- झारखंड में आदिवासियों की संख्या करीब 87 लाख है और कुल आबादी का करीब 26 प्रतिशत है। लेकिन प्रधानमंत्री सम्मान निधि कृषि योजना में लाभार्थी आदिवासी किसानों का प्रतिशत मात्र 12-13 प्रतिशत ही रहा है जो कि आबादी के लिहाज से काफी कम है।
- पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ और ओडिशा के मुकाबले झारखंड में इस योजना के लाभार्थियों का प्रतिशत काफी कम है। इन दो राज्यों के मुकाबले झारखंड में वन अधिकार अधिनियम के लाभार्थी भी बहुत कम है। क्या इन दोनों मामलों में ऐसा कोई संबंध है?
- विशेषज्ञों की मानें तो वनाधिकार कानून का सही से न लागू होना एक वजह हो सकती है। पर इसके अतिरिक्त सरकारी महकमे की लापरवाही और भूमि को लेकर पिछले पांच सालों में हुए विवाद इसके लिए जिम्मेदार हो सकते हैं।
झारखंड के खूंटी जिले के रहने वाले साठ वर्षीय समसोन तोपनो को जब खबर मिली की केंद्र सरकार अब किसानों को हर साल 6,000 रुपये देगी तो उन्हें लगा कि इस रकम से कुछ तो राहत मिलेगी। तोरपा ब्लॉक के बंसटोली गांव के रहने वाले तोपनो ने फटाफट आवेदन कर डाला। पर उन्हें आज तक इस प्रधानमंत्री सम्मान निधि कृषि योजना की एक भी किस्त नहीं मिली।
राज्य की राजधानी रांची से करीब 60 किलोमीटर दूर रहने वाले तोपनो कहते हैं कि कोविड और लॉकडाउन ने तो रही-सही आमदनी भी खत्म कर दी। इसके पहले अनियमित बरसात और सूखे से परेशान थे। सवा दो एकड़ भूमि पर खेती कर जीवन-यापन करने वाले तोपनो के मुताबिक उनके क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा सही नहीं है। इसलिए मानसूनी बारिश के भरोसे खेती होती है। बारिश हुई तो पैदावार होगी अन्यथा खाने के भी लाले पड़ जाते हैं। इनके परिवार में पत्नी सहित पांच बच्चे भी हैं।
तोपनो कहते हैं, “जब पता चला कि प्रधानमंत्री सम्मान निधी कृषि योजना के तहत साल में 6,000 रूपये मिलेंगे तो राहत मिलने की उम्मीद जगी। मैंने उसी समय आवेदन कर दिया। आज तीन साल होने को हैं लेकिन एक पैसा नहीं मिला। पिछले साल दोबारा आवेदन किया। फिर भी एक पैसा अभी तक मेरे खाते में नहीं आया। ये पैसा मिलता तो कुछ खाद-पानी खरीदने में राहत मिल जाती। आमदनी घटती जा रही है और कर्ज बढ़ता जा रहा है। मैंने किसान क्रेडिट कार्ड से 20,000 रुपये का कर्ज ले रखा है।”
इसी तरह का उदाहरण अखिल भारतीय किसान सभा के झारखंड इकाई से जुड़े सदस्य भी देते हैं। झारखंड इकाई के उपाध्यक्ष प्रफुल्ल लिंडा बताते हैं, “पीएम किसान योजना के लिए राज्य के आदिवासी किसान रजिस्ट्रेशन तो कराते हैं लेकिन उन्हें इसका लाभ नहीं मिलता है। हम लोग रांची के नामकुम प्रखंड के दो गांव में गए थे। खरसीदाग में 30 आदिवासी किसानों ने 2019 में पंजीकरण कराया था, लेकिन सिर्फ तीन ही लोगों का पैसा आया। इसी तरह रुंगरुंग कोचा में 39 आदिवासी किसान ने पंजीकरण कराया, लेकिन पैसा सात लोगों का आया। वह भी 2019 के दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव के ठीक पहले। सिर्फ दो बार।”
प्रफुल्ल लिंडा के मुताबिक जिन दो गांवों से 69 आदिवासी किसानों ने पीएम किसान योजना का लाभ लेने के लिए पंजीकरण कराया था, उनमें से मात्र दस को ही एक या दो बार इस योजना के तहत मिलने वाली राशि मिल पाई। इनके अनुसार 59 किसानों को अब तक एक पैसे का भी लाभ नहीं मिला है।
वर्ष 2018 में 1 दिसंबर को शुरू हुए इस प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधी योजना के तहत देश के छोटे और सीमांत (जिनके पास पांच एकड़ तक खेत हो) किसानों को प्रत्येक वित्तीय वर्ष 2,000 रुपये की तीन किश्तें दी जाती हैं। साल के 6,000 रुपये। केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली यह राशि किसानों के खाते में सीधे बैंक ट्रांसफर के माध्यम से आती है। अब तक आठ किश्तों की राशि दी जा चुकी है। आठवीं किश्त इसी महीने दी गयी है। हर चार महीने पर यह राशि दी जाती है। दिसंबर-मार्च, अप्रैल-जुलाई और अगस्त-नवंबर। हालांकि इस खबर में पिछली सात किस्तों के आंकड़े ही लिए गए हैं जो सरकारी वेबसाईट पर उपलब्ध हैं।
झारखंड के आदिवासी किसान और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधी योजना
उपरोक्त जिन किसानों जिक्र किया गया है वे आदिवासी समुदाय से आते हैं जिन्हें पीएम किसान योजाना का लाभ नहीं मिल पा रहा है। झारखंड में ऐसे आदिवासी किसानों की संख्या काफी अधिक है।
पीएम किसान योजना की वेबसाइट के मुताबिक 22 अप्रैल 2021 तक देश के 11,77,40,373 किसान पंजीकृत हो चुके हैं। इसमें झारखंड के 30,41,896 किसान हैं। राज्य के कुल लाभार्थी किसानों में आदिवासियों का प्रतिशत कम है। जबकि पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ और ओडिशा में स्थिति काफी बेहतर है। (आंकड़ों के लिए ग्राफ देखें)
क्या वजह है कि पीएम किसान योजना के राशि प्राप्त करने वाले लाभार्थी किसानों में आदिवासी समुदाय से आने वाले किसान छत्तीसगढ़ और ओडिशा में बेहतर स्थिति में हैं, बनिस्बत झारखंड के?
इसपर झारखंड सरकार के कृषि सचिव अबू बकर सिद्दीकी का कहना है, “जो आंकड़े आपने बताए हैं वही विभाग के पास भी है। यह गंभीर बात है। इसलिए इन आंकड़ों की समीक्षा की जाएगी। उसके बाद विभाग की ओर से आदिवासी किसानों के बीच पीएम किसान योजना के बारे में जागरूकता फैलाया जाएगा। जो भी किसान छूट गए हैं या छूट रहे हैं, उन्हें इस योजना से जोड़ने के लिए विभाग हर संभव प्रयास करेगा ताकि योजना के लाभ में आदिवासी किसानों का प्रतिशत बढ़े।”
झारखंड में आदिवासी समुदाय और उनकी निर्भरता को हम निम्न आंकड़ों से भी समझ सकते हैं।
कई गैर सरकारी संस्था का मानना है कि झारखंड मे आदिवासियों की कुल आबादी का 70-80 फीसदी हिस्सा जंगलों यानी खेती-किसानी पर निर्भर है। लोकसभा चुनाव से पूर्व झारखंड वन अधिकार मंच और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस(आईएसबी) हैदराबाद ने कम्युनिटी फॉरेस्ट राइट लर्निंग एडवोकेसी (सीएफआर-एलए) के डाटा के आधार पर एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक झारखंड के 77 लाख वैसे वोटर हैं जो वनाधिकार कानून के लाभ लेने के पात्र हैं। इस सर्वे रिपोर्ट में इन मतदाताओं को मूल रूप से आदिवासी एवं अन्य परंपरागत वनवासी बताया गया था।
वनाधिकार का मुद्दा झारखंड में बीते तीन साल से काफी ज्वलंत रहा है। राज्य की बड़ी आबादी वनाधिकार कानून के लाभार्थियों के दायरे में तो आती है, लेकिन काजगी रूप में इनका प्रतिशत ना के बराबर है। कई जानकार की इसकी वजह यहां इस कानून का सही ढंग से लागू नहीं किया जाना मानते हैं। वर्ष 2006 में इस को कानून लागू किए जाने के बाद बीते 15 साल में इस राज्य में अबतक एक लाख लोगों को भी भी वन पट्टा नहीं मिल पाया है। जबकि इस मामले भी पड़ोसी राज्य ओडिशा और छत्तीसगढ़ कहीं आगे खड़े हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक छत्तीसगढ़ में 5 लाख के लगभग और ओडिशा में 4.5 लाख के लगभग लोगों को वन पट्टा दिया गया है।
इससे एक बात तो स्पष्ट है कि झारखंड में वैसे आदिवासी किसानों की संख्या काफ़ी है जो वनाधिकार कानून के संभावित लाभार्थी हैं। इनमें अधिकतर को इस कानून का लाभ नहीं मिल पाया है। दूसरी तरफ, राज्य के कृषि विभाग के मुताबिक वन पट्टा धारक भी पीएम किसान योजना के लाभार्थियों के दायरे में आते हैं।
तो सवाल है कि क्या कागजी रूप से इनके पास वनपट्टा का ना होना, पीएम किसान योजना का लाभ लेने में आदिवासी किसानों के लिए एक अड़चन बन रहा है?
क्या हो सकती है संभावित वजह?
इन सभी बिंदुओं पर झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन के संस्थापक संजय बसु मल्लिक कहते हैं, “यह एक कारण हो सकता है। लेकिन सिर्फ यहीं कारण है ऐसा नहीं है। झारखंड में आदिवासी समुदाय के 80 फीसदी लोग खेती किसानी पर निर्भर हैं। आबादी के लिहाज से आदिवासी किसान का प्रतिशत बहुत ही कम है। मैं मानता हूं कि इसकी एक बड़ी वजह आदिवासियों के मुद्दे और उनके हित पर अधिकांश नौकरशाही का उदासीन रवैया रहा है। राज्य में वन अधिकार कानून और पेसा कानून को सही लागू नहीं करना हो या फिर पिछली सरकार (भाजपा) में पथलगड़ी का मुद्दा हो। आप इस संदर्भ में भी इसे देख सकते हैं कि नौकरशाहों का क्या रवैया रहा है!”
वो आगे कहते हैं, “छत्तीसगढ़ और ओडिशा इन मुद्दों पर बहुत बेहतर स्थिति में है। झारखंड में आदिवासी समुदाय में आज भी योजना को लेकर अज्ञानता है। उन्हें कहां, कैसे पता चलेगा कि प्रधानमंत्री क्या और कितना दे रहे हैं। प्रशासन और सरकार की जिम्मेदारी है कि गांव-गांव जाकर इन मुद्दों के बारे में बताएं।”
वहीं आदिवासियों के मुद्दे पर कई किताब लिख चुके एक्टिविस्ट ग्लैडसन डुंगडुंग इन वजहों को आदिवासियों के कल्याण में बाधक तो मानते हैं, लेकिन इस कड़ी में वो भय की बात भी जोड़ते हैं। उनका कहना है, “आदिवासियों में इस योजना को लेकर भय भी है। जब पीएम किसान योजना शुरू हुई, तो ठीक उसी समय रघुवर दास (भाजपा सरकार) की सरकार ने मुख्यमंत्री कृषि योजना शुरू की थी। मुझसे कई ग्रामीण, किसानों ने तब इसे लेकर शिकायत की थी कि सरकारी लोग उनसे मुख्यमंत्री कृषि योजना का आवेदन भरवाने के क्रम में जमीन के सारे कागजात और सरकार को जरूरत पड़ने पर पांच एकड़ जमीन दिये जाने का डिक्लेरेशन फॉर्म भी भरवा रहे थे। इससे लोगों में काफी डर बना।”
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राज्य में पिछली भाजपा सरकार ने 2019 में किसानों के लिए मुख्यमंत्री कृषि योजना की शुरूआत की थी। जबकि अद्योगिक क्षेत्र में निवेश करने वाले को जमीन उपलब्ध कराने के उदेश्य से 2016 में लैंड बैंक की स्थापना की गई थी। और इसी के मद्देनजर 2017 में राज्य में ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट का भव आयोजन किया था जिसमें देश-विदेश के कई औद्योगिक घरानों ने भाग लिया था। इन सबको आप एक क्रम में देखेंगे तो आदिवासी किसानों का भए आपको जायज लगेगा, ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं।
हालांकि झारखंड में वर्तमान में चली रही कांग्रेस- झारखंड मुक्ति मोर्चा गठबंधन की सरकार ने सत्ता संभालते ही मुख्यमंत्री कृषि योजना को बंद कर दिया।
कृषि विभाग की माने तो राज्य की 76 प्रतिशत आबादी गांव में रहती है। 66-67 प्रतिशत आबादी कृषि और इससे जुड़े कार्यों पर निर्भर है। लेकिन फिर भी झारखंड में किसानों की संख्या कितनी है, ऐसा कोई सरकारी आंकड़ा नहीं मिलता है। झारखंड राज्य बैंकर्स समिति का मानना है कि सूबे में 39 लाख किसान हैं। ऐसे में आदिवासी किसानों की संख्या कितनी है यह पता कर पाना और भी मुश्किल मालूम पड़ता है।
हालांकि 2011 के जनगणना को आधार मानते हुए अखिल भारतीय किसान सभा झारखंड इकाई का कहना है कि झारखंड में 31-32 लाख आदिवासी किसान परिवार हैं। सभा के मुताबिक झारखंड के किसान चार श्रेणी में आते हैं। 50 डिसमिल से कम वाले 17 प्रतिशत किसान है जो भूमिहीन कहलाते हैं। ढ़ाई एकड़ से कम वाले 33 प्रतिशत जो कि गरीब किसान हैं और पांच एकड़ से कम वाले 31 प्रतिशत जो कि सीमांती किसान और शेष धनी किसान के श्रेणी में आते हैं जिनके पास दस एकड़ से ज्यादा जमीन है। इनमें क्रमश 0-1, 39, 41 व 18 प्रतिशत आदिवासी किसानों की संख्या है। जबकि एक्टिविस्ट व लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग और झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन के संस्थापक संजय बसु मल्लिक मानते हैं कि आदिवासियों किसानों की संख्या इन आंकड़ों से कहीं ज्यादा है।
झारखंड में एक सच्चाई यह भी है कि सिंचाई की समस्याओं ने किसानों को कर्ज ओर से ढकेला है। रिपोर्ट के मुताबिक सूबे में 12.93 लाख किसान कर्ज के बोझ में डूबे हैं। राज्य में कुल कृषि योग्य भूमि के लिए मात्र 13 प्रतिशत सिंचाई की ही सुविधा है जबकि 87 प्रतिशत भाग वर्षा पर आधारित है। ऐसे में यहां के कमजोर तबके के किसानों को पीएम किसान योजना के तहत फायदा नहीं मिल पाना आश्चर्यचकित करता है।
झारखंड गठन को 21 वर्ष हो गए हैं। कई राजनीतिक दलों की सरकार यहां रही हैं। लेकिन आदिवासियों के मुद्दे पर सभी की गंभीरता वादों-घोषणाओं तक ही सीमित रही।
बैनर तस्वीरः झारखंड के गुमला जिले में गेंहू का खेत तैयार करता किसान। देश की 66-67 प्रतिशत आबादी कृषि और इससे जुड़े कार्यों पर निर्भर है। झारखंड में तकरीबन 39 लाख लोग किसानी से जुड़े हुए हैं। तस्वीर– विवेक कुमार सिंह/सीआईएमएमवायटी/फ्लिकर