- अध्ययनों से पता चलता है कि धरती के गर्म होने से कीट और फसलों के बीच आपसी संपर्क की प्रकृति बदल जाएगी। इससे कुछ क्षेत्र कीटों के आक्रमण के लिए ज्यादा अनुकूल हो जाएंगे। इससे पैदावार में कमी आएगी होगी और खाद्य सुरक्षा पर असर पड़ेगा।
- उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की तुलना में समशीतोष्ण क्षेत्रों में फसलों पर कीटों के हमलों में बढ़ोतरी दिखाई देगी।
- जानकारों का कहना है कि जलवायु के हिसाब से खेती के तरीके विकसित करना और भविष्य में कीटों के पूर्वानुमान के लिए मौजूदा आंकड़ों का इस्तेमाल इस समस्या के समाधान में अहम भूमिका निभाएगा।
बात पिछले साल सितंबर की है। केरल में वायनाड के थिरुनेली एग्री प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड के किसान और सीईओ राजेश कृष्णन ने यहां धान की फसलों में कुछ अजीबो गरीब चीज देखी। फसलों में प्याज जैसी कलियां दिखाई देने लगीं। कृष्णन और एफपीओ (किसान उत्पादक संगठन) के अन्य सदस्य इस अज्ञात घटना से हैरान रह गए। कृष्णन बताते हैं, “जब तक हमें अहसास हुआ कि कुछ गड़बड़ है और हमने क्षेत्रीय कृषि स्टेशन को हस्तक्षेप करने के लिए कहा, तब तक फसलों पर कीटों का बड़ा हमला हो चुका था।”
धान की फसल में प्याज की कलियां दिखना ‘गैल मिज’ कीट की खासियत है। यह मच्छर जैसा कीट है और धान की फसलों पर हमला करने के लिए जाना जाता है। इस कीट का जीवन चक्र 15-20 दिनों का होता है और प्रभावित बालियां (जिसमें अनाज लगता है) धान का उत्पादन नहीं कर पाती हैं, क्योंकि लार्वा बढ़ती टहनियों को खाता है। क्षेत्र के आधार पर फसल की उपज में लगभग 30-40% तक नुकसान होता है। प्याज की टहनियों के अलावा, विकृत पत्तियों और ट्यूब जैसे अंडों की मौजूदगी भी गैल मिज संक्रमण के लक्षण हैं।
कृष्णन बताते हैं, “पहले हम मुख्य रूप से लीफ रोलर और स्टेम बोरर कीटों की तलाश करते थे। हम सभी जैविक किसान हैं और स्टेम बोरर कीटों का संक्रमण रोकने के लिए प्राकृतिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। आमतौर पर ये कीट हर तीन या चार साल में एक बार सामने आते हैं। लीफ रोलर कीट नियमित आता है, लेकिन इनसे पार पाया जा सकता है। हमने अपने खेतों पर कभी भी गैल मिज का हमला नहीं देखा है। इसलिए हम इसके लिए पूरी तरह से तैयार नहीं थे।” उन्होंने कहा कि कीटों के हमले से उनकी धान की पैदावार 50% कम हो गई।
कृष्णन अकेले नहीं हैं जो इस समस्या से दो-चार हैं। देश और दुनिया भर में, किसान कीटों के हमलों से परेशान हैं। नवंबर 2023 में असम के मुख्यमंत्री के एक्स हैंडल (जिसे पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था) ने एक लार्वा के प्रकोप के बारे में ट्वीट किया, जिसने राज्य के 15 जिलों में 28,000 हेक्टेयर से ज्यादा धान के खेतों को खराब किया। चाय अनुसंधान संघ ने यह भी कहा कि कीटों के संक्रमण से हर साल 2,865 करोड़ रुपये का राजस्व नुकसान होता है। बीमारियों के साथ-साथ, चाय बागानों में कीटों के कारण सालाना 14.70 करोड़ किलो फसल का नुकसान होता है। इसी तरह, पिछले साल अफगानिस्तान में किसानों को विनाशकारी टिड्डियों के हमलों का खामियाजा भुगतना पड़ा, जिसने उनकी फसलों को नष्ट कर दिया। वहीं, इंडोनेशिया में धान के किसानों के लिए, ब्राउन प्लांट हॉपर का संक्रमण चिंता का सबब बन गया है।
अब इस तथ्य की पुष्टि हो गई है कि बढ़ता तापमान और मौसम के बदलते पैटर्न पौधों की विकास दर पर असर डाल रहे हैं। नमी की कमी और मिट्टी की स्थिति में बदलाव से खेत-बाड़ी सीधे प्रभावित हो रही है। हालांकि, कीटों की बढ़ती संख्या से जुड़ी रिपोर्टें एक और पहलू को उजागर करती हैं कि किस तरह मौसम में बदलाव खेती की उत्पादकता पर असर डालेगा और खाद्य सुरक्षा संकट में आ जाएगी।
कुछ कीट गर्म जगहों पर पनपते हैं
साल 2018 में अमेरिकी संस्थानों के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन प्रकाशित किया था। इसमें जलवायु परिवर्तन के चलते भविष्य में गेहूं, मक्का और चावल जैसे जरूरी अनाज के लिए कीट से उपज को होने वाले नुकसान का अंदाजा लगाया गया था। अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी पर कीटों के हमलों से फसलों के नुकसान में 10-25% की बढ़ोतरी होगी।
शोधकर्ताओं ने विस्तार से बताया कि तापमान में बढ़ोतरी से कीटों की गतिविधियों पर दो तरह से असर पड़ता है – चयापचय दर में बढ़ोतरी से और कीटों की आबादी में बदलाव से।
जब तापमान बढ़ता है, तो कुछ कीटों के लिए चयापचय दर भी बढ़ जाती है। इस स्थिति में भोजन की खपत बढ़ जाती है। इसका मतलब है कि वे अपनी नई मांग को पूरा करने के लिए ज्यादा फसलों पर हमला करेंगे। जबकि चयापचय दर सीधे फसल की पैदावार को प्रभावित कर सकती है। कीटों की आबादी पर तापमान का असर थोड़ा जटिल है। आम तौर पर, तापमान में बढ़ोतरी से कीटों की संख्या और उनकी आबादी बढ़ जाएगी। लेकिन एक बिंदु से आगे, ज्यादा गर्मी विकास को धीमा कर देगी। इससे उनकी संख्या कम हो जाएगी। क्षेत्र के आधार पर, इससे पैदावार पर असर पड़ सकता है या नहीं भी।
अध्ययन में पाया गया है कि गेहूं की फसल को सबसे ज़्यादा नुकसान होगा, क्योंकि ठंडे इलाकों में कीटों की आबादी बढ़ेगी। गर्म इलाकों में उगाए जाने वाले धान को होने वाला नुकसान तब स्थिर हो जाएगा जब औसत तापमान 3 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो जाएगा। इसके बाद कीटों की आबादी कम होने लगेगी। आसान शब्दों में, जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, धरती के ठंडे हिस्से कीटों के लिए ज़्यादा अनुकूल हो जाएंगे।
तापमान में हो रहे बदलाव के प्रति कीटों की सीधी प्रतिक्रिया के अलावा, जलवायु परिवर्तन पौधों की सुरक्षा प्रणाली और शिकारियों और परजीवियों की आबादी को भी प्रभावित करता है, जो बदले में शाकाहारी कीटों के अस्तित्व को प्रभावित करते हैं। स्विट्जरलैंड के न्यूचैटेल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा इस विषय पर हाल ही में लिखे गए समीक्षा लेख में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव में फसल-कीटों के बीच होने वाली अंतःक्रियाओं को समझने के लिए आवास के हिसाब से खास डेटा की जरूरत होती है।
लेखक बताते हैं, “दुनिया भर में फसलों से जुड़े कीटों को मौजूदा और भविष्य के जलवायु परिवर्तन से फायदा होने की उम्मीद है। हालांकि, बायोम और प्रजातियों में पर्याप्त अंतर दिखाई देते हैं। समशीतोष्ण क्षेत्रों में आम तौर पर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की तुलना में कीटों के हमलों में बढ़ोतरी का सामना करने की ज्यादा संभावना होती है। इसलिए, जलवायु परिवर्तन के असर का अध्ययन स्थानीय जलवायु और बायोम में स्थानीय पारिस्थितिक अंतःक्रियाओं के संदर्भ में किया जाना चाहिए।”
दिल्ली स्थित राष्ट्रीय एकीकृत कीट प्रबंधन अनुसंधान केंद्र (आईसीएआर) और केंद्रीय हैदराबाद स्थित शुष्क भूमि कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर) के वैज्ञानिकों की ओर से कीटों और रोगों पर जलवायु परिवर्तनशीलता और परिवर्तन का प्रभाव रिपोर्ट इस बात का उदाहरण है कि स्थानीय जलवायु परिस्थितियां और पारिस्थितिकी से जुड़े कारक फसल-कीटों के बीच आपसी संबंधों को किस तरह प्रभावित करते हैं। व्यापक रिपोर्ट में, शोधकर्ताओं ने भारत के 24 स्थानों, 12 कृषि-जलवायु क्षेत्रों और 11 राज्यों में पांच सालों (2011-2016) की प्राथमिक अवधि के लिए चार अहम फसलों, चावल, अरहर, मूंगफली और टमाटर के लिए इन गतिशीलताओं का को देखा।
जमीनी स्तर के व्यापक अवलोकनों का इस्तेमाल करके वैज्ञानिक व्यक्तिगत कीट परिदृश्यों के पीछे के कारणों को स्पष्ट कर पाए। जैसे, सितंबर 2013 में धान की देर से रोपाई के बाद ज्यादा बारिश के दिनों के कारण कर्नाटका के मांड्या में 3000 एकड़ धान के खेतों में केसवर्म का प्रकोप हुआ। इसी तरह, 2014 में गुजरात के सरदार कृषि नगर में मानसून के महीनों के दौरान कम बारिश के कारण अरहर के पौधे पर हमला करने वाले लेपिडोप्टेरस कीटों की सबसे कम घटना देखी गई।
कृष्णन बताते हैं, स्थानीय कृषि अनुसंधान केंद्र की सहायता से उन्होंने और वायनाड के अन्य किसानों ने पाया कि कई कारकों की वजह से उनकी धान की फसलों पर गैल मिज का हमला हुआ। “आमतौर पर, हमारे यहां जून के आसपास बारिश मिलती है और जुलाई के मध्य और अगस्त के बीच यह चरम पर होती है। लेकिन पिछले साल, हमारे यहां देरी से मानसून आया जो अगस्त में ही शुरू हुआ, जिसके कारण हमें बुवाई में देरी हो गई। इसके अलावा, मानसून में ड्रैगनफ्लाई के दिखने में देरी हुई, जो गैल मिज के शिकारी हैं। इन सभी कारकों ने मिलकर कीटों के हमले में योगदान दिया, जिसे हमने देखा।”
कीटों के संसार को समझना
द एन्टोमोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष वीवी. राममूर्ति बताते हैं, “कीट कई प्रकार के होते हैं और उन सभी को बढ़ने और प्रजनन के लिए एक जैसी परिस्थितियों की जरूरत नहीं होती है। कुछ कीट प्रजातियों को ज्यादा तापमान चाहिए होता है और कुछ को ज्यादा तापमान के साथ-साथ आर्द्रता भी ज्यादा चाहिए होती है। इसलिए, इन बदलती परिस्थितियों के प्रति कीट की प्रतिक्रिया अलग-अलग होगी।”
शोधकर्ता कहते हैं कि कीट का प्रकार और मेजबान पौधे की प्रतिक्रिया इस घटना को जांचने और समझने के लिए जटिल बनाती है। वे बताते हैं, “मेजबान पौधे जलवायु प्रभावों के चलते शरीर विज्ञान में भी बदलाव करते हैं, जो उनके विकास पैटर्न को प्रभावित करते हैं। मेजबान पौधे में पत्ती, तना, फूल या फल बनने में देरी हो सकती है, जो बदले में कीट के जीवन चक्र को भी प्रभावित करती है। कीट मेजबान पर लंबे समय तक रहते हैं और अनुकूल परिस्थितियों के चलते ज्यादा पीढ़ियां भी पैदा कर सकते हैं।”
राममूर्ति विस्तार से बताते हैं, “बोरर और लीफ लार्वा जैसे काटने या चबाने वाले कीड़ों की तुलना में एफिड्स जैसे चूसने वाले कीड़े पर्यावरण में होने वाले इन बदलावों से ज्यादा प्रभावित होते हैं। चूसने वाले कीड़े आकार में छोटे होते हैं और अक्सर उन पर ध्यान नहीं जा पाता है। वे बीमारियों के वाहक भी होते हैं और उनकी बड़ी आबादी वायरल बीमारियों का कारण बनती है।”
साल 2023 के एक समीक्षा लेख में बताया गया है कि कीटों के हमलों के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन, पौधों और रोगाणुओं के बीच परस्पर क्रिया में बदलाव लाकर फसलों में रोगों की घटनाओं को भी प्रभावित करेगा। इससे नए क्षेत्रों में रोग फैलेंगे और बीमारियां फैलाने वाली नई प्रजातियों के लिए रास्ता बनेगा।
राममूर्ति बताते हैं कि रोग फैलाने वाले कीटों की नई उप-प्रजातियों के उभरने की तरह ही, कीट अनुकूल परिस्थितियों की तलाश में ज्यादा ऊंचाई पर जा रहे हैं। इससे नए पारिस्थितिकी तंत्र में पौधों पर हमले हो रहे हैं। वे कहते हैं, “जब कीटों को पारिस्थितिकी के लिहाज से नई जगह मिल जाती है, तो उनका विकास तेजी से होता है, क्योंकि उस क्षेत्र में उनके पास शिकारी नहीं होते हैं। भारत में फ़ॉल आर्मीवर्म का तेजी से फैलना इसका एक उदाहरण है ।“
किसी कीट का कैटरपिलर चरण, फॉल आर्मीवर्म (स्पोडोप्टेरा फ्रूजीपरडा) मक्का के पौधों को बहुत ज्यादा खाता है और आक्रामक प्रजाति है।
ज्यादा सतर्कता और तकनीक की भूमिका
खाद्य एवं कृषि संगठन का कहना है कि आक्रामक कीटों से दुनिया भर की अर्थव्यवस्था को सालाना लगभग 70 अरब डॉलर का नुकसान होता है। फसलों और संसाधनों में नुकसान के अलावा, वे किसानों पर कीटनाशकों के इस्तेमाल को बढ़ाने के लिए अनुचित दबाव भी डालते हैं। किसानों के स्वास्थ्य और खाने-पीने की दूषित चीजों दोनों के संदर्भ में अनियमित कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ती हुई चिंता है। साल 2020-21 के बीच, भारत में 60,000 टन रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया, जिससे कीटों के संक्रमण के मूल कारण और उनसे निपटने के तरीकों को समझना ज़रूरी हो गया।
रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल कम करने और फसल सुरक्षा के लिए समग्र दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करने के लिए, कृषि मंत्रालय का कृषि और किसान कल्याण विभाग एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) नजरिए को बढ़ावा देता है। आईपीएम के तहत, सरकार ने 36 सीआईपीएमएस या केंद्रीय एकीकृत कीट प्रबंधन केंद्र स्थापित किए हैं। कीटों और बीमारियों की निगरानी के अलावा, आईपीएम संक्रमण को रोकने के लिए पर्यावरण के अनुकूल उपाय और जैविक नियंत्रण एजेंट सुझाते हैं। अलग-अलग अनाज, मसाले, कंद-मूल वाली फसलों, सजावटी फसलों वगैरह के लिए आईपीएम पैकेज उपलब्ध हैं। ये पैकेज प्रमुख कीटों और उनसे निपटने के उपायों की समझ उपलब्ध कराते हैं।
प्लांटिक्स में प्लांट प्रोटेक्शन एक्सपर्ट, एन्जेला कोम्नेनिक कहती हैं, “खेती में सब कुछ समय पर निर्भर करता है। अगर हम कीटों और बीमारियों के हमलों को रोकना चाहते हैं, तो हमें खुद को जानकारी से लैस करना होगा, ताकि हम तुरंत कार्रवाई कर सकें।” प्लांटिक्स कीट और बीमारी प्रबंधन ऐप है जो किसानों को उनकी बीमार फसलों के बारे में तुरंत जानकारी पाने की सुविधा देता है।
इस ऐप को बर्लिन में विकसित किया गया है और यह राजधानी शहर और भारत से संचालित होता है। भारतीय किसान हर रोज अपनी फसलों से जुड़ी समस्याओं की तस्वीरें अपलोड करते हैं, ताकि इलाज मिल सके और समस्या के उपचार के तरीकों की पहचान की जा सके। वह बताती हैं कि कीटों के हमलों पर रियल-टाइम के डेटा का विशाल भंडार भविष्य के परिदृश्यों की भविष्यवाणी करने के लिए मॉडल विकसित करने में मदद कर सकता है।
कोम्नेनिक बताते हैं, “प्लांटिक्स किसानों के साथ काम करता है, ताकि वे अपने खेतों के बारे में बेहतर फैसला ले सकें। हम इन डेटा का इस्तेमाल कीट पूर्वानुमान मॉडल पर काम करने के लिए करने की योजना बना रहे हैं जो हमें फसलों की खास समस्याओं के होने पर पैटर्न की पहचान करने में मदद कर सकता है। हम डेटा को पर्यावरण की स्थितियों के साथ ओवरलैप करने की भी कोशिश कर रहे हैं, ताकि यह देखा जा सके कि किस तरह के आपसी संबंध उभर कर आते हैं। धान जैसी सबसे अहम फसलों से शुरू करके, हम इन मॉडल पर काम करने के लिए डेटा को बेहतर बना रहे हैं। यह प्रक्रिया जटिल है और इसमें कई चुनौतियां हैं। आखिरकार, हम यहां प्रकृति के साथ काम कर रहे हैं और यह सब जैसा दिखता है वैसा नहीं है।”
खेती से जुड़ी तकनीक मौजूदा संक्रमण से निपटने और भविष्य के परिदृश्यों की तैयारी करने में अहम उपकरण बन गई है, इसलिए शोधकर्ता ‘जलवायु में बदलाव’ वाले भविष्य में कीटों के हमलों की भविष्यवाणी करने के लिए मॉडलिंग डेटा की ओर भी देख रहे हैं।
राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली की अनुसंधानकर्ता करुणा सिंह ने हाल ही में मॉडलिंग अध्ययन का सह-लेखन किया। इसमें दिखाया गया कि भारत में भविष्य में चावल और मक्का के लिए प्रमुख कीटों का प्रकोप कम हो जाएगा। हालांकि इसकी सीमा क्षेत्र पर निर्भर करेगी और हर फसल और संबंधित कीटों के लिए अलग-अलग होगी।
ईमेल से दिए गए साक्षात्कार में सिंह ने बताया कि भविष्य की जांच में कई विषयों से जुड़े नजरिए को अपनाया जाना चाहिए। इसमें कीट विज्ञान, जलवायु विज्ञान, पारिस्थितिकी और अन्य संबंधित क्षेत्रों के जानकारों के बीच सहयोग शामिल हो। उन्होंने कहा, “यह तालमेल अलग-अलग नजरिए और तरीकों को एक साथ लाने और कीट-जलवायु अंतःक्रियाओं की ज्यादा समग्र समझ को आसान बना सकता है।”
और पढ़ेंः कीटनाशक बनाने वाली कंपनी पर किसानों ने लगाया फसलें खराब करने का आरोप, कार्रवाई की मांग
सिंह कहती हैं, “फिलहाल सिमुलेशन की सीमाएं डेटा की कमी में निहित हैं, खास तौर पर मेजबान-कीट और मेजबान-रोग गतिशीलता को प्रभावित करने वाले कारकों पर विचार करने में। जैसे, उष्णकटिबंधीय देशों में प्रभावों की भविष्यवाणी करना अपेक्षाकृत सीमित डेटा उपलब्धता के कारण चुनौतियों से भरा है। अनुभव से मिले डेटा को मॉडलिंग दृष्टिकोणों के साथ जोड़कर, शोधकर्ता भविष्यवाणियों को बेहतर बना सकते हैं। साथ ही, कीटों की आबादी पर जलवायु परिवर्तन के असर का मुकाबला करने के लिए संभावित शमन रणनीतियों बना सकते हैं।”
हालांकि, राममूर्ति कहते हैं कि सबसे अहम कदम सिर्फ कीटों के हमलों के लिए ही नहीं बल्कि जलवायु प्रभावों के चलते खेती की उत्पादकता को बाधित करने वाले सभी प्रमुख खतरों के लिए मज़बूत उपाय तैयार करना होगा। पर्यावरण में बदलाव सिर्फ कीटों के आपसी संबंधों को ही प्रभावित नहीं करते, बल्कि खेती के दूसरे पहलुओं पर भी असर डालते हैं। यही वजह है कि तापमान में बदलाव के खिलाफ़ बीजों की प्रतिरोधक क्षमता, जल प्रबंधन प्रावधान, मिट्टी की स्थितियों और कीटों के हमलों का तेजी से निदान और उपचारात्मक उपायों तक तत्काल पहुंच से लेकर हर चीज पर नजर रखने वाला व्यापक दृष्टिकोण बनाया जाना चाहिए। वे क्रॉस-डिसिप्लिनरी ऐक्शन की ज़रूरत पर भी जोर देते हैं, जहां कृषि विस्तार एजेंसियां और आपदा प्रबंधन प्राधिकरण एक साथ काम करें और मौसम से जुड़ी जानकारी तक उनकी पहुंच हो, ताकि वे बेहतर फैसला ले सकें।
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीर: स्पोटेड पोटेटो लेडीबर्ड बीटल जो आलू, टमाटर, बैंगन और मिर्च की फसल को नुकसान पहुंचाता है। तस्वीर – arian.suresh/विकिमीडिया कॉमन्स।