- मध्यप्रदेश के डिंडौरी जिले स्थित पाटनगढ़ गांव को गोंड कला का केंद्र माना जाता है। इस गांव से तकरीबन 250 से अधिक गोंड कलाकार निकले हैं।
- इस गांव में जन्मे जनगढ़ सिंह श्याम को गोंड कला को नई ऊंचाइयां देने का श्रेय दिया जाता है। वे 19 वर्ष की आयु में भोपाल के बहुकला केंद्र, भारत भवन, से जुड़े थे और उन्होंने अपनी कला को देश-विदेश में ख्याति दी।
- जनगढ़ सिंह श्याम की मृत्यु 39 की अल्पआयु में हो गई थी। श्याम की मदद से पाटनगढ़ से कई कलाकारों ने चित्रकला की इस शैली को अपनाया।
- गोंड कला पारंपरिक तौर से प्राकृतिक रंगों से बनाई जाती है। इसे आदिवासी घर की दीवारों पर मिट्टी, हल्दी, पत्तों से बने रंगों से उकेरते हैं। हालांकि, बाजार मिलने के साथ अब चित्र कैनवास पर बाजार में मिलने वाले रंगों से बनाए जाते हैं।
पीपल के पेड़ की छांव तले वातावरण में एक अनोखी धुन तैर रही है। वाद्ययंत्र बाना पर लोक कलाकार नारायण सिंह टेकाम गोंडी बोली में गीत गा रहे हैं। गीत के बोलों में गोंड राजा की कहानी है। पीपल के पेड़ से कुछ दूरी पर हस्तकला भवन दीवारों पर गोंड शैली में कुछ चित्र बने हैं। गीत में जो कहानी कही जा रही है उसी से संबंधित चित्र उन दीवारों पर बने हुए हैं।
यह नजारा इस गांव को आसपास के गांवों से अलग बनाता है। मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिला डिंडौरी के मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर एक छोटी पहाड़ी पर बसे इस गांव का नाम है पाटनगढ़ है। इस गांव के रहने वाले राम कुमार श्याम बताते हैं कि यहां तकरीबन 200 परिवार के लोग रहते हैं, जिनमें से अधिकतर गोंड कला से जुड़े हैं।
वाद्य यंत्र की धुन में पिरोई गोंड राजा की कहानी सुनने के लिए गांव के कुछ लोग जुट रहे हैं। इस कहानी को सुनने में उनकी खास दिलचस्पी है, क्योंकि इन्हीं कहानियों से उन्हें अपने चित्र बनाने की प्रेरणा मिलती है। गोंड कलाकार कैनवास पर गोंड राजा की कहानी में आए प्रसंगों को व्यक्त करते हैं।
“हम समय-समय पर बाना गायन सुनते रहते हैं। इनकी कहानियों में धरती की उत्पत्ति से लेकर गोंड राजा की लड़ाइयों की कहानियां शामिल हैं। प्रकृति का जो वर्णन इन कहानियों में मिलता है हम उसे कैनवास पर उकेरते हैं,” राम बताते हैं।
गोंड कला से जनगढ़ कलम का सफर
बाना गायन में गोंड समाज की पुरानी कहानियां शामिल हैं, लेकिन पाटनगढ़ के इतिहास में अपेक्षाकृत एक नई कहानी भी है, जिसने इस कला को एक नया आयाम दिया। यह कहानी जनगढ़ सिंह श्याम की है। पाटनगढ़ गांव के मुख्य चौराहे पर जनगढ़ सिंह श्याम की एक मूर्ति लगी है, नीचे लिखा है जन्म 1962-2001। इस गांव में जन्मे जनगढ़ ने महज 39 साल की अल्पआयु में गोंड कला को पुनर्जन्म दिया।
मूर्ति के पास खड़े होकर जनगढ़ का परिचय देते हुए कहा, “जनगढ़ श्याम मेरे चाचा थे, लेकिन हम उन्हें अपना भगवान मानते हैं। उन्होंने गोंड पेंटिंग को इस मुकाम तक पहुंचाया कि आज हम लोगों को पहचान मिली है, जिससे रोजी-रोटी इंतजाम भी हो रहा है।”
राम आगे बताते हैं, “कुछ वर्ष पहले भारत भवन की ओर से गांव में कुछ लोग आदिवासी कलाकारों को खोजते हुए आए। उन्होंने जनगढ़ चाचा की कला से प्रभावित होकर उन्हें अपने साथ ले गए।”
भारत भवन मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थित एक विविध कला,सांस्कृतिक केंद्र और संग्रहालय है। इसमें कला दीर्घा (आर्ट्स गैलरी), ललित कला संग्रह, इनडोर/आउटडोर ओडिटोरियम, रिहर्सल रूम, पुस्तकालय आदि हैं।
राम के बड़े भाई और पद्मश्री से सम्मानित भज्जू श्याम ने जनगढ़ सिंह श्याम के साथ रहकर गोंड कला सीखी थी। अब वह भोपाल में रहते हैं। मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में वह बताते हैं, “चाचा (जनगढ़ सिंह श्याम) को भारत भवन में रूपंकर म्यूजियम के तत्कालीन निदेशक और चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन लेकर आए थे।”
वह आगे बताते हैं, “पहली बार चाचा ने भारत भवन में ही कागज पर पेंटिंग की थी। वह अपनी कला को लेकर देश-विदेश गए। उन्होंने गोंड कला को एक नया आयाम दिया है। कलाकार अब इस चित्रकला शैली को उनके सम्मान में जनगढ़ कलम कहते हैं।”
“चाचा ने जो कला सिखाई उसे हम जनगढ़ कलम कहते हैं, लेकिन वह हमेशा कहते थे कि भज्जू तुम पेंटिंग को अपने तरीके से करना, न कि मेरे तरीके से। उनकी बात मानकर मैंने अपनी कल्पनाओं को उकेरना शुरू किया,” भज्जू ने बताया।
भज्जू श्याम को साल 2018 में भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म श्री से सम्मानित किया गया था। देश-विदेश में उनके चित्र बिकने के साथ उन्होंने कई किताबें भी लिखी। द लंदन जंगल बुक (2004) के लिए अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली।
साल 2023 में मध्य प्रदेश की गोंड पेंटिंग को जिओग्राफिकल इंडिकेशन टैग मिला। मध्य प्रदेश शासन की जनजातीय मामलों के विभाग की संस्था वन्या और तेजस्विनी मेकलसुता महासंघ गोरखपुर समिति को साझा तौर पर यह टैग दिया गया।
भारत भवन से शुरुआती दौर में जुड़े चित्रकार अखिलेश जनगढ़ सिंह श्याम की कला यात्रा के साक्षी हैं। उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत करते हुए उन दिनों को याद कर कहा, “उस वक्त जनगढ़ बहुत ही छोटा बच्चा था। जब स्वामीनाथन जनगढ़ को लेकर आए उस वक्त वह एक संगीतकार था और मूर्तियां बनाता था। उनके गीतों में बड़ा देव, बाघ देव आदि देवी-देवताओं का जिक्र आता है। उन देवी-देवताओं को जनगढ़ ने कागज और कैनवास पर उतारना शुरू किया। इस तरह गोंड चित्रकला की शुरुआत हुई।”
अखिलेश इस बात पर जोर डालते हुए कहते हैं, “गोंड कला कोई चित्रकला नहीं थी। इसे जनगढ़ ने बनाया और इसलिए इसे मैं जनगढ़ कलम कहना चाहूंगा। इस कला की खूबसूरती यह है कि इस कला को काफी तेजी से लोगों ने अपनाया है।”
रोजगार का माध्यम
पाटनगढ़ गांव में पीपल के पेड़ से 100 कदम दूर स्थित अपने घर में चंपी बाई श्याम सुबह का काम निपटाने के बाद चित्र बनाने बैठ गईं हैं। चित्रकारी का काम उन्होंने शादी के बाद सीखा। इससे पहले वह पारंपरिक ढिगना बनाती थीं। इसे अलग-अलग रंग की मिट्टी और दूसरे पारंपरिक रंगों के माध्यम से जमीन पर बनाया जाता है। मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में चंपी बाई बताती हैं, “शादी के बाद जब मैं पाटनगढ़ की बहू बनकर आई तो यहां का माहौल काफी अलग था। यहां सभी कलाकारी करते थे। मैंने पहले ढिगना को कैनवास पर बनाना शुरू किया और धीरे-धीरे गोंड कला सीख गई।”
चंपी बाई की ए4 साइज के कैनवास पर बनी पेंटिंग को 4,000 रुपए तक मिल जाते हैं।
“अमेरिका में हुए एक ऑनलाइन आर्ट एग्जीबिशन में भी मेरी कई पेंटिंग बिकी हैं। भोपाल या दिल्ली में कोई प्रदर्शनी या मेला लगता है तो मैं अपनी पेंटिंग्स लेकर जाती हूं। एक पेंटिंग को दो से चार हजार रुपए मिल जाते हैं,” चंपी बाई बताती हैं।
चंपी बाई ने यह कला अपने पति राम कुमार श्याम से सीखी। राम बताते हैं, “मैं पहले लकड़ी का काम करता था, जिसमें कमाई तो कम थी साथ में काम को बाहर बेचने पर वन विभाग के नियमों से दिक्कत होती थी। मैंने अपने भाई भज्जू श्याम से गोंड कला का काम सीखा और अब मेरी अच्छी कमाई हो जाती है।”
पाटनगढ़ में लोग खेती-बाड़ी और मजदूरी के काम से जुड़े हैं, लेकिन समय मिलने पर कलाकारी का काम करना नहीं भूलते।
राम ने बताया कि गांव के अधिकतर लोग भोपाल पलायन कर गए हैं। यहां पेंटिंग के साथ-साथ रोजगार के लिए दूसरे काम भी करते हैं।
चित्रकार अखिलेश गोंड पेंटिंग को मिल रहे मूल्य को लेकर कहते हैं, “जनगढ़ श्याम जब गांव में मजदूरी करता था तो उसे 10 रुपए मिलते थे, लेकिन पेंटिंग को एक से डेढ़ हजार मिलना शुरू हुआ। आजकल एक लाख तक की कीमत भी मिल रही है। ये जो डिफरेंस है वह काफी बड़ा है। कला ने आदिवासियों को आत्म सम्मान के साथ रोजगार दिया।”
कई सरकारी संस्थाएं भी गोंड कला को बाजार देने में मदद कर रही हैं। उदाहरण के लिए भोपाल स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय कई वर्षों से गोंड चित्रकला के प्रदर्शनी लगा रहा है। संग्रहालय के जनसंपर्क अधिकारी अशोक शर्मा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “गोंड पेंटिंग को बचाए रखने के लिए अधिक से अधिक लोगो को गोंड पेंटिंग सीखने के लिए संग्राहालय अपने परिसर और देश के अन्य राज्य में 150 के आसपास कार्यशाला आयोजित किया है। इसमें गृहणी, स्कूल के छात्र-छात्राएं, कलाकार, कॉलेज के स्टूडेंट शामिल होते रहे हैं।”
बाना और गोंड कला
बाना गायक नारायण सिंह टेकाम ने बाना गायन शैली के बारे में बताते हुए कहा, “यह गायन सात दिन तक लगातार चल सकती है। ये कहानियों मुझे याद हैं और मैं अपने शिष्यों को सिखा रहा हूं।”
टेकाम कहते हैं कि अगर बाना गायन खत्म हुआ तो गोंड पेंटिंग भी नहीं रहेगी। इसकी वजह है बाना और गोंड चित्रकला का आपस में रिश्ता।
बाना गायन को भज्जू श्याम भी गोंड पेंटिंग की प्रेरणा मानते हैं। वह कहते हैं, “गायन और कहानी कहने की यह शैली विलुप्त होने लगी थी। करीब 14-15 साल पहले मुझे इस बात का अहसास हुआ तो मैंने इसपर काम करना शुरू किया। अब इलाके में तकरीबन 15 कलाकार हैं जो यह काम करते हैं।”
बाना से अपनी पेंटिंग में प्रेरणा लेने के सवाल पर भज्जू कहते हैं, “मैं गोंडी रामायण, महाभारत, राजाओं की कहानी, पेड़-पौधों की कहानी, धरती की उत्पत्ति, चांद-सूरज की उत्पत्ति, नदी-नाले और प्रकृति की कहानियां बाना कलाकारों से सुनता हूं। मेरी पेंटिंग में इसकी छाप देखने को मिलती है।”
अनोखी शैली और प्राकृतिक रंगों ने दी प्रसिद्धि
गोंड पेंटिंग में बिंदु, महीने रेखाएं, आड़ी-तिरछी रेखाएं, जैश, मछली की आकृति, पानी की बूंदे, बीज और ज्यामितीय आकृतियां बनाई जाती हैं। पेंटिंग के विषय मुख्यतः प्रकृति के करीब होते हैं। कलाकार मोर, पक्षी, केकड़े, पौराणिक जानवर, छिपकलियां, शेर, बाघ, हिरण, सांप और जंगल के चित्र बनाते हैं। जानवरों में सूअर, गाय, बंदर, हाथी, घोड़े, मछली, आदि भी देखे जा सकते हैं। महुआ का पेड़ इन चित्रों में काफी प्रमुखता से मिलता है। इसके अलावा महुआ के फूल, फल, बीज और पत्तियों का बहुत उपयोग किया जाता है।
पेंटिंग्स में आधुनिक डिजाइन जैसे हवाई जहाज, साइकिल, कार, तकनीक आदि भी दिखते हैं। इन आकृतियों के माध्यम से कलाकार मिथक, किंवदंतियां और गोंड लोगों के दैनिक जीवन के पहलुओं को दर्शाते हैं। कलाकार हिंदू देवी- देवता जैसे भगवान शिव, भगवान कृष्ण, भगवान गणेश आदि की रचनाएं भी करते हैं। उनकी पेंटिंग्स में स्थानीय देवता जैसे फुलवारी देवी (देवी काली), जलहरीन देवी (नदी देवी), मराही देवी आदि शामिल हैं। कुछ कलाकार लोग कथाओं और ज्यामितीय संरचनाओं को भी कैनवास पर उकेर रहे हैं।
गोंड चित्रकारी में पारंपरिक तौर से प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल होता आया है। इंटैलेक्चुअल प्रॉपर्टी इंडिया की जिओग्राफिकल इंडिकेशन जर्नल में छपी जानकारी के मुताबिक गोंड कलाकार काले रंग के लिए चारकोल, पीले के लिए रामराज मिट्टी, सफेद रंग के लिए चुई मिट्टी, लाल रंग के लिए गेरू मिट्टी और हरे के लिए गाय का गोबर या गहरे हरे रंग के पत्तों का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि, समय के साथ इस कला में रासायनिक रंगों का इस्तेमाल होने लगा है।
भज्जू श्याम बताते हैं कि अब प्राकृतिक रंग मिलना मुश्किल है। वह कहते हैं, “पहले घरों की पुताई के लिए जंगल से सालभर के लिए मिट्टी लाते थे। उसी से चित्र भी बनाते थे। गांव के आसपास जंगल में ऐसे कई जगह हैं जहां कहीं लाल तो कहीं सफेद मिट्टी मिलती है।”
वह आगे बताते हैं, “मिट्टी की खुदाई में बहुत हादसे हुए, कुछ लोगों की जान गई तो सरकार ने रोक लगा दी। अब वह मिट्टी नहीं मिलती है। अब आम रंगों का इस्तेमाल होता है।”
बढ़ते बाजार के साथ बढ़ती चुनौतियां
बाजार में पेंटिंग्स की कीमत के बारे में भज्जू श्याम कहते हैं कि गोंड कलाकारों की पेंटिंग दो हजार से लेकर 60 हजार तक में बिक जाती हैं।
“मेरी एक पेंटिंग को काफी पहले चार लाख रुपए भी मिले हैं, लेकिन अमूमन 60 हजार के करीब कीमत होती है। हालांकि, बाजार में कलाकार के काम और उनकी पहचान से भी कीमत जुड़ी रहती है,” वह आगे कहते हैं।
भज्जू श्याम कला को बाजार मिलने से उत्साहित तो हैं, लेकिन साथ में वह एक चिंता भी जताते हैं।
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“मैं कलाकारों से कहता हूं कि अपने मूल को मत भूलो। आजकल लोग गोंड कला की मूल कहानियों को भूल रहे हैं और बाजार की होड़ में एक तरह का काम कर रहे हैं,” वह कहते हैं।
वह आगे कहते हैं कि चित्रकार अपनी कला को प्रिंट कर रहे हैं, अधिक से अधिक बेच रहे हैं। अगर चित्र को प्रिंट करने लगे तो आने वाले समय में मुश्किल आएगी। कला की कद्र और सही कीमत जरूरी है।
लगभग एक घंटे तक बाना गायन के बाद टेकाम सावधानी से अपने वाद्ययंत्र समेटते हुए कहते हैं कि बाना गायन की परंपरा के बिना कोई गोंड पेंटिंग नहीं है और दोनों को अलग करना मुश्किल है। गायन के बाद टेकाम ग्रामीणों द्वारा चढ़ाए नारियल को आग में समर्पित करते हुए दान के रूप में दिए गए चावल और पैसे इकट्ठा करने के बाद घर जाने की तैयारी करते हैं।
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बैनर तस्वीरः पेंटिंग्स की गठरी लेकर हस्तकला भवन से बाहर निकलते कलाकार राम कुमार श्याम। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे