- राजमहल की पहाड़ियों पर उत्खनन के कारण आदिम जनजाति पहाड़िया से जुड़ा संकट गहरा हो रहा है। उनकी पहाड़ आधारित आजीविका छिन रही है और उन्हें विस्थापित होना पड़ रहा है।
- पहाड़िया समुदाय परंपरागत रूप से मैदान में रहने में खुद को सहज नही महसूस करते हैं और इसके लिए किए गए प्रयास विफल हुए हैं। वे कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से भी जूझते हैं। झारखंड में सबसे अधिक खनन लीज साहिबगंज जिले में ही है।
- राजमहल की पहाड़ी पर उत्खनन के कारण पर्यावरीण असंतुलन बढ़ने, जैव विविधता खत्म होने, महत्वपूर्ण पौधों के नष्ट होने के साथ गंगा में गाद भी बढ़ रहा है। साहिबगंज जिला गंगा के किनारे स्थित है।
- भारत के सबसे प्राचीन पहाड़ी श्रृंखला में एक राजमहल की पहाड़ियों पर दुनिया के सबसे पुराने पादप जीवाश्म पाए जाते हैं। इन्हें जुरासिक काल का बताया जाता है। ये जीवाश्म पृथ्वी के विकास, मानव सभ्यता के विकास सहित कई अध्ययनों में कारगर माने जाते हैं।
रामू मालतो (बदला हुआ नाम) को यह पता नहीं कि लगातार हो रहे पत्थर उत्खनन के कारण छोटा पचरुखी पहाड़ पर स्थित उनके गांव का अस्तित्व कितने सालों तक कायम रहेगा। रामू उस सौरिया पहाड़िया आदिम जनजाति समुदाय से आते हैं, जिनको लेकर लगातार चिंताएं जाहिर की जाती रही हैं। यह एक संकटग्रस्त समुदाय माना जाता है जिसकी जनसंख्या वृद्धि ऋणात्मक है।
झारखंड के उत्तर-पूर्व में स्थित साहिबगंज जिले के मंडरो ब्लॉक में रामू मालतो का गांव है जिसका नाम छोटा पचरुखी पहाड़ है। यह गांव राजमहल की पहाड़ी पर स्थित है। नेशनल हाइवै- 80 के किनारे राजमहल पहाड़ी शृंखला पर पड़ने वाले ऐसे दर्जनों गांव हैं जिनके चारों ओर पत्थरों का उत्खनन हो रहा है।
छोटा पचरुखी में करीब 30 पहाड़िया परिवार हैं और करीब 250 की आबादी है। ये लोग जो खेती करते हैं, उसे कुरूवा कहा जाता है, जिसमें बरबट्टी, बाजरा, मकई आदि की मिश्रित खेती की जाती है।
रामू बताते हैं कि उनके गांव से करीब आधा किलोमीटर दूर करमपहाड़ पर ब्लास्टिंग की जाती है। इसके लिए पहाड़ पर गड्ढे में बारूद डाला जाता है। इससे उनके गांव में भयानक कंपन होता है। प्रदूषण भी होता है और कई बार कोई चट्टान भी आ कर गिर जाता है।
दामिनभिट्टा पंचायत के ही एक अन्य गांव अमजोरी के श्याम मालतो (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि उनके गांव से एक किलोमीटर की दूरी पर ब्लास्टिंग होती है। श्याम कहते हैं, “लगातार ब्लास्टिंग व खनन के कारण मेरे गांव का पानी सूख गया। हम पहाड़िया समुदाय के लिए पानी का बड़ा स्रोत झरने का पानी होता है। लेकिन अवैध उत्खनन और टूटते पहाड़ के कारण झरने खत्म होते जा रहे हैं। पत्थरों के टूटने से उत्पन्न धूलकण का प्रदूषण अलग है। पहाड़ के कटने के कारण हमारे समुदाय की आजीविका प्रभावित हो रही है। हमलोग परंपरागत रूप से पहाड़ पर की लकड़ी को बेच कर खाने-पीने का बंदोबस्त करते रहे हैं।”
श्याम कई गांवों का नाम लेते हैं जो खत्म होने के कगार पर पहुंच गए हैं। चिंता जाहिर करते हैं कि न जाने इनके गांव का अस्तित्व कितने सालों तक बचा रहेगा। गायब होते गांवों में एक है मारीकुटी, जहां 2011 की जनगणना के अनुसार, 127 लोगों की आबादी है। इस गांव के चारों ओर खनन कार्य होता है। इसके अलावा, अमजोला, गुरमी, पंगड़ो, धोकुटी, बेकचुरी, तोलियागड़ी, बांसकोला भी संकटग्रस्त गांव हैं। पिछले दो दशकों में उत्खनन में अधिक तीव्रता आयी है।
राजमहल की पहाड़ियां
दोनों पहाड़िया गांव- छोटा पचरुखी और अमजोरी, झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र के चार जिलों में पड़ने वाली राजमहल की पहाड़ी श्रृंखला का अंग हैं। यह क्षेत्र अवैध उत्खनन को लेकर राज्य की राजनीतिक सुर्खियों में भी छाया रहता है।
राजमहल की पहाड़ियां 2600 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली है और अरावली के बाद इसे भारत की सबसे पुरानी पहाड़ी श्रृंखलाओं में एक बताया जाता है। ये पहाड़ियां 6.8 से 11.8 करोड़ वर्ष पुरानी हैं, डॉ रंजीत कुमार सिंह दावा करते हैं। साहिबगंज कॉलेज के भू विज्ञान के सहायक प्राध्यापक, डॉ रंजीत कुमार सिंह का अध्ययन राजमहल की पहाड़ियों पर ही केंद्रित है। इनके अनुसार, ज्वालामुखी विस्फोट से इसका निर्माण हुआ है। राजमहल की पहाड़ियों पर दुर्लभ जीवाश्म मिलते हैं, जिसे दुनिया का सबसे पुराना जैव जीवाश्म बताया जाता है। यह जुरासिक काल का है। डॉ रंजीत कुमार सिंह के अनुसार, ये जीवाश्म इस अध्ययन के लिए बेहद अहम हैं कि पृथ्वी की उत्पति कैसे हुई। जीव कैसे उत्पन्न हुए। ये जीवाश्म भी उत्खनन व अज्ञान की वजह से संकट में हैं।
हालांकि अब काफी प्रयास के बाद जीवाश्मों को संरक्षित किए जाने की दिशा में कई गंभीर प्रयास हो रहे हैं। जैसे फॉसिल पार्क बनाना इत्यादि। लेकिन राजमहल की पहाड़ियों का अस्तित्व अब भी गंभीर संकट में है।
2020 में तैयार साहिबगंज डिस्ट्रिक्ट इनवायरमेंटल प्लान के अनुसार, जिले में 180 माइंस हैं और 451 क्रशर हैं। वहीं, झारखंड सरकार के खान एवं भूतत्व विभाग की वेबसाइट पर सितंबर 2021 तक के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, साहिबगंज में 424 माइनिंग लीज हैं, जिसमें 115 वर्तमान में कार्यशील हैं और 309 अस्थायी रूप से कार्यशील नहीं हैं। कुल लीज व कार्यशील दोनों स्तर पर राज्य में साहिबगंज अव्वल है। इसके बाद दूसरा नंबर साहिबगंज से सटा जिला पाकुड़ का आता है, जो राजमहल की पहाड़ी क्षेत्र के अंतर्गत ही स्थित है। पाकुड़ में कुल 345 लीज हैं, जिनमें 79 कार्यशील हैं। मोंगाबे-हिंदी ने इस संबंध में साहिबगंज के जिला खनन पदाधिकारी विभूति कुमार से 25 सितंबर 2021 को और और जानकारी मांगी, जो खबर लिखे जाने तक नहीं मिल पायी थी।
हालांकि झारखंड में राजनीतिक और पर्यावरणीय दोनों स्तरों पर यह चिंता लगातार जाहिर की जाती रही है कि इस क्षेत्र में अवैध माइंस व क्रशर का दायरा कहीं अधिक विस्तृत है। इसके संचालन एवं संरक्षण के लिए राजनीतिक प्रभुत्व व बाहुबल का भी आरोप लगाया जाता रहा है।
राष्ट्रीय हरित न्यायाधीकरण(एनजीटी) की ओर से मामलों की सुनवाई के दौरान राजमहल की पहाड़ियों को लेकर चिंता जाहिर की जाती रही है। पिछले साल एक संयुक्त टीम ने राजमहल की पहाड़ियों पर उत्खनन का जायजा लिया था और नियमों का खुला उल्लंघन पाया था।
और पढ़ेंः बॉक्साइट खनन से सूख रही छत्तीसगढ़ और झारखंड की बुरहा नदी, भेड़ियों के एक मात्र ठिकाने पर भी खतरा
झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के सदस्यों वाली कमेटी ने बंकुड़ी के माइंस व क्रशर का दौरा किया था और अपनी जांच में पाया था कि मानव बस्तियां, क्रशर इकाइयों के प्रभाव क्षेत्र से दूर नहीं थीं। इन क्रशर इकाइयों से सटी पहाड़ी पर खनन गतिविधियां भी चलायी जा रही थीं। इस मामले में अधिकतर क्रशरों ने पर्यावरण मंजूरी और संचालन की सहमति का उल्लंघन किया था। उनकी बाउंड्री में बाउंड्रीवॉल या मेटल शीट नहीं मिले। उत्खनन इकाइयों ने कम वृक्षारोपण किया। प्रदूषण नियंत्रण उपकरण व वाटरस्प्रेयर मौजूद थे, लेकिन उनका उपयोग व क्रियान्वयन खराब थे।
समिति ने झारखंड राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण की भूमिका पर भी सवाल उठाया गया था।
पहाड़ियों की चोटी आदिम जनजाति का घर
ब्रिटिश शासन के दौरान संथाल परगना क्षेत्र में 1338 वर्ग मील क्षेत्र के जंगल को चिह्नित किया गया जिसे दामिन-इ-खोह कहा गया। राजमहल के पहाड़ी क्षेत्र में ही यह भूभाग स्थित है, जिसके पर्वतीय क्षेत्र आदिम जनजाति पहाड़िया के रहने व बसावट के लिए चिह्नित किया गया और मैदानी इलाके को संथाल आदिवासियों के लिए। डॉ रंजीत कुमार सिंह कहते हैं, पहाड़ पर जारी उत्खनन के कारण आदिम जनजाति पहाड़िया की पहाड़ आधारित जिंदगी सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहा है। इससे उनके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है। उल्लेखनीय है कि पहाड़िया समुदाय को मैदान में बसाने की कई कोशिशें विफल रही हैं। आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले एक प्रमुख स्वयंसेवी संस्था बदलाव फाउंडेशन ने अपने एक अध्ययन के आधार पर प्रकाशित पुस्तिका में कहा कि आजादी के बाद से पहाड़िया समुदाय को मैदान में बसाने की कोशिशें विफल हुईं हैं। इसकी वजहें हैं, उनकी जमीन पहाड़ पर हैं जहां वे सहज महसूस करते हैं। उनके सरकार द्वारा बनाए जाने वाले पक्के मकान की तुलना में मिट्टी का घर अधिक पसंद है।
साहिबगंज जिले के अंतर्गत पड़ने वाले बोरिया विधानसभा क्षेत्र से सत्ताधारी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायक लोबिन हेंब्रम राजमहल की पहाड़ियों के अस्तित्व को बचाने को लेकर बेहद संवेदनशील व चिंतित हैं। उन्होंने विधानसभा में इस साल के आरंभ में इस मुद्दे को उठाया था। लोबिन हेंब्रम ने मोंगाबे-हिंदी से कहा कि सिर्फ आदिवासी की ही बात नहीं है, अगर पर्यावरण दूषित हो जाएगा तो बचेगा क्या? वे कहते हैं कि राजमहल पहाड़ियों पर उत्खनन के कारण वहां पाए जाने वाले पादप को नुकसान हो रहा है, मकई, सरसों व अन्य चीजों की खेती होती थी, वह खत्म हो रही है। वे यह दावा करते हैं कि पूरे क्षेत्र में 50 प्रतिशत से अधिक अवैध उत्खनन हो रहा है और उसका पहाड़िया समुदाय के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है।
पहाड़ों की गणना और मैपिंग की जरूरत
राजमहल की पहाड़ियों पर पाए जाने वाले दुर्लभ जीवाश्म के संरक्षण को लेकर काम करने वाले साहिबगंज कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर रंजीत कुमार सिंह ने मोंगाबे हिंदी से कहा, जैसे जनगणना होती है, वैसे ही सरकार पहाड़ की गणना कराये व मैपिंग करवायी जाए तो स्थिति पता चल जाएगी। वे कहते हैं कि पहाड़ के साथ पहाड़िया भी घट रहे हैं। इसके साथ पहाड़ पर पायी जाने वाली दुर्लभ वनस्पति खत्म हो रही हैं जो कई रोगों में कारगर हैं। डॉ सिंह के अनुसार, इलाके में जिस बड़े पैमाने पर खनन हो रहा है और अगर उसकी ऐसी ही रफ्तार रही तो 15-20 साल बाद साहिबगंज के आसपास पहाड़ देखने को नहीं मिलेंगे। वे उत्खनन के कारण पहाड़ के धूलकण के पानी में धूल गंगा में जाने पर भी चिंता जाहिर करते हैं और कहते हैं कि इससे न सिर्फ गंगा प्रदूषित हो रही है, बल्कि उसमें जम रही गाद की मात्रा भी बढ रही है, जो पहले से चिंता का विषय है। यह इस क्षेत्र में पायी जाने वाली डाल्फिन के लिए भी खतरनाक है। डॉ सिंह कहते हैं कि केंद्र को राजमहल पहाड़ियों के महत्व को समझते हुए इसे संरक्षित पहाड़ घोषित करना चाहिए।
और पढ़ेंः [वीडियो] झारखंड और पश्चिम बंगाल में दामोदर नदी का ‘शोक’ अब भी जारी
झारखंड में पर्यावरणीय मुद्दों पर काम करने वाले रांची विश्वविद्यालय में भूगर्भशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ नीतीश प्रियदर्शी कहते हैं कि राजमहल की पहाड़ियों पर उत्खनन के कारण वहां के लोगों को दम्मा, खांसी, इस्नोफीलिया सहित अन्य दूसरी स्वास्थ्य समस्याएं होती हैं। उन्होंने कहा कि जियोलॉजिकलसर्वे किया जाना चाहिए कि किस पहाड़ का महत्व ज्यादा है और उसे संरक्षित घोषित किया जाए। वे कहते हैं कि उत्खनन के लिए राशनिंगसिस्टम लागू करना होगा कि अनुपयोगी पहाड़ की माइनिंग हो सकती है और उसकी भी एक सीमा निर्धारित हो।
डॉ प्रियदर्शी के अनुसार, राजमहल की पहाड़ियों पर ग्रेनाइट का उत्खनन हो रहा है और इसके विकल्प पर विचार किया जाना चाहिए। वे उदाहरण देते हुए कहते हैं कि दक्षिण भारत में बालू या रेत का विकल्प आ गया है, वहां अपरदीय चट्टानों को तोड़ कर बालू बनाया जा रहा है, जो थोड़ा महंगा होता है। वे भी राजमहल की पहाड़ियों को धरोहर घोषित करने पक्षधर हैं। वे कहते हैं कि ये पहाड़ियां व वहां के जीवाश्म कई तरह के अध्ययन में काम आ सकते हैं।
बैनर तस्वीरः गड़वा पहाड़ी और गंगा। उत्खनन के कारण पहाड़ के धूलकण के पानी में धूल गंगा में जाने से नदी प्रदूषित हो रही है। तस्वीर- राहुल सिंह