- साल 2012 और 2021 के बीच हुए जनसंख्या सर्वेक्षण डेटा से पता चलता है कि झारखंड में 385 लेसर एडजुटेंट स्टॉर्क हैं।
- भारत में ‘लेसर एडजुटेंट स्टॉर्क’ की सबसे बड़ी आबादी असम, पश्चिम बंगाल और बिहार में पाई जाती है।
- खेत ‘लेसर एडजुटेंट स्टॉर्क’ के लिए अनुकूल आवास प्रदान करते हैं।
झारखंड के बोकारो जिले में लेसर एडजुटेंट स्टॉर्क (लेप्टोप्टिलोस जावानिकस) की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है, जहां 14 अलग-अलग स्थानों पर 385 लेसर एडजुटेंट देखे गए। यह खुलासा पक्षियों में दिलचस्पी रखने वाले मिथिलेश दत्ता द्विवेदी के एक अध्ययन से हुआ है। द्विवेदी 2012 से अपने पीएचडी शोध के हिस्से के रूप में झारखंड में पक्षियों की आबादी की निगरानी कर रहे हैं। यह सारस फैमिली सिकोनीडे का एक बड़ा जलपक्षी है, जो असम, पश्चिम बंगाल और बिहार में सबसे ज्यादा पाया जाता है। स्थानीय लोग इसे छोटा गरूड़ के नाम से जानते हैं, लेकिन इसका पुराना व वास्तविक नाम हड़गिला है।
साल 2012 में, झारखंड में लेसर एडजुटेंट की मौजूदगी इक्का-दुक्का बार, कुछ पक्षियों को देखने तक ही सीमित थी। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। द्विवेदी एक स्कूल टीचर हैं और झारखंड के बोकारो जिले की पक्षी विविधता पर अपनी पीएचडी के लिए अध्ययन कर रहे थे। उसी दौरान फील्ड विजिट करते हुए, उन्होंने उत्तसारा गांव में 20 लेसर एडजुटेंट की घोंसला बनाने वाली एक छोटी आबादी को देखा। इससे पहले सिर्फ एक बार उधवा पक्षी अभयारण्य में एक पक्षी जनगणना के दौरान उनका सामना इस प्रजाति से हुआ था। द्विवेदी बताते हैं, “एक ऊंचे बरगद (फिकस बेंघालेंसिस) के पास से गुजरते हुए मैंने कुछ बड़े पक्षियों को देखा जिन्होंने पेड़ पर प्लेटफॉर्म जैसे घोंसले बनाए हुए थे। मैं तुरंत पक्षी की पहचान नहीं कर सका क्योंकि इसे, शायद पहले कभी इस क्षेत्र में नहीं देखा गया था। झारखंड में इस पक्षी की कोई घोंसला बनाने वाली आबादी ज्ञात नहीं थी।”
इसके बाद द्विवेदी ने पक्षी प्रेमी अरविंद मिश्रा से संपर्क किया, जो सिकोनीडे फैमिली के एक अन्य पक्षी ग्रेट एडजुटेंट स्टॉर्क (गरूड़) को विलुप्त होने से बचाने में जुटे बिहार के ‘मंदार नेचर क्लब’ से जुड़े हुए हैं। मिश्रा ने बताया कि उन्होंने जो पक्षी देखा, वह लेसर एडजुटेंट ही था। फरवरी 2013 में द्विवेदी को बोकारो के पेटरवार ब्लॉक के अंबाडीह-उत्तासारा गांव में एक बड़े बरगद के पेड़ पर लेसर एडजुटेंट की एक छोटी प्रजनन कॉलोनी मिली। उन्होंने कहा, “हालांकि उधवा पक्षी अभयारण्य में इसे भोजन की तलाश में भटकते देखा गया था, लेकिन 2013 से पहले कोई प्रजनन जनसंख्या अध्ययन नहीं हुआ था।” वह आगे कहते हैं, “लंबे समय के आंकड़ों से पता चलता है कि इस क्षेत्र में लेसर एडजुटेंट अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं।”
अनुकूल कृषि भूमि
अब तक झारखंड में स्टॉर्क की पांच प्रजातियां देखी गई हैं: एशियाई ओपनबिल स्टॉर्क, पेंटेड स्टॉर्क, वूली-नेक्ड स्टॉर्क, ब्लैक-नेक्ड स्टॉर्क और लेसर एडजुटेंट। इनमें से एशियाई ओपनबिल सबसे आम है, जो कई स्थानों पर बड़े समूह में प्रजनन करते हैं। हालांकि अभी तक सिर्फ एक सब-एडल्ट पेंटेड स्टॉर्क को प्रजनन करते पाया गया है, लेकिन वूली-नेक्ड स्टॉर्क, ब्लैक-नेक्ड स्टॉर्क के प्रजनन स्थल नजर नहीं आए हैं।
द्विवेदी ने 2012 से नौ प्रजनन मौसमों के जनसंख्या डेटा को ट्रैक किया और पाया कि लेसर एडजुटेंट झारखंड में प्रजनन कर रही है और उसकी आबादी बढ़ रही है।
उनके अध्ययन से पता चलता है कि खेत 385 लेसर एडजुटेंट के लिए अनुकूल आवास प्रदान कर रहे हैं। अध्ययन के बाद, 2023 में अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) ने लेसर एडजुटेंट को “निकट संकटग्रस्त” के रूप में सूचीबद्ध कर दिया। इससे पहले यह प्रजाति “संवेदनशील” के रूप में वर्गीकृत की गई थी। हालांकि आईयूसीएन ने जनसंख्या में लगातार गिरावट की गति को संभालने का श्रेय संरक्षण उपायों, विशेष रूप से सामुदायिक योजनाओं को दिया, लेकिन साथ ही ये भी कहा, “अब यह प्रजाति विलुप्त होने के बड़े जोखिम में नहीं है, लेकिन कुछ आबादी निस्संदेह अभी भी घट रही है और खतरों के प्रति संवेदनशील बनी हुई है।”
झारखंड में जहां सबसे पहले इस प्रजाति का घोंसला मिला था, उसी उत्तसारा गांव के किसानों ने बताया कि स्थानीय लोग इस पक्षी को “खट खट” के नाम से जानते हैं, क्योंकि यह शिकारियों को भगाने के लिए खड़खड़ जैसी आवाज निकालता है। स्थानीय लोगों के मुताबिक, 1970 से पहले इस इलाके में “सेमल” के पेड़ों (बॉम्बेक्स सीबा) पर इस पक्षी के लगभग 50 घोंसले हुआ करते थे। लेकिन 1970 के बाद यह इस इलाके से गायब हो गई। साल 2010 के बाद ही ये फिर से दिखाई दीं, जब द्विवेदी अपनी पीएचडी के लिए फील्ड ट्रिप कर रहे थे।

कम जानकारी
आईयूसीएन स्टॉर्क, आइबिस और स्पूनबिल विशेषज्ञ ग्रुप के सह अध्यक्ष के. एस. गोपी सुंदर के मुताबिक, शायद ये पक्षी पहले भी यहां थे, लेकिन उनकी जानकारी कम दर्ज की गई। उन्होंने कहा, “हमें नेपाल के निचले इलाकों में लेसर एडजुटेंट की सबसे बड़ी आबादी में से एक मिली, जो झारखंड से बहुत दूर नहीं है। वे दशकों से वहां फल-फूल रहे हैं, शायद उच्च प्रजनन सफलता के कारण। युवा पक्षी नए आवासों की तलाश में घूम रहे होंगे। हाल ही में, झारखंड का बोकारो जिला उनके लिए अधिक उपयुक्त हो गया है।” उन्होंने आगे कहा कि एक स्टॉर्क के लिए राज्य की सीमाएं मायने नहीं रखतीं हैं। “पूर्वी उत्तर प्रदेश में इटावा और आगरा से लेकर, नेपाल के निचले इलाकों से होते हुए, कोलकाता तक और मेकांग नदी के किनारे दक्षिण पूर्व एशिया तक, लेसर एडजुटेंट पूरे बाढ़ के मैदान को अपना घर मानता है। यह पूरा क्षेत्र एक मौसमी बाढ़ का मैदान है, जिस पर लेसर एडजुटेंट निर्भर है।”
लेसर एडजुटेंट की गतिविधियों के बारे में जानने के लिए उन पर रेडियो टैगिंग का कोई अध्ययन नहीं किया गया है। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के पूर्व निदेशक असद रहमानी ने कहा, “प्रजनन के मौसम में, वे अपने घोंसले के आसपास कुछ दर्जन वर्ग किलोमीटर के एक छोटे से क्षेत्र तक ही सीमित रहते हैं, लेकिन बाद में वे भोजन की तलाश में लंबी दूरी तय कर सकते हैं।” उन्होंने आगे कहा, “हमें कुछ पक्षियों पर सैटेलाइट ट्रांसमीटर लगाकर और कुछ पर रंगीन टैग लगाकर उनके आवास क्षेत्र, फैलाव और प्रवास का अध्ययन करने की आवश्यकता है।”
दूसरी ओर, मिश्रा का कहना है कि झारखंड में लेसर एडजुटेंट की आबादी संभवतः जानकारी रखने वाले पक्षी प्रेमियों की कमी के कारण अनदेखी रह गई। उन्होंने कहा, “लेसर एडजुटेंट शायद हमेशा से इस क्षेत्र में मौजूद रहे हैं, लेकिन पक्षी प्रेमियों के बिना, वे अनदेखे रह गए।” वह आगे कहते हैं, “जैसे-जैसे पक्षी देखने में रुचि बढ़ रही है, लोग और ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। हमें उन्हें देखे जाने की कई खबरें मिल रही हैं। यह पक्षी शायद हमेशा से वहां थे, लेकिन उनके आवासों में भीड़ बढ़ने या गड़बड़ी के कारण, वे दूसरे क्षेत्रों में चले गए।”
धार्मिक महत्व और खानपान की आदतें
झारखंड में इस प्रजाति की आबादी इसलिए बढ़ रही है क्योंकि उन्हें वहां भोजन की कोई कमी नहीं है। साथ ही किसान उनकी धार्मिक महत्ता के कारण उनकी रक्षा करते हैं। हिंदू पौराणिक ग्रंथों में इस पक्षी को पवित्र माना जाता है। मिश्रा ने बताया, “मुगल काल के दौरान एक मिथक था कि अगर आप एक जीवित ग्रेटर एडजुटेंट का सिर तोड़ते हैं, तो आपको एक नाग मणि मिलेगी, जो सभी सांप के काटने का इलाज है। यह उनके शिकार होने के कारणों में से एक था। और इस वजह से लेसर एडजुटेंट पर हमला नहीं किया गया या उसे परेशान नहीं किया गया।” मिश्रा आईयूसीएन स्पीशीज सर्वाइवल कमीशन के सदस्य भी हैं।
द्विवेदी ने कहा, “क्षेत्र के किसान मानते हैं कि 2010 के बाद से लेसर एडजुटेंट की आबादी बढ़ने के बाद से इस क्षेत्र में सांप के काटने की घटनाओं में काफी कमी आई है।” बोकारो जिले के अंबाडीह गांव में वन सुरक्षा समिति के प्रमुख और किसान हुबलाल महतो ने कहा कि लेसर एडजुटेंट की मौजूदगी के कारण स्थानीय लोग अब सुरक्षित महसूस करते हैं। उन्होंने बताया, “अब हम चैन से बाहर सो सकते हैं। क्योंकि सभी गांव वालों को पता है कि लेसर एडजुटेंट हमें सांपों से बचा लेगी।”
किसान के साथ खेतों में रहना
अपने फील्डवर्क के दौरान, द्विवेदी ने किसानों और लेसर एडजुटेंट के बीच एक सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व देखा। किसान लगन से जमीन पर काम करते रहते हैं और सारस भोजन की तलाश में वहां मौजूद रहती है। उनमें से कोई भी एक-दूसरे की उपस्थिति से परेशान नहीं होता। बोकारो जिले के किसानों के मुताबिक, वे लेसर एडजुटेंट की आबादी बढ़ने से खुश हैं। बिहार के विपरीत, जहां पहले इंसान स्टार्क के अंडों का शिकार किया करता था, मिश्रा ने सारसों के संरक्षण की आवश्यकता के बारे में जागरूकता फैलाई। द्विवेदी ने बताया कि झारखंड के किसान हमेशा से अपने धार्मिक महत्व के कारण लेसर एडजुटेंट का संरक्षण करते आए हैं। हिंदू धार्मिक मान्यताएं उन पेड़ों का सम्मान करती हैं जो इस प्रजाति का घर हैं और यह पक्षी पौराणिक पक्षी “गरुड़” से जुड़ा है, जो हिंदू देवता विष्णु का वाहन था।
ग्रेटर एडजुटेंट जहां मरे हुए जानवरों को खाने की आदत के लिए जाने जाते हैं, वहीं लेसर एडजुटेंट मुख्य रूप से जीवित शिकार का शिकार करते हैं। मिश्रा ने कहा, “ये पक्षी मुख्य रूप से मछली, चूहे और सांप खाते हैं। चूहे खाकर वे किसानों की मदद करते हैं और सांपों को खाकर वे सांपों की आबादी का संतुलन बनाए रखते हैं।”
खेत, जिन्हें कभी बड़े पक्षियों के लिए सही नहीं माना जाता था, वास्तव में लेसर एडजुटेंट के लिए एक स्वर्ग हैं। सुंदर ने कहा, “भारत में, खेतों में भारी मशीनीकरण नहीं है और वे वन्यजीवों से समृद्ध हैं।” उन्होंने आगे बताया, “क्रेन और सारस जैसी प्रजातियों को इन खेतों में भरपूर भोजन मिलता है। कीटनाशकों की उपस्थिति के बावजूद, इन बड़े पक्षियों को फलते-फूलते देखकर हमें सुखद आश्चर्य हो रहा है। हमें लगता है कि बिहार, नेपाल के निचले इलाकों और उत्तर प्रदेश में भारी मानसून की बाढ़ कीटनाशकों के प्रभाव को काफी हद तक कम कर देती है।”

हालांकि, भारत के कुछ हिस्सों में, जहां रबर के बागान आम हैं, लेसर एडजुटेंट को भोजन का कोई स्रोत नहीं मिलता है। सुंदर ने बताया, “यही कारण है कि केरल के कुछ हिस्सों में रबर के बागानों में शायद ही कोई जलपक्षी मिलता हो।” उन्होंने आगे कहा, “रबर सारस के लिए ठीक नहीं है क्योंकि उन्हें उन जगहों पर कुछ खाने को नहीं मिलता। और तो और, रबर के बागान में बहुत ज्यादा कीटनाशक दवाइयां इस्तेमाल होती हैं। लेसर स्टार्क, जो हमें लगता है कि बहुत गड़बड़ वाली जगहों में भी मिल जाते हैं, वो सोयाबीन या रबर के बागानों में या फिर ऐसी फसल में जो उस मौसम के लिए ठीक नहीं है, बिल्कुल गायब हो जाते हैं।”
जैसे-जैसे लेसर एडजुटेंट की आबादी एक क्षेत्र में बढ़ती है, वे भोजन स्रोतों और पेड़ों वाले अन्य क्षेत्रों में स्थानीय रूप से जाकर अपने क्षेत्र का विस्तार करने लगते हैं। मिश्रा ने बताया कि जब एक लेसर एडजुटेंट कॉलोनी भर जाती है, तो वे उस क्षेत्र को छोड़ देते हैं। “मैंने लेसर एडजुटेंट को छत्तीसगढ़ में भी देखा है। वे पेड़ों और भोजन की उपलब्धता के अनुसार स्थानीय रूप से घूमते रहते हैं।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 24 सितंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: उधवा पक्षी अभयारण्य में लेसर एडजुटेंट। तस्वीर- मिथिलेश दत्ता द्विवेदी