- भारत ताड़ के तेल या कहें पाम ऑयल के सबसे बड़े आयात करने वाले देशों में से एक है। यही वजह है की मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देशों में बड़े स्तर पर हो रहे वनों की कटाई का जिम्मेदार भारत को ठहराया जाता रहा है।
- पिछले कुछ वर्षों में, भारत सरकार ने घरेलू स्तर पर ही पाम ऑयल के उत्पादन को बढ़ाने के लिए लगातार कोशिश करती रही है। बड़े पैमाने पर ताड़ की खेती के लिए कई कदम उठाए गए हैं पर परिणाम उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा है।
- पानी की कमी और भूजल पर इसका बुरा प्रभाव, छोटी जोत और आमदनी के लिए छोटे और मँझोले किसानों को लंबा इंतजार करना पड़ता है। इन सारी वजहों से किसान को ताड़ की खेती में समय और पूंजी लगाने से झिझकता रहा है।
- दूसरी तरफ सरकार वित्तीय प्रोत्साहन और अन्य तरीके की मदद के बूते ताड़ की खेती को बढ़ावा देने की लगातार कोशिश कर रही है। सरकार का लक्ष्य है कि देश में ही बड़े पैमाने पर ताड़ की खेती हो और पाम ऑयल का आयात कम किया जाए।
भारत में पाम ऑयल की खपत बड़े पैमाने पर होती है। इस तरह देश में हर साल अरबों रुपये का पाम ऑयल आयात होता है। इस खपत के मद्देनजर भारत पर निर्यातक देशों जैसे मलेशिया और इंडोनेशिया में हो रहे वनों की कटाई को प्रोत्साहन देने का आरोप भी लगता रहा है। आयात पर आने वाले खर्च और इस आरोप-प्रत्यारोप से निजात पाने के लिए भारत सरकार, देश में ही बड़े पैमाने पर ताड़ की खेती कराने का प्रयास कर रही है।
पर भारत सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद सिंचाई की कमजोर व्यवस्था, पानी की कमी, छोटी जोत के खेत और फसल (फल) के उत्पादन के लंबा इंतजार- कुछ ऐसी चुनौतियां रहीं हैं जिससे सरकार अब तक अपेक्षित सफलता नहीं मिली है।
दूसरी तरफ, ताड़ की खेती के इस विस्तार से पर्यावरण और स्थानीय लोगों के लिए मुश्किलें पैदा होने का भी खतरा है। ठीक वैसे ही जैसे इंडोनेशिया और मलेशिया में हुआ। ताड़ की खेती से पानी की समस्या, वन की कटाई और खाद्य असुरक्षा बढ़ने की संभावना बनी रहेगी।
जैसे आंध्र प्रदेश के 30 वर्षीय स्नातक जी रोहिथ को ही लीजिए। इन्होंने बताया कि उनके दादा ने तीन साल पहले 6.5 एकड़ के खेत में ताड़ की फसल लगाने का फैसला लिया। लेकिन तब से उनके परिवार को लगातार नुकसान ही हुए जा रहा है। उनकी यह जमीन कृष्णा जिले के पोथुरेड्डीपल्ली गांव में आती है। विजयवाड़ा से लगभग 50 किलोमीटर दूर।
“फिर हमने ताड़ की खेती छोड़ने का फैसला किया, ”रोहिथ ने मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए कहा।
अपना पक्ष विस्तार से समझाते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें तीन वर्षों में लगभग 5,00,000 रुपये का नुकसान उठाना पड़ा। करीब 1,00,000 रुपये तो खेती में ही निवेश किया गया। और 4,00,000 रुपये ये लोग कमा लेते अगर पारंपरिक मक्के की खेती में लगे रहते। इनका परिवार बीज कंपनियों के लिए मक्का उगाता है।
“लेकिन हमारे खेतों के आसपास कई किसान ताड़ के पेड़ लगाए हुए हैं। क्योंकि सरकार इन किसानों को भारी सब्सिडी दे रही है। पर हमसे नहीं हो सका। सब्सिडी से अतिरिक्त भी एक चुनौती थी। इस क्षेत्र में भूजल का स्तर काफी नीचे है। करीब 300-500 फीट की गहराई पर। भविष्य में पानी को लेकर यहां चुनौती और बढ़ने वाली है,” उन्होंने कहा।
कुछ ऐसी ही मिलती जुलती कहानी है छत्तीसगढ़ के किसान रोमलाल साहू की। रोमलाल दुर्ग जिले के पाटन ब्लॉक में पड़ने वाले बेलहारी गांव के निवासी हैं। इन्होंने अपनी आधा हेक्टेयर के खेत में ताड़ के पेड़ लगाए। साहू का दावा है कि इन्होंने न केवल अपने खेत में ताड़ के पेड़ लगाए बल्कि कई अन्य किसानों को भी इसके लिए प्रोत्साहित किया। इस तरह अपने ब्लॉक में 26 हेक्टेयर भूमि में ताड़ की खेती होनी शुरू हुई।
लेकिन कुछ साल के अनुभव के बाद साहू वापस अपने पारंपरिक खेती की तरफ लौट आए। धान और अन्य मौसमी फसल की खेती करने लगे। इनका दावा है कि उनके जिले के अधिकांश किसानों ने भी ताड़ की खेती से तौबा कर पारंपरिक खेती को अपना लिया है।
साहू ने बताया कि जब 2018 में राज्य में नई सरकार सत्ता में आई, तो उसने धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दिया। केंद्र सरकार की तरफ से 1,800 रुपये की राशि तय की गयी थी और राज्य सरकार ने इसमें 700 रुपये की वृद्धि कर दी। उन्होंने कहा, “मेरे जैसा छोटा किसान अब सिर्फ धान की खेती से करीब 60,000 रुपये कमा सकता है। अगर साल में दूसरी फसल भी लगा दे तो आमदनी लाख रुपये तक पहुंच सकती है।”
“दूसरी तरफ, अगर मेरे जैसा किसान अगर ताड़ के पौधे लगाता है तो अव्वल तो इसके लिए कम से कम 5-7 साल तक इंतजार करना पड़ेगा। सात साल में करीब 7,00,000 रुपये का नुकसान उठाना पड़ेगा। इसके बाद भी कोई गारंटी नहीं है कि अच्छी फसल होगी और मैं मुनाफा कमा सकूंगा। छत्तीसगढ़ में कई जगह आठ साल के लंबे इंतजार के बाद भी ताड़ के पेड़ों पर फल नहीं लगे,” साहू कहते हैं।
भारत सरकार यदि आयात कम करने के लिए ताड़ के उत्पादन बढ़ाना चाहती है तो उसे इन सारी चुनौतियों से निपटना ही होगा। अन्यथा तो पाम ऑयल का बड़े पैमाने पर आयात जारी रहने वाला है।
भारत में 2016-17 और 2018-19 के बीच हर साल करीब अस्सी लाख मीट्रिक टन पाम ऑयल का आयात हुआ। बल्कि 2018 में भारत, पाम ऑयल का आयात करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश बना। मलेशिया से भी आयात करने में भी देश शीर्ष पर पहुँच गया।
इन सबको देखते हुए देश में खाद्य तेलों के आयात को कम करने के लिए सरकार कई तरह के प्रयास कर रही है। खाद्य तेलों की घरेलू उपलब्धता बढ़ाने के लिए तिलहन और ताड़ की खेती को विस्तार देना इसमें प्रमुख है।
भारत सरकार ने 2014-15 में नेशनल मिशन आन ऑयल सीड्स एंड आयल पाम योजना की शुरुआत की। वर्ष 2018-19 में इसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के साथ जोड़ दिया गया।
सरकार के इन प्रयासों का नतीजा भी निकला। केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने दिसंबर 2019 में संसद को सूचित किया कि भारत ने पिछले पांच वर्षों में अपने पाम ऑयल के उत्पादन में लगातार वृद्धि की है। केन्द्रीय कृषि मंत्री के अनुसार 2014-15 में पाम ऑयल का उत्पादन जहां 1,91,510 टन था वहीं 2018-19 में बढ़कर 2,78,922 टन हो गया। यानी लगभग 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
पानी की कमी और छोटे खेत से पाम ऑयल का उत्पादन हो रहा प्रभावित
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, भारत में कुल ताड़ के खेती के लिए संभावित क्षेत्र करीब 19.3 लाख हेक्टेयर है। सरकारी दस्तावेज में बताया गया है कि 19 राज्यों में इसकी खेती का विस्तार किया जा सकता है। पर वर्तमान में इसकी खेती महज 16 राज्यों में हो रही है। अक्टूबर 2019 में इसकी खेती 3,49,000 हेक्टेयर वृक्षारोपण हुए हैं जिनमें करीब 135,000 हेक्टेयर क्षेत्र में उपज आनी शुरू हुई है। आठ राज्यों में।
ताड़ की खेती का दायरा बढ़ाने को लेकर आ रही मुश्किलों से सरकार अवगत है। सबसे बड़ी बाधा है वृक्षारोपण और फल आने के बीच लगने वाला समय। इसमें कम से कम चार से पांच साल का समय लगता है और इस दरम्यान किसानों की आय लगभग रुक सी जाती है। सीमित संसाधनों के साथ मँझोले और सीमांत किसानों के लिए यह बड़ी चुनौती है। इसके साथ फसल की कीमतों में उतार-चढ़ाव, मानसून की अनिश्चितता जिससे कई बार सूखे जैसी स्थिति बन जाती है। ताड़ के मुकाबले अन्य फसलों में बेहतर आय भी किसानों को इसे अपनाने में हतोत्साहित करती है। दूसरी फसल में रबर, गन्ना, केला, नारियल इत्यादि की गिनती की जा सकती है।
आंध्र प्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न लिखने की शर्त पर कहा कि सरकार कई साल से ताड़ की खेती को प्रोत्साहित कर रही है। लेकिन यह प्रोत्साहन उन क्षेत्र के किसानों को दिया जा रहा है जहां पहले से ही पानी की कमी है।
“ताड़ की खेती में अत्यधिक पानी की जरूरत होती है। इसके अतिरिक्त किसानों को फल लगने के लिए भी लंबा इंतजार करना पड़ता है। जब फसल आ जाती है तब भी किसानों को अपेक्षित कीमत नहीं मिलती। इससे किसान हतोत्साहित होते हैं,” उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए कहा।
आंध्र प्रदेश सरकार के अधिकारी ने यह भी स्वीकार किया कि बड़े किसान ताड़ की खेती के नाम पर आदिवासी समुदाय की भूमि पर कब्जा कर रहे हैं।
देश में होने वाले पाम ऑयल के कुल उत्पादन (278,000 टन) का 95 प्रतिशत उत्पादन आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में होता है।
मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए तेलंगाना के बागवानी विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि राज्य में करीब 19,520 हेक्टेयर क्षेत्र में ताड़ की खेती हो रही है। ताड़ के खेती में लगभग 10,000 किसान सक्रिय हैं।
उन्होंने बताया कि राज्य में ताड़ की खेती का विस्तार किया जाना है। राज्य सरकार के आग्रह पर केंद्र सरकार ने करीब 329,000 हेक्टेयर क्षेत्र को ताड़ की खेती के लिए अधिसूचित किया है। लेकिन यह जून 2022 तक किया जाएगा क्योंकि अभी जरूरी मात्रा में पौधे उपलब्ध नहीं हैं।
जब पूछा गया कि ताड़ की खेती के लिए जो खेत इस्तेमाल होंगे उसमें वर्तमान में कौन सी फसल उगायी जाती है, तो उनका जवाब था, “शुरू में हमने उन किसानों के खेत में ताड़ लगाए जो खेती छोड़ शहर जा चुके हैं। अब अन्य किसानों को भी इसमें शामिल किया जाएगा। ये किसान मूलतः धान की खेती करते हैं।
इस बीच कई ऐसे राज्य भी हैं जहां ताड़ की खेती को लेकर उम्मीद लगाई गयी थी पर इन राज्यों ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्यों को ताड़ की खेती के लिए महत्वपूर्ण माना गया था। केंद्र सरकार ने माना है कि उन राज्य सरकारों को ताड़ की खेती और उससे जुड़े तेल उत्पादन को आगे बढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं है।
पूर्वोत्तर राज्यों में ताड़ की खेती के विस्तार की कोशिश
केंद्रीय कृषि मंत्री के अनुसार भारत सरकार का पूर्वोत्तर राज्यों में ताड़ की खेती को बढ़ावा देने पर खासा जोर है। यहां तक कि सरकार ने इस खेती के विस्तार के लिए फंडिंग के तरीके में भी बड़ा बदलाव कर दिया।
“भारत सरकार की फंडिंग पैटर्न जो 2014-15 में भारत और राज्य सरकार के बीच 50:50 प्रतिशत था उसे पूर्वोत्तर राज्यों के लिए 2015- 16 में संशोधित कर 90:10 कर दिया गया। जिसमें केंद्र का सहयोग 90 फीसदी होगा,” तोमर ने कहा।
लेकिन मंत्री ने स्वीकार किया कि पूर्वोत्तर राज्यों में भी ताड़ की खेती के विस्तार में अलग चुनौती है। जैसे पहाड़ी क्षेत्र, ढलान क्षेत्र में कृषि भूमि, छोटी जोत की भूमि, किसानों की कमजोर आर्थिक स्थिति। इसके साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पाम ऑयल के दाम में उतार-चढ़ाव, फसल के लिए लंबा इंतजार और अन्य फसलों की तरफ किसानों का झुकाव। इन सब वजहों से पूर्वोत्तर के किसान भी ताड़ की खेती में अपेक्षित रुचि नहीं ले रहे हैं।
भारत सरकार के अनुसार, पूर्वोत्तर के छह राज्य – मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा, नागालैंड और असम में मिलाकर ताड़ की खेती के लिए करीब 218,000 हेक्टेयर का संभावित क्षेत्र है। लेकिन अक्टूबर 2019 तक महज 20 फीसदी क्षेत्र में ही ताड़ का वृक्षारोपण हुआ है। इन छः राज्यों में मेघालय और त्रिपुरा की पहचान ऐसे राज्यों में की जाती है जो ताड़ की खेती में दिलचस्पी नहीं रखते।
आल मिज़ोरम किसान यूनियन (एएमएफयू) के महासचिव ज़ायन लालरेमुराता ने मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए कहा कि मिज़ोरम में ताड़ की खेती आमतौर पर असफल है।
“शुरुआती दिनों में केंद्र सरकार का इसपर काफी जोर था तो राज्य में अच्छी संख्या में किसान भी ताड़ की खेती को अपना लिए। इन किसानों को समय बीतने के साथ यह एहसास हुआ कि ताड़ की खेती करने में वैसा फायदा भी नहीं नहीं है जिसका दावा किया जाता रहा है। राज्य में जिन किसानों ने ताड़ की खेती की उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जैसे फलों को कंपनी तक पहुंचाने में बड़ी दिक्कत हुई”, उन्होंने कहा।
इनका कहना था कि शुरुआत में, किसानों को बताया गया था कि कई कंपनियां राज्य में कारखाने स्थापित करेंगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। ऐसे में किसान अपनी फसल के साथ लंबी दूरी की यात्रा करने को मजबूर हैं। और राज्य में सड़कें काफी खराब हैं। किसान अपनी उपज नहीं बेच पा रहे थे और इसकी वजह से उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ रहा था। इससे परेशान होकर अधिकांश किसानों ने ताड़ की खेती छोड़ दी, उन्होंने कहा।
किसानों की इस बेरुखी के पीछे इस यूनियन नेता ने ‘फसल की अच्छी कीमत न मिलना’ भी एक वजह माना।
मोंगाबे-हिन्दी के पूछने पर उन्होंने बताया कि राज्य में ताड़ की खेती प्राकृतिक वन क्षेत्रों कटाई करके शुरू की गयी थी। हालांकि यह भी कहा हाल के दिनों में इसका कोई विस्तार नहीं हुआ है। मलेशिया जैसे देशों से ताड़ की खेती के लिए प्राकृतिक वनों की कटाई एक बड़ा अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा रहा है। वहां लाखों हेक्टेयर में फैले वन क्षेत्र को काटकर ताड़ के पेड़ लगाए गए।
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सरकार और क्या कर रही है?
भारत सरकार के अनुसार, देश में सालाना प्रति व्यक्ति 19 किलोग्राम खाद्य तेल की खपत है। इस आधार पर सालाना करीब ढाई करोड़ टन खाद्य तेलों की आवश्यकता है। कुल आवश्यकता में से डेढ़ करोड़ टन का उत्पादन प्राथमिक (सोयाबीन, रेपसीड और सरसों, मूंगफली, सूरजमुखी) से किया जाता है और अन्य स्रोत जैसे ताड़ का तेल, नारियल, इत्यादि से होता है। शेष 60 प्रतिशत की पूर्ति आयात के माध्यम से की जाती है।
किसानों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के अलावा, सरकार निजी कंपनियों को अपने संबंधित राज्यों में ताड़ के पौधों के लिए नर्सरी तथा फलों से तेल निकालने वाली मीलों स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है।
इनमें से कुछ कंपनियों ने पहले ही उन राज्यों के साथ एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए हैं। सरकारों ने इन कंपनियों को वृक्षारोपण इत्यादि के लिए क्षेत्र आवंटित किए हैं।
इसके अलावा, फरवरी 2021 के हालिया बजट में भी केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आयात में कटौती करने और भारत के घरेलू खाद्य तेल उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए कच्चे पाम तेल आयात पर अतिरिक्त कर की घोषणा भी की।
बैनर तस्वीरः केरल में वर्ष 1977 में ऑयल पाम इंडिया लिमिटेड नामक कंपनी की स्थापना की गई थी। केरल सरकार के साथ मिलकर इस कंपनी ने कई एकड़ में पाम ऑयल की खेती शुरू की है। तस्वीर– ऑयल पाम इंडिया लिमिटेड से साभार