- उत्तराखंड में हर साल वनाग्नि की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। इस साल की सबसे भयावह घटना अल्मोड़ा जिले के बिनसर वन्यजीव अभयारण्य में घटी जहाँ जंगल की आग बुझाने गए छः वनकर्मियों ने अपनी जान गवां दी।
- वन अग्नि प्रहरी के रूप में सेवा देने वाले कई लोगों का कहना है कि उन्हें पिछले दो साल से भुगतान नहीं किया गया है, साथ ही आग से लड़ने के लिए पर्याप्त साधन भी उपलब्ध नहीं करवाए जाते हैं।
- विभागीय आंकड़ों के अनुसार, इस साल अब तक 1,747.72 क्षेत्रफल वनाग्नि की चपेट में आने से न केवल वन सम्पदा को नुकसान पंहुचा है बल्कि उस क्षेत्र की जैव विविधता और पानी के प्राकृतिक स्त्रोत पर भी प्रभाव पड़ा है।
इस साल उत्तराखंड के लगभग सभी जिलों में वनाग्नि के मामले दर्ज किये गए। राज्य की दोनों प्रशासनिक इकाइयों में सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में उत्तरकाशी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, चमोली, देहरादून (गढ़वाल मंडल) और अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ व उधम सिंह नगर (कुमाऊं मंडल) में वनाग्नि की घटनाएं दर्ज की गईं। कुल 13 जिलों में से 11 जिलों के जंगल आग की भेंट चढ़े। उत्तराखंड वन विभाग के अनुसार, 23 नवंबर से 19 जून तक प्रदेश में जंगल में आग लगने की कुल 11,256 घटनाएं दर्ज की गईं।
वनाग्नि के कारण और स्वरूप
जंगल की आग में आकस्मिक वृद्धि के पर्यावरणीय कारकों में बरसात के दिनों में कमी और तापमान में वृद्धि शामिल है। बढ़ते तापमान की वजह से लगभग पूरे राज्य में वनाग्नि की घटनाएं बढ़ी हैं। राज्य की राजधानी देहरादून से लेकर अन्य मैदानी जिलों और यहाँ तक कि पहाड़ी जिलों में तापमान इस साल 40 डिग्री सेल्सियस पार कर गया। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार बारिश और बर्फ़बारी के अनियमित होने की वजह इस साल एल-नीनो का सक्रिय होना है।
उष्णकटिबंधीय प्रशांत के भूमध्यीय क्षेत्र में समुद्र के तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आए बदलाव के लिए जिम्मेदार समुद्री घटना को एल-नीनो कहते हैं। इस बदलाव के कारण समुद्र की सतह का तापमान सामान्य से बहुत अधिक हो जाता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, उत्तराखंड राज्य में सर्दी के मौसम में बारिश और बर्फ़बारी न होने की वजह से एक तरफ जहाँ तापमान बढ़ा है, वहीं जंगल की ऊपरी सतह में नमी की कमी से वनाग्नि के मामले बढ़े हैं।
नैनीताल स्थित सेंट्रल हिमालयन एनवायरनमेंट एसोसिएशन (सीएचईए) के संयुक्त सचिव जीसीएस नेगी के अनुसार, पिछले दो दशकों में उत्तराखंड में जंगल में आग लगने की घटना साल में दो बार यानी सर्दी और गर्मी के महीनों में देखी जा रही है। सामान्यतः उत्तराखंड में फायर सीजन अप्रैल के महीने शुरू होता है और करीब 10 हफ्ते चलता है, लेकिन पिछले कुछ सालों में इसकी शुरुआत नवंबर के महीने में ही हो जाती है।
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (संड्रप) के एसोसिएट कोऑर्डिनेटर, भीम सिंह रावत, कहते हैं, “आग की घटनाओं से वनों की जैवविविधता को बड़ा नुकसान हो रहा है। वनाग्नि की बढ़ती घटनाओं से वनों पर आश्रित वन्य जीवों और कीटों की संख्या में कमी हो रही है। स्थानीय वनस्पति का क्षेत्र कम हो रहा है और अवांछित पादपों (इनवेसिव) का प्रसार बढ़ रहा है। प्राकृतिक जलस्रोतों के साथ वन संसाधनों पर विपरीत असर देखने को मिल रहा है।”
बुनियादी सुविधाओं का अभाव
राज्य के जंगलों को आग से बचाने के लिए अग्निकाल के मौसम में वन रक्षकों को दैनिक वेतन के आधार पर नियुक्त किया जाता है। लेकिन बहुत से वन रक्षकों का आरोप है कि उन्हें आग से लड़ने के लिए न तो पर्याप्त उपकरण उपलब्ध कराए जाते हैं और न ही उनका भुगतान समय पर किया जाता है।
नंदा बल्लभ पंत, जो 1985 से वन अग्नि प्रहरी के रूप में सेवा कर रहे हैं, कहते हैं, “हमें आग के मौसम के दौरान 26 दिनों (रविवार को छोड़कर) के लिए 380 रुपये के दैनिक वेतन पर नियुक्त किया जाता है।”
अल्मोड़ा के बिनसर क्षेत्र में कई वन अग्नि प्रहरी हैं जिन्हें 2022 से उनकी सेवा के लिए भुगतान नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, 45 वर्षीय सुरेश राम ने दो साल तक वन अग्नि प्रहरी के रूप में काम किया पर उनकी बैंक पासबुक में 2022 और 2023 के दौरान उनकी सेवा के लिए भुगतान राशि नहीं दिखती।
सुरेश की तरह ही भेटुली गांव के निवासी रवींद्र सिंह भी विभाग से अपना वेतन आने का इंतजार कर रहे हैं। हालाँकि, सुरेश ने इस ही के चलते इस साल यह काम करने से मना कर दिया। “इस साल मैंने फायर वॉचर बनने से इनकार कर दिया। इसलिए, मेरे गांव के 17 साल के कृष्णा कुमार को लिया गया, जिसकी प्रशिक्षण और अनुभव न होने के कारण जान चली गयी,” सुरेश ने बताया।
पिछले महीने बिनसर में जंगल की आग बुझाने गए चार कर्मचारियों की आग में जलने से मौत हो गयी थी, वहीं कृष्णा कुमार गंभीर रूप से झुलस गए थे। कृष्णा ने दिल्ली के एम्स में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया। इस घटना में कुल छः कर्मचारियों की जान चली गई। कृष्णा की नाबालिग होने के बावजूद वन अग्नि प्रहरी के रूप में भर्ती और पूरे दस्ते के पास उपयुक्त उपकरण न होने के कारण वन विभाग पर सवाल उठाए जा रहे हैं।
बकाया भुगतान के अलावा इस पद पर नियुक्त किए जाने वाले लोग कई अन्य समस्याओं से भी लड़ रहे हैं जिनमें उपकरणों और प्रशिक्षण का अभाव प्रमुख है। “हमारे काम का कोई समय नहीं है, और जंगल की आग पर काबू पाने के लिए लंबी दूरी पैदल तय करते हैं। आग ऐसी जगह लगती है जहाँ खाने-पीने की भी सुविधा नहीं होती। फायर बूट्स या संपर्क साधने के लिए भी हमारे पास फ़ोन नहीं रहता। जंगल की आग सुबह के समय या रात के मध्य में हो, हमें हमेशा तत्पर रहना पड़ता है। जैसे ही हमें आग लगने की सूचना मिलती है, हम तुरंत आग बुझाने के लिए साइट पर निकल जाते हैं,” सुरेश बताते हैं।
रिसाल गाँव के रहने वाले 56-वर्षीय नंदा वल्लभ जोशी वर्तमान में वन विभाग में सीजनल फायर वॉचर हैं। जोशी और उनके गांव में रहने वाले छः परिवारों से एक-एक सदस्य वनाग्नि बुझाने का काम कई पीढ़ीओं करते आये हैं। जोशी सवाल करते हैं, ”बुनियादी सुविधाएं और समय पर भुगतान दिए बिना हमसे आग बुझाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?” जोशी अफसोस जताते हुए कहते हैं, “हम रात के समय कई बार मोबाइल टॉर्च के सहारे जंगल में लगी आग बुझाने पहुंचे हैं। क्योंकि, हमें विभाग द्वारा टॉर्च भी उपलब्ध नहीं कराई जाती है। सुरक्षा गियर, मास्क और आग से निपटने के अन्य आधुनिक उपकरणों के बारे में तो भूल ही जाइए।”
आपदा में अवसर ढ़ूंढ़ता भू-माफिया
रीनू पॉल, देहरादून स्थित पर्यावरण कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने जल, जंगल, ज़मीन से संबंधित मुद्दों पर कई जनहित याचिकाएँ दायर की हैं। उनके अनुसार पिछले कुछ वर्षों में वनाग्नि की बढ़ती घटनाएं, वनों की कटाई का प्रमुख कारण बन गई हैं।
उनके अनुसार उत्तराखंड में अनेक स्थानों पर प्रस्तावित सरकारी परियोजनाओं के पास एवं मुख्य मार्गों के पास जंगल के हिस्सों को जला कर साफ करने के मामले सामने आ रहे हैं। जंगल साफ़ करने के बाद उन हिस्सों के भूमि उपयोग को जंगल से कृषि या व्यावसायिक गतिविधियों के लिए बदलने का प्रयास किया जा रहा है। हालांकि, संरक्षित क्षेत्र में भूमि उपयोग परिवर्तन निषिद्ध है, लेकिन उत्तराखंड में अनियंत्रित भूमि उपयोग पैटर्न में हो रहे बदलाव के कई उदाहरण सामने आए हैं।
पॉल कहती हैं, “भूमि उपयोग परिवर्तन की इस अवैध प्रथा को रोकने के लिए जले हुए वन क्षेत्रों की निरंतर निगरानी होनी चाहिए और भवन कानूनों को कम से कम 10 से 20 वर्षों तक ऐसे विकास के नियमितीकरण पर रोक लगा देनी चाहिए।”
वनाग्नि की रोकथाम
वनाग्नि की रोकथाम के लिए कई सुझाव दिए जाते हैं, लेकिन आग को रोकने के लिए फायर सीजन के शुरू होने के पहले होने वाली तैयारी, आग का सही समय पर पता लगना और उसे बुझाने के लिए प्रयाप्त मानव संसाधन, इन सभी के लिए जन भागीदारी सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है।
रुद्रप्रयाग जिले की वन पंचायत मरोड़ा के सरपंच देवी प्रसाद थपलियाल कहते हैं, “बिना जनसहभागिता के वनाग्नि की बढ़ती घटनाओं पर काबू पाना मुश्किल है क्यूंकि लोग अपने जंगलों के रास्ते जानते हैं। 2016 तक, वन पंचायत और समुदाय विभाग के अधिकारियों के साथ सीज़न से पहले योजना बनाते थे और अग्नि लाइनों के प्रबंधन के लिए धन आवंटित किया जाता था। लेकिन, अब वन पंचायत की भूमिका सीमित हो गयी है।”
थपलियाल आगे कहते हैं, “जब तक समुदाय सक्रिय नहीं होगा, जंगल जलते रहेंगे। 2011 के बाद से वन विभाग महिला मांगल दल, स्कूल आदि के साथ गोष्ठियाँ करता है पर नए नियुक्त अधिकारी जंगल की जानकारी नहीं रखते। वनाग्नि के रोकथाम के लिए फायर सीजन आने से पहले तैयारी करने की ज़रूरत है। वन कर्मचारियों को उपयुक्त उपकरण, प्रशिक्षण और साधन समय पर मिलने से वनाग्नि की बढ़ती घटनाओं पर नियंत्रण किया जा सकता है।”
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वहीं, नेगी चीड़ के वनों और पिरुल के बेहतर प्रबंधन पर जोर देते हुए कहते हैं, “यदि चीड़ के वनों में वसंत से ग्रीष्म ऋतु तक गिरने वाली पत्तियों (पिरुल) को संवेदनशील स्थानों से ग्रामीणों के माध्यम से इकट्ठा कर लघु उद्योग विकसित किया जाए तो इससे स्थानीय लोगों को रोज़गार भी मिलेगा और जंगल में आग की घटनाएं भी कम होंगी।”
उत्तराखंड संसाधन पंचायत संगठन के संयोजक, ईश्वरी दत्त जोशी सुझाव देते हैं कि ब्रिटिश काल में बनाई गई ‘बीट’ के रखरखाव के लिए विभाग द्वारा पैसा दिया जाए और नई बीट विकसित करनी चाहिए।
बैनर तस्वीरः अप्रैल 2016 में उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के चितई के पास चीड़ के जंगलों में लगी आग। फाइल तस्वीर– Ramwik/विकिमीडिया कॉमन्स