- भारत में जनप्रतिनिधि जैसे विधायक और सांसद नीति निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। जलवायु परिवर्तन को लेकर उनकी जागरुकता से तय होगा कि देश में जलवायु परिवर्तन को लेकर बनने वाली नीतियां कैसी होंगी।
- एक अध्ययन में सामने आया है कि भारतीय संसद में जलवायु परिवर्तन पर विशेष रूप से जलवायु न्याय और अनुकूलन (क्लाइमेट जस्टिस एंड एडॉप्टेशन) पर चर्चा नहीं के बराबर होती है। संसद में पूछे जाने वाले प्रश्नों में से केवल 0.3% ही जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित होते हैं।
- देश में जलवायु परिवर्तन मुख्य चुनावी मुद्दा नहीं है। हालांकि ऐसा माना जाता है कि वैज्ञानिकों के शोध को मीडिया में जगह मिलने पर नीति निर्माताओं का भी इन मुद्दों से जुड़ाव बढ़ेगा।
“यह हर बार की कहानी है। किसी आपदा के आने पर राजनेता अक्सर जलवायु परिवर्तन की आड़ लेते हैं,” यह बात जलवायु वैज्ञानिक रॉक्सी मैथ्यू कोल ने कही। वे विधायकों के एक समूह को संबोधित कर रहे थे। सभी विधायक तटीय राज्य केरल से थे। इस कार्यक्रम को यूनिसेफ ने आयोजित किया गया था। व्याख्यान का विषय था- जलवायु परिवर्तनः केरल में हम क्या उम्मीद रख सकते हैं।
देश में राज्य स्तर पर जो भी कानून बनता है उसका श्रेय विधायकों को जाता है। इसको ध्यान में रखते हुए इस व्याख्यान का आयोजन किया गया। इसके दौरान इन विधायकों को जलवायु परिवर्तन से जुड़ी कई बाते बताई गईं, जैसे जलवायु संबंधी वैज्ञानिक बातें, विकास की परियोजनाओं का पर्यावरण पर असर, पश्चिमी घाट में अत्यधिक बारिश और और गर्म होता अरब सागर इत्यादि।
व्याख्यान देने वाले कोल मूल रूप से केरल राज्य के कोट्टायम जिले के रहने वाले हैं। उन्होंने जलवायु परिवर्तन के रहस्य को उजागर करते हुए केरल में जलवायु परिवर्तन के स्थानीय प्रभावों के साथ संभावित समाधान की चर्चा की। साथ ही जलवायु परिवर्तन संबंधी मिथक या भ्रम पर भी बातचीत की और समझाया कि इस समस्या के पीछे कौन कौन से कारक हैं। “जलवायु परिवर्तन के कारण भारी वर्षा और फिर वर्षा से भूस्खलन हो सकता है। लेकिन कई जगह, समय के साथ भूमि उपयोग में बदलाव आया है। केरल सबसे अच्छा उदाहरण है,” कोल कहते हैं।
I had an excellent interactive session on Climate Change with the members of the Kerala Legislative Assembly (MLAs).
Climate change is now definitely a poll agenda for Kerala.
Video of the session: https://t.co/ZFz2J7eBvz pic.twitter.com/66ATUiy9U0
— Roxy Koll ⛈ (@RockSea) July 15, 2022
उन्होंने वर्षा के रुझान की भी बात की और कहा कि पूरे केरल में वर्षा की कुल मात्रा घट रही है और अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि हुई है। ऐसा विशेष रूप से मध्य केरल में और उसके आसपास हो रहा है। गर्मियों के मानसून में अत्यधिक वर्षा के कारण, राज्य में वर्ष 2018, 2019, 2020 और 2021 में खतरनाक भूस्खलन और बाढ़ की घटनाएं हुईं इसमें खनन, अवैज्ञानिक निर्माण और कमजोर क्षेत्रों में वनों की कटाई से जान-माल का भारी नुकसान हुआ।
जलवायु परिवर्तन पर अपर्याप्त चर्चा
केरल में विधायकों के साथ जलवायु वैज्ञानिक की बातचीत ऐसे समय में हुई है जब ‘पोस्ट-ट्रुथ युग’ में राजनीतिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों के बीच की खाई चौड़ी हो रही है।
हाल के एक अध्ययन ने भारतीय संसद में जलवायु परिवर्तन पर अपर्याप्त चर्चा को भी उजागर किया है। 1999 से 2019 तक संसद में 1,019 मंत्रियों द्वारा जलवायु परिवर्तन पर 895 संसदीय प्रश्न पूछे इस दरम्यान पूछे गए कुल प्रश्नों में महज 0.3% ही जलवायु परिवर्तन से था।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के नेतृत्व में किए गए अध्ययन के अनुसार संसद में दो दशकों में जलवायु परिवर्तन पर उठाए गए प्रश्नों की संख्या में वृद्धि हुई है। लेकिन पूछे गए प्रश्नों का प्रतिशत भारत में जलवायु परिवर्तन की बढ़ती समस्या बनिस्बत कहीं नहीं है। शोधकर्ताओं ने आठ प्रासंगिक कीवर्ड: ‘क्लाइमेट’, ‘एडेप्ट’, ‘कार्बन’, ‘फॉसिल फ्यूल’, ‘ग्रीन पावर’, ‘आईपीसीसी’, ‘क्योटो’ और ‘वार्म’ का इस्तेमाल करते हुए सवालों की छानबीन की। प्रश्न जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील राज्यों से नहीं आए थे, और वे सामाजिक रूप से कमजोर समूहों का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। प्रश्न ज्यादातर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों (27.6%) और जलवायु परिवर्तन को रोकने (शमन) (23.4%) से संबंधित थे।
अध्ययन के सह-लेखक हरिनी नागेंद्र ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “हमें मीडिया, वैज्ञानिकों और विधायकों के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है।”
सिक्किम के पूर्व सांसद पी.डी. राय ने वर्ष 2018 में इंटीग्रेटेड माउंटेन इनिशिएटिव द्वारा आयोजित हिमालयी ग्लेशियरों और भारत-गंगा के मैदानों की जल सुरक्षा पर आयोजित जनप्रतिनिधियों की बैठक में हिस्सा लिया। वह इस बैठक में सह-अध्यक्षता कर रहे थे। उनका कहना था कि जलवायु परिवर्तन पर वैज्ञानिकों और विधायकों के बीच चल रही बातचीत को और अधिक मजबूती देने की जरूरत है।
राय दुनिया भर के जन प्रतिनिधियों की एक पहल ग्लोबल लेजिलेटर्स ऑर्गनाइजेशन फॉर बैलेंस्ड एनवायरनमेंट (GLOBE) के पहले महासचिव भी रहे हैं। उन्होंने कहा, “इससे पहले 15 वीं लोकसभा में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग पर अध्यक्ष द्वारा अनौपचारिक समितियां बनाई गई थीं। उसके बाद संसद सदस्यों से बात करने के लिए विशेषज्ञों को आमंत्रित किया गया था। संस्था से जुड़े कुछ सांसदों ने 2021 में हुई जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP26) में भी भाग लिया और ग्लासगो में हमारे प्रधान मंत्री (नरेंद्र मोदी) से मुलाकात भी की।
जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दे चुनावी एजेंडे में शामिल नहीं
इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी के शोध निदेशक अंजल प्रकाश काफी हद तक इस निष्कर्ष से सहमत हैं कि जन प्रतिनिधियों के बीच जलवायु परिवर्तन पर चर्चा को मजबूत करने की जरूरत है। प्रकाश ने मोंगाबे-इंडिया से कहा, “सांसदों और विधायकों के बीच कुछ हद तक जागरूकता आई है, लेकिन जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दे अभी भी चुनावी एजेंडे में प्रमुख नहीं हैं।” उन्होंने कहा कि विधायकों को अक्सर जलवायु परिवर्तन पर आवश्यक जानकारी प्राप्त नहीं होती है।
प्रकाश ने कहा, “वे अक्सर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों या कठोर चेतावनियों पर समाचार रिपोर्टों की सत्यता पर भी सवाल उठाते हैं।”
प्रकाश ने हाल ही में विधायकों और प्रशासकों के लिए एक प्रशिक्षणशाला का आयोजन किया था जिसमें जलवायु परिवर्तन भी एक मुद्दा रहा।
अध्ययन के अनुसार, सांसदों को जलवायु परिवर्तन पर अपनी अधिकांश जानकारी अध्ययन और रिपोर्टों और समाचार पत्रों के लेखों से प्राप्त हुई। वे कृषि, तट और स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के बारे में सबसे अधिक चिंतित थे। जलवायु परिवर्तन को लेकर संसदीय प्रश्न ऊर्जा, कृषि और विमानन क्षेत्रों पर केंद्रित थे।
20 साल की अध्ययन अवधि में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना के शुभारंभ से पहले वर्ष 2007 में संसदीय प्रश्नों में वृद्धि देखी गई। 2015 में सबसे अधिक प्रश्न (104 प्रश्न) पूछे गए थे। इसी वर्ष पर्यावरण और वन मंत्रालय का नाम बदलकर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय कर दिया गया।
अनिल कुलकर्णी हिमनदों, जलवायु परिवर्तन और बर्फ के आवरण का अध्ययन करते हैं और हिमालय के ग्लेशियरों और गंगा के मैदानी इलाके की जल सुरक्षा पर 2018 में आयोजित जन प्रतिनिधि बैठक का हिस्सा थे। उन्होंने पाया कि अब हिमालयी क्रायोस्फीयर पर बहुत सारे संसदीय प्रश्न पूछे जा रहे हैं। क्रायोस्फीयर का मतलब जमा हुआ स्थान होता है, जहां पानी ठोस बर्फ की अवस्था में होता है। यह नाम ग्रीक शब्द “क्रियोस” से आया है जिसका अर्थ है ठंडा।
“ग्लेशियोलॉजी पर काफी चर्चा हो रही है और प्रत्येक संसद सत्र में पांच से छह प्रश्न होते हैं,” वह कहते हैं।
हिमालयी क्रायोस्फीयर पर बहुत सारे सवाल पूछे गए, खासकर 2021 में उत्तराखंड आपदा के बाद। आमतौर पर जब ग्लेशियरों पर शोध से मीडिया का ध्यान आकर्षित होता है तो राजनेता इस विषय में रुचि रखते हैं। कुलकर्णी ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि वैज्ञानिकों के लिए अपने दम पर राजनेताओं से बात करना दुर्लभ है।
“केंद्रीय स्तर पर हिमालयी क्रायोस्फीयर पर अधिकांश प्रश्न संसद में मीडिया कवरेज के कारण आ रहे हैं और जरूरी नहीं कि सांसद शोध पत्र पढ़ रहे हों। मीडिया कवरेज के माध्यम से राजनेताओं के साथ संवाद अधिक सुलभ है,” उन्होंने कहा।
कुलकर्णी याद करते हैं कि कैसे हाल ही में हिमालय के ग्लेशियरों के असाधारण दर पर पिघलने पर लीड्स विश्वविद्यालय का एक शोध चर्चा में आया। शोध पर मीडिया का ध्यान गया और हिमनदों के बड़े पैमाने पर नुकसान, जोखिम, हिमनद झीलों के नुकसान की भविष्यवाणी के बाद संसद में प्रश्नों की बाढ़ आ गई। इसे पश्चिमी मीडिया और फिर भारतीय मीडिया ने उठाया। दूसरी ओर, हमें ग्लेशियर के घटने और अचानक आने वाली बाढ़ और समाज पर उनके प्रभावों पर सामान्य प्रश्न भी मिलते हैं,” उन्होंने कहा।
राज्य स्तर पर स्थिति थोड़ी अलग है। कुलकर्णी ने कहा, “राज्य सरकार के अधिकारियों और हिमालयी राज्यों के विधायकों के बीच उनके राज्यों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और इन चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक नीतियों में बहुत रुचि है।”
जुलाई, 2022 में दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज के सहयोग से हिमाचल प्रदेश विज्ञान प्रौद्योगिकी और पर्यावरण परिषद द्वारा आयोजित हिमाचल प्रदेश के नीति निर्माताओं और प्रशासकों के साथ वैज्ञानिकों की एक बैठक का आयोजन किया गया।
“इस तरह के मंच ऐसा मौका प्रदान करते हैं जहां हम राजनेताओं को जागरूक कर सकें और बता सकें कि विज्ञान क्या कहता है। लेकिन राजनेता कुछ ऐसा चाहते हैं जो विज्ञान से परे हो। ऐसे मंचों पर उनके साथ संवाद से ये पता चलता है कि राजनेताओं के दिमाग मे क्या है और हमें वैज्ञानिक अनुसंधान को फिर से परिभाषित करने का मौका मिलता है,” उन्होंने आगे कहा।
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कुलकर्णी की बात को दोहराते हुए हरिणी नागेंद्र कहती हैं, “हमें व्यवहारिक प्रश्नों पर फोकस बढ़ाना चाहिए। हमे पता लगाता चाहिए कि वे कौन से प्रश्न हैं जिनका उत्तर खोजकर जलवायु परिवर्तन पर उचित कार्रवाई हो सकती है।”
उदाहरण के लिए 2018 में हिमालयी ग्लेशियरों पर सांसदों की बैठक में संसद सदस्यों ने नेपाल के ग्लेशियरों में परिवर्तन पर चिंता व्यक्त की। इससे भारत में नेपाल से सटे बिहार राज्य को प्रभावित किया। इस दौरान अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में ग्लेशियरों का अध्ययन करने के लिए विशेषज्ञों की कमी, पहाड़ों पर दिखाई देने वाला कार्बन और भारी वर्षा पर भी चर्चा हुई।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
केरल में विधायकों के साथ अपनी बातचीत में रॉक्सी मैथ्यू कोल ने जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक परिदृश्य के साथ-साथ इसके स्थानीय प्रभावों को भी बताया। उन्होंने स्थानीय प्रभावों से निपटने के लिए अनुकूलन या जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से लड़ने की तैयारी पर जोर दिया। कोल ने कहा, “मैंने इस बात पर जोर दिया कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक है, लेकिन इसके प्रभाव स्थानीय हैं और स्थानीय स्तर पर अनुकूलन के प्रयास समुदाय के सहयोग से महत्वपूर्ण हैं।”
“केरल जैसे राज्य के लिए भले ही मानसून की बारिश में गिरावट आई है, फिर भी यहां बहुत अधिक बारिश होती है। इसलिए, यह जलवायु परिवर्तन के मुद्दे से अधिक प्रबंधन का मुद्दा है,” उन्होंने विधायकों से कहा।
कोल ने हाल के वर्षों में राज्य को फिर से तबाह करने वाली खतरनाक बाढ़ और भूस्खलन की आशंका पर विधायकों से सवाल पूछे।
केरल भूस्खलन के खतरे की चपेट में है। कोल ने एक विधायक को समझाया कि ऐसी चेतावनी है कि चरम मौसम की घटनाएं आने वाले भविष्य में और तेज होंगी। यह जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहा है। पृथ्वी का तापमान 2020 से 2040 के दशकों में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक गरम हो जाएगा2040 से 2060 तक यह गर्मी दोगुना तेजी से बढ़ेगी। उन्होंने आगे कहा, “एक वैज्ञानिक के रूप में मैं भी बाढ़, बादल फटने और मानसून में बदलाव के रूप में प्रभावों की कल्पना नहीं कर सकता।”
विज्ञान प्रशासक अखिलेश गुप्ता ने भी विज्ञान और मीडिया में जलवायु परिवर्तन पर संचार में कमियों पर प्रकाश डाला। “वैज्ञानिकों से जिस तरह के सवाल पूछे जा रहे हैं, वे बहुत सामान्य हैं। हमें, वैज्ञानिकों के रूप में भी विधायकों, सांसदो और वैज्ञानिकों के बीच जुड़ाव बढ़ाने पर जोर देना चाहिए। दूसरी ओर, जलवायु परिवर्तन पर पत्रकारों के बीच समझ और इसकी बारीक रिपोर्टिंग को भी बढ़ाने की जरूरत है।”
“हमें समाज पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर अधिक रिपोर्टिंग की भी आवश्यकता है। वास्तव में, विधायकों और सांसदों को समाज पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की गहरी समझ है। लेकिन वैज्ञानिक भी प्रभावों के दायरे की व्याख्या नहीं करते हैं, ”गुप्ता ने कहा। वे भारत के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग में नीति समन्वय और कार्यक्रम प्रबंधन प्रभाग के वरिष्ठ सलाहकार हैं।
हालांकि, कुलकर्णी को चिंता है कि भले ही कुछ जलवायु परिवर्तन विषय राजनेताओं के बीच चर्चा पैदा कर दें और यह रुचि संसदीय प्रश्नों या अन्य मंचों के माध्यम से दिखाई देती है। पर यह आवश्यक नहीं है कि रुचि विज्ञान के वित्त पोषण में सुधार की ओर ले जाए। उन्होंने कहा “ग्लेशियर का अध्ययन करने के लिए पांच से छह साल पहले मौजूद संरचना गायब हो गई है। ग्लेशियरों के अध्ययन को प्रोत्साहित करने के लिए एक अलग समिति हुआ करती थी। भारत में ग्लेशियरों के अध्ययन के लिए दीर्घकालिक रणनीतिक योजना बनाने की जरूरत है और अनुसंधान को संस्थागत बनाने की जरूरत है।“
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बैनर तस्वीरः राज्यसभा के नवनिर्वाचित सदस्यों के लिए शपथ ग्रहण समारोह 22 जुलाई, 2020 को राज्यसभा में आयोजित किया गया। तस्वीर– राज्यसभा