- पृथ्वी को लेकर आपातकाल जैसी स्थिति बन रही है और ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए बड़े और प्रभावी निर्णयों की तत्काल जरूरत है। यह कहना है जलवायु परिवर्तन पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट का।
- आईपीसीसी के मुताबिक अगर बड़े निर्णय नहीं लिए गए तो पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर नहीं रोका जा सकता।
- रिपोर्ट के मुताबिक 1850 से लेकर 1900 के मुकाबले 1.1 डिग्री सेल्सियस तापमान में वृद्धि हो चुकी है और इसके लिए इंसानी गतिविधियां जिम्मेदार हैं। रिपोर्ट ने पाया है कि आने वाले 20 वर्ष में ही वैश्विक तापमान में औसतन 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होने वाली है।
- रिपोर्ट का मानना है कि 21वीं सदी में लू के थपेड़े अधिक मारक होंगे और बार-बार आएंगे। दक्षिण एशिया के लिए मानसून और गर्मी दोनों रौद्र रूप दिखाएंगे।
अगर त्वरित और बड़े पैमाने पर ग्रीनहाउस गैस कम करने की कोशिश नहीं हुई तो पृथ्वी के बढ़ते तापमान को 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस तक रोकना मुमकिन नहीं होगा। दो दिन पहले आई इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में पृथ्वी के भविष्य की भयावह तस्वीर उकेरी है। आईपीसीसी, संयुक्त राष्ट्र का एक अंग है जिसने इस सप्ताह अपनी ताजा रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें जलवायु परिवर्तन की तीव्रता को समझाने की कोशिश की गयी है।
क्लाइमेट चेंज 2021 द फिजिकल साइंस बेसिस नाम से आईपीसीसी की वर्किंग ग्रुप 1 के द्वारा प्रकाशित की गई यह रिपोर्ट इस संस्था की छठी असेसमेंट रिपोर्ट (एआर) है। यह एआर-6 की पहली किस्त है। पूरी रिपोर्ट वर्ष 2022 में जारी होने वाली है।
असेसमेंट रिपोर्ट या आकलन रिपोर्ट की प्रक्रिया में तीन कार्य समूहों की रिपोर्ट प्रकाशित होती है। पहला, वर्किंग ग्रुप I जो जलवायु परिवर्तन के भौतिक विज्ञान आधारित समझ समेटे हुए होती है। दूसरे, वर्किंग ग्रुप II जो इसके प्रभाव, निपटने की तैयारी और हमारी कमजोरी पर बात करती है। तीसरा, वर्किंग ग्रुप III जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए किये जा रहे प्रयास पर बात करती है तथा जरूरी प्रयास पर भी बल दिया जाता है।
आईपीसीसी की इस ताजा रिपोर्ट को 195 सदस्य राष्ट्रों द्वारा अनुमति मिली है। दूसरे दो कार्य समूहों के रिपोर्ट 2022 तक आएगी। एआर-6 सिन्थिसिस या मुख्य रिपोर्ट के लिए बैठक सितंबर 26 से अक्तूबर 6, 2022 तक होनी है।
वर्ष 2015 में हुए पेरिस समझौता के तहत सभी राष्ट्र ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन कम करने को एकमत हुए थे और तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़ने देने का समझैता किया था। हालांकि, आईपीसीसी की रिपोर्ट कहती है कि 1850 से लेकर 1900 तक इंसानी गतिविधियों की वजह से उतसर्जित ग्रीन हाउस गैस की वजह से वैश्विक तापमान में 1.1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो चुकी है और आने वाले 20 साल में यह बढ़ोतरी 1.5 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाएगी। रिपोर्ट ने चेताया है कि अगर कड़े निर्णय नहीं लिए गए तो 21वीं सदी में यह बढ़ोतरी दो डिग्री सेल्सियस को भी पार कर जाएगी।
रिपोर्ट ने स्पष्ट किया है कि जलवायु परिवर्तन का असर हर इलाके में देखा जाएगा। रिपोर्ट के मुताबित लू और लंबे गर्म मौसम में बढ़ोतरी के साथ ठंडे दिनों में कमी देखी जाएगी। तापमान दो डिग्री बढ़ने के बाद भीषण गर्मी की वजह से खेती और स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित होगा।
आईपीसीसी ने एक बयान जारी कर कहा कि पहली बार छठे आकलन रिपोर्ट में अलग-अलग क्षेत्रों के मुताबिक खतरों का आकलन किया गया है। इससे मिली जानकारी से खतरों का आकलन करने में मदद मिलेगी। इसमें बदलावों को लेकर तैयारी और निर्णयों के लिए दिशानिर्देश भी दिए गए हैं जिससे गर्मी, ठंडी, बारिश, सूखा, बर्फ, तूफान, समुद्र तटों पर बाढ़ और कई अन्य तरह के बदलावों को लेकर तैयारी करने की रूपरेखा तैयार की जा सकेगी।
भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु में दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज के प्रोफेसर गोविंदसामी बाला ने बताया कि वर्तमान रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन का मानव के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों पर सख्त संदेश दिया गया है। “एआर-5 की तुलना में एआर-6 में जलवायु परिवर्तन की गति को तीव्र बताया गया है,” बाला ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
वर्ष 2018 में आईपीसीसी की विशेष रिपोर्ट ने ग्लोबल वार्मिंग को लेकर कहा था कि सामान्य परिस्थितियों में वर्ष 2030 से 2052 तक वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होगी। लेकिन नई रिपोर्ट का कहना है कि वर्ष 2040 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस का आंकड़ा पार हो जाएगा।
“2018 की विशेष रिपोर्ट से अगर इसकी तुलना करें तो नई रिपोर्ट कहती है कि ऐसा अगले 20 वर्ष में होने जा रहा है। पिछली रिपोर्ट की तुलना में इस रिपोर्ट में 10 वर्ष पहले ही 1.5 डिग्री सेल्सियस गर्मी बढ़ने की बात कही गई है। नई रिपोर्ट में आकलन का तरीका अधिक सटीक है,” बाला कहते हैं।
“एआर-6 के आकलन में पूर्व में बढ़ी गर्मी का आंकड़ा 1.1 डिग्री सेल्सियस आका गया है जोकि एआर-5 से 0.3 डिग्री अधिक है। एआर-5 को 2011 के आंकड़ों के आधार पर तैयार किया गया है और उसके बाद एक दशक बीत चुका है। पिछला दशक अपेक्षाकृत अधिक गर्म रहा है जिसकी वजह से आंकड़ों में बदलाव देखने को मिला है,” बाला कहते हैं।
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मौसम की चरम घटनाओं में वृद्धि और मानसून में बदलाव एक सच्चाई
आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट में मौसम की संभावित चरम घटनाओं को पूरा अध्ययाय समर्पित किया गया है। इसके पीछे के कारणों और इससे होने वाले नुकसान को भी बताया गया है। इसमें अलग-अलग स्थानों से लू और बाढ़, गर्मी, सूखा और तूफान की घटनाओं का उदाहरण भी शामिल है।
“यह तय है कि लू जैसी गर्मी से प्रभावित घटनाओं में 1950 के बाद वृद्धि होने के साथ-साथ इसकी मारक क्षमता भी बढ़ी है। साथ ही, ठंड से प्रभावित घटनाओं की संख्या और मारकता में कमी देखी गई है। यह तय है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से यह परिवर्तन देखे जा रहे हैं,” रिपोर्ट का कहना है।
“बीते दिनों में कुछ घटनाएं ऐसी हैं जिसकी कल्पना इंसानी गतिविधियों के न होने की स्थिति नें नहीं की जा सकती थी। वर्ष 1980 के बाद समुद्र में लू की घटनाएं तकरीबन दोगुनी हो गईं हैं और इसमें भी इंसानी गतिविधियों का योगदान दिखता है। वर्ष 2006 के बाद इन गतिविधियों का योगदान साफ दिखता है,” रिपोर्ट का मानना है।
आईपीपीसी की रिपोर्ट ने चेताया है कि मौसम की चरम घटनाओं का मिश्रित स्वरूप जिसके होने की आशंका काफी कम होती थी, अब काफी सामान्य होती जा रहीं हैं।
बाला इसे समझाते हुए कहते हैं कि नई रिपोर्ट ने पहली बार मानसून की वर्षा के साथ एरोसोल और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के बीच गठजोड़ को स्पष्ट किया है।
“ग्रीनहाउस गैस की वजह से बढ़ा तापमान बारिश को बढ़ाएगा, लेकिन 1950 से 1980 के बीच बारिश के आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि मानसून में बारिश कम हुई है। ताजा रिपोर्ट से पता चलता है कि ग्रीन हाउस गैस की तुलना में धूलकण का प्रदूषण अधिक मजबूत था जिससे मानसून में पिछले तीस वर्षों में कोई बदलाव नहीं देखा गया। आने वाले कुछ समय तक ऐसा चल सकता है लेकिन सदी के अंत तक मानसून में बढ़ोतरी देखने को मिलेगी,” बाला कहते हैं।
ऊर्जा, पर्यावरण और पानी पर काम करने वाली संस्था के रिस्क एंड एडप्टेशन टीम के प्रोग्राम लीड अबिनाश मोहंती मानते हैं कि क्लाइमेट एक्शन के तहत मिश्रित प्रभाव वाली चरम घटनाओं को चिन्हिंत कर काम करने की जरूरत है।
“रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान में एनडीसी (नेशनली डिटरमाइन्ड कॉन्ट्रीब्यूशन्स) से जलवायु परिवर्तन और तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के कुप्रभाव नहीं रुक सकते। आईपीसीसी ने पाया है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से आए जलवायु परिवर्तन की वजह से भूमि को काफी नुकसान हुआ है जिससे मौसम की चरम घटनाओं का कुप्रभाव बढ़ने की आशंका है,” उन्होंने कहा।
भारत के लिए रिपोर्ट के मायने
आईपीसीसी की रिपोर्ट ने दक्षिण एशिया में मौसम की चरम घटनाओं में बढ़ोतरी की तरफ ध्यान आकर्षित किया है। इसका प्रभाव भारत पर भी होना है। रिपोर्ट का कहना है कि लू और गर्म मौसम से संबंधित घटनाएं 21वीं सदी में बढ़ेंगी।
“भारतीय उपमहाद्वीप में मौसम की चरम घटनाओं में 20 प्रतिशत तक वृद्धि देखी जा सकती है जिससे पश्चिमी तट पर बाढ़, चक्रवात जैसी घटनाएं आम हो जाएंगी,” मोहंती कहते हैं।
“साथ ही, लू और सूखे की घटनाएं भी दक्षिण एशिया और भारत में बढ़ने वाली हैं। इन घटनाओं के मिश्रित प्रभाव की वजह से जलवायु परिवर्तन को सहने लायक ढ़ाचा विकसित करना काफी महत्वपूर्ण हो गया है,” मोहंती ने चेताया।
आईपीपीसी रिपोर्ट में सामने आया कि 21वीं सदी में समुद्र का स्तर ऊपर उठेगा। ऐसा तब भी होगा जब कार्बन उत्सर्जन कम से कम होगा। इसकी वजह होगी समुद्र का गर्म होना और बर्फ का पिघलना। भारत के लिए जहां 7500 किलोमीटर लंबा समुद्री तट है और एक बड़ी आबादी समुद्र पर निर्भर है, इसका असर काफी गहरा होगा।
समुद्र तट के बाढ़ का प्रभाव देश के समुद्री शहर चेन्नई, कोच्चि, कोलकाता, मुंबई, सूरत और विशाखापत्तनम जैसे शहरों पर होगा जहां 2 करोड़ 86 लाख से अधिक आबादी बसर करती है। अगर समुद्र का जल स्तर 50 सेमी बढ़ता है तो इसका प्रभाव 4 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के बराबर संपत्ति पर पड़ेगा।
इंटरनेशनल फॉरम फॉर एंवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी और टेक्नोलॉजी (आईफॉरेस्ट) के सीईओ और प्रेसिडेंट चंद्र भूषण कहते हैं कि भारत के ऊपर इसका दोगुना प्रभाव पड़ने वाला है।
“हमें अपनी अर्थव्यवस्था को इसके प्रभाव से बचाना होगा। हमें ऐसा सामाजिक तंत्र और ढ़ांचा विकसित करना होगा जो बढ़ते मौसम की मार को सहने में सक्षम हों। इसके साथ ही हमें जलवायु परिवर्तन को रोकने की ओर कदम उठाना होगा,” चंद्रभूषण कहते हैं।
“आईपीसीसी रिपोर्ट हमारी अर्थव्यवस्था और इंसानी जीवन दोनों के लिए चेतावनी है। भविष्य में होने वाली जिन घटनाओं की चेतावनी हम देते आए हैं वैसा अब होने लगा है। जो घटनाएं भविष्य में काफी देर में होनी थी वह अभी घटने लगी हैं। इसमें लू, मानसून में खलल, बादल फटने की घटनाएं, भीषण बारिश जैसी मौसम की घटनाएं शामिल हैं।अगर हमने तेज और कड़े कदम नहीं उठाए तो स्थिति गंभीर होती जाएगी,” भूषण कहते हैं।
यह रिपोर्ट नवंबर 2021 में ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन को लेकर होने वाली सालाना बैठक कान्फ्रेन्स ऑफ पार्टीज (कॉप) के पहले आई है। दुनिया किस तरह से जलवायु परिवर्तन से निपट रही है इसे बताने के लिए यह रिपोर्ट एक दस्तावेज है। इसका असर कॉप पर भी होगा।
इस रिपोर्ट के आने के बाद भारत सहित दूसरे देशों के लिए जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उनकी योजनाओं को जाहिर करने का आह्वान होगा। भारत ने अबतक अपना नेट जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित नहीं किया है।
यूनाइटेड किंगडम सरकार में मंत्री और कॉप 26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा ने इस रिपोर्ट पर कहा, “हमारे आसपार जलवायु संकट की घटनाएं दिखने लगी है। अगर हमने अभी पहल नहीं कि तो इसका बुरा असर हमारे जीवन, रोजगार और प्राकृतिक आवास पर पड़ेगा।”
“सभी देश, सरकार, व्यापार और समाज के लिए हमारा संदेश काफी साफ है। अगला दशक निर्णय का दशक है, हमें विज्ञान को अपनाकर 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य जिम्मेदारी के साथ पूरा करना होगा। हम साथ मिलकर ऐसा कर सकते हैं। हमें कोयला ऊर्जा सयंत्र को अभी बंद करना होगा, हमें इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने की रफ्तार तेज करनी होगी और वनों की कटाई रोकनी होगी। इन सबसे उत्सर्जन कम होगा,” शर्मा ने कहा।
भारत सरकार ने आईपीसीसी रिपोर्ट का स्वागत किया है। पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने ट्वीट कर कहा कि विकसित देशों के लिए उत्सर्जन में तत्काल कमी करने का समय आ गया है, जिससे उनकी अर्थव्यवस्था कार्बन मुक्त हो सके।
भारत ने इस रिपोर्ट के जारी होने के बाद एक बयान जारी करते हुए कहा कि विकसित देशों ने कार्बन बजट से काफी अधिक उत्सर्जित किया है।
“केवल शुद्ध नेट जीरो तक पहुंचना पर्याप्त नहीं है। क्योंकि यह विकसित देशों के कुल उत्सर्जन का ही नतीजा है जिससे पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। आईपीसीसी की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है और इससे भारत के स्टैन्ड की पुष्टि होती है कि इतिहास में जो कुल उत्सर्जन हुए हैं, जलवायु संकट उसी का नतीजा है,” पर्यावरण मंत्रालय के बयान में कहा गया।
भारत का संचयी और वर्तमान प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक कार्बन बजट के अपने उचित हिस्से से काफी नीचे और बहुत कम है। बयान में कहा गया कि भारत ने अपने लक्ष्य को पाने के लिए घरेलू नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य को 2030 तक 450 गीगावाट तक बढ़ाया है।
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बैनर तस्वीरः राजस्थान के बारां जिला स्थित छबड़ा तापीय विद्युत गृह। जानकार बताते हैं कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कोयले से चलने वाले संयंत्रों को बंद करना जरूरी है। तस्वीर- रहमान अबुबकर/विकिमीडिया कॉमन्स