- चुनावी बॉन्ड के सबसे बड़े कुछ खरीदारों में खनन, बुनियादी ढांचे और ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में काम करने वाली कंपनियां शामिल हैं। इन कंपनियों के पास आर्थिक विकास के लिए जरूरी माने जाने वाले इन क्षेत्रों के ठेके हैं।
- चुनावी बॉन्ड में बुनियादी ढांचा विकास उद्योग की भागीदारी भारत के पर्यावरण नियमों में कमियों को उजागर करती है। इन नियमों में कारोबारी हितों को फायदा पहुंचाने के लिए ढील दी गई है।
- पूरे मामले को बेहतर तरीके से समझने वाले एक जानकार ने कहा कि चुनावी बॉन्ड योजना में अक्षय ऊर्जा कंपनियों की भागीदारी चिंता का विषय है।
साल 2014 में सत्ता में आने के बाद से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने खुद को स्थानीय और दुनिया भर में हरित विकास के समर्थक के रूप में पेश किया है। लेकिन चुनावी बॉन्ड के जरिए राजनीतिक फंडिंग के बारे में हालिया खुलासे ने उसकी इस साख पर संदेह पैदा कर दिया है।
चुनाव आयोग की ओर से जारी आंकड़ों से पता चलता है कि भारत के बुनियादी ढांचा उद्योग में बड़े खिलाड़ियों ने राजनीतिक दलों को गुमनाम चंदे में करोड़ों का भुगतान किया। इसमें भाजपा सबसे बड़े लाभार्थी के रूप में सामने आई है। इनमें ऊर्जा से लेकर खनन करने वाली कंपनियां शामिल हैं।
उच्चतम न्यायलय के आदेश पर भारतीय स्टेट बैंक ने चुनावी बॉन्ड से जुड़े आंकड़े चुनाव आयोग के साथ साझा किए। इससे पहली बार चुनावी बॉन्ड खरीदने वाले और उन्हें भुनाने वालों की जानकारी सार्वजनिक हुई। चुनावी बॉन्ड एक तरह का वित्तीय साधन है जो राजनीतिक दलों को कितनी भी रकम हासिल करने का सुविधा देता था। इसमें चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाती थी। यह योजना साल 2018 से चल रही थी। हालांकि, पारदर्शिता की कमी के चलते फरवरी में देश की शीर्ष अदालत ने इसे असंवैधानिक करार कर दिया।
चुनावी बॉन्ड पर भारत के विकास उद्योग की छाया भारत के कमजोर पर्यावरण नियमों को उजागर करती है। खास तौर पर ऐसे समय में जब देश अपनी ऊर्जा प्रणालियों में बदलाव करना चाहता है। उदाहरण के तौर पर खनन की दिग्गज कंपनियों वेदांता और एस्सेल माइनिंग को लिया जा सकता है। इन दोनों कंपनियों का पर्यावरण से जुड़े मानदंडों का उल्लंघन करने का इतिहास रहा है। दोनों ही बॉन्ड के शीर्ष खरीदारों में शामिल हैं। इन दोनों ने 600 करोड़ रुपए से ज्यादा के बॉन्ड खरीदे। ब्रैंडिस यूनिवर्सिटी में पर्यावरण अध्ययन के एसोसिएट प्रोफेसर प्रकाश काशवान ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “चुनावी बॉन्ड योजना में ऊर्जा और खनन कंपनियों की मौजूदगी भारत के पर्यावरण प्रशासन और नवीन ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाने में संस्थागत और कानूनी जवाबदेही उपायों को बढ़ाने की जरूरत पर जोर देते हैं।”
खनन, ऊर्जा क्षेत्र की दिग्गज कंपनियों ने पार्टियों को दिया चंदा
चुनावी बॉन्ड से जुड़ा डेटा ऐसे वक्त सामने आया है जब केंद्र सरकार ने अपने “हरित विकास” एजेंडे के हिस्से के रूप में नवीन ऊर्जा क्षमता बढ़ाने पर जोर दे रखा है। साल 2014 में सत्ता संभालने के बाद से मौजूदा सरकार ने नवीन ऊर्जा लक्ष्य तय करने और उन्हें आगे बढ़ाने में लगातार जोर लगाया है। इनमें 2022 तक 175 गीगावॉट नवीन क्षमता बढ़ाने का लक्ष्य शामिल था। अब इसे बढ़ाकर 2030 तक 500 गीगावॉट कर दिया गया है। हालांकि, इस लक्ष्य को पाने के लिए “कारोबार करने में आसानी” और बुनियादी ढांचे के विस्तार के लिए प्रमुख पर्यावरणीय मानदंडों में ढील दी गई है। चुनावी बॉन्ड के कुछ सबसे बड़े खरीदारों में खनन, बुनियादी ढांचे और ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में काम करने वाली कंपनियां शामिल हैं। इन कंपनियों के पास आर्थिक विकास के लिए जरूरी माने जाने वाले इन क्षेत्रों में कई सरकारी ठेके हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि चुनावी बॉन्ड राजनीतिक दलों और उन्हें चंदा देने वालों के बीच पारस्परिक लाभ की व्यवस्था को प्रोत्साहित कर सकते हैं। अदालत ने कहा, “राजनीतिक चंदे के जरिए चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने की किसी कंपनी की क्षमता किसी व्यक्ति की तुलना में बहुत अधिक है… कंपनियों की ओर से किया गया योगदान विशुद्ध रूप से कारोबारी लेन-देन है जो बदले में लाभ हासिल करने के इरादे से किया जाता है।”
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर सुरजीत मजूमदार ने कहा कि कारपोरेट और सरकारों के बीच पारस्परिक व्यवस्था आम तौर पर गुमनाम रही है। उन्होंने कहा, “क्या चुनावी बॉन्ड के चलते किसी निजी कंपनी और पार्टी के बीच कोई आपसी व्यवस्था हुई है, यह आगे की जांच का विषय है। लेकिन चुनावी बॉन्ड प्रणाली ने जो किया वह एक ऐसा तंत्र बनाना था जिसने उन अवैध प्रवाह के फायदे को औपचारिक, ओवर-द-टेबल तंत्र के लाभों के साथ जोड़ दिया।” मजूमदार भारत के निजी क्षेत्र और राज्य के बीच संबंधों का लंबे वक्त से अध्ययन कर रहे हैं।
स्टेट बैंक की ओर से सामने आई जानकारी से पता चलता है कि राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए चुनावी बॉन्ड खरीदने वाली कई कंपनियों को पहले पर्यावरण संबंधी चिंताओं पर जांच का सामना करना पड़ा है।
उदाहरण के तौर पर मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (एमईआईएल) को लिया जा सकता है। यह कंपनी 966 करोड़ रुपए के साथ चुनावी बॉन्ड की दूसरी सबसे बड़ी खरीदार है। एमईआईएल बिजली, हाइड्रोकार्बन एक्सप्लोरेशन, सिंचाई और परिवहन जैसे क्षेत्रों में काम करती है। इसकी प्रमुख परियोजनाओं में से एक कलेश्वरम लिफ्ट सिंचाई परियोजना है। यह कथित तौर पर दुनिया की सबसे बड़ी सिंचाई परियोजना है। इस परियोजना की इंजीनियरिंग में खामियों और भ्रष्टाचार के लिए जांच की जा रही है। साल 2020 में, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने घोषणा की कि इसकी पर्यावरण मंजूरी कानून का उल्लंघन करके दी गई है। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने परियोजना के विस्तार पर रोक लगा दी। ऐसा तब किया गया, जब शीर्ष अदालत को पता चला कि यह जरूरी पर्यावरणीय मंजूरी के बिना किया जा रहा था।
एमईआईएल अब जम्मू-कश्मीर में एशिया की सबसे लंबी और सभी मौसम में काम करने वाली ज़ोजिला सुरंग बना रही है। कंपनी को इसका ठेका केंद्र सरकार से चुनावी बॉन्ड योजना लागू होने के बाद अक्टूबर 2020 में मिला था।
एमईआईएल की दो सहायक कंपनियां वेस्टर्न यूपी पावर ट्रांसमिशन कंपनी लिमिटेड और एसईपीसी पावर प्राइवेट लिमिटेड हैं। दोनों ही बिजली उत्पादन और वितरण में शामिल हैं। साथ ही, ये दोनों चुनावी बॉन्ड के शीर्ष खरीदार भी हैं। इन्होंने राजनीतिक चंदा देने के लिए 260 करोड़ रुपए के चुनावी बॉन्ड खरीदे थे।
बॉन्ड खरीदने वाली ऊर्जा क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी हल्दिया एनर्जी है। कंपनी के पास 600 मेगावाट का थर्मल पावर प्लांट है। साथ ही, यह आरपी-संजीव गोयनका ग्रुप (आरपीएसजी) की सहायक कंपनी है। साल 2015 में, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) ने कथित तौर पर देश की पहली कोयला नीलामी में हल्दिया एनर्जी और आरपीएसजी की भागीदारी में अनियमितताओं को उजागर किया। इससे बोली प्रक्रिया में निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा के बारे में चिंताएं बढ़ गईं। भारतीय स्टेट बैंक के डेटा से पता चलता है कि आरपीएसजी की एक अन्य सहायक कंपनी सीईएससी लिमिटेड के मालिकाना हक वाले महाराष्ट्र के थर्मल पावर प्लांट धारीवाल इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड ने 115 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड खरीदे।
नवीन ऊर्जा के क्षेत्र में काम करने वाली कई कंपनियों ने भी बॉन्ड खरीदे। लेकिन, ग्रीनको और उसकी सहायक कंपनियों ने सबसे ज्यादा 117 करोड़ रुपए के बॉन्ड खरीदे। ग्रीनको भारत की सबसे तेजी से बढ़ती नवीन ऊर्जा कंपनियों में से एक है। इसकी मौजूदगी 15 राज्यों में है।
काशवान के मुताबिक, चुनावी बॉन्ड योजना में नवीन ऊर्जा कंपनियों की भागीदारी चिंता का विषय है, क्योंकि इसके अंतरराष्ट्रीय प्रभाव हो सकते हैं। उन्होंने कहा, “ग्रीनको को 2021 में शुरू की गई इटली और भारत के बीच रणनीतिक साझेदारी से लाभ हुआ है। इसी तरह, संयुक्त अरब अमीरात के संप्रभु धन कोष, आबू धाबी इन्वेस्टमेंट अथॉरिटी (एडीआईए) की भारत के नवीन ऊर्जा क्षेत्र में निवेश की योजनाओं में ग्रीनको प्रमुखता से दिखाई देता है।” उन्होंने कहा, “उद्योग और राजनेताओं के गठजोड़ से भारत में डीकार्बोनाइजेशन को बढ़ावा देने वाली बहुपक्षीय और द्विपक्षीय सहकारी व्यवस्थाओं पर असर पड़ता है। मिलीभगत से काम करने की आशंका डीकार्बोनाइजेशन की प्रक्रिया में सार्वजनिक हित को बनाए रखने के लक्ष्यों को कमजोर करती है, जिसे भारतीय संदर्भ में ऊर्जा गरीबी के लक्ष्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
साल-दर-साल स्थापित क्षमता के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय करने के अलावा, भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने देश में साफ-सुथरी तकनीक के लिए भारत को विनिर्माण केंद्र के रूप में विकसित करने के लिए रास्ता साफ कर दिया है। कई सरकारी मिशन हरित हाइड्रोजन, इलेक्ट्रिक वाहनों और सौर पीवी मॉड्यूल के उत्पादन को बढ़ाने के लिए समर्पित हैं, जबकि उन्हें किसी भी पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन से काफी हद तक मुक्त रखा गया है।
पर्यावरण नियमों को कमजोर करना
पर्यावरण से जुड़े नियमों को लागू करना राजनीतिक रसूख से अलग नहीं है। साल 2004 से 2014 के बीच कोयला परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंजूरी पर स्थानीय राज्य विधानसभा सदस्यों की शक्ति का आकलन करने वाले पेपर में पाया गया कि अगर वे राज्य में सत्तारूढ़ दल के साथ राजनीतिक रूप से गठजोड़ करते हैं, तो उनके निर्वाचन क्षेत्रों में मंजूरी के लिए आवेदन बढ़ गए। शोधकर्ताओं ने लिखा, “हमारे नतीजे गठजोड़ करने वाले राजनेताओं के मुताबिक हैं जो रसूखदार परियोजना डेवलपर को निर्माण और संचालन ठेकों से लाभ कमाने में मदद करने के लिए अपनी विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति का इस्तेमाल करते हैं।”
साल 2017 और 2021 के बीच कोयला परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया के हालिया अध्ययन में यह भी पाया गया कि बाहरी हितधारकों, यानी कोयला मंत्रालय और परियोजना के समर्थकों का मंजूरी से जुड़े नतीजों पर असर था।
मजूमदार ने कहा, “देश की एजेंसियों के फैसलों ने हमेशा बिजली और खनन जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले कारपोरेट की सफलता में अहम भूमिका निभाई है। यह क्षेत्र ऐसे नहीं हैं जहां प्रतिस्पर्धा काम कर सकें।” उन्होंने कहा, “उम्मीद यह रही है कि अपने मुनाफ़े के अलावा, ये कंपनियां देश के विकास के लिए बड़ा लाभ हासिल करने में भी भूमिका निभाएंगी। लेकिन राज्य निजी पूंजी को अनुशासित करने में कमजोर रहा है। यही वजह है कि निजी क्षेत्र फैसला लेने को प्रभावित करने और अपनी पूंजी का लाभ उठा पाता है।
साल 2019 और 2024 के बीच 400 करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदने वाले वेदांता लिमिटेड के खिलाफ पर्यावरणीय लापरवाही के कई आरोप हैं। कंपनी ने कथित तौर पर सार्वजनिक सुनवाई की जरूरत के बिना खनन कंपनियों को उत्पादन 50% तक बढ़ाने की अनुमति देने की पैरवी की। आखिरकार इसे 2022 में नियमों में शामिल कर लिया गया।
अपनी खुद की स्वीकारोक्ति के अनुसार, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने कारोबारी हितों को शामिल करने के लिए हाल के सालों में पर्यावरण मानदंडों में कई बदलाव किए हैं। साल 2022 में, इसने राज्यों के लिए एक स्टार रेटेड प्रणाली शुरू की जो इस बात पर आधारित थी कि वे कितनी जल्दी पर्यावरण मंजूरी के लिए आवेदन देते और निपटाते हैं। इस योजना को फिलहाल एनजीटी में चुनौती दी गई है।
साल 2018 के बाद से पांच साल की अवधि में परियोजनाओं के लिए मंजूरी में 20 गुना बढ़ोतरी हुई है। मार्च 2023 में, मंत्रालय ने बताया कि वन, वन्यजीव, तटीय विनियमन क्षेत्र और पर्यावरण मंजूरी 2018 में 577 से बढ़कर 2022 में 12,496 हो गई। सरकार ने इसका श्रेय सिंगल-विंडो निकासी प्रणाली की कुशलता को दिया। पर्यावरण राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने उस समय संसद को बताया था, “पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने अतिरेक को दूर करने और पर्यावरण सुरक्षा उपायों के साथ मंजूरी प्रक्रिया को कारगर बनाने के लिए नीति और तकनीकी हस्तक्षेप के जरिए कई उपाय किए हैं।”
पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया की गति को तेज करने के लिए मंजूरी प्रक्रिया में भी बदलाव किए गए हैं। कार्यालयी ज्ञापनों और अधिसूचनाओं के जरिए, मंत्रालय ने पनबिजली और परमाणु जैसी परियोजनाओं की पर्यावरण मंजूरी की वैधता बढ़ा दी, जबकि ताजा सार्वजनिक सुनवाई के बिना कोयला उत्पादन में तेजी लाने की अनुमति दी। 2021 में, सरकार ने उन परियोजनाओं के लिए इसे संभव बना दिया, जिन्होंने पूर्व मंजूरी प्राप्त किए बिना काम शुरू कर दिया था। 100 से ज्यादा परियोजनाओं को एक नई “उल्लंघन श्रेणी” के तहत पर्यावरण मंजूरी दी गई थी। लेकिन इस साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने अधिसूचना पर रोक लगा दी।
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बैनर तस्वीर: चुनावी बॉन्ड योजना में बुनियादी ढांचा विकास उद्योग की भागीदारी भारत के पर्यावरण नियमों में कमियों को उजागर करती है, जिन्हें कारोबारी हितों को शामिल करने के लिए खत्म कर दिया गया है। तस्वीर – प्रणव कुमार/मोंगाबे।