- पिछले एक साल में भारत दूसरी बार कोयले के संकट से जूझ रहा है। इस संकट के कारण देश भर में बिजली कटौती और लोड शेडिंग से आम जीवन अस्त-व्यवस्त है और उद्योग क्षेत्र भी प्रभावित है।
- कोयले केअंतरराष्ट्रीय मूल्यों में वृद्धि, पावर प्लांट में कोयला के भंडारण की कमी, बिजली कंपनियों का जीर्ण-शीर्ण वित्तीय स्वास्थ्य और बढ़ती गर्मी को इस संकट के पीछे के मुख्य कारण बताया जा रहा है।
- भारत सरकार ने इस संकट से निपटने के लिए कुछआपातकालीन कदम भी उठाए हैं। जैसे-बंद पड़े कोयले के खानों को दोबारा शुरू करना, रेलवे के माल-गाड़ियों की संख्या बढ़ाना आदि। विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को ऐसी समस्याओं से बचने के लिए समय से कदम उठाने और दूरगामी प्रयास करने की जरूरत है।
शशांक पाठक झारखंड के रांची शहर में एक फोटोकॉपी की दुकान चलाते हैं। शहर के कोकर इलाके में स्थित उनकी दुकान की आमदनी सीधे बिजली पर निर्भर है। पिछले कुछ दिनों से बिजली क्षेत्र में भारी लोड शेडिंग के कारण उनका छोटा सा व्यवसाय भी मुश्किल में है। जब ग्राहक आते हैं तो बिजली ही नहीं रहती।
“मेरा पूरा व्यवसाय बिजली पर आधारित है। बिजली न होने पर काम और मुनाफा दोनों बुरी तरह से प्रभावित होता है और मेरी आय कम हो जाती है। पिछले कुछ सप्ताह में शहर मे बिजली न होने की समस्या बढ़ी है। मैं और मेरे जैसे बहुत से कारोबारी प्रभावित हो रहें हैं। कुछ लोग अधिक पैसा खर्च कर के डीजल से चलने वाला जनरेटर चला रहे हैं,” पाठक ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
हालांकि यह कहानी सिर्फ झारखंड की अकेले की नहीं है। देश का आधिकांश हिस्सा इस समस्या से परेशान चल रहा है। बढ़ती गर्मी और ऊर्जा की बढ़ती मांग ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है। इस साल के 12 मई को भारत की राजधानी नई दिल्ली में ऊर्जा की मांग शिखर पर थी। उस दिन बिजली की मांग 6,780 मेगावाट दर्ज की गई। यह इतिहास में मई के महीने में दिल्ली के लिए एक रिकार्ड है। इसी तरह 27 अप्रैल को देश की ऊर्जा की मांग में भी रिकार्ड बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी और बढ़कर 201 गीगावाट हो गई। सरकार का कहना है कि इसके पहले सबसे अधिक ऊर्जा की जरूरत अधिकतम 200.539 गीगावाट दर्ज की गयी थी। वर्ष 2021 में। अनुमान है कि बिजली की मांग जून तक में अधिकतम 215-220 गीगावाट तक जा सकती है।
ऐसा तब हो रहा है जब कोयले से चलने वाले बहुत से पावर प्लांट कोयले की कमी से जूझ रहे हैं। सरकारी आंकड़े के अनुसार अप्रैल के महीने में देश के 173 कोयले से चलने वाले पावर प्लांटों में से 106 प्लांट में कोयले की कमी थी।
इस विषय के जानकार बताते हैं कि कोयला संकट के पीछे कई कारण है। इसमें प्रमुख कारण है अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कोयले के बढ़ते दाम, कोरोना महामारी के बाद बढ़ती ऊर्जा की मांग, बिजली वितरण कंपनियों की खस्ता हालत, रूस युद्ध का अंतरराष्ट्रीय कोयले के बाज़ार पर प्रभाव और गर्मी की वजह से अचानक ऊर्जा की बढ़ती मांग। भविष्य में यह संकट गहराने का अनुमान है।
कोयले के ढुलाई पर जरूरी है ध्यान
देश मे कोयले का संकट तब है जब जब भारत खुद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक माना जाता है। भारत सरकार ने हाल ही में संसद को बताया कि कोयले का उत्पादन विगत कुछ सालों में बढ़ा है। लेकिन इसके बावजूद देश में पिछले एक साल में दूसरी बाद कोयले का संकट उत्पन्न हुआ है। करीब 10 महीने पहले यानी 2021 के अक्टूबर के महीने में भी ऐसी ही स्थिति बनी थी जब कई जगह से खबरें आने लगी कि दो से चार दिन में देश अंधकार में चला जाएगा। हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
कोयले के इस संकट को देश के केन्द्रीय बिजली प्राधिकरण (सीईए) के कोयले के भंडारण के दिशानिर्देश से समझा जा सकता है। इसके अनुसार कोयले से चलने वाले थर्मल पावर प्लांट में 15-30 दिन का भंडारण होना चाहिए। दिन का निर्धारण कोयला खानों से प्लांट की दूरी पर तय होता है। इसके बावजूद बहुत से पावर प्लांट में केवल एक दिन की मांग को पूरा करने भर का ही कोयला बचा था।
देश में कोयले की आपूर्ति कोयला खनन वाले राज्य जैसे झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ से की जाती है। लेकिन विशेषज्ञों का मानना हैं कि अक्सर ऊर्जा की मांग बढ़ने की स्थिति में कोयले को थर्मल पावर स्टेशन तक ले जाने में, भारतीय रेल संघर्ष करती हुई दिखती है। माना जाता है कि जनवरी से मार्च के बीच कोयले के ढुलाई सबसे ज्यादा होती है। यही समय होता है जब आने वाले गर्मी की तैयारी में पावर प्लांट कोयले के भंडारण के लिए तैयार किए जाते हैं। सरकारी आंकड़े भी बताते है कि इस समय देश में कोयले का उत्पादन लगभग 25 प्रतिशत तक बढ़ जाता है।
विषेशज्ञों का मानना हैं कि कोयले की ढुलाई को लेकर कुछ नीतिगत सुधार करने की जरूरत है। अभिषेक नाथ, सेंटर फॉर स्टडी ऑन साइन्स, टेक्नालजी एण्ड पॉलिसी (सीएसटीईपी) में एनर्जी एण्ड पावर सेक्टर के प्रमुख हैं। उन्होने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि कोयले के परिवहन में इस्तेमाल होने वाले रास्तों पर एक समर्पित कॉरिडर विकसित किया जाना बहुत जरूरी है ताकि तेजी से कोयले की ढुलाई किया जा सके। ऐसा करने से जब बिजली की मांग बढ़ेगी और कोयले की जरूरत महसूस होगी तो ढुलाई में अधिक समस्या नहीं रहेगी।
“अगर कोयले के परिवहन में तेजी लानी है तो हमें कुछ नीतिगत सुधार करने के जरूरत है। अगर हम इस कोयले की सप्लाई को दोगुना करना चाहतें हैं तो हमें रेल लाइन के बिजली के तारों की ऊंचाई लगभग 7.5 मीटर करने की जरूरत है। इससे एक की जगह दो कंटेनर को माल गाड़ी से भेजना संभव हो सकेगा। अगर ऐसा संभव ना हो सके तो हमें मालगाड़ी के डब्बों की संख्या को बढ़ाने की जरूरत है या उनके भार उठाने की क्षमता को बढ़ाने की जरूरत है,” नाथ ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
नाथ ने इस बात की भी वकालत की कि कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) और पावर उत्पादन करने वाली कंपनियों के बीच ऐसा ईंधन सप्लाई समझौता होना चाहिए जिसमें थोड़ा लचीलापन हो। “हमें सारे पावर प्लांट को दिये जाने वाले कोयले और उसपर आने वाले खर्च की समीक्षा करते रहना चाहिए। जरूरत पड़ने पर कोयले का पुनः आवंटन और ढुलाई के रास्ते में परिवर्तन को लेकर भी लचीला रुख अपनाने की जरूरत है।”
विशेषज्ञों का मानना है कि ऊर्जा क्षेत्र से जुड़ी और बहुत सी समस्याएं हैं जिससे स्थिति बिगड़ जाती है। ऊर्जा वितरण कंपनियों की खस्ता हालत भी इस क्षेत्र के संकट का एक मुख्य कारण बताया जाता है। बिजली उत्पादन के लिए देश में कोयले के खानों से घरों में बिजली पहुंचाने के लिए एक ठोस व्ययस्था बनाई गई है। कोयले के खानों से कोयला पावर प्लांट तक भेजा जाता है जहां उसे जला कर बिजली बनाई जाती है। बिजली के वितरक (डिस्कॉम)) उसे ग्रिड के जरिये आम घरों और उद्योगों तक पहुंचाते हैं। ये डिस्कॉम पावर प्लांट को पैसा देते हैं और पावर प्लांट, खनन कंपनियों को कोयले का भुगतान करते हैं। लेकिन पैसे का भुगतान अक्सर समय पर नहीं हो पाता और इससे मुश्किलें बढ़ती हैं। आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2022 के अंत तक ऊर्जा उत्पादक कंपनियों का डिस्कॉम पर 1.07 लाख करोड़ रुपये का बकाया था।
जलवायु और कोयला संकट
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अभी का कोयला संकट इस लिए भी उत्पन्न हुआ क्योंकि सरकार कई चुनौतियों के लिए तैयार नहीं थी। खासकर वातावरण संबंधित चुनौती के लिए।
वैभव चतुर्वेदी, नई दिल्ली में स्थित सेंटर फार इनवायरनमेंट, एनर्जी एंड वॉटर (सीईईडबल्यू) में शोधकर्ता है। उनका कहना है कि मौसम मे किसी तेजी से हो रहे बदलाव के लिए कोयला क्षेत्र तैयार नहीं होता। चतुर्वेदी कहते हैं कि ऐसे अचानक आई चुनौती से निपटने के लिए भी नीति बनाने की जरूरत है।
“समस्या यह है कि हमारी योजना बनाने की पद्धति में मौसम में हुए आकस्मिक बदलाव के लिए जरूरी तैयारी नहीं होती। अगर आप पिछले वर्ष के अक्टूबर के कोयले के संकट को देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि उस समय मानसून के बाद भी बारिश होने से ऐसा एक संकट उत्पन्न हुआ था। क्योंकि बारिश से कोयले का परिवहन बाधित हो गया। अभी गर्मी में तेजी से वृद्धि हुई है और इसकी वजह से ऊर्जा की मांग भी तेजी से बढ़ी है। नतीजा यह कि बिजली का संकट उत्पन्न हो गया,” चतुर्वेदी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
भारत सरकार ने ऐसे स्थिति में कुछ आपातकालीन कदम भी उठाए हैं। जैसे बिजली अधिनियम 2003 के धारा 11 का लगाया जाना एक बहुत ही बड़ा कदम माना गया। इसके अंतर्गत देश के सारे कोयले से चलने वाले पावर प्लांट को अपनी पूरी क्षमता से उत्पादन करने के लिए कहा गया जबकि कोयले के आयात पर निर्भर बंद पड़े कुछ खानों को फिर से चालू करने के भी निर्देश दिये गए। भारतीय रेलवे ने भी चुनिन्दा यात्री गाड़ियों को बंद कर दिया ताकि माल गाड़ियों का आवागमन सुगम हो सके। मालगाड़ियों में अतिरिक्त डिब्बे भी जोड़े गए।
केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री आर.के.सिंह ने हाल ही में मीडिया को बताया कि इस आपातकालीन कदम की अवधि बढ़ाई भी जा सकती है। पहले सरकार ने इसे अक्टूबर तक ही रखने का निर्णय लिया था। ऊर्जा मंत्री सिंह ने यह भी संकेत दिये है कि आयात पर आने वाले अतिरिक्त भार का कुछ बोझ जनता को भी उठाना पड़ सकता है।
क्या अक्षय ऊर्जा में छिपा है समाधान?
केन्द्रीय बिजली प्राधिकरण (सीईए) के अप्रैल 2022 तक के आंकड़े बताते है कि देश के कुछ 401 गीगावाट के स्थापित ऊर्जा क्षमता में से 51 प्रतिशत केवल कोयले पर आधारित है जबकि 28 प्रतिशत क्षमता नवीकरणीय ऊर्जा का है।
शोधकर्ता बताते हैं कि नवीकरणीय ऊर्जा से ऐसे किसी संकट से उभरने में कुछ हद तक तो राहत मिल सकती है लेकिन इसकी भी अपनी चुनौतियां हैं। “सौर ऊर्जा का प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ़) औसतन 25 प्रतिशत का ही होता है। सौर ऊर्जा का उत्पादन रात में पूरी तरह से बाधित होता है। कोयले के तुलना में सौर ऊर्जा का उत्पादन उसकी क्षमता से कम होता है। हालांकि, अभी जो भी सौर ऊर्जा का उत्पादन हो रहा है वो भी ग्रिड में डाला जाता है। इससे देश की ऊर्जा जरूरतों का कुछ भार तो संभल जाता है। अतः हमें सौर ऊर्जा से उम्मीद रखना बेमानी नहीं है पर वास्तविकता से भी परिचित होना चाहिए,” सेंटर फॉर सोशल एण्ड इकनॉमिक प्रोग्रैस में बतौर सीनियर फैलो काम कर रहे राहुल टोंगिया ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। प्लांट लोड फैक्टर का मतलब होता है किसी प्लांट का उसके कुल क्षमता की तुलना में उससे उत्पन्न होने वाली बिजली।
सुनील दाहिया जो सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एनर्जी (सीआरईए) में एक विश्लेषक का काम करते है, कहते है कि ऊर्जा के मामले में राज्यों को मजबूत बनाने के लिए हमें विकेंद्रित नवीकरणीय ऊर्जा का विकास करना जरूरी हैं।
“राजस्थान, गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्यों में नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता अधिक है। हमें ऐसे राज्यों में आधारभूत ढांचे को विकसित करने की जरूरत है ताकि ऊर्जा भंडारण की क्षमता विकसित हो सके और उनके ग्रिड का भी विकास हो सके। इसी के साथ अन्य राज्यों में भी हमें नवीन ऊर्जा को बढ़ावा देने की भी जरूरत है। अगर हम ज्यादा से ज्यादा नवीन ऊर्जा राज्यों में बना सकें जहां इसकी जरूरत है तो तो इसके वितरण में होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है,” दाहिया ने बताया।
उन्होने यह भी कहा कि समान्यतः अगर मध्य भारत से पूर्व भारत या पश्चिम भारत में बिजली ले जायी जाती है तो उसके वितरण में 15-16 प्रतिशत का नुकसान है। इनका यह भी कहना है कि भारत में कोयले के उत्पादन की कमी नहीं है। हाल के कोयले का संकट उत्पादन के वजह से नहीं बल्कि समय पर बेहतर प्रबंधन ना होने के कारण, यह समस्या आई है, दाहिया कहते हैं।
और पढ़ेंः क्या देश में कोयला संकट से तैयार हो रहा कानूनों में परिवर्तन का रास्ता?
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ऊर्जा संकट के मद्देनजर स्वच्छ ऊर्जा के विकास की बातें कही जा रही हैं। हाल ही में वर्ल्ड इकनॉमिक फॉरम (डबल्यूईएफ़) के प्रकाशित रिपोर्ट में निजी और सरकारी संस्थानो को ऊर्जा के उभरते संकट से निपटने के लिए नवीकरणीय परियोजनायों पर ज़ोर देने और नीतिगत सुधार करने के लिए भी कहा गया है। ऐसा तब हो रहा है जब पूरे विश्व में 1970 के बाद ऊर्जा का सबसे बड़ा संकट देखने को मिल रहा है।
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बैनर तस्वीर-झारखंड के बेरमों में एक कोयले की खान में कोयले को पास के रेलवे स्टेशन में ले जाने के लिए लगे ट्रक। तस्वीर-मनीष कुमार