- कोयला खनन के वास्ते केंद्र सरकार ने बीते दिसंबर महीने में 1957 में बने कानून का उपयोग करते हुए कोरबा जिले के मदनपुर इलाके में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरु कर दी। छत्तीसगढ़ राज्य के खनिज सचिव ने जनवरी में पत्र लिखकर इसपर आपत्ति जताई है।
- ग्रामीणों के अनुसार उनका क्षेत्र पांचवी अनुसूची के दायरे में आता है जहां ग्राम-पंचायतों को पेसा कानून के तहत विशेषाधिकार प्राप्त है। ग्रामीण और कानून के जानकार मानते हैं कि केंद्र सरकार इस कानून का उल्लंघन कर रही है। ग्रामीण सरकार के इस कदम के विरोध की तैयारी कर रहे हैं।
- आदिवासी बहुल क्षेत्रों को विशेषाधिकार देने के वास्ते नब्बे के दशक में लाए गए पेसा कानून सरकार की बेरुखी का शिकार रहा है। सरकारें इस कानून से निपटने के लिए कई तरह की तिकड़म करती रहीं हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारें बराबर जिम्मेदार हैं।
तो क्या आदिवासियों के संरक्षण के लिए 1996 में लागू किया गया पेसा यानी पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) क़ानून का कोई अर्थ नहीं रह गया है? कम से कम छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले के मदनपुर के आदिवासी सरपंच देवसाय धुर्वे तो यही मानते हैं।
असल में राज्य के कोरबा ज़िले के मदनपुर दक्षिण इलाके में हाल ही में वाणिज्यिक कोयला खनन को मंजूरी दी गई है। खुले बाज़ार में कोयला बेचने और मुनाफ़ा कमाने के लिए आंध्र प्रदेश सरकार को आवंटित, इस कोयला खदान की ज़मीन का अधिग्रहण करने के लिए भूमि अधिग्रहण क़ानून के बजाय 1957 में बनाये गये कोयला धारक क्षेत्र अर्जन और विकास अधिनियम को आधार बनाया गया है।
मदनपुर इलाके के लोगों का कहना है कि यह ग़ैरक़ानूनी है।
मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए मदनपुर के सरपंच देवसाय धुर्वे तार्किक अंदाज़ में समझाते हैं कि कोल बेयरिंग एक्ट 1957 में बना था। इसके बाद आदिवासी हितों की रक्षा के लिए 1996 में पेसा क़ानून और 2006 में वन अधिकार क़ानून लागू हुआ था।
देवसाय कहते हैं, “मुझे तो यही पता है कि बाद में बने हुए क़ानून ही पुराने क़ानूनों पर भी प्रभावी होते हैं। यह कैसा अंधेर है कि पुराने क़ानून का हवाला दे कर हमारे जल, जंगल, ज़मीन को सरकार हड़पना चाहती है? हम इस अन्याय के ख़िलाफ़ अंतिम सांस तक लड़ेंगे।”
देवसाय और मदनपुर कोयला खदान के इलाके के आदिवासी, इस खदान का आवंटन रद्द करने के लिए अब मदनपुर से राजधानी रायपुर तक, 270 किलोमीटर पदयात्रा की तैयारी कर रहे हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ में जन आंदोलनकारियों के संगठन, ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ के संयोजक आलोक शुक्ला का आरोप है कि मदनपुर ही नहीं, राज्य के अधिकांश कोयला खदानों में आदिवासियों और गांव से जुड़े अधिकांश क़ानून ताक पर रख दिये गये हैं।
आलोक शुक्ला कहते हैं, “वन अधिकार क़ानून, पंचायत क़ानून और भूमि अधिग्रहण क़ानून को कोयला खदानों के इलाके में किनारे कर दिया गया है। भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 की धारा 41 (3) के अनुसार पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में किसी भी क़ानून से भू अर्जन की प्रक्रिया के पूर्व ग्राम सभा की अनिवार्य सहमति ज़रुरी है। इस अधिनियम की धारा 41 (1) में तो यह भी कहा गया है कि यथासंभव अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि का कोई भी अर्जन न किया जाए। लेकिन मदनपुर में इस क़ानून की परवाह किसी को नहीं है।”
किस्सा मदनपुर का
कोयला मंत्रालय ने पिछले कुछ सालों में जिन कोयला खदानों को वाणिज्यिक उपयोग के लिए आवंटित किया है, उनमें कोरबा ज़िले का मदनपुर भी शामिल है.
करीब 1,760 एकड़ में फैले इस कोयला खदान में 22.6 करोड़ टन कोयला होने का अनुमान है। इस आदिवासी बहुल कोयला खदान का लगभग 1,603 एकड़ इलाका वन क्षेत्र है, जो कुल खनन क्षेत्र के 91 प्रतिशत से भी अधिक है।
कोयला मंत्रालय ने 24 दिसंबर 2020 को कोयला धारक क्षेत्र अर्जन और विकास अधिनियम 1957 की धारा 7 की उपधारा 1 के प्रावधानों का उपयोग करते हुए भूमि अर्जन के लिए अधिसूचना भारतीय राजपत्र में जारी कर दी और इलाके में ज़मीन की अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरु कर दी गई।
केंद्र की अधिसूचना के बाद 11 जनवरी को राज्य के खनिज सचिव ने कोयला मंत्रालय के सचिव को पत्र लिख कर मदनपुर कोयला खदान के आवंटन को लेकर आपत्ति जताई।
पत्र में राज्य के खनिज सचिव अंबलगन पी ने लिखा, “हाथियों के संरक्षण, हाथी एवं मानव के बीच संघर्ष में हो रही वृद्धि को रोकने, क्षेत्र में अन्य जनधन की हानि को रोकने, पर्यावरणीय संतुलन को बनाये रखने, जल उपलब्धता के साथ प्रचुरता से विद्यमान जैव एवं वानस्पत्ति विविधता को संरक्षित करने के दृष्टिकोण से भविष्य में कोयला खदान आवंटन की प्रक्रिया से प्रस्तावित लेमरु हाथी रिजर्व क्षेत्र लगभग 3827 वर्ग किलोमीटर को संरक्षित किये जाने हेतु मदनपुर साऊथ कोयला खदान की भूमि को कोयला धारक क्षेत्र अर्जन और विकास अधिनियम 1957 की धारा-4 की उपधारा-1 के अंतर्गत कृत कार्यवाही एवं इस अधिनियम की अन्य धाराओं के तहत प्रस्तावित कार्यवाही पर राज्य शासन आपत्ति दर्ज करता है। अतः प्रकरण में आगामी कार्यवाहियों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाये जाने का अनुरोध है।”
‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ के संयोजक आलोक शुक्ला का आरोप है कि आदिवासी बहुल इलाकों को, आदिवासी हितों के संरक्षण के उद्देश्य से पांचवीं अनुसूची में रखा गया है और इन पांचवीं अनुसूची के इलाके में ग्राम सभा की सहमति के बिना कोई भी खनन या निर्माण का कार्य नहीं किया जा सकता। इसके बाद भी मदनपुर दक्षिण कोयला खदान में ग्राम सभा को दरकिनार करने की कोशिश की जा रही है।
इसके अलावा वन अधिकार मान्यता क़ानून के तहत भी लोगों को उनकी सहमति के बिना उनकी ज़मीन से हटाया नहीं जा सकता।
वे कहते हैं, “कोल बेयरिंग एक्ट के तहत जमीन का अधिग्रहण पूरी तरह से ग़ैरक़ानूनी है। राज्य सरकार भी पेसा यानी पंचायत अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार क़ानून और वन अधिकार क़ानून को आधार बना कर विरोध नहीं कर रही है। पड़ोस के परसा कोयला खदान का मामला पेसा क़ानून के कारण ही हाईकोर्ट में लंबित है। परसा कोयला खदान के खिलाफ पिछले साल फतेपुर गांव में 75 दिनों तक गांव वालों ने धरना दिया था।”
ग्राम पंचायत बनाम नगर पंचायत
वर्ष 1993 में संविधान के 73वें संशोधन में संसद और विधानसभा की तरह ग्राम सभा को भी ताक़त देने की कोशिश की गई और 11वीं अनुसूची में 29 विषयों पर काम करने का अधिकार पंचायतों को सौंप दिया गया। इस व्यवस्था के दौरान संविधान के अनुच्छेद 243 (ड) में कहा गया कि पांचवीं और छठवीं अनुसूची वाले इलाकों में पंचायती राज व्यवस्था लागू नहीं होगी। लेकिन अपवादों और उपंतारणों के साथ इसे पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में भी विस्तार करने की बात कही गई।
पांचवीं और छठवीं अनुसूची के क्षेत्र में इन प्रावधानों को किस तरह लागू किया जाये, इसके लिए केंद्र सरकार ने जून 1994 में अविभाजित मध्य प्रदेश के सांसद दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता में 22 सदस्यों वाली एक कमेटी का निर्माण किया और उसे यह जिम्मेवारी सौंपी गई। इस कमेटी ने जनवरी 1995 में अपनी अनुशंसाएं केंद्र सरकार को सौंप दी। इसके बाद 24 दिसंबर 1996 को संसद ने पंचायत उपबन्ध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम पारित किया।
आलोक शुक्ला संदेह जताते हैं कि ग्राम सभा, पेसा क़ानून, भूमि अधिग्रहण क़ानून और वन अधिकार क़ानून को लेकर अधिकांश राज्य सरकारें भी इसलिए चुप्पी साधे हुए हैं क्योंकि इन क़ानूनों को मजबूत करने और इन्हें मान्य कर देने से राज्य सरकारों को उन परियोजनाओं में भी क़ानूनी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, जहां वह खुद इन क़ानूनों को दरकिनार करना चाहती हैं।
इसका एक दिलचस्प उदाहरण राज्य के सूरजपुर ज़िले के प्रेमनगर से जुड़ा हुआ है। यह इलाका पांचवीं अनुसूची का क्षेत्र रहा है और यहां पेसा क़ानून लागू है।
जून 4, 2005 को इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोऑपरेटिव लिमिटेड यानी इफ़को और छत्तीसगढ़ सरकार ने प्रेमनगर इलाके में 1,320 मेगावॉट का एक पावर प्लांट लगाने की घोषणा की। विशेष संरक्षित पंडो आदिवासी वाले इस इलाके में ग्राम सभा ने पावर प्लॉट लगाने का विरोध किया।
बात नहीं बनी तो राज्य सरकार ने फिर से ग्राम सभा आयोजित कराई। लेकिन ग्राम सभा ने फिर से प्रस्ताव पारित किया कि वह इस इलाके में पावर प्लांट लगाये जाने के ख़िलाफ़ हैं। एक के बाद एक, लगभग 13 बार ग्राम सभा हुई और हर बार ग्राम सभा में पावर प्लांट लगाये जाने के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित हुआ।
इसके बाद राज्य सरकार ने जो जुगत लगाई, उसने सबको हैरानी में डाल दिया। दिसंबर 2009 में ग्राम पंचायत से परेशान राज्य सरकार ने, प्रेमनगर को नगर पंचायत बना दिया। नगर पंचायत में पेसा क़ानून लागू नहीं होता।
इस तरह राज्य सरकार के इस क़दम ने आदिवासियों के विरोध के बाद भी प्रेमनगर में पावर प्लांट का रास्ता साफ़ कर दिया।
और पढ़ेंः मध्य प्रदेश में वनों को कॉर्पोरेट को देने की कोशिश हुई तेज, हो सकता है मुखर विरोध
राज्य सरकार ने अपनी सुविधा अनुसार ग्राम पंचायतों को नगर पंचायत में बदलने का सिलसिला जारी रखा। पिछले कुछ सालों में ही छत्तीसगढ़ में ऐसी 27 ग्राम पंचायतों को नगर पंचायत बना दिया।
पिछले साल अगस्त में जब मरवाही इलाके को नगर पंचायत बनाने की अधिसूचना जारी की गई तो छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुईया उइके ने गंभीर आपत्ति दर्ज की थी।
आलोक शुक्ला कहते हैं, “पेसा क़ानून में ग्राम सभाओं को पूरा अधिकार है और उनकी सहमति के बिना आदिवासियों से उनकी ज़मीन नहीं छीनी जा सकती।”
लेकिन 8 फरवरी 2020 को, केरल के सांसद बिनोय विस्वम के मदनपुर दक्षिण के कोयला खदान से संबंधित पूछे गये सवाल के जवाब में राज्य सभा में कोयला एवं खान मंत्री प्रह्लाद जोशी छत्तीसगढ़ सरकार, छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला, वन विभाग, खनिज विभाग और 468 गोंड व उरांव आदिवासियों के विरोध की बात तो स्वीकार की। लेकिन ग्राम सभा को लेकर उनका जवाब बिल्कुल साफ़ है, “कोयला धारक क्षेत्र (अर्जन और विकास) अधिनियम, 1957 में ग्राम सभा की सहमति लेने के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है।”
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के महाधिवक्ता रहे और संविधान पर कई चर्चित किताबें लिख चुके कनक तिवारी कोयला मंत्री के इस जवाब को हास्यास्पद बताते हैं। कनक तिवारी कहते हैं कि 1992 में संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के बाद यह कहना कि ग्राम सभा से सहमति का प्रावधान नहीं है, संविधान की मनमानी व्याख्या है। वर्ष 1957 का कोल बेयरिंग एक्ट एक प्रशासनिक निर्णय है, जबकि पेसा क़ानून एक संवैधानिक अधिकार है। दूसरा ये कि बाद का क़ानून, पुराने क़ानून पर ओवरलैप होता है। वर्ष 1996 का पेसा क़ानून और 2006 का वन अधिकार क़ानून, दोनों ही क़ानून 1957 के बने कोल बेयरिंग एक्ट पर प्रभावी होंगे।
कनक तिवारी बताते हैं कि पेसा अधिनियम के अंतर्गत ग्राम सभा को भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार प्राप्त है। इसके अलावा एक उचित स्तर की ग्राम सभा या पंचायत द्वारा खान और खनिजों के लिए संभावित लाइसेंस पट्टा, रियायतें देने के लिए अनिवार्य सिफारिशें करने का अधिकार भी ग्राम सभा को है। भूमि हस्तानान्तरण को रोकना और हस्तांतरित भूमि की बहाली का अधिकार भी ग्राम सभा को है। इसके साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र में कार्यकर्ताओं और संस्थानों, जनजातीय उप योजना और संसाधनों सहित स्थानीय योजनाओं पर इसी ग्राम सभा का नियंत्रण होता है।
कनक तिवारी कहते हैं, “लोक कल्याणकारी राज्य में जनता का हित सर्वोपरि है। किसी क़ानून को जनता के अधिकारों को कुचलते हुए लागू नहीं किया जा सकता। जब आप प्रोटेक्टिव लेजिसलेशन की बात कहते हैं तो जनता के जल, जंगल, जमीन का अधिकार, कोयले के व्यापार से कहीं अधिक बड़ा है। कोयला खदानों को खोदने के लिए जिस तरह के तर्क गढ़े जा रहे हैं, उस तर्क से तो पेड़, पानी, ज़मीन, हवा, सब कुछ छीना जा सकता है।”
हालांकि छत्तीसगढ़ के पंचायत मंत्री टीएस सिंहदेव मानते हैं कि कोल बेयरिंग एक्ट में केंद्र सरकार अगर अधिग्रहण कर रही है तो इसमें राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं है। आम जनता और जन संगठन ही इसे रोक सकते हैं।
मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए टीएस सिंहदेव कहते हैं, “केंद्र सरकार ही पेसा क़ानून को दरकिनार कर रही है और यह भयावह है। मैं मदनपुर की जनता के साथ खड़ा हूं। अगर मदनपुर की जनता इसके ख़िलाफ़ है तो फारेस्ट क्लियरेंस की सुनवाई के समय वह इसे रोक सकती है। उनके पास अदालत जाने जैसे दूसरे विकल्प भी खुले हुए हैं।”
लेकिन पेसा कानून को लेकर राज्य सरकार अब तक कितनी गंभीर रही है, इसे केवल इस एक बात से समझा जा सकता है कि क़ानून लागू हुये लगभग 25 साल होने को आये और छत्तीसगढ़ अलग राज्य बने 20 साल हो गये लेकिन आज तक पेसा को लागू करने के लिए राज्य सरकार ने नियम ही नहीं बनाया है।
टीएस सिंहदेव कहते हैं, “हमने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि पेसा से संबंधित नियम बनाये जायेंगे और उस दिशा में पिछले कुछ महीनों में हमने लगातार बैठकें की हैं। विषय विशेषज्ञों और प्रभावितों की राय ली है। तय मान कर चलिए कि अगले कुछ महीनों में पेसा से संबंधित नियम राज्य में लागू हो जाएंगे।”
पांचवी अनुसूची के क्षेत्र और ग्राम सभा का विशेष अधिकार
संविधान के अनुच्छेद 244 (1) में, ‘अनुसूचित क्षेत्र’ अभिव्यक्ति का अर्थ ऐसे क्षेत्र से है जो राष्ट्रपति के आदेश द्वारा अनुसूचित क्षेत्रों के रुप में घोषित किया गया हो। कई मानदंडों के आधार पर किसी क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया जाता है। जैसे, जनजातीय जनसंख्या की बहुलता, विकास के पैमाने पर पिछड़ा क्षेत्र, लोगों के आर्थिक स्तर में सुस्पष्ट असमानता इत्यादि। देश में पांचवी अनुसूची के क्षेत्र वाले राज्यों में आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान और तेलंगाना इत्यादि शामिल हैं।
पेसा कानून ग्राम सभा को कई तरह की विशेष शक्तियां प्रदान करता है। जैसे लोगों की परंपराओं और रिवाजों, और उनकी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखना। समुदाय के संसाधन और विवाद समाधान के परंपरागत तरीके की रक्षा और संरक्षा करना इत्यादि।
पांचवीं अनुसूची में आने वाले क्षेत्र में ग्राम सभा ही सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए योजनाओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं को मंजूरी देती है।
बैनर तस्वीरः देश के खनन प्रभावित क्षेत्रों में न सिर्फ वन संपदा को नुकसान हुआ है बल्कि वहां के स्थानीय लोगों पर भी खनन का दुष्प्रभाव दिखता है। तस्वीर- गुरविंदर सिंह