- एक अध्ययन से पता चला है कि प्लास्टिक की बोतलों और अन्य मलबे के सहारे 17 विदेशी समुद्री प्रजातियां बहकर तमिलनाडु के तट पर पहुंची हैं। इस स्थिति ने पारिस्थितिकी तंत्र पर संभावित खतरों को लेकर चिंता बढ़ा दी है।
- इस प्रजाति में तेजी से फैलने वाली उष्णकटिबंधीय अमेरिकी खारे पानी में पाई जाने वाली मसल भी है। यह प्रजाति केरल के बैकवाटर में मछुआरों के लिए परेशानी का कारण बन रही है।
- वैज्ञानिकों का कहना है कि समुद्री मलबे और जहाजों के जरिए एक देश से दूसरे देश में आने वाली ये आक्रामक प्रजाति स्थानीय जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र पर असर डाल सकती हैं।
समुद्री जीव प्लास्टिक, रबर, कांच, फोम स्पंज, धातु और लकड़ी के मलबे पर सवार होकर दक्षिण पूर्वी भारत के तटों तक पहुंच रहे हैं। इसकी वजह से स्थानीय जैव विविधता संरक्षण को लेकर चिंताएं बढ़ गईं है। एक अध्ययन ने इस बात का खुलासा किया है।
‘सत्यबामा इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, चेन्नई’ के सेंटर फॉर एक्वाकल्चर से जुड़े गुनाशेखरन कन्नन और टीम की रिपोर्ट बताती है कि केरल के बैकवाटर में मछुआरों के लिए परेशानी का कारण बन रही उष्णकटिबंधीय अमेरिकी खारे पानी की मसल ‘मायटेला स्ट्रिगाटा’ मलबे पर तैरते हुए यहां तक पहुंचने वाली कई प्रजातियों में से एक है। उनका यह अध्ययन सितंबर 2023 में समुद्री प्रदूषण बुलेटिन में प्रकाशित हुआ था।
अध्ययन में दोहरी समस्याओं यानी समुद्री प्रदूषण और आक्रामक प्रजातियों दोनों पर ध्यान दिया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, “समुद्री मलबा…तटीय और समुद्री वातावरण में निपटाया, फेंका या छोड़ा गया होता है या फिर अंतर्देशीय जलमार्गों और हवाओं के जरिए अप्रत्यक्ष रूप से समुद्र तक पहुंचता है।”
बंगाल की खाड़ी के तट पर (पुडुचेरी से लेकर तमिलनाडु में पारंगीपेट्टाई तक) किए गए अध्ययन में 17 ‘एन्क्रसटिंग’ प्रजातियां पाई गईं जो मलबे की सतहों पर चिपकी थीं। ये प्रजातियां जंतुओं के सात बड़े वर्गों से संबंधित हैं जिन्हें फाइला कहा जाता है – आर्थ्रोपोडा, मॉस जंतु, अध्ययन, एनीलिडा, निडारिया, क्लोरोफाइटा और फोरामिनिफ़ेरान।
अध्ययन बताता है कि दुनिया भर में मसल्स, बार्नेकल, स्पंज, समुद्री स्क्वार्ट्स और ब्रिसल कीड़े की लगभग 400 विदेशी प्रजातियां समुद्री कूड़े पर मंडराती हैं और अक्सर स्थानीय जीवों को धकेल कर वहां अपना दबदबा बना लेती हैं।
समुद्र तटों पर बढ़ता प्रदूषण
अध्ययन में समुद्री मलबे को भारत में इन अक्रामक प्रजातियों के फैलने का कारण बताया गया है। समुद्री मलबे पर भारत में अब तक सबसे कम अध्ययन किया गया है, जबकि भारत दुनिया के सबसे बड़े प्लास्टिक उत्पादकों और उपभोक्ताओं में से एक है।
कन्नन ने कहा, “मैं नमूनों की तलाश में पुडुचेरी और पारंगीपेट्टाई के समुद्र तटों पर घूमता रहा। मैंने इंटरटाइडल स्पेस (वह क्षेत्र जहां समुद्र उच्च और निम्न ज्वार के बीच भूमि से मिलता है) पर पानी की बोतलों, रस्सियों, जाल, बैग, कपड़ों और 18 तरह की अलग-अलग वस्तुओं पर बार्नेकल और शैवाल लगे हुए पाए।” उस समय कन्नन अन्नामलाई युनिवर्सिटी, कुड्डालोर के एडवांस स्टडी इन मरीन बायोलॉजी विभाग में एक वैज्ञानिक थे।
कन्नन ने कहा, “मुझे म्यांमार, बांग्लादेश और इंडोनेशिया की बोतलें मिलीं। ये एनर्जी ड्रिंक की प्लास्टिक की बोतलें और सैलून में इस्तेमाल होने वाले दो स्प्रेयर थे। शायद वे जहाजों से या फिर बहकर सीधे उन देशों के तटों से आये थे।” कन्नन बताते हैं कि पूर्वोत्तर मानसून के बाद जब बंगाल की खाड़ी तेज हवा, लहरों और धाराओं के साथ बहुत उग्र हो जाती है, तो तमिलनाडु के समुद्र तटों पर बहुत सारा मलबा फैला हुआ दिखाई देता है।
यह अध्ययन पुडुचेरी और पारंगीपेट्टाई के बीच आठ जगहों पर किया गया था जिसमें चार शहरी स्थल – पुडुचेरी, सिल्वर बीच, समियारपेट्टई और पुथुपेट्टई शामिल थे। बाकी की चार जगहों में छोटे गांव शामिल किए गए, जहां मछली पकड़ने की काफी कम गतिविधियां थीं।
टीम ने 20 प्रकार के समुद्री मलबे से चिपके 3130 नमूने इकट्ठा किए थे। इस मलबे में ज्यादातर प्लास्टिक के टुकड़े, बोतल के ढक्कन, बोतल, जार और फूड कंटेनर शामिल थे। शहरी स्थलों में अधिक कूड़ा-कचरा पाया गया था। और अन्य मलबे की तुलना में प्लास्टिक पर सवार जीवों की संख्या सबसे ज्यादा थी।
मलबे पर सवार होकर आने वाली प्रजातियों की सूची में सबसे ऊपर जेलिएला ट्यूबरकुलाता और जेलिएला एबर्निया हैं। ये दोनो मॉस जीव या ब्रायोज़ोअन कॉलोनियों में रहते हैं और कोरल की तरह बाहरी सुरक्षात्मक संरचनाएं बनाते हैं। सूची में बार्नेकल की तीन प्रजातियां भी शामिल हैं – लेपस एन्सेरीफेरा (गूज बार्नेकल), एम्फिबालानस एम्फिट्राइट (धारीदार एकोर्न बार्नेकल) और एक अन्य एम्फिबालानस प्रजाति- जो झींगा और झींगा मछलियों से संबंधित चिपचिपी छोटी क्रस्टेशियंस हैं। इसके अलावा मलबे में सैकोस्ट्रिया कुकुलता (रॉक ऑयस्टर) और मैगलाना बिलिनेटा (ब्लैक स्कार ऑइस्टर) सीप की प्रजातियां भी मिली।
वैज्ञानिकों के मुताबिक, मलबे पर पाई गई सबसे आम प्रजाति दुनिया के तमाम देशों में मिल जाएंगी। जाहिर है कि ये जीव कहीं भी पनप सकते हैं और कहीं भी जा सकते हैं। वैज्ञानिकों ने अपने निष्कर्षों के आधार पर अनुमान लगाया कि अमेरिकी मसल्स ने मलबे पर सवार होकर यहां तक की यात्रा की होगी। अध्ययन में जैव-आक्रमण के खतरे के साथ-साथ भारतीय तटों पर बढ़ते मलबे के बारे में भी चिंता जाहिर की। समुद्र तक मलबा कैसे पहुंच रहा है, इस पर ध्यान दिया गया और इसे नियंत्रण करने के सुझाव भी दिए गए ।
समुद्र में फैला मलबा
दुनियाभर में हर साल लगभग 4.8-12.7 मिलियन टन मलबा समुद्र में प्रवेश करता है और अक्सर लंबी दूरी तय करता है। सबसे बड़ा उदाहरण 2011 के तोहोकू भूकंप और सुनामी के मलबे का प्रशांत महासागर में शैवाल लेकर अमेरिका के ओरेगॉन और वाशिंगटन के तटों तक पहुंचना है।
कन्नन और उनके सहयोगियों ने अध्ययन में लिखा है, “एक बार जब मलबा समुद्र में आ जाए, तो यह या तो तैरता रहता है या फिर डूब जाता है और समुद्री लहरें इस बहाकर अन्य इलाकों में ले जाती हैं।” वो आगे लिखते हैं, “समुद्री मलबा बड़े समुद्री जीवों के लिए भी बड़े खतरों का कारण है, उदाहरण के तौर पर शार्क, मछली, कछुए, डॉल्फिन और समुद्री पक्षी इसे निगल लेते हैं या फिर इसमें उलझ जाते हैं।”
अध्ययनों से पता चलता है कि समुद्री पर्यावरण में अपनी प्राकृतिक सीमा के बाहर लाई गई विदेशी प्रजातियां पारिस्थितिक बदलाव का कारण बन सकती हैं। मसलन, उनकी मूल आनुवंशिक विशेषताओं में बदलाव, निवास स्थान का क्षरण, भोजन पैटर्न में बदलाव और स्थानीय प्रजातियों का विस्थापन।
समुद्री जीवन पर बुरा असर
ब्रिटिश वैज्ञानिकों के हालिया शोध ने दुनिया भर से अंटार्कटिक महासागर में आने वाले सभी जहाजों की गतिविधियों के बारे में पड़ताल की थी। ये जहाज एक देश से दूसरे देश तक, लगभग कहीं से भी मसल्स, बार्नेकल, केकड़े और शैवाल सहित विदेशी प्रजातियों के संभावित स्रोत माने जाते हैं। ये विदेशी प्रजातियां स्थानीय प्रजातियों के लिए खतरा हैं।
नाविकों का कहना है कि बार्नेकल जैसे कई जीव खुद को जहाजों के पतवारों पर चिपका लेते हैं, इस प्रक्रिया को ‘बायोफ़ूलिंग’ कहा जाता है और नौकायन को मुश्किल बना देते हैं। भारत के कन्नूर स्थित पूर्व अंतर्राष्ट्रीय नाविक रॉय परेरा ने कहा, “हमें उन्हें सूखी गोदी या डाक से नियमित रूप से हटाना होता है, वरना वे जहाज की गति पर असर डाल सकती हैं” वह आगे कहते हैं, “बार्नेकल से छुटकारा पाने के लिए हम अक्सर एंटी-फाउलिंग पेंट का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन वे फिर लौट आते हैं।”
कथित तौर पर बार्नेकल लार्वा को मारने वाला एंटी-फाउलिंग पेंट अन्य समुद्री जीवों को भी नुकसान पहुंचाता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक सतहों को मशरूम के आकार की सिलिकॉन-आधारित ‘बार्नेकल सीमेंट’ संरचनाओं से ढकने से जहाज के पतवार पर गंदे जीवों को पैर जमाने से रोका जा सकता है।
ब्लास्टा वाटर को निकालना भी विदेशी प्रजातियों के आने का एक तरीका है। परेरा ने कहा, “पर्याप्त भार न होने पर हम स्थिरता के लिए बोर्ड पर बलास्टा वाटर भर लेते हैं। यह दुनिया भर में जीवों को फैलाने का एक कारण है।” अपनी मंजिल पर पहुंचने वाले जहाज इस अनट्रीटेड बलास्टा वाटर को समुद्र में बहा देते हैं जो संभावित रूप से एक नई आक्रामक समुद्री प्रजाति को उस जगह पर फैला देता है। जहाजों को एक अंतरराष्ट्रीय संधि के तहत इससे निपटने की जरूरत है।
आक्रामक प्रजाति
बलास्टा वाटर के जरिए आने वाली आक्रामक प्रजाति का एक उदाहरण मायटेला स्ट्रिगाटा या अमेरिकी खारे पानी की मसल है। वैज्ञानिकों ने बताया कि ये प्रजाति 2019 की गर्मियों में कोच्चि के पास बैकवाटर में “तैरती हुई प्लास्टिक की बोतलों, लकड़ी के ढेर, मछली पकड़ने के जाल, नावों के पतवार और तलीय तलछट” पर चिपके हुए पाए गए थे। समुद्री जीवविज्ञानी पी. आर. जयचंद्रन और उनके सहयोगियों ने बायो इन्वेंशन रिकॉर्ड में लिखा, “कोचीन में इस प्रजाति का आक्रमण इसकी मूल सीमा या सिंगापुर से बलास्टा वाटर या जहाजों के पतवारों पर जमी गंदगी के जरिए हो सकता है। उनके नमूने बंदरगाह के पास के पानी से आए थे जहां “तेल टैंकर, मालवाहक जहाज, विशाल मालवाहक जहाज, यात्री जहाज…” आते हैं।
सऊदी अरब के किंग फहद यूनिवर्सिटी ऑफ पेट्रोलियम एंड मिनरल्स में एप्लाइड रिसर्च फॉर एनवायरनमेंट एंड मरीन स्टडी में एक मरीन बायोलॉजिस्ट जयचंद्रन ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “ऐसी भी संभावना है कि वे समुद्री मलबे के जरिए आए हों।” वह आगे बताते हैं, “स्थानीय मछुआरों ने शुरू में सोचा कि ये देशी ग्रीन मसल्स (पर्ना विरडीस) हैं और उन्होंने उसे खाना शुरू कर दिया। लेकिन स्वाद से उन्हें एहसास हुआ कि वे गलत हैं।” यह उतना स्वादिष्ट नहीं है।
अमेरिकी मसल्स तैरती हुई प्लास्टिक की बोतलों, लकड़ी के ढेरों, मछली पकड़ने के जालों के किनारों, नावों के पतवारों और तलछट में पाए गए थे। जयचंद्रन ने कहा, वे नीचे, इंटरटाइडल क्षेत्र, कंक्रीट संरचनाओं, प्लास्टिक मलबे सहित सभी आवासों पर हावी हो गए। ये प्रजाति इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में तेजी से फैली हैं। घनत्व 40,800 प्रति वर्ग मीटर तक पहुंच गया है। यह एशियाई ग्रीन मसल्स की जलीय कृषि के लिए एक संभावित खतरा है।”
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नई रिपोर्टों से पता चलता है कि तेजी से बढ़ने, जल्दी परिपक्व होने और लवणता को बेहतर ढंग से सहन करने के लिए जाने जाने वाले अमेरिकी मसल्स केरल के मुहाने और बैकवाटर में स्थानीय रूप से प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले मसल्स ‘वाइल्ड स्पैट’ के साथ मुकाबला करते नजर आ रहे हैं।
समुद्री प्रजातियों में बदलाव को लेकर दक्षिण भारत के तटीय गांवों में भी चिंता है। बेंगलुरु के ट्रांस डिसिप्लिनरी यूनिवर्सिटी में समुद्री जीव विज्ञान और स्वदेशी ज्ञान में डॉक्टरेट शोध कर रहे एक आर्टेशियन मछुआरे कुमार सहयाराजू ने कहा, “यहां अब आक्रामक बार्नाकल, एम्फिपोड और केकड़े हैं। कुछ मछलियां गायब हो रही हैं। इनमें फ्लैंडर्स, सोल्स, स्क्विरल फिश, पोनी फिश, ट्रेवेली शामिल हैं…”
पारिस्थितिकी तंत्र में यह बदलाव संभावित रूप से जैव विविधता और आजीविका के लिए नुकसानदायक हो सकते हैं। सहयाराजू ने इस बारे में और अधिक अध्ययन और संरक्षण उपायों को अपनाने का सुझाव दिया है।
उधर निकोबार द्वीपसमूह जैसी जगहों के “स्वच्छ जल और स्वच्छ समुद्र तटों” पर मलबे की रिपोर्ट ने वैज्ञानिकों को समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण के खतरे को नियंत्रित करने के लिए प्रभावी रणनीतियां तैयार करने के लिए प्रेरित किया है।
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बैनर तस्वीर: समुद्र तट पर मिली प्लास्टिक की बोतल पर सवार बार्नेकल। दुनिया भर में मसल्स, बार्नेकल, स्पंज, समुद्री स्कवर्ट और ब्रिसल कीड़े की लगभग 400 विदेशी प्रजातियां समुद्री कूड़े पर मंडराती हैं और अक्सर स्थानीय जीवों को बाहर कर देती हैं। तस्वीर-गुनासशेखरन कन्नन