- भारत में पाई जाने वाले पक्षियों की कुल 1353 प्रजातियों में से 78 ऐसी हैं जो भारत की स्थानीय प्रजातियां हैं। जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की एक नई किताब के मुताबिक, इसमें से तीन ऐसी हैं जो गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों में हैं।
- इस किताब में पक्षियों के नाम की एटिमोलॉजी और उनकी ऐतिहासिक प्रासंगिकता के साथ-साथ मानचित्र भी हैं जो उनके वितरण की जानकारी दर्शाते हैं।
- पक्षियों की प्रजातियों के कम होने का अहम कारण उनके रहने की जगहों का कम होना, खराब होना और बेकार होना ही है। जलवायु परिवर्तन भी इसमें अहम योगदान दे रहा है।
विश्व भर में पाए जाने वाली पक्षियों की विविधता में से 12.40 प्रतिशत भारत में पाए जाते हैं। दुनियाभर में पाए जाने वाले पक्षियों की कुल 10,906 प्रजातियों में से 1,353 प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं। इसमें से भारत की स्थानीय प्रजातियां कुल 78 हैं। भारत में पाए जाने वाले पक्षियों की कुल प्रजातियों में से 28 ऐसी हैं जो सिर्फ पश्चिमी घाट में पाई जाती हैं, 25 अंडमान निकोबार द्वीप समूह में, चार पूर्वी हिमालय में और एक-एक दक्षिण के पठारों में और मध्य भारत के जंगलों में पाई जाती हैं। जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI) की ओर से प्रकाशित किताब ’75 एंडेमिक बर्ड्स ऑफ इंडिया’ में इसके बारे में जानकारी दी गई है। धृति बनर्जी, अमित्व मजूमदार और अनिंद्य नसकर द्वारा लिखी इस किताब के जरिए भारत की आजादी के 75 सालों का जश्न मनाया गया है।
भारत के स्थानीय पक्षियों की प्रजातियों के बारे में किताब लिखने की प्रेरणा के बारे में मोंगाबे इंडिया से बातचीत में अमित्व मजूमदार ने कहा कि पक्षियों की अच्छी विविधता के बावजूद इन पक्षियों और उनके रहने के इलाकों के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। ऐसे में विचार यही था कि इन अनोखी प्रजातियों के प्रति लोगों का ध्यानाकर्षण किया जाए और संरक्षण के प्रयासों को बढ़ाने के लिए जागरूकता फैलाई जाए।
यह किताब अपने रोचक व्याख्यानों, शानदार तस्वीरों और अहम इकोलॉजिकल इनसाइट्स के जरिए अपने पाठकों को भारत के पक्षी विज्ञान की विस्तृत जानकारी देती है। इस किताब में पक्षियों के नामों की जानकारी और उनकी ऐतिहासिक प्रासंगिकता के साथ-साथ उप प्रजातियों में अंतर की जानकारी, लक्षणों में अंतर, पसंदीदा घर, प्रजनन की जगहों और उनके पसंदीदा खाने की जानकारी भी दी गई है। इसके अलावा, इस किताब में पक्षियों की प्रजातियों के वितरण की जानकारी भी दी गई है।
इस किताब में पश्चिमी घाट के स्थानीय पक्षियों के बारे में भी जानकारी दी गई है। पश्चिमी घाट में पक्षियों की प्रजातियां जैसे कि मालाबार ग्रे हॉर्नबिल (Ocyceros griseus), मालाबार पैराकीट (Psittacula comumboides), अशंबू लॉगिंगथ्रस (Montecincla meridionalis), वाइट बेलीड शोलाकिली (Sholicola albivetris) और नीलगिरी पिपिट (Anthus nilghiriensis) पाई जाती हैं। इसके अलावा, अंडमान निकोबार द्वीप समूह की प्रजातियों में निकोबार मेगापोड (Megapodius nicobariensis), निकोबार सर्पेंट ईगल (Spilornis klossi) और अंडमान क्रेक (Rallina Canning) पाई जाती हैं।
संरक्षण के विशेष प्रयास
ZSI की निदेश धृति बनर्जी कहती हैं कि सीमित वितरण के कारण स्थानीय प्रजातियों के लिए जरूरी है कि उनके संरक्षण के लिए विशेष प्रयास किए जाएं ताकि उनको लुप्त होने से रोका जा सके। वह आगे कहती हैं, “हमारा लक्ष्य है कि पारिस्थितिकीय संतुलन बनाने के लिए पक्षियों के मूल्यों के बारे में लोगों को बताया जाए। इस किताब में लोगों को पक्षियों के बारे में जागरूक करने की कोशिश की गई। साथ ही, भारत के पक्षियों की विविधता के बारे में बताया गया है।”
ZSI साल भर मुख्य रूप से दो तरह के सर्वे करता है – प्रजाति के हिसाब से और संरक्षित क्षेत्र पर केंद्रित। किताब के लिए स्थानिक पक्षियों के लिए कोई सर्वे नहीं किया गया। ये नतीजे नियमित तौर पर होने वाले सर्वे से लिए गए जिनमें स्थानीय प्रजातियों की जानकारी भी शामिल होती है।
कुल 78 स्थानीय प्रजातियों में से 25 को इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) के वर्गीकरण की ओर से खतरे की श्रेणी में रखा गया है। खासतौर पर, तीन प्रजातियां ऐसी हैं जो संकटग्रस्त श्रेणी में, पांच गंभीर रूप से संकटग्रस्त और 17 असुरक्षित हैं। कुल 78 स्थानीय प्रजातियों में से इस किताब में तीन स्थानीय प्रजातियों के बारे में बात की गई है। ये हैं – मणिपुर बुश क्वैल (Perdicula manipurensis), हिमालयन क्वैल (Ophrysia superciliosa) और जर्डन्स कोर्सर (Rhinoptilus bitorquatus)। इनके बारे में सिर्फ शुरुआत में थोड़ी सी बात की गई है क्योंकि इन्हें कई दशकों से नहीं देखा गया है। मजूमदार बताते हैं कि पारिस्थितकी विशेषज्ञों के लिए यह चिंता का विषय है।
पक्षियों के घरों का नुकसान और जलवायु परिवर्तन
मजूमदार का मानना है कि भारत में पक्षियों की प्रजातियों के कम होने का मुख्य कारण उनके घरों का कम होना, खराब होना और नष्ट होते जाना है। इसका कारण है कि स्थानीय प्रजातियां स्थान विशेष के हिसाब से ढली होती हैं, छोटे स्तर के पारिस्थितिकी तंत्र और उनको होने वाले खतरे इनके अस्तित्व पर सवाल उठाते हैं।
मजूमदार का कहना है, “इन प्रजातियों में हम खासतौर पर बुगुन लियोसिचला (Liochichla bugunorum), वाइट बेलीड शोलाकिली, अशंबू लॉगिंगथ्रस (Montecincla meridionalis), वायनाड लॉगिंगथ्रस और कुछ अन्य को रेखांकित करना चाहते हैं।” उदाहरण के लिए, बुगुन लियोसिचला छोटे और जंगल के विशेष पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर होते हैं और अगर उनका वह घर ही नष्ट हो जाएगा तो वह प्रजाति भी लुप्त हो जाएगी। ठीक इसी तरह वाइट बेलीड शोलाकिली, अशंबू लॉगिंगथ्रस और वायनाड लॉगिंगथ्रस भी पश्चिमी घाट की अपनी खास चोटियों तक ही सीमित हैं और शहरीकरण और रबर की खेती की वजह से ये भी अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं।
जलवायु परिवर्तन का भी पक्षियों पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। मजूमदार कहते हैं कि इसके असर को पूरी तरह से मापने के लिए लंबे समय तक मॉनीटरिंग की जरूरत है। वह आगे कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन के प्रभाव बेशक वन्यजीव के साथ-साथ पक्षियों के लिए बेहद चिंता का विषय हैं क्योंकि पक्षी अकेले में नहीं रहते हैं। इंसानों की तमाम गतिविधियों की वजह से उनके घरों के नुकसान की वजह से पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो सकता है क्योंकि पक्षी अपने घोसलों के लिए, आश्रय के लिए और बढ़ने के लिए इन्हीं पर निर्भर होते हैं। इससे उनकी जनसंख्या कम हो सकती है और कुछ मामलों में प्रजातियां भी लुप्त हो सकती हैं।”
ZSI विचार कर रहा है कि स्थानीय प्रजातियों के लिए अलग से विशेष और केंद्रित सर्वे करवाए जाएं ताकि और विस्तृत इनसाइट मिल सकें जिससे उनकी खास जरूरतों और चुनौतियों को समझकर संरक्षण के प्रयास किए जा सकें।
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बैनर तस्वीरः मालाबार हॉर्नबिल। जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया साल भर मुख्य रूप से दो तरह के सर्वे करवाता है- एक प्रजाति के आधार और दूसरा क्षेत्र या संरक्षक इलाके के आधार पर। तस्वीर- अमित्व मजूमदार।