- मवेशियों को चराना, खासतौर पर वनवासी समुदायों के लिए, पारंपरिक रूप से आजीविका का एक प्रमुख स्रोत रहा है।
- विशेषज्ञों का कहना है कि इस प्रतिबंध से हाशिए पर रहने वाले पशु पालकों की आजीविका और वन पारिस्थितिकी खतरे में पड़ गई है, साथ ही संरक्षण प्रयासों में भी बाधा उत्पन्न हो रही है।
- वन अधिकारी चराई के लिए बफर जोन बनाने, आक्रामक प्रजातियों को हटाने और आदिवासी लोगों के लिए वैकल्पिक आजीविका को बढ़ावा देने का सुझाव देते हैं।
थानथाई पेरियार वन्यजीव अभयारण्य की घोषणा और 2022 के मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा वन क्षेत्रों में मवेशियों को चराने पर प्रतिबंध लगाने के बाद से तमिलनाडु के इरोड जिले में बरगुर हिल्स के निवासियों की आजीविका खतरे में है।
ओराली जनजाति के 61-वर्षीय देसन के मुताबिक, उन्हें अपनी तत्काल जरूरतों को पूरा करने के लिए बरगुर नस्ल की अपनी आठ गायों को बेचना पड़ा था। वह कहते हैं, “अगर वे हमारे मवेशियों को जंगलों में चरने की अनुमति नहीं देंगे, तो मुझे अपने बाकी गायों को बेचने के लिए भी मजबूर होना पड़ेगा। मैं उनके लिए चारा कहां से लाऊंगा।”
मवेशियों को चराना पारंपरिक रूप से आजीविका का एक प्रमुख स्रोत रहा है, खासतौर पर जंगलों में रहने वाले समुदायों के लिए। एक संरक्षणवादी जी. थिरुमुरुगन की ओर से जुलाई 2020 में दायर एक जनहित याचिका के जवाब में, मार्च 2022 में मद्रास उच्च न्यायालय ने वन क्षेत्रों में मवेशियों को चराने पर प्रतिबंध लगा दिया था। याचिका में पालतू मवेशियों से वन्यजीवों में बीमारियों के फैलने और घास के मैदानों को खतरा बताया गया था। हालांकि, थिरुमुरुगन ने सिर्फ श्रीविल्लिपुथुर-मेघमलाई बाघ अभयारण्य के एक हिस्से ‘मेघमलाई वन्यजीव प्रभाग और अभयारण्य’ में चराई पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी, लेकिन बाद में अदालत ने इस प्रतिबंध को राज्य के पूरे 22,877 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में बढ़ा दिया। यह वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत अभयारण्यों में प्रतिबंधित प्रवेश और तमिलनाडु वन अधिनियम, 1882 के तहत मवेशियों के अतिक्रमण से संबंधित प्रावधानों के तहत किया गया था।
वन अधिकार देने और प्रतिबंध हटाने की मांग
देसन उन कुछ लोगों में से एक हैं जिन्हें वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत पारंपरिक वन निवासियों को दी जाने वाली भूमि का स्वामित्व मिला है। इस साल फरवरी में, बरगुर पहाड़ियों के निवासियों ने अपने अधिकारों को मान्यता देने और प्रतिबंध पर पुनर्विचार करने की मांग को लेकर इरोड जिले के अंथियूर शहर में तहसीलदार कार्यालय के बाहर विरोध प्रदर्शन किया।
बरगुर पहाड़ियों पर बसे डोली वन गांव के 90 वर्षीय अरपाली कहते हैं, “आदिवासी होने के नाते, हम पारंपरिक रीति रिवाजों के जरिए जंगल का सम्मान करते हैं। हमारी ये परंपराएं जंगल और वन्यजीवों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती है।” अरपाली भी विरोध प्रदर्शन में शामिल थे।
उन्होंने आगे कहा, “हमारे मवेशी घास खाकर, एक तरह से जंगलों को आग से बचाते हैं। अगर घास को बढ़ने के लिए छोड़ दिया जाए, तो ये सूख जाएगी और तापमान बढ़ने पर जल जाती है। मवेशी जो भी खाते हैं, उसे वो गोबर के रूप में वापस देते हैं जो मिट्टी को समृद्ध बनाता है और वनस्पति को बढ़ाने में मदद करता है।”
तमिलनाडु पशुचारक संघ के अध्यक्ष राजीव गांधी कहते हैं कि यह न सिर्फ हाशिये पर रहने वाले पशुपालकों और वन पारिस्थितिकी के जीवन का मामला है, बल्कि यह जीवन जीने के एक तरीके से जुड़ा मसला भी है। उन्होंने बताया, “तमिलनाडु के लोगों के सांस्कृतिक लोकाचार और एक दीर्घकालिक स्थायी ग्रामीण व्यवसाय खतरे में है।”
पशुधन गणना के अनुसार, तमिलनाडु में बरगुर, कंगायम, पुलिकुलम, अलाम्बडी, उम्बलाचेरी, और मलैमाडु जैसी देशी गायों की नस्लें 2013 और 2019 के बीच घटकर कुछ हजार रह गई हैं। इन नस्लों की विशिष्ट आनुवंशिकी है और सूखा जैसी स्थिति में जीवित रहने की अपनी खासियत के चलते ये स्थानीय कृषि के लिए महत्वपूर्ण हैं।
इन नस्लों में तेजी से गिरावट और विदेशी नस्लों में वृद्धि के कारण केंद्र सरकार ने संरक्षण के प्रयास शुरू किए। बरगुर मवेशियों पर किए गए एक अध्ययन के अनुसार, देसी नस्लें, जो सूखे की स्थिति, रोग प्रतिरोधक क्षमता और अनुकूलन क्षमता के लिए जानी जाती हैं, जैविक खेती के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे जंगलों में चरती हैं, मिश्रित भोजन करती हैं और उनका गोबर भी उपयोगी होता है।
इन नस्लों का सांस्कृतिक महत्व 2017 में हुए जल्लीकट्टू विरोध प्रदर्शनों में स्पष्ट रूप से दिखाई दिया था, जो उच्चतम न्यायालय द्वारा पारंपरिक बैल को काबू करने वाले खेल पर लगाए गए प्रतिबंध के खिलाफ थे। यह खेल देशी पशुओं के संरक्षण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। विरोध प्रदर्शनों के कारण 2017 में एक विशेष अध्यादेश पास करके प्रतिबंध के फैसले को उलट दिया गया और प्रत्येक देशी नस्ल के संरक्षण के लिए विशेष अनुसंधान केंद्र स्थापित किए गए। हालांकि अलाम्बडी और मलैमाडु जैसी नस्लों को अभी भी आधिकारिक मान्यता मिलनी बाकी है, जबकि 2019 में धर्मपुरी जिले के करीमंगलम तालुक में अलाम्बडी नस्ल के लिए पहले ही एक शोध केंद्र की आधारशिला रख दी गई थी। इनकी आबादी अपने मूल क्षेत्र में घटकर मात्र 5,273 रह गई है।
चराई पर प्रतिबंध से संरक्षण प्रयासों में बाधा
विशेषज्ञों का कहना है कि चराई पर प्रतिबंध के कारण बरगूर नस्ल के पशुओं के संरक्षण के प्रयासों में बाधा आई है। अपने मूल क्षेत्र में इनकी संख्या 1977 में 95,400 थी, जो 1982 में घटकर 46,600 और फिर 2013 में मात्र 12,106 रह गई, जिसमें 10,000 से भी कम प्रजनन योग्य मादाएं थीं। साल 2019 की राष्ट्रीय पशुधन सर्वेक्षण-नस्लवार गणना में, बरगूर पशु अनुसंधान केंद्र के कार्यक्रमों के कारण इनकी संख्या में तेजी से वृद्धि देखी गई। इनकी संख्या बढ़कर 42,300 हो गई।
अनुसंधान केंद्र के प्रमुख, गणपति का कहना है कि वे पशुपालकों को जंगलों में चराई पर बढ़ते प्रतिबंधों के बीच पशुधन को बनाए रखने के लिए बैकयार्ड डेयरी मॉडल अपनाने की सलाह दे रहे हैं। वह कहते हैं, “गरीब पशुपालकों के इस बदलाव को आसान बनाने के लिए, हम दूध आधारित उत्पादों और गोबर (इस नस्ल के गोबर का जैविक खेती में खाद के रूप में व्यापक उपयोग होता है) के विपणन के माध्यम से नये आय के स्रोतों को बढ़ावा देने में लगे हैं।”
धर्मपुरी जिले के अलाम्बडी पशु नस्ल अनुसंधान केंद्र के अनुसार, धर्मपुरी के पेनगरम तालुका और कृष्णगिरि जिले के देनकनिकोट्टई और होसुर में पाई जाने वाली अलाम्बडी गायों की नस्ल के जर्मप्लाज्म की स्थिति बिगड़ रही है। अलाम्बडी अनुसंधान केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर और प्रमुख एस वसंत कुमार कहते हैं, “पहले, किसान प्रजनन योग्य मादाओं के दो जोड़े पालते थे, लेकिन अब ये केवल झुंड मालिकों के पास ही हैं।”
धर्मपुरी जिले में अलाम्बडी गायों के 51 वर्षीय पशुपालक असैतम्बी ने बताया कि उनकी आय का मुख्य स्रोत पशुपालन है। उन्होंने कहा, “प्रतिबंधों के कड़े होने से हम अनिश्चितता का सामना कर रहे हैं। हम पशु मेलों में एक सेहतमंद व्यस्क मादा गाय को 20,000 रुपए से 30,000 रुपए में बेचते हैं, लेकिन घटते अवसरों (खेती में ट्रैक्टरों और दूध के लिए विदेशी नस्लों का देशी मवेशियों की जगह ले लेना) के साथ, हमारी आजीविका खतरे में है।”
आगे की राह
शोधकर्ता और कार्यकर्ता सीआर बिजॉय कहते हैं कि अभयारण्य बनाने वाली अधिसूचना में यह स्वीकार किया गया था कि तमिलनाडु वन अधिनियम 1882 (वह समय जब वन आरक्षित थे) और एफआरए 2006 के तहत दिए गए अधिकार “बने रहेंगे और संबंधित व्यक्ति उनका लाभ लेते रहेंगे।” वह कहते हैं, “मवेशी चराना एफआरए के तहत मुख्य सामुदायिक अधिकार दावों में से एक है।”
वहीं, दूसरी तरफ विशेषज्ञ इस स्थिति के लिए तमिलनाडु में वन अधिकार अधिनियम (FRA) के धीमे कार्यान्वयन को जिम्मेदार मानते हैं। तमिलनाडु में जंगल 26,419 वर्ग किलोमीटर में फैले हैं, जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 20.3% है। इसमें से लगभग 6.71% संरक्षित क्षेत्र हैं, जिसमें पांच राष्ट्रीय उद्यान और 35 अभ्यारण्य शामिल हैं। इन क्षेत्रों के अंदर पांच बाघ अभयारण्य बनाए गए हैं। पश्चिमी घाट और पूर्वी घाट की पहाड़ियों में विविध वनस्पतियां हैं और सदियों से वहां पशुचारण होता रहा है। पशुपालक समुदाय पशुओं को एक जगह से दूसरे जगह पर ले जाकर चराते हैं और कई लोग एक ही जगह पर स्थायी रूप से भी चराई कराते हैं। बिजॉय के अनुसार, केवल तमिलनाडु में ही अदालतों ने जंगलों के अंदर चराई पर प्रतिबंध लगाया है। बिजॉय आगे कहते हैं, “तमिलनाडु में चराई पर यह लगभग पूर्ण प्रतिबंध, वन अधिकार अधिनियम के उद्देश्य – वन ग्रामों की ग्राम सभाओं के माध्यम से स्थानीय शासन को सशक्त बनाना – के विपरीत है और यह पूरे भारत में वन अधिकारों को कमजोर करने वाली एक मिसाल कायम कर सकता है।”
उन्होंने कहा, “अदालत ने 2006 में जंगलों, वन्यजीवों और जैव विविधता की रक्षा के लिए बनाए गए दो प्रमुख कानूनों पर विचार नहीं किया है। वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम (WLPA) 1972 के संशोधन ने बाघ अभयारण्य को एक वैधानिक श्रेणी बनाया और उनकी स्थापना के लिए अधिसूचनाएं निर्धारित कीं। महत्वपूर्ण बाघ आवास के मुख्य क्षेत्र को अनुसूचित जनजातियों या अन्य वनवासियों के अधिकारों को प्रभावित किए बिना स्थापित किया जाना था। अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 (FRA 2006) ने घुमंतू या पशुपालक समुदायों के चराई और मौसमी संसाधनों तक पहुंच को एक सामुदायिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है। हालांकि, तमिलनाडु के दर्ज वन क्षेत्र का केवल 0.14% हिस्सा ही व्यक्तिगत अधिकारों के लिए दिया गया है।“
बिजॉय आगे बताते हैं कि नए आंकड़ों (2024) के अनुसार, तमिलनाडु में चराई सहित सामुदायिक अधिकारों के लिए प्राप्त 2,584 दावों में से 531 को स्वीकृति मिली है, जबकि 1,008 दावों को खारिज कर दिया गया है। उन्होंने कहा, “लेकिन ग्राम सभा को जो क्षेत्र दिया गया है और जिस पर उसका अधिकार है, उसकी कभी रिपोर्ट नहीं की गई।”
तमिलनाडु ट्राइबल पीपुल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष वीपी गुनासेकरन का कहना है कि वन विभाग ने थानथाई पेरियार वन्यजीव अभयारण्य की अधिसूचना से पहले अनिवार्य अधिकार आकलन औपचारिकताओं की उपेक्षा की गई। उन्होंने बताया, “अभयारण्यों का निर्माण वन अधिकार अधिनियम के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए ताकि आदिवासी समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।”
और पढ़ेंः गर्मी की मार से डेयरी किसान बेहाल, महिला संगठन ने मदद के लिए बढ़ाया हाथ
गांधी के मुताबिक, तमिलनाडु के शिवगंगाई और विरुधुनगर जिलों में जंगलों में चराई पर प्रतिबंध से पुलिकुलम देसी नस्ल के मवेशियों पर असर पड़ रहा है। पशुपालन, हालांकि जीवन का एक पारंपरिक तरीका है, लेकिन आधिकारिक तौर पर इसे मान्यता नहीं दी गई है। वह आगे कहते हैं, “हालांकि, तमिलनाडु में 50 लाख से अधिक लोग इस पर निर्भर हैं। चारागाहों के विखंडन और सिकुड़ने, गांव के साझा संपत्ति संसाधनों और पारंपरिक वनों पर नजर रखने के अधिकारों पर प्रतिबंधों के कारण चारागाहों की भूमि के नुकसान ने कई चरवाहों को आजीविका बदलने के लिए मजबूर किया है। इससे पशुपालकों की आय में कमी आई है।”
‘चारागाह के लिए बफर जोन बनाएं’
नीलगिरी जिले के जिला वन अधिकारी (इरोड जिले के पूर्व डीएफओ) वेंकटेश बाबू चारागाह के लिए बफर जोन बनाने, आक्रामक प्रजातियों को हटाने और आदिवासी समुदायों के लिए वैकल्पिक आजीविका को बढ़ावा देने का सुझाव देते हैं। उन्होंने थानथाई पेरियार वन्यजीव अभयारण्य में मौजूद हाथियों और ऊदबिलाव जैसी प्रजातियों के पारिस्थितिक महत्व का हवाला देते हुए, वन गांव के लोगों की सहमति के बिना अभयारण्य के निर्माण को उचित ठहराया। हालांकि, कार्यकर्ताओं का तर्क है कि वन अधिकार अधिनियम वन्यजीव संरक्षण अधिनियम को पीछे छोड़ देता है, जिससे अभयारण्य निर्माण के लिए वन गांव ग्राम सभा की सहमति आवश्यक हो जाती है।
धर्मपुरी के जिला वन अधिकारी राजंगम के मुताबिक, चराई पर प्रतिबंध अवैध शिकार जैसी आपराधिक गतिविधियों के कारण लगाया गया है। वह भू-क्षमता के आधार पर नियंत्रित चराई पर जोर देते हैं।
वन अधिकारियों और कार्यकर्ताओं के दृष्टिकोण में भारी अंतर होने के कारण, विशेषज्ञों ने एक सूक्ष्म नजरिया अपनाने और सोच-समझकर निर्णय लेने की बात कही, ताकि संरक्षण और आजीविका के बीच सामंजस्यपूर्ण संतुलन बैठाया जा सके। अगस्त्यमलाई नेशनल कंजर्वेशन सेंटर के वरिष्ठ शोधकर्ता एम. महेंद्रन का कहना है कि वन पारिस्थितिकी के लिए पशुचारण के सिद्ध लाभों को देखते हुए, विशेष रूप से जंगल की आग को रोकने और गैर-लाभकारी खरपतवारों के विकास को रोकने में वैज्ञानिक रूप से प्रबंधित, नियंत्रित चराई की अनुमति दी जा सकती है।
उधर आदिवासी समुदायों को उम्मीद है कि राज्य सरकार उनकी समस्या का समाधान करेगी।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 28 जून 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: कूथापाडी-कुलथरामपट्टी वनम की ग्राम पंचायत द्वारा निर्मित पानी के टबों से पानी पीता अलाम्बडी नस्ल के मवेशियों का एक झुंड। धर्मपुरी जिले के पेनागरम तालुक के पहाड़ी क्षेत्र और कृष्णगिरि जिले के देनकनिकोट्टाई में आलम्बादी मवेशियों का असमान वितरण है। तस्वीर: डी. मुनीराज, मोंगाबे के लिए