- साल 1990 से 2022 के आंकड़ों की समीक्षा करने पर पता चला है कि दिल्ली के वायु प्रदूषण में सबसे ज्यादा योगदान सड़क परिवहन का है।
- दिल्ली उन 131 शहरों में शामिल है जो हानिकारक हैं और वहां प्रदूषण का स्तर सुरक्षित स्तर से काफी ज्यादा है।
- अगर नेशनल एम्बिएंट एयर क्वालिटी स्टैंडर्ड्स को सेहत पर असर से मिलाकर देखें तो हवा की गुणवत्ता के बेहतर मानक प्राप्त हो सकते हैं।
अक्टूबर महीने के आखिरी हफ्ते में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) और इसके आसपास के इलाकों को धुंधु की एक जहरीली परत ने ढक लिया था। इसी के साथ हर साल की सर्दियों के साथ शुरू होने वाले प्रदूषण के मौसम की शुरुआत हुई थी। सरकार के हालिया निर्देशों के मुताबिक, आने वाले भविष्य में भी वायु प्रदूषण के स्तर में कोई राहत नहीं मिलने वाली है और दिवाली का त्योहार शुरू होने के साथ इसमें बढ़ोतरी ही हो सकती है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) में प्रदूषण बढ़ने और उसके खतरनाक स्तर तक पहुंचने में अहम योगदान देने वाली चीजों के बारे में सबको पता है लेकिन नीति निर्माताओं, प्रशासन और मॉनीटिरिंग करने वाली संस्थाएं प्रदूषण रोकने में नाकामयाब रही हैं और हर साल हवा की रफ्तार और तापमान घटने के साथ ही धुंध और धुएं की एक परत शहर को घेर लेती है। दिवाली के त्योहार और पराली जलाने के समय अक्टूबर के मध्य से नवंबर के मध्य तक लगभग तीन से चार हफ्ते तक दिल्ली एनसीआर और उसके आसपास के इलाकों में वायु प्रदूषण अपने चरम पर पहुंच जाता है। इतने लंबे समय तक रहने वाले प्रदूषण का असर काफी हानिकारक हो सकता है। साल 2021 में हुई ग्रीनपीस एनजीओ और स्विस फर्म IQAir की एक स्टडी का अनुमान था कि साल 2020 में प्रदूषण के चलते दिल्ली में लगभग 54 हजार लोगों की मौत समय से पहले हो गई।
प्रदूषण कम करने के लिए कई बेअसर तकनीकियों जैसे कि स्मॉग टावर में एक बड़ी धनराशि खर्च की जा चुकी है। हाल में दिल्ली सरकार प्रदूषण कम करने के लिए क्लाउड सीडिंग और आर्टिफिशियल बारिश कराने के बारे में भी विचार कर रही है।
विशेषज्ञों का कहना है कि धुंध के मौसम में समस्या का हल निकालने के लिए कम समय के समाधान करना ठीक नहीं है। सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (CREA) के विश्लेषक सुनील दहिया कहते हैं, “अभी कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें साल भर करने की जरूरत है ताकि स्रोत पर ही प्रदूषण के स्तर को कम किया जा सके। दुर्भाग्य से यह अभी नहीं हो रहा है।”
दिल्ली में काम करने वाले एक संवैधानिक निकाय कमीशन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट प्रदूषण की स्थिति में इस क्षेत्र के प्राथमिक उपाय- ग्रेडेड रेस्पॉन्स ऐक्शन प्लान को लागू करता है। हवा की गुणवत्ता खराब होने के तीन दिन पहले यह कदम उठाया जाता है। इस साल अर्ली वार्निंग सिस्टम (EWS) कथित तौर पर भविष्य में होने वाले वायु प्रदूषण का अनुमान लगाने में असफल रहा जिसके चलते यह कार्रवाई करने में देरी हुई।
मोंगाबे इंडिया ने जिन विशेषज्ञों से बात की उनका कहना है कि भारत के संदर्भ में वायु प्रदूषण के प्रबंधन का विज्ञान अभी विकसित ही हो रहा है लेकिन प्रदूषण उत्सर्जन के स्रोत वाली जगह को टारगेट करके कार्रवाई करना बेहद जरूरी है।
क्या है जो हवा को कर रहा है प्रदूषित?
हर साल देश में वायु प्रदूषण से जुड़ी सबसे ज्यादा स्टडी और सबसे ज्यादा मॉनीटरिंग के बावजूद NCR के प्रदूषण को लेकर सवाल स्थायी बने हुए हैं और उन्हीं के चलते हर साल बहस हो रही है कि आखिर इसका दोषी कौनसा राज्य है।
वायु प्रदूषण के बारे में जानकारी साझा करने वाले एक प्लेटफॉर्म अर्बन एमिशन्स के वैज्ञानिक शरत गुट्टिकुंडा की अगुवाई में प्रकाशित एक रिव्यू पेपर में साल 1990 से 2022 के बीच दिल्ली के प्रदूषण की समीक्षा की गई है। इसमें पाया गया कि साल भर प्रदूषण का सबसे बड़ा उत्सर्जक सड़क परिवहन है। इस पेपर में कहा गया है, “अन्य सेक्टर जैसे कि घरो में खाना बनाने और हीटर, खुले में कचरा जलाने और उद्योगों से निकलने वाले धुंए से निकलने वाले प्रदूषण के बराबर होने के बावजूद सड़क परिवहन से होने वाला प्रदूषण काफी ज्यादा है।”
परिवहन से होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। इनमें मेट्रो रेल, बसों में सीएनजी अनिवार्य किया जाना और गाड़ियों से होने वाले उत्सर्जन के लिए उच्च मानक तय किया जाना शामिल है। इस रिसर्च पेपर में कहा गया है, “जहां ये प्रयास सड़क पर होने वाले उत्सर्जन को कम करने में मदद करते हैं, सड़क पर बढ़ती हुई गाड़ियों की संख्या और उनका अंधाधुंध इस्तेमाल इसके असर को नकार देता है। यही कारण है कि बेहतर गाड़ियां लाने और ईंधन के उच्च मानक तय करने जैसे तमाम उपाय धरे रह जाते हैं।”
परिवहन के बाद दिल्ली के सालाना औसत प्रदूषण में PM2.5 का स्तर बढ़ाने में खाना बनाने, आग जलाने और अन्य कामों से होने वाले प्रदूषण का योगदान 15 से 20 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इस समीक्षा में कहा गया है, “प्रदूषण के जिन स्रोतों पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है वे हैं गाड़ियों से निकलने वाला धुआं, निर्माण स्थलों से निकलने वाली धूल, खाना बनाने से निकलने वाला धुआं, खुले में कचरा जलाने और उद्योगों से निकलने वाला धुआं आदि।”
बीते कुछ सालों में वायु प्रदूषण के संकट से मुंबई शहर में भी वायु प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। यहां के प्रदूषण में सबसे बड़ी हिस्सेदारी निर्माण स्थलों की धूल, ट्रैफिक, कचरा जलाने से होने वाला धुआं और तेजी से हो रहे शहरीकरण का है। इस साल शहर के नगर निगम के कमिश्नर ने मीडिया को बताया कि इस बार वायु प्रदूषण से निपटने के लिए शहर सालाना स्तर पर प्लान बनाएगा।
एक्सपर्ट कहते हैं वैज्ञानिक और व्यवस्थित तरीके हैं जरूरी
देशभर में दिल्ली शहर ऐसा है जहां हवा की गुणवत्ता मापने वाली मशीनों की संख्या सबसे ज्यादा है। वहीं, इतने ही प्रदूषण वाले कई और इलाके भी हैं जहां इनकी भारी कमी है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक, राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मॉनीटरिंग कार्यक्रम के तहत कुल 931 एम्बिएंट एयर क्वालिटी मॉनिटरिंग स्टेशन हैं। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण की ओर से निर्देशित संख्या के मुताबिक, ये आधे से भी कम हैं। अर्बन एमिशन्स, आईआईटी दिल्ली और काउंसिल ऑन एनर्जी एन्वायरनमेंट एंड वाटर के विशेषज्ञों का अनुमान है कि भारत में इस तरह के कम से 4000 स्टेशन की जरूरत है जिसमें 2800 शहरी इलाकों में होने चाहिए और 1200 ग्रामीण इलाकों में, ताकि वायु गुणवत्ता के ट्रेंड को सही से दर्शाया जा सके।
भारत में ऐसे 131 शहर हैं जो रहने योग्य नहीं है और वहां वायु प्रदूषण का स्तर तय सीमा से काफी ज्यादा है। दहिया कहते हैं, “यह ध्यान में रखना चाहिए कि NCR भी ऐसे ही शहरों में से एक है, ऐसे में नीति निर्माताओं को व्यवस्थित तरीके से इस समस्या का समाधान खोजना चाहिए।” वह आगे कहते हैं, “शहरों में साफ हवा वाले ऐक्शन प्लान, जो कि उत्सर्जन के स्रोतों की पहचान करते हैं और प्रदूषण को स्रोत पर ही कम करने का सुझाव देते हैं, उन्हें लागू करने की जरूरत है न कि GRAP जैसे प्रतिबंध लागू करने की।”
दिल्ली के प्रदूषण के बारे में प्रकाशित गुट्टीकुंडा के रिसर्च पेपर में कहा गया है, “समाधान इसी में है कि सार्वजनिक परिवहन के लिए मूलभूत ढांचों को बेहतर बनाया जाए, पैदल चलने और साइकिल के लिए इंतजाम किए जाएं, स्वच्छ ईंधन जैसे कि खाना बनाने और हीटर के लिए LPG और बिजली का इस्तेमाल किया जाए, उद्योगों पर उत्सर्जन के मानक लागू किए जाएं, कचरा प्रबंधन को बेहतर बनाया जाए और खुले में कचरा जलाने को बेहतर बनाया जाए और शहर के ग्रीन कवर को बढ़ाया जाए।”
सितंबर 2021 में एम्बिएंट एयर क्वालिटी से जुड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइन को रिवाइज किए जाने के बाद पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने नेशनल एम्बिएंट एयर क्वालिटी स्टैंडर्ड्स (NAAQS) को भी रिवाइज करने की मांग की हैं। आखिरी बार इसे साल 2009 में रिवाइज किया गया था और PM 2.5 के स्तर समेत कुल 12 प्रदूषकों की सीमा तय की थी। साल 2009 की अधिसूचना के मुताबिक, PM 2.5 के उत्सर्जन की सालाना सीमा 40 माइक्रोग्राम और 60 माइक्रोग्राम है। यह सीमा 24 घंटे की विंडो के लिए है। दूसरे शब्दों में कहें तो PM 2.5 का स्तर 40 माइक्रोग्राम से ऊपर नहीं जाना चाहिए और एक दिन में इसकी मात्रा 60 माइक्रोग्राम से ज्यादा नहीं होनी चाहिए।
सरकार इन मानकों को रिवाइज करने की प्रक्रिया में है लेकिन इसके लिए कोई डेडलाइन तय नहीं की गई है कि इन्हें कब लागू किया जाएगा। कहा जा रहा है कि आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिकों की एक कमेटी वैज्ञानिक अध्ययन कर रही है ताकि यह तय किया जा सके कि नए मानक क्या होंगे।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने अपने एक नए पेपक में एक फ्रेमवर्क प्रस्तावित किया है जिससे कि नए मानकों के साथ सेहत पर प्रदूषण के प्रभावों को भी जोड़ा जाए। इस पेपर में वैज्ञानिक साहित्य की जांच करने और “कंसेंट्रेशन रेस्पॉन्स फंक्शन” इंडेक्स बनाने के लिए एक साइंटिफिक रिव्यू कमेटी बनाने का सुझाव दिया है। यह इंडेक्स वायु प्रदूषण का एक यूनिट बढ़ने पर सेहत पर पड़ने वाले असर के बारे में बता सकेगा।
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सितंबर में प्रकाशित हुए इस वर्किंग पेपर के सह-लेखक भार्गव कृष्ण कहते हैं, “पहला काम यह होगा कि आपको सबूतों के आधार पर एक मानक तय करना होगा। दूसरा काम यह होगा कि इसे एयर क्वालिटी इंडेक्स के कट-ऑफ तय करने के तरीके पूरी तरह से बदल जाएंगे और इसमें सेहत पर असर को भी जोड़ा जाएगा। मौजूदा समय में हमारे AQI को सेहत पर प्रभावों से बहुत कम जोड़ा गया है।” वह आगे कहते हैं, “उदाहरण के लिए, GRAP को तब लागू किया जाता है जब प्रदूषण का स्तर पहले ही काफी बढ़ चुका होता है। इस नए तरीके से नीति का स्तर और उसे लागू करने का समय बदला जा सकता है।”
एयरशेड और फसल में विविधता
विशेषज्ञों ने लंबे समय से हवा की गुणवत्ता में सुधाव करने के लिए राजनीतिक सीमाओं के बजाय एयरशेड का इस्तेमाल करने की सलाह दी है। एयरशेड ऐसा भौगोलिक क्षेत्र होता है जिसमें हवा का बहाव एक जैसा होता है और जिसमें हवा की गुणवत्ता और प्रदूषण का स्तर एक जैसा होता है। विशेषज्ञों का कहना है कि एयरशेड के स्तर पर हवा का प्रदूषण प्रबंधित करने से राज्यों और शहरों के प्रशासन के बीच सहयोग की भावना बढ़ सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने 7 नवंबर को एनसीआर के आसपास के राज्यों की सरकारों को निर्देश दिए थे कि तत्काल प्रभाव से पराली जलाने को रोका जाए। कोर्ट ने किसानों को भी कहा था कि वे अन्य फसलें उगाएं जैसे कि बाजरा। धान की फसल को तैयार होने में समय लगता है और यह कटाई के लिए अक्टूबर के अंतर में ही तैयार होती है। ऐसा खासकर पूसा 44 किस्म के साथ होता है जो कि अपने ज्यादा उत्पादन के लिए मशहूर है।
CEEW में प्रोग्राम असोसिएट एल एस कुरिंजी कहते हैं, “धान और गेहूं के अलावा अन्य फसलों की सरकारी खरीद लगभग न के बराबर है। ऐसे में धान की फसल को छोड़कर दूसरी फसल पर जाना रातोंरात नहीं हो सकता है। फसलों में विविधता का मतलब है कि सबकुछ ठीक चलता रहे, आसानी से खाद मिल जाए, बेहतर गुणवत्ता वाले बीज मिल जाए और वैकल्पिक फसल तैयार की जा सके।” एक सकारात्मक बदलाव यह है कि किसान धान की अलग-अलग किस्मों को अपना रहे हैं। खासकर उन किस्मों को जो जल्दी तैयार हो जाती हैं और अगली बुवाई के लिए काफी समय मिल जाता है।
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बैनर तस्वीर: दिल्ली में धुंध वाली सर्दियों के एक दिन एक पुलिसकर्मी। तस्वीर– साइंस एंड टेक्नोलॉजी मंत्रालय भारत सरकार/विकिमीडिया कॉमन्स।