- निफ्ट भुवनेश्वर ने अपने पाठ्यक्रम में स्थाई फैशन का विषय जोड़ने के लिए 2013 में ‘फार्म टू फैशन’ के अवधारणा को अपनाया।
- सरकार के एक निर्देश के बाद इस पहल को अब देश भर के 15 अन्य निफ्ट केंद्रों द्वारा लागू किया जा रहा है।
- कपड़ा उद्योग वैश्विक रूप से प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में से एक है। वर्तमान में फैशन को पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिए प्राकृतिक कच्चे माल और रंगों का प्रयोग किया जा रहा है।
जब ओडिशा के भुवनेश्वर शहर में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी (निफ्ट) के प्रोफेसर बिनाया भूषण जेना ने पहली बार परिसर के चारों ओर देखा, तो उन्हें केवल ईंट-पत्थर के शैक्षणिक भवन दिखाई दे रहे थे। टियर -2 शहर में फैशन उद्योग के लिए सीमित अवसर था और आसपास के वातावरण में इसके लिए प्रेरित करने वाली बहुत कम चीजें थीं। सहकर्मियों के साथ कई दौर के विचार-विमर्श और 10-एकड़ के परिसर को देखने के महीनों बाद उन्हें एक विचार आया। 2013 में इसकी स्थापना के तीन साल बाद निफ्ट भुवनेश्वर, अपने पाठ्यक्रम में प्रकृति के अनुकूल या कहें सस्टेनिबिलिटी को विषय बनाने वाला पहला राष्ट्रीय फैशन संस्थान बन गया। परिसर में पर्याप्त जगह उपलब्ध थी।
मोंगाबे इंडिया के साथ बातचीत के दौरान जेना ने कहा, “ओडिशा में हथकरघा और प्राकृतिक रंगों की समृद्ध विरासत है। हमने अपनी मेहनत का उपयोग करने और उपलब्ध स्थान को अपने राज्य की विरासत के साथ मिलाने का फैसला किया। हमने निष्कर्ष निकाला कि सस्टेनेबल फैशन निफ्ट भुवनेश्वर के लिए अनोखा होगा।”
इसके बाद कपड़ा मंत्रालय ने पिछले साल देश भर के अन्य निफ्ट केंद्रों को उनके स्थान, टाइपोग्राफिक खासियत और संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर इस अवधारणा को दोहराने का निर्देश दिया।
भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का पांच प्रतिशत हिस्सा, कपड़ा उद्योग का है। यह उद्योग 4.5 करोड़ लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार देता है। 44.4 अरब अमरीकी डालर के निर्यात के साथ, भारत ने 2022 में कपड़ा और परिधान निर्यात का रिकार्ड बनाया। हालांकि, कपड़ा मिलें भी दुनिया के शीर्ष औद्योगिक प्रदूषकों में से हैं और दुनिया के औद्योगिक जल प्रदूषण में लगभग पांचवां हिस्सा इनके खाते में जाता है। तेजी से पनपते सेलिब्रिटी स्टाइल के फैशन और सस्ते कपड़ों के उपलब्ध होने से समस्या और बढ़ी है।
सस्टेनेबल फ़ैशन से तात्पर्य कपड़ा या एक्सेसरीज़ के निर्माण की कार्बन-न्यूट्रल प्रक्रिया से है। यह न केवल उद्योग में नैतिकता को बढ़ाता है बल्कि पानी के सतत प्रबंधन से संबंधित सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी 6) से भी जुड़ा हुआ है।
फार्म टू फैशन‘ की अवधारणा
निफ्ट भुवनेश्वर ने ‘फार्म टू फैशन‘ अवधारणा को अपनाकर सस्टेनिबिलिटी का लक्ष्य हासिल करने की कोशिश में है। यह पहल छात्रों को सूत से परिधान या सजावट की वस्तु को विकसित करने की प्रक्रिया को देखने और उसमें भाग लेने में सक्षम बनाती है।
मूल्य श्रृंखला के पहले चरण में रेशा (फाइबर) की सोर्सिंग शामिल है, जिसके लिए परिसर के अंदर कई रेशे (फाइबर) उत्पादक पौधे लगाए गए हैं। चूंकि संस्थान में अभी तक आवश्यक प्रयोगशाला नहीं है, इसलिए रेशे को हाथ से निकाला जाता है, यह औद्योगिक मानक के हिसाब से नहीं है। परिसर में रेशे से करघे में सूत (धागे) काता जाता है। धागे से कपड़ा बुना जाता है फिर उसे पौधों से प्राप्त प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है। एक बार कपड़ा तैयार हो जाने के बाद, इसे एक परिधान (पहनने वाले कपड़ा) में डिजाइन किया जाता है।
परिसर में लगाए गए अधिकांश रेशा-उत्पादक और रंग-उत्पादक पौधें हर तरह के जलवायु के लिए उपयुक्त हैं। इनमें किसी भी प्रकार का रासायनिक उर्वरक या कीटनाशकों का उपयोग नहीं किया जाना सुनिश्चित है यहाँ की सारी गतिविधियां पर्यावरण के अनुकूल है।
जेना का कहना है कि ‘फ़ार्म टू फ़ैशन‘ के चार स्तंभों में, सस्टेनिबिलिटी, पर्यावरण, सामाजिकता और आर्थिक सामंजस्य शामिल हैं, और इसका वे इस केंद्र में पालन भी करते हैं। इनका कहना है, “हम अपने छात्रों को उत्पादन लागत कम करने के लिए प्राकृतिक रंगों के लिए प्याज के छिलके जैसी बुनियादी चीजों का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।” इसमें शामिल किसानों से लेकर अंतिम उत्पाद बेचने वाले ब्रांडों तक, सभी के लिए यह प्रक्रिया समावेशी होनी चाहिए। इस केंद्र ने स्थानीय कारीगरों के साथ मिलकर भी काम किया है, यहां वे अपनी विशेषज्ञता का उपयोग करते हैं।
हर केंद्र अनोखा
भारत भर में 16 निफ्ट (NIFT) केंद्रों ने इसको लेकर अलग तरह की शैली अपनाई है। पटना में, सस्टेनिबिलिटी को किसी भी सेमेस्टर में पढ़ाया या शामिल नहीं किया जाता है लेकिन अकादमिक पाठ्यक्रम में हर विषय में एक मॉड्यूल है। निफ्ट, पटना के प्रोफेसर विकास कुमार का कहना है कि स्थाई फैशन हमेशा पाठ्यक्रम का हिस्सा था, लेकिन सरकार के निर्देश के बाद से इस पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। “हम इसे अलग से विकसित करने के बजाय अपने मौजूदा बुनियादी ढांचे में ही सस्टेनिबिलिटी को शामिल करने के लिए तकनीक विकसित कर रहे हैं। हमारे पास एक इन-हाउस रंगाई प्रयोगशाला भी है, जहां हम छात्रों को प्राकृतिक रंग बनाने और उन्हें कपड़े में लगाने का तरीका सिखाते हैं।”
इसी तरह गांधीनगर परिसर में छात्रों को कपास की जगह टिकाऊ रेशों को कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। जबकि कई वर्षों से ज्यादातर कपास का उपयोग होता रहा है, परिसर अब सेल्यूलोज-आधारित फाइबर बना रहा है।
परिसर की एक प्रोफेसर शुभांगी यादव का कहना है कि वे विभिन्न प्रकार के फाइबर का प्रयोग करने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित कर रही हैं चाहें वो प्राकृतिक हो या मानव निर्मित। ‘हमने अपने परिसर के भीतर प्राकृतिक रंग के पौधों को लगाने की भी कोशिश की है, लेकिन बुनियादी ढांचे की कमी के कारण हम इसका उपयोग केवल प्रदर्शन तक के लिए ही कर रहे हैं।”
फैशन उद्योग में सस्टेनिबिलिटी
फैशन संस्थानों के अलावा, कई डिजाइनर और ब्रांड सस्टेनिबिलिटी की अवधारणा की खोज कर रहे हैं और नए कच्चे माल के साथ भी प्रयोग किए जा रहे हैं। प्रसिद्ध भारतीय फैशन डिजाइनर अनीता डोंगरे उनमें से एक हैं। उनका जमीनी स्तर का संग्रह न केवल ‘धीमें फैशन‘ पर जोर देता है बल्कि सामाजिक स्थिरता और स्थानीय शिल्प को भी बढ़ावा देता है।
कपास के विकल्प के रूप में सन (Hemp) का उपयोग कपड़ा उद्योग का ध्यान आकर्षित कर रहा है। मजबूती और आरामदायक होने के मामले में कपास और सन दोनों के कपड़े बराबर हैं। कपास में प्रति किलोग्राम 22,000 लीटर से अधिक पानी की खपत होती है इसके विपरीत भांग को इससे आधे पानी की आवश्यकता होती है। हालांकि कपास की तुलना में सन के कपड़े अधिक महंगे होते हैं और इसकी कीमत उसमें उपयोग किए जाने वाले मिश्रणों के अनुसार अलग-अलग होती है।
2019 और 2020 में, अमेरिकी कपड़ों की कंपनी लेवी स्ट्राउस एंड कम्पनी (लेविस) ने अपने डेनिम और शर्ट डिज़ाइन में ‘कॉटनाइज़्ड हेम्प‘ कपड़े पेश किए। अब यह अपने संग्रह के विस्तार की योजना बना रहा है। भारत में मुंबई के एक फैशन ब्रांड ब्लैबेल, बॉम्बे हेम्प कंपनी के साथ मिलकर सन आधारित कपड़े डिजाइन करता है।
बोहेको की सह-संस्थापक और निदेशक अलीशा सचदेव ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “जब हमने पहली बार सन के कपड़ों की शुरुआत की थी, तो लोग सशंकित थे और हमसे पूछते थे कि क्या कपड़ा महंगा मिलेगा।” “सन कपास की तुलना में बहुत बेहतर है लेकिन यह एक गलत समझी जाने वाली फसल है। हम डिजिटल प्लेटफोर्म पर हैं लेकिन हमारे आउटलेट की बिक्री काफी बेहतर है क्योंकि ग्राहक कपड़े की जांच कर सकते है और महसूस कर सकते हैं।”
ग्रीनवाशिंग की चुनौतियां
भले ही फैशन संस्थान और उद्योग, फैशन के ट्रेंड को तोड़ने के लिए स्थायी तरीके तलाश रहे हों, लेकिन चुनौतियां बनी हुई हैं। सामान्य मानकीकरण और प्रमाणन विधियां उद्योग के ग्रीनवाशिंग के जोखिम को सामने लाती हैं।
अतीत में हेनेस एंड मॉरिट्ज़ (एचएंडएम) और ज़ारा जैसे ब्रांडों पर उपभोक्ताओं को ज़्यादा फैशन की आड़ में ग्रीनवॉश करने का आरोप लगाया गया है। जेना का कहना है कि किसी के पास प्रमाणित ब्रांड हो सकता है, लेकिन स्थायी फैशन के लिए इसका मानक भी होना चाहिए। ‘मानकीकरण करने की आवश्यकता है। पलास के फूल का एक निश्चित प्राकृतिक रंग होता है चाहें उसे भारत में या कहीं भी उगाया जाय। इससे ग्राहकों को संतुष्टि मिलेगी कि वे जो कुछ भी खरीद रहे हैं वह असली है।”
सचदेव का मानना है कि सस्टेनिबिलिटी में बड़े ब्रांडों के आने से प्रमाणित होने के मुद्दे को हल करने में मदद मिल सकती है। वह आगे कहते हैं, “बड़े प्रतिभागियों को इस क्षेत्र में लाने और प्रतिस्पर्धा बढ़ाने की जरूरत है। यह उद्योग को मानक निर्धारित करने और नकली से मूल को बाहर निकालने के लिए प्रेरित करेगा। जागरूकता भी तब बढ़ेगी जब लोग पाएंगे कि उनके ब्रांड पर्यावरण के अनुकूल कपड़े बनाते हैं।”
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बैनर तस्वीर : छात्र इन-हाउस करघों पर प्राकृतिक रेशों से सूत कातते हुए। तस्वीर- तज़ीन कुरैशी।