- झारखंड के पिछड़े जिलों में शुमार सरायकेला-खरसावां की चामी मुर्मू तीन दशक से ज्यादा समय से पेड़ लगाने, पर्यावरण को सहेजने और महिला व बालिका सशक्तिकरण की दिशा में काम कर रही हैं।
- चामी मुर्मू को पर्यावरण के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए हाल ही में पद्म श्री पुरस्कार के लिए चयनित किया गया है।
- मोंगाबे-हिंदी ने चामी मुर्मू से बात की और वृक्षारोपण, तालाब निर्माण और महिला सशक्तिकरण के उनके काम के बारे में जानने की कोशिश की।
- गैर-सरकारी संगठन सहयोगी महिला की स्थापना करने वाली चामी मुर्मू का कहना है कि पर्यावरण हम सबकी जिम्मेदारी है। हर नागरिक को पर्यावरण के बारे में सोचना होगा और संरक्षण के लिए आगे आना होगा।
32 साल में लगाए 30 लाख पेड़। हर दिन करीब 257 पौधे।
71 गांवों में चार अमृत सरोवर सहित कुल 217 तालाबों का निर्माण।
263 गांवों में बनाए 2873 स्वयं सहायता समूह। कुल 33,000 महिला सदस्य।
पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली कोई भी संस्था या शख्स इन आंकड़ों पर हैरान हो सकता है। इसलिए, जब केंद्र सरकार ने झारखंड में सरायकेला-खरसावां जिले की रहने वाली पर्यावरणविद् चामी मुर्मू को 75वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पद्म श्री सम्मान देने की घोषणा की, तो चयन समिति के दिमाग में उपरोक्त आंकड़े जरूर रहे होंगे। मुर्मू तीन दशक से ज्यादा समय से वृक्षारोपण, पर्यावरण को सहेजने और महिला और बालिका सशक्तिकरण की दिशा में काम कर रही हैं। पद्म श्री सम्मान मिलने की घोषणा के बाद आदिवासी कल्याण मंत्रालय ने अपने सोशल मीडिया एक्स (पूर्व में ट्विटर) हैंडल पर चामी मुर्मू को आदिवासी योद्धा बताया और लिखा कि उन्होंने 30 लाख से ज्यादा पेड़ लगाए हैं और 30 हजार महिलाओं के सशक्तिकरण में योगदान दिया है।
लेकिन चामी मुर्मू का यह सफर इतना आसान नहीं रहा है। पेड़ों को अपना दोस्त बनाने के लिए उन्हें लंबे समय तक पथरीले रास्ते पर चलना पड़ा।
उन्होंने एक ऐसा संगठन खड़ा किया जिसने सरायकेला-खरसावां के अलावा पूर्वी और पश्चिमी सिहंभूम जिले में हरियाली बढ़ाई। पानी की उपलब्धता बढ़ाने के लिए काम किया। महिलाओं को छोट-छोटे रोजगार से जोड़ा और उनकी आमदनी बढ़ाने में सकारात्मक रूप से योगदान दिया।
गरीबी से पद्म श्री तक
वैसे तो चामी मुर्मू का जन्म राजनगर प्रखंड के भुरसा गांव में हुआ। लेकिन उनकी कर्मस्थली बना इसी प्रखंड का बगराईसाई गांव। घर में माता-पिता के अलावा दो भाई और एक बहन थी। दादाजी भी थे। अपने बचपन के दिनों के बारे में वह बताती हैं, “परिवार खेती-बाड़ी पर ही निर्भर था। जरूरत पड़ने पर परिजन मजदूरी भी करते थे। उस वक्त घर में पैसों की बहुत तंगी थी, क्योंकि तब मजदूरी करने पर नकदी नहीं, धान मिलता था।”
आठवीं कक्षा में पिता का साया सिर से उठ गया। लिहाजा मां, छोटे भाइयों और बहन को संभालने की जिम्मेदारी उन पर भी आ गई। यही वजह रही कि वो दसवीं से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाईं।
पर्यावरण को सहेजने के काम में दिलचस्पी जगाने का श्रेय वो अपने दादाजी को देती हैं। वह बताती हैं, “दरअसल, मेरे दादाजी धर्म-समाज के काम से घूमते-फिरते थे। मैं भी उनके साथ जाती थी। कई जगहों पर बैठकें होती थी। इस दौरान पेड़-पौधे के बारे में चर्चा होती थी। बताया जाता था कि हम आदिवासी पेड़ों की पूजा करते हैं। हमारी जरूरत भी इन्हीं से पूरी होती है। तो इस तरह पेड़-पौधों और पर्यावरण के बारे में मेरी समझ को मजबूत हुई।”
उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि कई बार दूसरों के खेतों में मजदूरी करने की नौबत भी आई। घर-परिवार को चलाने के लिए यह काम करना जरूरी था। इसी दौरान जिले में महिलाओं का सम्मेलन होने के बारे में पता चला। दूसरी महिलाओं के साथ मैं भी इसमें गई। वहीं से पहली बार वृक्षारोपण का ख्याल आया। और फिर ये कारवां धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया। चामी बताती हैं कि उन्होंने पहला पेड़ 1992 में लगाया।
इस काम को रफ्तार देने के लिए उन्होंने 11 महिलाओं के साथ मिलकर “सहयोगी महिला” नामक गैर-सरकारी संगठन भी बनाया। आज वो इस संगठन की गवर्निंग बॉडी में चीफ फंक्शनरी हैं।
लेकिन, चामी का रास्ता कांटों से भरा हुआ था। पग-पग पर चुनौतियां थी। एकाध बार वन माफिया से भी पाला पड़ा। लेकिन, लेकिन वो अपने रास्ते पर आगे बढ़ती रहीं।
चामी मुर्मू ने बताया, “1995-96 की बात है। मैंने नर्सरी लगाई थी। नर्सरी में एक लाख पौधे थे। एक रात पूरी नर्सरी को तहस-नहस कर दिया गया। वहां एक माली था। सुबह आकर उसने पूरी घटना बताई। फिर गांव में बैठक हुई। लेकिन किसी ने नहीं बताया कि ये करतूत किसकी है। फिर हमने केस किया और पुलिस ने आरोपियों को पकड़ा और उन्हें जेल हो गई।”
वो बताती हैं कि 10 साल पहले भी कुछ ऐसा ही हुआ था। पता चला कि किसी गांव में पेड़ काटने की कोशिश हो रही है। मैं वहां पहुंची और ऐसा करने वालों से कहासुनी भी हुई। फिर पुलिस आई और पेड़ काटने वालों को कदम पीछे खींचने पड़े। उनका मानना है कि अब इस काम में उन्हें कोई मुश्किल नहीं आ रही है।
तो, एक सवाल सहज ही मन में आता है। 30 लाख पेड़ लगाने के लिए जमीन कहां से मिली। दरअसल, चामी और उनके संगठन ने इसके लिए एक तरीका बनाया है।
उन्होंने बताया, “पहले हम गांव में बैठक करते हैं। किसकी जमीन पर पौधे लगाने हैं, वह तय होता है। उसके बाद यह तय होता है कि कौन-कौन से पौधे लगाने हैं। सबकी सहमति से फैसले लिए जाते हैं। वो बताती हैं कि हमारा संगठन पौधों की तीन साल तक निगरानी करता है। उसके बाद ग्राम वन समिति बनाकर उसे सुपुर्द कर दिया जाता है। हालांकि, बीच-बीच में जाकर पेड़-पौधों की निगरानी की जाती है।”
वो खुश होकर कहती हैं कि जबसे पेड़-पौधे लगाने का काम शुरू किया तब से बहुत अच्छा लगता है। एक लगाव-सा हो गया है। अपने क्षेत्र में देखते हैं कि हर परिवार को जलावन की लकड़ी मिलती है। खटिया बनाने के लिए लकड़ी मिलती है। पहले सिर्फ यहां कोयला या पुआल जलाते थे। कोयला तो खरीद कर जलाना पड़ता था। अब सूखी लकड़ी मिल रहा है। कोयले की दुकानें तो बंद हो गई हैं। जलावन मुफ्त में मिलता है।
पेड़ से पानी तक
पेड़-पौधों के बाद मुर्मू अब जलवायु परिवर्तन से जुड़ी दूसरी बड़ी समस्या की तरफ ध्यान दे रही हैं। यानी तालाब, पोखर और बरसाती नालियां बनाकर बारिश के पानी को बचाना। उनके संगठन ने अब 71 गांवों में 213 तालाब बनाए हैं। साथ ही चार अमृत सरोवर भी बनाए गए हैं। इन तालाबों का आकार आम तौर पर 100 फुट बाय 100 फुट बाय 10 फुट है।
उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “जहां तक पानी पहुंचने का जरिया होता है, वहीं पर तालाब बनाया जाता है। पहले पहाड़ी नाली बनाई जाती थी। इसे भी हमलोग ठीक करते हैं। कहीं-कहीं छोटा-मोटा कच्चा डैम भी बनाते हैं। पहाड़ पर जब बारिश होती है तो पानी तेजी से नीचे आता है। हमलोग पहाड़ के साइड-साइड में गड्ढ़ा भी बनाते हैं। इससे पानी धीरे-धीरे नीचे आता है। इन तालाब में अब मछली पालन भी हो रहा है। पानी से खेती-बाड़ी में भी मदद मिल रही है।“
यह पूछने पर कि सिंचाई की व्यवस्था करने का विचार कहां से आया। इस पर वो कहती हैं, “हमारे झारखंड में एक बार ही खेती होती है। पानी होने पर दो-तीन बार खेती हो सकती है। एक जमाने से यह नारा सुनते आ रहे हैं हर हाथ को काम, हर खेत को पानी। सिर्फ काम मिलने से कुछ नहीं होगा। काम के साथ-साथ पानी भी चाहिए। पलायन रोकना है, तो सिंचाई की व्यवस्था जरूरी है।”
उनकी इस बात की तस्दीक आंकड़े भी करते हैं। अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक 1996 से 2018 के बीच की गई स्टडी से पता चला है कि सरायकेला-खरसावां में भूजल नीचे जा रहा है। रिपोर्ट में भूजल रिचार्ज के लिए तालाब जैसे पारंपरिक तरीकों को अपनाने की सुझाव दिया गया है।
वृक्षारोपण के जरिए महिला सशक्तिकरण
पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ चामी मुर्मू महिला और बालिका सशक्तिकरण के लिए भी काम कर रही हैं। महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए उन्होंने हर गांव में स्वयं सहायता समूह बनाएं हैं। ये समूह 263 गांवों में सक्रिय हैं। उन्होंने बताया कि इनकी कुल संख्या 2873 है। इन स्वयं सहायता समूहों से करीब 33 हजार महिलाएं जुड़ी हुई हैं। एक ग्रुप में 15 तक महिलाएं होती हैं। किसी-किसी गांव में तो ऐसे आठ तक समूह हैं। ये समूह बत्तख पालन, मुर्गी पालन करते हैं। मूढ़ी बनाते हैं। धान खरीदते हैं और चावल बनाकर बेचते हैं। इन समूहों को खड़ा करने में भी बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
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उन्होंने बताया,” शुरुआत में पैसा नहीं होता था। तो जब महिलाएं खाना बनाती थी तो सुबह और शाम एक-एक मुट्ठी चावल अलग रख लेती थीं। फिर सप्ताह में उस चावल को बेच देती थी। इस तरह हमने महिलाओं स्वयं सहायता समूहों को खड़ा किया। अब इन सेल्फ हेल्प ग्रुप को बैंक से लिंकेज कराया गया है।“
वहीं आदिम पहाडियां जनजाति की बच्चियों के लिए पढ़ाई की व्यवस्था करके भी चामी मुर्मू ने सुर्खियां बटोरी हैं। उन्होंने कहा कि ये काम मैंने साल 2010 में शुरू किया था। इस पीवीजीटी जनजाति की गरीब बच्चियों को गांव के ऑफिस में पांचवीं तक पढ़ाया जाता है। फिर कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में उनका दाखिला कराया जाता है। उनका संगठन सुरक्षित प्रसव और एनीमिया जैसी बीमारी के लिए भी काम कर रहा है।
पर्यावरण की बढ़ती चुनौती पर आखिर में वो कहती हैं, “पर्यावरण हम सबकी जिम्मेदारी है। हर नागरिक को पर्यावरण के बारे में सोचना होगा और संरक्षण के लिए आगे आना होगा। जब तक हम सब पर्यावरण संरक्षण नहीं करेंगे, तब तक समाधान नहीं मिल सकता है।
बैनर तस्वीरः पहाड़ी नाली बनाने में अन्य मजदूरों का सहयोग करतीं चामी मुर्मू। पहाड़ पर जब बारिश होती है तो पानी तेजी से नीचे आता है, जिसे इस नाली की मदद से इकट्ठा किया जाता है। तस्वीर साभार- सहयोगी महिला