- जम्मू-कश्मीर के जंगलों में गिरी देवदार की सूखी नुकीली पत्तियां एक ज्वलनशील चटाई जैसा बना देती हैं जिससे गर्मी के दिनों में आग का खतरा बढ़ जाता है। इस आग से पेड़-पौधों, वन्य जीवों और जैव विविधता को तो नुकसान होता ही है और स्थानीय लोगों की आजीविका को भी नुकसान होता है।
- जम्मू-कश्मीर के वन विभाग ने एक नया अभियान शुरू किया है। इसके तहत स्थानीय लोगों को देवदार की पत्तियां इकट्ठा करने और उन्हें बायो-ब्रिकेट (जलाने में इस्तेमाल होने वाले लकड़ी के छोटे चिप्स और टुकड़े) और हाथ से बनी चीजें बनाने के लिए प्रोत्साहित किया।
- बायो ब्रिकेट को कोयला और चारकोल के विकल्प के तौर पर बायों ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। इन ब्रिकेट को खाना बनाने या आग पैदा करने में इस्तेमाल किया जाता है। इनका इस्तेमाल खासकर उस समय किया जाता है जब ऊर्जा का संकट होता है जैसे कि सर्दियों के समय।
जैसे ही जम्मू-कश्मीर के सुंदरबनी के जंगलों में बसंत का सूरज लंबे-लंबे चीड़ (Pinus roxburgii) के पेड़ों पर चमकना शुरू होता है, वैसे ही जंगल के पास रहने वाले लोग हरकत में आ जाते हैं। ये लोग एक बड़ा सा कपड़ा लेकर जंगल में गिरी चीड़ की नुकीली पत्तियां इकट्ठा करने निकल जाते हैं। डोगरी भाषा में इस कपड़े को ‘पल्ले’ और इन पत्तियों को ‘सरमोए’ कहा जाता है। इस काम के लिए महिलाएं और पुरुष अपनी झोपड़ियों से निकलकर जंगल में जाते हैं और चारों तरफ गिरी हुई पत्तियों को इकट्ठा करते हैं।
सुंदरबनी के निवासी दौलत राम उप्पल 10 लोगों के स्वंय सहायता समूह की अगुवाई करते हैं। वह कहते हैं, “अप्रैल से जून के आखिर तक हम चीड़ की इन पतली-पतली सूखी पत्तियों को इकट्ठा करते हैं। इससे हमारी कमाई हो जाती है क्योंकि इन पत्तियों से ब्रिकेट और हाथ से बनने वाली चीजें बनाई जाती हैं।”
जम्मू में जितना कुल वन क्षेत्र है उसके 16.40 प्रतिशत हिस्से में उपोष्णकटिबंधीय जंगल पाए जाते हैं। खासतौर पर हिमालय की शिवालिक चोटियों पर इसी तरह के जंगल में पाए जाते हैं। इसके अलावा, जम्मू-कश्मीर में पूरे हिमालय की 500 से 1500 मीटर ऊंचाई वाली चोटियों के 1,58,813 हेक्टेयर क्षेत्र में यही चीड़ के जंगल पाए जाते हैं। ये जंगल पूर्व में बशोली से पश्चिम में पुंछ तक फैले हुए हैं और चेनाब घाटी तक जाते हैं। ये जंगल भद्रवाह, डोडा, रामबन, रियासी, ऊधमपुर, सांबा, कठुआ, पुंछ, राजौरी, नौशेरा, बिल्लावर और जम्मू फॉरेस्ट डिवीजन में आते हैं।
जंगल की आग में घी डालना
एक अनुमान के मुताबिक, हर साल जम्मू-कश्मीर में चीड़ की लगभग दो लाख टन पत्तियां गिरती हैं। गर्मियों में ये सूखी हुई पत्तियां (लंबी और पतली पत्तियां जो गुच्छे में होती हैं) जमीन पर एक मोटी परत बना लेती हैं जो कि न सिर्फ जमीन पर उगने वाली वनस्पतियों को प्रभावित करती हैं बल्कि इनके बेहद धीरे सड़ने की वजह से ये भीषण गर्मी (अप्रैल से जून) के समय एक ज्वलनशील पदार्थ की तरह काम करती हैं। इसके अलावा, इन पत्तियों में पाई जाने वाली राल गर्मियों के समय इन्हें जलाने में और मदद करती है और जंगलों को आग के प्रति बेहद संवेदनशील बनाती हैं।
जंगलों की आग वनस्पति के कवर को नुकसान पहुंचाती है और वन्यजीवों के रहने के क्षेत्र को भी प्रभावित करती है। आग की इन घटनाओं से माइक्रो जलवायु में परिवर्तन होता है, जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है, और खरपतवार बढ़ने लगते हैं। आग लगने की इन घटनाओं से स्थानीय लोगों की आजीविका पर भी असर पड़ सकता है। साथ ही, कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन भी बढ़ता है जो कि एक ग्रीनहाउस गैस है और ग्लोबल वॉर्मिंग को बढ़ाती है।
पिछले एक दशक में जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में आग लगने की हजारों घटनाएं हो चुकी हैं। साल 2002 से 2008 तक, कुल 6,795 हिस्सों में आग लगने की 4,392 घटनाएं हो चुकी हैं। जम्मू, नौशेरा और सांबा का डिवीजन ज्यादा संवेदनशील है और इस क्षेत्र में आग लगने की ज्यादा घटनाएं हुई हैं। वहीं, कश्मीर क्षेत्र में, बांदीपोरा डिवीजन आग लगने की घटनाओं के मामले में सबसे आगे है। साल 2022 में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इस क्षेत्र में पिछले चार साल में ही जंगल की आग लगने की 1000 से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं।
इस समस्या का हल निकालने के लिए जम्मू-कश्मीर के वन विभाग ने साल 2021 में एक प्रोजेक्ट शुरू किया ताकि सतत प्रबंधन के जरिए देवदार की इन पत्तियों का इस्तेमाल किया जा सके और नए प्रयोग हो सकें। जम्मू के नौशेरा फॉरेस्ट डिवीजन के रेंज अधिकारी राकेश वर्मा ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “हमने नौशेरा डिवीजन की शुरुआत की। यह लगभग 9,565 हेक्टेयर में फैला हुआ है और यहां चीड़ के बेहद घने जंगल हैं जिनमें आग लगने का खतरा ज्यादा होता है। जंगल के अंदर और इसके आसपास रहने वाले लोग अपनी दैनिक गतिविधियों और जरूरतों जैसे कि ईंधन के लिए लड़की और जानवरों को चराने के लिए इन्हीं जंगलों पर निर्भर होते हैं। खासतौर पर गुज्जर और बक्करवाल समुदाय के लोग इन जंगलों पर घास और जानवरों को चराने के लिए निर्भर होते हैं।”
शुरुआती दौर में इस प्रोजेक्ट के तहत वन विभाग के कर्मचारियों को शिक्षित किया गया जिससे कि वे स्थानीय लोगों से बेहतर संवाद स्थापित कर सकें। यह एक तरह की रणनीति थी जिसे आमतौर पर ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट कहा गया। वर्मा आगे कहते हैं, “हमने लोगों को ट्रेनिंग दी कि जंगल के कचरे से कैसे वे छोटी-छोटी चीजें और कलाकृतियां बना सकते हैं। समय के साथ-साथ हमारे स्टाफ कुशल होते गए और उनकी बनाई शानदार कलाकृतियों ने लोगों को आकर्षित करना शुरू कर दिया।”
राजौरी जिले के अंतर्गत नौशेरा फॉरेस्ट डिवीजन के एक गांव में एक स्थानीय स्वंय सहायता समूह काम करता है। इसी की सक्रिय सदस्य सुमित्रा देवी दो बेटियों की मां हैं। वह कहती हैं, “रेडियो पर महिलाओं की कामयाबी की कहानियां सुनकर अक्सर मैं अपने गांव की वास्तविकता को लेकर चिंता करती थी। एक महिला के रूप में आजीविका कमाना मुश्किल लगता है। मैं कमाना चाहती थी ताकि अपने बच्चों को पढ़ा सकूं। अब मैं हर महीने चीड़ की पत्तियों से कई तरह की कलाकृतियां बनाकर 10 हजार रुपये कमा सकती हूं और अब मैंने अपनी बेटियों का दाखिला सरकारी स्कूल में करवा दिया है।”
जंगल से पत्तियों को इकट्ठा करने के बाद असल में क्या किया जाता है? सुमित्रा देवी इसके बारे में बताती हैं, “जंगल की जमीन से इन पत्तियों को इकट्ठा करने के बाद हम इन्हें गट्ठर में बांध लेते हैं। इसके बाद हम उन्हें वॉशिंग पाउडर से साफ करते हैं ताकि धूल-मिट्टी और अन्य गंदगी साफ हो जाए। इन गट्ठरों को उबलते पानी में नीम की पत्तियों और ग्लिसरीन के साथ डाल दिया जाता है। नीम की पत्तियां देवदार की पत्तियों को फंफूंद से बचाती हैं और ग्लिसरीन उन पर चमक लाती है। इन गट्ठरों को पानी में रातभर रखा जाता है। इसके बाद, उन्हें सुखाया जाता है। सुखाने के बाद ये बिनाई के लिए तैयार हो जाते हैं।”
महिलाएं इन पत्तियों से रोटी बॉक्स, ट्रे बनाना सीख गई हैं। इसके अलावा बिना लकड़ी के बेस वाले डाइनिंग मैट, पर्स और कई अन्य चीजें बनाती हैं जिनकी कीमत 300 रुपये से शुरू होती है। वर्मा कहते हैं, “ये बायो उत्पाद ईको फ्रेंडली और ऑर्गैनिक होते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में कहीं पर किसी केमकिल का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।” हालांकि, पारंपरिक व्यवस्था में इन उत्पादों को बेचना आसान नहीं हैं। विस्तृत चर्चा के बाद हमने फैसला किया कि इन उत्पादों को स्थानीय बाजारों और मेलों में प्रदर्शन के लिए रखा जाएगा। वह आगे कहते हैं, “हमने दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय मेले में इस उत्पाद को प्रदर्शनी में रखा था। वहां इन महिलाओं ने एक लाख रुपये से ज्यादा की कमाई की। इस कामयाबी से अन्य स्थानीय महिलाओं को हिम्मत मिली कि वे अपने कौशल को बेहतर बनाएं और ज्यादा ट्रेनिंग वर्कशॉप के लिए आगे आएं।”
वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, नौशेरा फॉरेस्ट डिवीजन में अभी तक 11 ट्रेनिंग सत्र आयोजित किए जा चुके हैं। अभी तक राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन में 15 स्वयं सहायता समूह रजिस्ट्रेशन करवा चुके हैं। लगभग 480 महिलाओं को हथकरघा उत्पाद बनाने की ट्रेनिंग दी गई है।
भले ही इस जैविक कचरे से बनने वाले हथकरघा उत्पाद से स्थानीय महिलाएं आजीविका कमा रही हैं लेकिन अभी भी चीड़ की इन पत्तियों का इस दिशा में इस्तेमाल बेहद सीमित है। इसके बाद वन विभाग ने एक और प्रयास शुरू किया कि इन पत्तियों को बायो-ब्रिकेट में बदला जाए।
और पढ़ेंः बकाया वेतन, संसाधनों का अभाव, जंगल की आग से कैसे लड़ेंगे उत्तराखंड के अग्नि प्रहरी
वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, नौशेरा फॉरेस्ट डिवीजन में अभी तक 11 ट्रेनिंग सत्र आयोजित किए जा चुके हैं। अभी तक राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन में 15 स्वयं सहायता समूह रजिस्ट्रेशन करवा चुके हैं। लगभग 480 महिलाओं को हथकरघा उत्पाद बनाने की ट्रेनिंग दी गई है।
भले ही इस जैविक कचरे से बनने वाले हथकरघा उत्पाद से स्थानीय महिलाएं आजीविका कमा रही हैं लेकिन अभी भी चीड़-देवदार की इन पत्तियों का इस दिशा में इस्तेमाल बेहद सीमित है। इसके बाद वन विभाग ने एक और प्रयास शुरू किया कि इन पत्तियों को बायो-ब्रिकेट में बदला जाए।
चीड़ की पत्तियों से बायो ब्रिकेट
वन विभाग ने पहले तो जंगल से चीड़ की पत्तियों को हटाने का अभियान शुरू किया और उसे नियंत्रित तरीके से जलाना शुरू किया। अपनी पहचान छिपाने की शर्त पर वन विभाग के एक कर्मचारी ने हमें समझाया, “जंगल का आकार देखते हुए इसे पूरी तरह हटाना संभव नहीं है। इसके अलावा, नियंत्रित तरीके से चलाने से पर्यावरण संबंधित खतरे भी हैं। इससे हमें लगा कि हमें आईआईटी रुड़की से वैज्ञानिक सहायता लेनी चाहिए। इससे, हमें एक ऐसी पोर्टेबल मैन्युअल हाइड्रोलिक मशीन बनाने में मदद मिली जिससे हम चीड़ की पत्तियों से बायो-ब्रिकेट बना सकें। बायो ब्रिकेट कोयले और चारकोल का विकल्प हैं जिसे हरे कचरे से बनाया जा सकता है।”
वन विभाग का कहना है कि दो किलो के बायो ब्रिकेट से छोटे दुकानदार अपना दिन भर का काम चला सकते हैं। तस्वीर- राकेश वर्मा।ब्रिकेट को बांधने के लिए किसी अन्य चीज की जरूरत नहीं है और इन्हें हाथ से ही उठाया जा सकता है। लगभग 100 ग्राम पत्तियों को तोड़ने-कुचलने के बाद 80 ग्राम ब्रिकेट तैयार होते हैं। इसके लिए इस मशीन को 80 सेकेंड का समय लगता है। इन ब्रिकेट का इस्तेमाल खाना बनाने और आग जलाने में किया जाता है और इसे 12 से 15 रुपये किलो के हिसाब से बेचा जा सकता है। यहां तक कि यूकेलिप्टस की पत्तियों और निर्गुंडी (Vitex negundo) का इस्तेमाल करके इन्हीं मशीनों से खुशबूदार ब्रिकेट भी बनाए जाते हैं।
मौजूदा समय में नौशेरा फॉरेस्ट डिवीजन में इसी तरह की 15 पोर्टेबल हाइड्रोलिक मशीनें लगाई गई हैं। लगभग 5 स्वयं सहायता समूह को बायो ब्रिकेट बनाने की ट्रेनिंग दी गई है।
एक स्वंय सहायता समूह के मुखिया कौशल कुमार ने कहा कि बायो ब्रिकेट के ज्यादातर ग्राहक सड़क के किनारे बने ढ़ाबे और होटलों के मालिक हैं। कौशल कुमार आगे कहते हैं, “ढ़ाबेवालों को ब्रिकेट बेचने के अलावा हमने पांच होटलों से भी समझौता कर रखा है। सर्दियों के समय ये लोग हर 15 दिन में लगभग 10 क्विंटल का ऑर्डर देते हैं। हमारे सदस्य हर दिन दो-दो घंटे काम करते हैं और हर महीने लगभग 12 से 13 हजार रुपये कमाते हैं।”
वन विभाग के अधिकारियों के मुताबिक, इन जगहों पर लकड़ी के कोयले या चारकोल का इस्तेमाल किया जाता था। वर्मा समझाते हैं, “हमने इन लोगों को समझाया कि वे ब्रिकेट का इस्तेमाल शुरू करें क्योंकि वे सस्ते हैं, देर तक जलते हैं और कम धुआं पैदा करते हैं। ये दुकानदार सिर्फ दो किलोग्राम ब्रिकेट से अपना दिन भर का काम चला लेते हैं।”
ऊर्जा संकट वाले इलाकों के लिए बायो-ब्रिकेट
जम्मू-कश्मीर के फॉरेस्ट, ईको-टूरिज्म के संरक्षक इरफान अली शाह ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि जंगल के हानिकारक बायो कचरे को हथकरघा के उपयोगी संसाधन में बदलने और ऊर्जा पैदा करने से समुदायों के लोगों को सतत आजीविका के बेहतर मौके मिलते हैं।
शाह आगे कहते हैं, “हमने देखा है कि हथकरघा और बायो ब्रिकेट में स्वंय सहायता समूह की संलिप्तता से लैंगिक समृद्धता बढ़ती है और सामाजिक संरचना भी प्रभावित होती है। हम इस प्रयास को जम्मू के उन डिवीजन में भी फैलाना चाहते हैं जहां आग लगने का खतरा ज्यादा होता है।”
वह आगे कहते हैं, “गुरेज, उरी और सोनमर्ग जैसे इलाकों में बायो ब्रिकेट बेहद फायदेमंद हो सकते हैं क्योंकि इन इलाकों में सर्दी के महीनों में ईंधन की बहुत कमी होती है और यह सतत समस्या बनी हुई है।” शाह के मुताबिक, भले ही अभी यह काम पायलट स्तर पर चल रहा हो लेकिन मार्केट में इसकी संभावनाएं अपार हैं।
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीर- नौशेरा फॉरेस्ट डिवीजन के सुंदरबनी जंगल में बिखरी चीड़-देवदार की पत्तियों को इकट्ठा किया जा रहा है। तस्वीर- राकेश वर्मा