- एक नई रिसर्च बताती है कि भारत के बड़े शहर धीरे-धीरे नीचे बैठ रहे हैं। इसका कारण बहुत ज़्यादा भूजल निकालना और मिट्टी का दबकर सख्त हो जाना है। यह हालात लोगों और इमारतों के लिए खतरा बन रहे हैं।
- विशेषज्ञों का कहना है कि अगर जमीन धंसना जारी रहा और साथ में समुद्र का पानी बढ़ा, या बहुत तेज बारिश हुई, तो कई शहरों में बाढ़ और नुकसान और बढ़ सकता है। यह खतरा तटीय शहरों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अंदरूनी शहरों पर भी असर डाल सकता है।
- वैज्ञानिक चाहते हैं कि सरकार और शहर उपग्रह से लगातार निगरानी करें, भूजल का इस्तेमाल नियंत्रित करें और इमारतों के नियम (building codes) को अपडेट करें। इन कदमों से लंबे समय में इमारतों को होने वाले नुकसान और जलवायु से जुड़े जोखिम कम किए जा सकते हैं।
नेचर सस्टेनेबिलिटी में छपी एक नई स्टडी बताती है कि भारत के कई बड़े शहर धीरे-धीरे नीचे धंस रहे हैं। वैज्ञानिकों ने आठ साल के सैटेलाइट रडार डाटा का उपयोग किया और पाया कि दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता और बेंगलुरु के कई हिस्सों में जमीन नीचे जा रही है। इसका कारण भूजल का ज़्यादा दोहन और मिट्टी का दबकर सिकुड़ जाना (soil compaction) है। जब जमीन के नीचे मौजूद पानी कम हो जाता है, तो ऊपर की मिट्टी और चट्टानें दबने लगती हैं।
जमीन धंसना (land subsidence) तब होता है जब जमीन के नीचे से पानी उतनी तेजी से निकाला जाता है जितनी तेजी से वह दोबारा भर नहीं पाता। इससे मिट्टी और चट्टान की परतें सिकुड़ती हैं और जमीन धीरे-धीरे नीचे बैठने लगती है।
स्टडी में 878 वर्ग किलोमीटर जमीन ऐसे पाए गए हैं जहां धंसाव के संकेत दिख रहे हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि लगभग 19 लाख लोग ऐसे इलाकों में रहते हैं जहां जमीन हर साल 4 मिलीमीटर से ज्यादा की रफ्तार से नीचे जा रही है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई में 2400 से अधिक इमारतें चल रहे धंसाव की वजह से संरचनात्मक नुकसान (structural damage) के ऊंचे खतरे में हैं।
शहर स्तर की आकलन रिपोर्ट बताती है कि आने वाले समय में सबसे ज्यादा असर चेन्नई और दिल्ली पर होगा। इसके बाद कोलकाता, मुंबई और बेंगलुरु का नंबर आता है। अगर यही रुझान जारी रहा, तो अगले 50 सालों में 23,000 से ज्यादा इमारतों को गंभीर नुकसान का खतरा हो सकता है। हालांकि कुल शहरी क्षेत्र का पांच प्रतिशत से भी कम हिस्सा “उच्च जोखिम” वाले इलाके में आता है, लेकिन ये ज्यादातर घनी आबादी वाले मोहल्ले हैं, जिससे नुकसान कहीं ज्यादा बड़ा हो सकता है।
वर्जीनिया टेक में भू-विज्ञान (geosciences) के पीएचडी शोधकर्ता और स्टडी के सह-लेखक नितेशनिर्मल सदासिवम ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “हमने यह स्टडी इसलिए की क्योंकि भारत के बड़े शहरों में जमीन धंसने और इमारतों को होने वाले नुकसान के बीच संबंध को पहले कभी विस्तार से नहीं समझा गया था। दुनिया में जकार्ता, मैक्सिको सिटी और तेहरान जैसे शहरों में यह समस्या अच्छी तरह जानी जाती है, लेकिन भारत में इसके असर को व्यवस्थित तरीके से नहीं देखा गया था।”
स्टडी में एक तकनीकी माप angular distortion (यानी एक हिस्से की जमीन दूसरे हिस्से की तुलना में कितना ज्यादा झुक या धंस रही है) का उपयोग किया गया। इससे पता चलता है कि कहां पर इमारतों में दरारें या दबाव बढ़ सकता है। यह माप यह समझने में मदद करता है कि इमारत के नीचे जमीन कितनी असमान तरीके से बैठ रही है।
अगर दो पास-पास की जगहों में थोड़ी-सी भी असमान धंसाव हो, तो इमारत की नींव पर दबाव बढ़ता है और वह समय के साथ कमजोर हो सकती है।

लेकिन दिल्ली की द्वारका में बदली तस्वीर
स्टडी दिखाती है कि भारत के शहरों में दिल्ली और चेन्नई में जमीन धंसाव सबसे ज्यादा चिंताजनक स्तर पर है। दिल्ली में सबसे तेज़ धंसने वाले इलाके बिजवासन, फरीदाबाद और गाज़ियाबाद के आसपास पाए गए। चेन्नई में अड्यार नदी के फ्लडप्लेन और वलासरवक्कम, कोडंबाक्कम, आलंदूर और टोंडियारपेट जैसे मोहल्लों में सबसे ज़्यादा असर दिखा।
मुंबई में धंसाव दिल्ली और चेन्नई की तुलना में कम है, लेकिन शोध से पता चला कि धारावी, संगम नगर, शिवाजी नगर जैसे कम आय वाले इलाकों में जमीन तेज़ी से धंस रही है। शोधकर्ताओं के अनुसार इन जगहों में अनौपचारिक घर (informal housing) और पतली नींव (thin foundations) भूजल पर निर्भरता और संरचनात्मक खतरे दोनों को बढ़ाते हैं।
सदासिवम ने कहा, “पांचों महानगरों में भूजल पर निर्भरता और उसका अधिक दोहन जमीन धंसने के सबसे बड़े स्थानीय कारण हैं। जब भूजल निकाला जाता है, तो नीचे की मिट्टी और चट्टानों में मौजूद दबाव कम होता है, जिससे परतें दबने लगती हैं और जमीन धीरे-धीरे नीचे बैठती है।”
द्वारका, दक्षिण-पश्चिम दिल्ली, में सुधार के संकेत मिले हैं। भूजल रिचार्ज कार्यक्रम और पानी निकालने पर पाबंदियों ने कई सालों की गिरावट के बाद जमीन को स्थिर करने में मदद की।
सदासिवम ने बताया, “द्वारका जैसे क्षेत्र दिखाते हैं कि भूजल प्रबंधन और कृत्रिम रिचार्ज (artificial recharge) से जमीन को स्थिर किया जा सकता है और धंसाव की रफ्तार कम की जा सकती है। हालांकि सुधार हर जगह एक जैसा नहीं होता। कुछ इलाकों में जमीन ऊपर उठती है और पास ही कुछ हिस्सों में धंसाव जारी रहता है, जिससे जमीन की हरकत में तेज़ बदलाव आता है और तनाव वाले क्षेत्र बनते हैं।”
कृत्रिम रिचार्ज का मतलब है, बारिश का पानी जमीन में उतारना (rainwater harvesting) या ऐसे कुएं बनाना (recharge wells) जिनसे पानी खाली हो चुके भूजल-स्तर तक पहुंच सके।
द्वारका का अनुभव दिखाता है कि रेनवॉटर हार्वेस्टिंग और रिचार्ज वेल्स जमीन के धंसने की रफ्तार को धीमा करने में मददगार हो सकते हैं।
शहरी डिज़ाइनर विकास कनौजिया ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि दिल्ली की तेज़ जनसंख्या वृद्धि और भूजल गिरावट शहर को विशेष रूप से असुरक्षित बना देती है। उन्होंने कहा, “एनसीआर में घटते भूजल और बढ़ती आबादी के कारण जमीन धंसाव की संभावना बढ़ गई है। यह न सिर्फ लोगों की ज़िंदगी, बल्कि प्राकृतिक धरोहर, इमारतों, फ्लाईओवरों और हाईवे तक के लिए खतरा बन सकता है।”
उन्होंने कहा कि दिल्ली का तेज़ शहरी विस्तार भूजल रिचार्ज की गति से कहीं आगे निकल गया है, जिससे मिट्टी की परतों की मजबूती बदल रही है।
“एनसीआर के कई हिस्सों में पानी की कमी है क्योंकि रिचार्ज जितना होना चाहिए था, वह नहीं हो रहा। कई जगहों पर भूजल स्तर बहुत नीचे चला गया है, जिससे नीचे की मिट्टी की संरचना की घनत्व (density) भी बदल रही है,” उन्होंने कहा।
एक बढ़ता हुआ शहरी जोखिम
जमीन धंसना (land subsidence) शहरों में मौजूद दूसरे खतरों जैसे बाढ़ और भूकंप के साथ मिलकर समस्या को और गंभीर बना देता है। इससे पहले से दबाव झेल रहे शहरी ढांचे पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है।
सदासिवम के अनुसार, “जब जमीन नीचे बैठती है, तो शहर की ड्रेनेज व्यवस्था बदल जाती है। जमीन की ऊंचाई कम हो जाती है और बारिश के पानी को बाहर निकालने की प्राकृतिक क्षमता घट जाती है। इस वजह से हल्की से मध्यम बारिश भी ज्यादा नुकसान पहुंचा सकती है। भूकंप प्रभावित इलाकों में असमान धंसाव इमारतों को कमजोर बना देता है और वे भूकंपीय झटकों को कम सह पाती हैं।”
जलवायु वैज्ञानिकों का मानना है कि यह सिर्फ इंजीनियरिंग का स्थानीय मुद्दा नहीं है, बल्कि इससे भारत की जलवायु संबंधी कमजोरी और बढ़ती है।
ऐट्रिया यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर और पूर्व पृथ्वी विज्ञान सचिव एम. राजीवन ने कहा कि जमीन धंसना भारत की बढ़ती जलवायु असुरक्षा में एक नई परत जोड़ देता है।

राजीवन ने कहा, “यह शोध पत्र भारतीय शहरों में जमीन धंसने की एक गंभीर स्थिति को दिखाता है। भारत के तटीय शहर पहले ही समुद्र के स्तर में वृद्धि और उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की बढ़ती तीव्रता की वजह से बाढ़ और तटीय खतरों के प्रति कमजोर हैं। जमीन धंसना इन शहरों की असुरक्षा को एक और दिशा देता है।”
राजीवन ने चेतावनी दी कि यह समस्या दिल्ली जैसे आंतरिक क्षेत्रों में भी गंभीर है, जहां मुलायम दोमट मिट्टी (alluvial soil) है और भूजल तेजी से घट रहा है।
उन्होंने कहा, “दिल्ली में जमीन धंसने की संभावना ज्यादा है, क्योंकि दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र, जैसे पंजाब और हरियाणा, कृषि के लिए भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण बड़े भूजल तनाव का सामना कर रहे हैं।”
उन्होंने यह भी कहा कि भारी बारिश और अचानक आने वाले फ्लैश फ्लड इस स्थिति को और खराब कर सकते हैं।
“भारी बारिश से होने वाले फ्लैश फ्लड ऊपरी मिट्टी को बहा ले जाते हैं, मिट्टी को ढीला कर देते हैं और इससे जमीन धंस सकती है। शहरों में मौजूद इमारतें पहले से ही फ्लैश फ्लड के कारण कमजोर स्थिति में होती हैं,” राजीवन ने कहा।
जमीन के भीतर क्या चल रहा
स्टडी के नतीजों ने हाइड्रोजियोलॉजिस्ट्स के बीच इस बात पर भी बहस शुरू कर दी है कि जमीन धंसाव के पीछे असल कारण कितने जटिल हैं।
हाइड्रोजियोलॉजिस्ट के. एम. नंबूदिरी, जो इस स्टडी से जुड़े नहीं थे, कहते हैं कि जमीन धंसने के कारण बहुत जटिल होते हैं और यह हर शहर की भूवैज्ञानिक स्थिति पर निर्भर करता है। उन्होंने कहा कि इसे केवल भूजल दोहन से नहीं समझाया जा सकता।
नंबूदिरी ने बताया कि दिल्ली को छोड़कर बाकी शहरों में स्टडी ने भूजल दोहन और धंसाव के बीच सीधा संबंध नहीं दिखाया है। उन्होंने कहा कि हर शहर में इसके कारणों की पुष्टि के लिए स्थानीय भूवैज्ञानिक अध्ययन जरूरी होंगे।
नंबूदिरी के अनुसार, “जमीन धंसना कई कारणों वाला एक प्रक्रिया है। प्रमुख कारणों में अधिक भार पड़ना, अलग अलग जगहों पर असमान भार का वितरण, मिट्टी की भार सहन क्षमता, मिट्टी की संरचना, कण आकार का वितरण, मिट्टी की नमी और नीचे की परतों की मजबूती शामिल हैं।”
उन्होंने समझाया कि दिल्ली की दोमट संरचना जिसमें रेत, चिकनी मिट्टी और बजरी की परतें मिलकर बनी हैं, जल्दी धंसती है जब भूजल स्तर तेजी से गिरता है।
उन्होंने कहा, “अगर भूजल स्तर बहुत तेज गिरता है, तो ‘पाइपिंग’ नाम की प्रक्रिया होती है, जिसमें मिट्टी के बहुत छोटे कण पानी के बहाव के साथ नीचे की परतों में चले जाते हैं। इससे मिट्टी का संतुलन बिगड़ता है और अलग अलग जगहों पर जमीन असमान रूप से धंसती है। दिल्ली में यही हो रहा है।”
पाइपिंग का मतलब है जमीन के नीचे मौजूद पानी के रास्तों से मिट्टी के महीन कणों का बह जाना, जिससे खाली जगहें बन सकती हैं और जमीन अस्थिर हो सकती है।
उन्होंने कहा कि इसके विपरीत, बेंगलुरु या कोयंबटूर जैसे शहरों में हार्ड-रॉक (कठोर चट्टान) वाले एक्वीफर होते हैं जिनकी भार सहन क्षमता ज्यादा होती है और इन पर पानी निकालने का असर कम पड़ता है।
नंबूदिरी ने कहा, “हार्ड रॉक या टूटी फूटी चट्टानों वाले क्षेत्रों में मिट्टी और चट्टान की भार सहन क्षमता बहुत ज्यादा होती है। इसलिए एक्वीफर खाली होने पर भी जमीन की मजबूती पर खास असर नहीं पड़ता और बहुत कम या बिल्कुल धंसाव नहीं होता।”
हार्ड-रॉक क्षेत्रों में पानी जमीन के नीचे गहरी दरारों और चट्टानों की परतों में जमा रहता है। इसके विपरीत दिल्ली जैसे दोमट इलाकों में पानी ढीली रेत और चिकनी मिट्टी की परतों में रहता है जो ज्यादा आसानी से दब जाती हैं।
उन्होंने जोड़ा कि चेन्नई और मुंबई जैसे तटीय शहरों की स्थिति अलग होती है क्योंकि समुद्री पानी एक्वीफरों को भरता रहता है।
उन्होंने कहा, “जब तक कोई एक्वीफर बिल्कुल अलग थलग न हो, समुद्र का पानी नीचे बने खाली स्थानों को तुरंत भर देता है। शायद यही वजह है कि चेन्नई और मुंबई में भूजल स्तर धीरे धीरे नहीं गिरता।”
कनौजिया ने कहा कि अव्यवस्थित शहरीकरण शहर की पारिस्थितिकी प्रणाली को कमजोर कर रहा है जिससे बाढ़ और जमीन धंसने दोनों की समस्या बढ़ रही है।
उन्होंने कहा, “हर शहर की जीवनरेखा उसकी पारिस्थितिक प्रणाली होती है जिसमें भूमि की आकृतियां, संरक्षित जंगल, नदियां, नाले, झीलें, तालाब, एक्वीफर और वेटलैंड शामिल हैं। अव्यवस्थित शहरीकरण इस पूरी पारिस्थितिकी जाल को अस्थिर कर देता है जिससे जमीन धंसना और फ्लैश फ्लड जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ने लगती हैं।”

भविष्य के लिए निर्माण
स्टडी के लेखक सलाह देते हैं कि भारत को इमारतों के नियम और शहरों की योजना ऐसी बनानी चाहिए जो जमीन धंसाव के खतरे को ध्यान में रखें। नेशनल बिल्डिंग कोड 1970 में नई इमारतों की नींव की सुरक्षा पर कुछ प्रावधान हैं, लेकिन यह लंबे समय में जमीन के धीरे धीरे बदलने को शामिल नहीं करता।
विशेषज्ञ बताते हैं कि भारत के भवन नियम मुख्य रूप से निर्माण के समय मिट्टी की स्थिरता पर ध्यान देते हैं। लेकिन जमीन के धीरे धंसने या नींव पर पड़ने वाले तनाव की लंबे समय तक निगरानी के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। निर्माण पूरा होने के बाद ज्यादातर शहरों में ऐसा कोई औपचारिक सिस्टम नहीं है जो धीरे होने वाले धंसाव को ट्रैक कर सके, इसलिए कई इमारतें और ढांचा बिना निगरानी के रह जाते हैं।
सदासिवम ने कहा, “निर्माण के बाद समय समय पर सैटेलाइट आधारित निगरानी और धंसाव के डाटा को शहरों की ज़ोनिंग और इमारत निर्माण की अनुमति में शामिल करना जरूरी है। इससे नुकसान दिखने से पहले ही जोखिम का अंदाजा लगाया जा सकता है।”
उन्होंने कहा कि आने वाला NASA ISRO NISAR सैटेलाइट मिशन, जिसकी लॉन्चिंग 2026 में होने की उम्मीद है, भारत में जमीन की हरकत को ट्रैक करने का तरीका बदल सकता है। यह रडार तकनीक मिलीमीटर स्तर तक जमीन में हो रहे बदलाव को पकड़ सकेगी और लगभग वास्तविक समय में शहरी धंसाव पर नज़र रख पाएगी।
कनौजिया ने कहा कि शहरों की योजना में पारिस्थितिक संवेदनशीलता को शामिल करना बहुत जरूरी है।
उन्होंने कहा, “शहरों और कस्बों की योजना बनाते समय क्षेत्र के पारिस्थितिक पदचिह्न (ecological footprint) को सबसे पहले महत्व देना चाहिए। जमीन धंसाव के लिए कमजोर इलाकों की पहचान करने के लिए हाइड्रोजियोलॉजी के अध्ययन करवाए जाने चाहिए।”
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वैज्ञानिक कहते हैं कि इससे योजनाकार उन क्षेत्रों में शुरुआती संकेत पहचान पाएंगे जहां जमीन पर दबाव बढ़ रहा है, भले ही दरारें या इमारत का नुकसान अभी दिखाई न दे। सदासिवम ने कहा, “NISAR की बार-बार आने वाली इमेजिंग और उच्च रिज़ॉल्यूशन भारत भर में जमीन धंसने की सस्ती और सटीक निगरानी संभव बनाएगी। इससे शहर केवल आपदा के बाद प्रतिक्रिया देने की बजाय पहले से तैयारी कर पाएंगे।”
राजीवन ने भी शुरुआती चेतावनी प्रणाली को मजबूत करने की जरूरत बताई।
उन्होंने कहा, “हमें इस तरह की आपदाओं के लिए शुरुआती चेतावनी प्रणाली विकसित करनी होगी। जमीन और सैटेलाइट दोनों के अवलोकन को हाइड्रोलॉजिकल मॉडलों में शामिल कर शुरुआती चेतावनी तैयार करनी चाहिए। खासकर बड़े शहरों के लिए केंद्रित सैटेलाइट अवलोकन बहुत उपयोगी हो सकते हैं।”
नीतियों के लिए एक जरूरी चेतावनी
वैज्ञानिक और हाइड्रोजियोलॉजिस्ट मानते हैं कि भारत के शहर अब अपनी नींव के नीचे हो रही इस प्रक्रिया को नजरअंदाज नहीं कर सकते।
राजीवन ने कहा, “कई नीति निर्माता इस बड़े मुद्दे से अनजान हैं। हमारे शहर इन समस्याओं को ध्यान में रखकर नहीं बनाए गए, लेकिन अभी भी हमारे पास नीतियां बदलने और जोखिम कम करने का समय है। जमीन धंसाव उन शहरी आपदाओं में एक और परत जोड़ सकता है जिनका भारत पहले से सामना कर रहा है।”
उन्होंने कहा कि कई भारतीय शहर लंबे समय की जमीन स्थिरता को ध्यान में रखे बिना बनाए गए थे। इसलिए अब जरूरी है कि जलवायु और बुनियादी ढांचा नीतियों में जमीन धंसाव को शामिल किया जाए।
वैज्ञानिक कहते हैं कि आगे का रास्ता भूजल प्रबंधन, बाढ़ प्रबंधन और सैटेलाइट आधारित निगरानी को जोड़कर एक ऐसी प्रणाली बनाना है जो तेज़ी से शहरीकरण हो रहे भारत में इमारतों और जानमाल की सुरक्षा कर सके।
कनौजिया ने कहा कि समुदायों की भागीदारी से पानी की प्रणालियों को पुनर्जीवित करना लंबे समय के जोखिमों को कम करने में मदद कर सकता है।
उन्होंने कहा, “समुदाय आधारित पहलें पानी की प्रणाली को फिर से जीवंत करने में मदद कर सकती हैं। इससे न केवल लोगों में जमीन धंसाव के बारे में जागरूकता बढ़ेगी बल्कि लोग अपने शहर की प्राकृतिक प्रणालियों से फिर से जुड़ पाएंगे।”
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बैनर तस्वीर: उत्तराखंड के जोशीमठ में एक व्यक्ति सड़क में आई दरार के बीच से गुजरता हुआ। प्रतिनिधि तस्वीर। (AP Photo)