगह पर संसाधन पर्याप्त मात्रा में थे और हाथियों को इंसानों से कोई खतरा भी नहीं था।
ऐसे में अरिकोंबन का अगला कदम क्या हो सकता है? इस स्टडी के मुख्य लेखक और श्रीलंका के सेंटर फॉर कंजर्वेशन एंड रिसर्च के चेयरमैन पृथ्वीराज फर्नांडो कहते हैं, ‘वापस जाने के अपने प्रयासों में कुछ हाथी एक बड़े इलाके में महीनों तक घूमते रहते हैं और वे गलती से या किसी अन्य कारण से इंसानों के रिहायशी इलाकों में भी घुस सकते हैं। एक हाथी नए इलाके में रह सकता है लेकिन यह लगभग पूरी तरह से निश्चित है कि वह वही चीजें यहां भी करेगा जो वह पहले किया करता था और ऐसी स्थिति में वह फिर से चावल खाने वाला हाथी बन सकता है।’
केरल के फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट के पूर्व निदेशक पी एस इयासा भी फर्नांडो की बातों से सहमत होते हुए कहते हैं, ‘हाथियों के उन्माद की वजह से तुरंत कार्रवाई करना पड़ता है और वैज्ञानिक समाधान पर काम नहीं हो पाता है।’ इयासा केरल हाई कोर्ट की ओर से बनाई गई उस पांच सदस्यीय कमेटी का सदस्य थे जो अरिकोंबन की समस्या का हल ढूंढने के लिए गठित की गई थी। जंगली हाथियों को उपनाम देने का विरोध करने वाले इयासा कहते हैं, ‘वन्यजीवों के एक मुद्दे को सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा बना दिया गया और मीडिया के जरिए जनता को गलत जानकारी दी गई। हम अपने वास्तविक प्लान के मुताबिक काम नहीं कर पाए क्योंकि मीडिया के चलते प्रदर्शन तेज हो गए। हमारा शुरुआती प्लान था कि इस हाथी को परमबिकुलम भेजा जाएगा।’
टकराव रोकने की कोशिश
वाइल्ड लाइफ बायोलॉजिस्ट श्रीधर विजयकृष्णन कहते हैं कि अगर एक भी हाथी को दूसरी जगह ले जाया जाता है तो दूसरे हाथी भी होंगे जो ठीक वैसी ही समस्याएं पैदा करेंगे। वह कहते हैं, ‘इन जानवरों के सामाजिक ताने-बाने को समझें तो किसी भी एक हाथी को हटाए जाने से बाकी हाथियों के स्वभाव में बदलाव होता है और कई अन्य समस्याएं पैदा होती हैं।’ ऐसे मामलों में लोगों को सैकड़ों किलोमीटर (हाथियों के चलने की लंबी दूरी को ध्यान में रखते हुए) दूर शिफ्ट करना भी सही समाधान नहीं हो सकता है। ऐसे में समाधान क्या है?
वैज्ञानिकों का कहना है कि इंसान और हाथियों के टकराव के वन-स्टॉप या गारंटी वाले समाधान नहीं हैं। हालांकि, श्रीधर का कहना है कि बिना टकराव वाले तरीके अपनाकर सही संभावित टकराव को कम करते हुए रास्ता निकाला जा सकता है। वह ‘हाथी की समस्या’ शब्द को ही एक समस्या मानते हैं। IUCN SSC एशियन एलीफैंट सोशलिस्ट ग्रुप के सदस्य श्रीधर कहते हैं, ‘जानवर अब इंसानी जनसंख्या वाले इलाकों में रहने के आदी हो चुके हैं और वे नुकसान पहुंचाने वाले तरीकों जैसे कि पटाखे, तेज आवाज और रबर पैलेट आदि के भी आदी हो चुके हैं, ऐसे में अब वे इंसानों को देखते ही हमला कर देते हैं। इसका समाधान यही है कि इस तरह के हाथी तैयार ही न किए जाएं।’
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श्रीधर के मुताबिक, पांच ऐसे कदम हैं जो लंबे समय में इंसान और हाथी के टकराव को कम कर सकते हैं: लॉन्ग टर्म स्टडी की जाए ताकि हाथियों की गतिविधियों को समझा जा सके और टकराव के मूल पैटर्न को समझा जा सके जिससे यह तय हो सके कि कहां और कितना हस्तक्षेप जरूरी है। हाथियों की गतिविधियों वाले इलाके को ट्रैक किया जाए और ज्यादा इस्तेमाल वाले इलाकों की पहचान की जा सके और अहम जगहों पर अलर्ट लाइट लगाई जाएं ताकि हाथी दिखने पर उन्हें ट्रिगर किया जा सके। स्थानीय नागरिकों के बीच जागरूकता फैलाई जाए कि हाथियों के खिलाने-पिलाने और गैरजरूरी गतिविधियों से दूर रहें। स्थानीय रैपिड रेस्पॉन्स टीम को ट्रेनिंग दी जाए ताकि वे नकारात्मक मेल-मिलाप और अन्य गतिविधियों को रोका जा सके। बार-बार समस्या पैदा करने वाले हाथियों पर सैटेलाइट कॉलर लगाए जाएं।
बाड़बंदी है सही इलाज
जंगली हाथी हमेशा जंगली चारे पर फसलों को तरजीह देते हैं क्योंकि वह आसानी से मिल जाती है और स्वादिष्ट भी होती है। हालांकि, श्रीधर और फर्नांडो का कहना है कि इन जानवरों की ऐसी आदत पड़ने से शुरुआत में ही रोका जा सकता है। इसके लिए सबसे कारगर उपाय इलेक्ट्रिक फेंसिंग है जो कि लंबे समय से इस्तेमाल में लाई जा रही है और इसमें बिना किसी टकराव के ही हाथियों के आवारा होने की आदत और उनके इंसानों के रिहायशी इलाकों में प्रवेश को रोका जा सकता है।
फर्नांडो कहते हैं, ‘बीते कुछ सालों में कम असर के चलते बाड़बंदी का प्रभाव कम हुआ है लेकिन यह इस पर निर्भर करता है कि आप इसका इस्तेमाल कैसे करते हैं। निजी बाड़बंदी महंगी पड़ती है लेकिन हाथियों को कहीं ले जाने की तुलना में यह सस्ता पड़ता है और सरकारी फंडिंग की मदद से यह काफी प्रभावी हो सकता है। हालांकि, इसमें स्थानीय समुदाय को शामिल करना और बाड़बंदी में लगने वाले खर्च में का बंटवारा सबके बीच करना भी जरूरी है ताकि लोगों के बीच स्वामित्व का भाव पैदा हो और इसे वे अपना समझें।’
फर्नांडो इस बात के कारणों पर जोर देते हैं कि अभी तक बाड़बंदी इतनी प्रभावी क्यों नहीं रही है। उनका कहना है कि बाड़ को या तो गलत जगह पर बनाया जाता है और हाथी और जंगल इसके दोनों ओर होते हैं या फिर बाड़ काफी कमजोर होती है और इसकी देखरेख कम की जाती है। यह सुनिश्चित करना होगा कि बाड़ के दोनों तक 1.5 मीटर तक कुछ भी न उगे।
उनका कहना है, ‘इसके अलावा, बाड़ से भी 100 फीसदी सफलता नहीं मिल सकती क्योंकि हाथियों ने बाड़ के पोल को धक्का देना और उन पर पेड़ गिराना सीख लिया है। हालांकि, इससे वे इंसानों से जरूर दूर रहते हैं। इन शर्तों को पूरा किया जाने से लगभग एक दशक से श्रीलंका में बाड़बंदी काफी सफल रही है।’
संरक्षण की ओर एक छोटा कदम
वहीं, कुछ लोगों का मानना है कि अरिकोंबन को दूसरी जगह पर ले जाना सही दिशा में किया जा रहा एक प्रयोग है। खासकर एक ऐसे राज्य में जिसे समस्या पैदा करने वाले हाथियों को पकड़ने और उन्हें कुमकी बनाने के लिए जाना जाता है। केरल सरकार ने पलक्कड़ में पकड़े गए PT-7 हाथी की तरह ही अरिकोंबन को भी कुमकी में बदलने की योजना बनाई थी। हालांकि, आईआईटी मद्रास में पीएचडी रिसर्चर विवेक विश्वनाथन की ओर से केरल हाई कोर्ट में दायर एक याचिका के चलते अरिकोंबन को पकड़ने की योजना पर रोक लग गई और उसे दूसरी जगह भेजना पड़ा। जानवरों के हित में काम करने वाली संस्था वॉकिंग आई फाउंडेशन के फाउंडर विश्वनाथन कहते हैं, ‘मैं जानता हूं कि हाथी को दूसरी जगह पर भेजा जाना सफलता की गारंटी नहीं लेकिन लेकिन कम से कम हाथी को आजाद होकर जीने का एक मौका मिला है। मैं खुश हूं कि ऐसे जज हैं जिन्होंने जानवरों के पक्ष में भी फैसला लिया।’
जनता का एक बड़ा वर्ग कह रहा है कि हाथी को अकेला छोड़ दिया जाए। इसके बारे में वाइल्ड लाइफ विशेषज्ञों का कहना है कि लोगों के व्यवहार में बड़ा बदलाव आया है क्योंकि पहले हाथियों को बंधक बनाए जाने को सामान्य माना जाता था।
वहीं, केरल सरकार ने एक और कमेटी बना दी है जिसे इंसानों और जानवरों के टकराव पर स्टडी करनी है और लंबे समय के लिए समाधान खोजना है। हालांकि, एशियाई हाथी अब अपने ही 78 प्रतिशत मूल रिहायशी इलाकों से लुप्त हो गए हैं और अब सिर्फ 13 दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशियाई राज्यों में बचे हुए हैं और यह जनसंख्या भी काफी छिटपुट और बिखरी हुई है। सिर्फ 16 प्रतिशत रेंज के संरक्षित होने की वजह से इसमें से भी ज्यादातर एशियाई हाथी इंसानों के साथ रहने और उनके साथ टकराव के लिए मजबूर हैं।
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बैनर तस्वीर: वाइल्डलाइफ बायोलॉजिस्ट्स का तर्क है कि अगर एक भी हाथी को कहीं और भेजा जाता है तो वहां के बाकी के हाथियों में परिवर्तन आएगा और मूल इलाके में वे वैसी ही समस्याएं पैदा करेंगे। तस्वीर- श्रीधर विजयकृष्णन