- राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे की लोकप्रियता घटने और जन विरोध के पीछे पर्यावरणीय सरोकारों का खराब प्रबंधन भी वजह बना। जनविरोध की वजह से अंत में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
- राजपक्षे विरासत के रूप में देश के इतिहास का सबसे खराब आर्थिक संकट छोड़ गए। आलोचकों का मानना है कि वह अपने पीछे कई असफल पर्यावरणीय नीतियों को भी छोड़ गए।
- प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, कानून में संशोधन के माध्यम से जमीन हथियाने के अवसर पैदा करना, और पर्यावरण संबंधी चिंताओं को खारिज करना, इन सभी हरकतों ने देश को प्रभावित किया है, इनमें से कुछ नीतियों के स्थायी प्रभाव होने की उम्मीद है।
- श्रीलंका के आर्थिक संकट के गहराते जाने और 2.2 करोड़ की आबादी को ‘सर्वाइवल मोड’ पर आने के साथ, पर्यावरण कार्यकर्ता प्राकृतिक संसाधनों के और भी अधिक गहन दोहन की चेतावनी दे रहे हैं।
जून की शुरुआत में श्रीलंका में एक जन-आंदोलन ने वहां के शायद अब तक के सबसे अलोकप्रिय राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे को पद से हटने पर मजबूर कर दिया। इस आंदोलन का नेतृत्व करने वालों में देश के पर्यावरण कार्यकर्ता भी थे।
राजपक्षे का कार्यकाल तीन साल से कम समय तक चला। अंत में सिंगापुर से उनके भेजे गए एक त्याग पत्र के साथ उनका कार्यकाल समाप्त हुआ। राजपक्षे विरोधों का सामना करने के डर से सिंगापुर भाग गए। राजपक्षे के 2019 के चुनावी घोषणापत्र में पर्यावरण संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों के सतत उपयोग के कई वादे शामिल थे। श्रीलंका में में पहली बार “शून्य कार्बन राष्ट्रपति चुनाव अभियान” चलाने के लिए उनकी सराहना भी की गई थी। लेकिन राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के 16 दिन बाद ही उनकी ‘पर्यावरण हितैसी’ छवि तब धूमिल हो गई जब उन्होंने रेत के परिवहन के लिए परमिट की आवश्यकता को रद्द करने का आदेश जारी किया।
दक्षिण एशिया में ग्लोबल वाटर पार्टनरशिप (जीडब्ल्यूपी) की अध्यक्ष कुसुम अथुकोरला का कहना है कि इस आदेश का उद्देश्य निर्माण कार्यों में तेजी लाना था, लेकिन इस आदेश की अदूरदर्शिता पर व्यापक रूप से आलोचना हुई। क्योंकि इससे रेत खनन का रास्ता खुल गया। रेत खनन नदी के किनारों को नष्ट कर देता है और जल सुरक्षा को प्रभावित करता है। इसके कई दुष्परिणाम हो सकते हैं जिनमें खाद्य सुरक्षा संबंधी चिंताएं भी शामिल हैं। पर्यावरणविदों को राष्ट्रपति के आदेश को खारिज कराने के लिए अदालत जाना पड़ा।
श्रीलंका के एक अनुभवी पर्यावरण वकील और प्रकृतिवादी जगत गुणवर्धन कहते हैं, “रेत परिवहन परमिट को रद्द करने का निर्णय तो केवल शुरुआत थी। राजपक्षे के कार्यकाल के दौरान, राजनीतिक संरक्षण में प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित शोषण और भूमि हथियाने जैसी गतिविधियां खूब की गई। इससे कई संवेदनशील रहवासों का नुकसान हुआ।”
‘पारिस्थितिकी’ के लिए विरोध प्रदर्शन
पर्यावरण के प्रति राजपक्षे शासन के रवैये के खिलाफ पिछले साल एक जन-आंदोलन तेजी से उभरा। श्रीलंका के अग्रणी पर्यावरण समूहों में से एक, वाइल्डलाइफ एंड नेचर प्रोटेक्शन सोसाइटी के युवा विंग ने कोलंबो के पड़ोस में एक बड़ा ‘स्टॉप इकोसाइड’ भित्ति चित्र तैयार करके उसे लगाया, जिसने बहुत अधिक लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इस गतिविधि ने ‘इकोसाइड’ शब्द को लोकप्रिय बना दिया, इस शब्द का जुड़ाव राजपक्षे प्रशासन से था।
डब्ल्यूएनपीएस के तात्कालिक अध्यक्ष स्पेंसर मैनुएल पिल्लई कहते हैं, “श्रीलंका में जंगलों की कटाई के खिलाफ जागरूकता बढ़ाने के लिए ‘स्टॉप इकोसाइड‘ भित्ति चित्र तैयार किया गया था, लेकिन इसके लिए पहले से परमिशन लेने के बावजूद, पुलिस ने इसे जबरन हटा दिया।”
राजपक्षे की विरासत के सबसे खराब पक्ष के बारे में बताते हुए गुणवर्धन ने मोंगाबे को बताया, “देश के पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन करते हुए इस तरह की लूट के लिए कानून और व्यवस्था सुनिश्चित करना उनकी सबसे बड़ी विफलता थी।”
राजपक्षे के शासन का एक और स्याह पक्ष पर्यावरण संरक्षण के लिए जिम्मेदार सरकारी एजेंसियों पर उनका दबाव बनाना था। उन्होंने वन्यजीव संरक्षण के लिए राज्य मंत्री के पद पर एक प्रमुख सहयोगी, विमलवीरा डिसनायके को नियुक्त किया, और वन्यजीव संरक्षण विभाग (डीडब्ल्यूसी) को डिसनायके के नियंत्रण में स्थानांतरित कर दिया। पर्यावरणविदों का कहना है कि कई मौकों पर, डिसनायके ने अपना काम करने की कोशिश कर रहे वन्यजीव अधिकारियों का खुलकर विरोध किया।
राजपक्षे भी कथित रूप से वन्यजीवों और वन अधिकारियों पर निर्भर थे, ताकि ग्रामीणों और उनके प्रति वफादारों की सुविधा के लिए कुछ अवैध गतिविधियों, जैसे कि अतिक्रमण और जंगलों को साफ करने की अनुमति दी जा सके। कोलंबो स्थित सेंटर फॉर एनवायरनमेंटल जस्टिस (सीईजे) के एक प्रमुख पर्यावरण प्रचारक हेमंता विथानागे कहते हैं, ऊपर से आने वाले इस दबाव से अधिकारियों को कानून सम्मत काम करने में भी दिक्कत होने लगी।
वे बताते हैं, “राष्ट्रपति के मुख्य पीआर कार्यक्रम जिसे ‘गामा समागा पिलिसंदरा’ (गांव के साथ संवाद) के रूप में जाना जाता है, इस कार्यक्रम के दौरान पर्यावरण नियमों को दरकिनार करने के लिए कभी-कभी, गांव के गुंडों का इस्तेमाल किया जाता था।”
और पढ़ेंः श्रीलंका में ब्लास्ट फिशिंग से तबाह हो रहे समुद्री जीव, भारत से अवैध तरीके से लाया जा रहा विस्फोटक
ऐसे ही एक संवाद के अगले दिन, ग्रामीणों को लगा कि उन्हें स्वयं राष्ट्रपति द्वारा हरी झंडी दिखाई जाएगी लेकिन उन्होंने श्रीलंका में मोनेरागला जिले में उदावालावे राष्ट्रीय उद्यान के पास दहैयागला में एक हाथी गलियारे में इसका उलंघन किया। इसी तरह का एक उदाहरण, यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल सिंहराजा वन रिजर्व के भीतर संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र में एक सड़क परियोजना का काम व्यक्तिगत रूप से राजपक्षे के देखरेख में की गई थी।
गुणवर्धन कहते हैं कि श्रीलंका में प्राकृतिक पर्यावरण के लिए शायद सबसे दूरगामी प्रभाव वाली नीति जुलाई 2020 में आई थी। वह तब, जब सरकार ने गैर-संरक्षित जंगलों के प्रशासन, ‘अन्य राज्य वन’ (ओएसएफ) को कृषि और विकास के लिए जारी करने हेतु स्थानीय अधिकारियों को स्थानांतरित कर दिया।
इनमें से कुछ ओएसएफ क्षेत्र जैव विविधता से भरपूर आवास हैं, जिनमें वाटरशेड भी शामिल हैं। कई अन्य संरक्षित क्षेत्रों के दायरे में ही हाथियों का अभयारण्य भी आता है। इन क्षेत्रों को पर्यावरणविदों द्वारा ‘रेसीडुअल फॉरेस्ट’ के रूप में किए गए रैंक को सरकार ने खारिज कर दिया।
वैज्ञानिक सलाह की अनदेखी
राष्ट्रपति बनने के बाद अपने कार्यकाल के पहले महीनों के दौरान, गोटबाया राजपक्षे ने श्रीलंका के मुख्य पर्यावरणीय मुद्दों में से एक, मानव-हाथी संघर्ष का वैज्ञानिक समाधान तलाशने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति गठित की। समस्या का स्थायी समाधान के लिए कई श्रीलंकाई ग्रामीणों और जंगली जीवों के संरक्षण के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं की इस समिति पर उम्मीदें टिकी हुई थीं। श्रीलंका में एचईसी के कारण हर साल औसतन लगभग 300 हाथियों और 50 लोगों की मौत हो जाती है। यह किसी भी हाथी वाले देश की श्रेणी में सबसे खराब रिकॉर्ड है।
विज्ञान आधारित इस नीति का यह प्रयास भी असफल रहा। सरकार ने, विशेषज्ञों की बातों को दरकिनार करते हुए, हाथियों को पड़ोसी गावों में जाने से रोकने के लिए संरक्षित क्षेत्रों के आसपास खाई खोदने का सहारा लिया।
डीडब्ल्यूसी के पूर्व प्रमुख सुमित पिलापतिया ने मोंगाबे को बताया, “हाथियों के रोकथाम के लिए ‘टास्क-फोर्स’ में खाई के विकल्प पर चर्चा की गई थी, जिसे पूरी तरह से असफल बताया गया था और माना गया था कि यह कोई समाधान नहीं है। इस तथ्य के बावजूद की श्रीलंका के 70% हाथी संरक्षित क्षेत्रों से बाहर रहते हैं खुद राजपक्षे ने कई बार हाथियों को संरक्षित क्षेत्रों में ले जाने का सुझाव दिया। राष्ट्रपति ने एक बार फिर निर्णय लेते समय वैज्ञानिक सिफारिशों को नजरअंदाज कर दिया।”
राजपक्षे के शासन में यह भी हुआ कि श्रीलंका ने पशु अधिकार के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं की पहल को एक प्रमुख वन्यजीव अपराध के रूप में घोषित किया। पिछले राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना के प्रशासन के तहत, सरकार ने निजी मालिकों से 38 हाथियों को जब्त कर लिया था। हालांकि, 2021 में श्रीलंका के अटॉर्नी जनरल ने अनुरोध किया कि अदालतें हाथियों को संदिग्ध अपहरणकर्ताओं को वापस दे दें, जिसका अदालत ने विधिवत पालन किया। सरकार द्वारा संशोधित मौजूदा नियमों पर कार्रवाई करते हुए हाथियों को पालतू जीव की तरह रखने की ढील दे दी गई। गुणवर्धने का कहना है कि इस नियम ने इन हाथियों को उनके अनधिकृत रखवाले के लिए रिहा करने का रास्ता खोल दिया।
खुद का कुरेदा नासूर
तमाम दुर्भाग्यपूर्ण नीतियों में, जिसने राजपक्षे के राष्ट्रपति पद को संकट में डाल दिया, वह थी अप्रैल 2021 में रासायनिक उर्वरकों के आयात पर अचानक प्रतिबंध। इस फैसले से श्रीलंकाई किसान नाराज हो गए, ये किसान लंबे समय से रासायनिक उर्वरकों पर बहुत अधिक निर्भर हैं। जल्द ही, किसान पूरे देश में विरोध प्रदर्शन करने लगे, किसान पूरे द्वीप में उर्वरक के पहुंच की मांग कर रहे थे और खाद्य असुरक्षा की चेतावनी दे रहे थे।
राजपक्षे ने यह दावा करते हुए कि श्रीलंका दुनिया का पहला देश है जिसने 100% जैविक कृषि की ओर रुख किया है, अपने इस कदम को एक उपलब्धि के रूप में दिखाने की कोशिश की। लेकिन, जैसी कि आशंका थी, इस नीति ने राष्ट्रीय खाद्य संकट को जन्म दिया, 2.2 करोड़ की आबादी को खिलाने के लिए चावल का आयात करना पड़ा और सब्जी की खेती आधी हो गई।
विथेनाज का कहना है कि भले ही यह नीति अच्छे इरादों से बनाई गई हो, लेकिन यह अपरिपक्व थी और समय से पहले लागू की गई। इसे चरणबद्ध तरीके से लागू करना चाहिए था, ताकि किसानों को इससे ताल-मेल बिठाने का समय मिल सके, इसके बजाय इसे रातों-रात लागू कर दिया गया।
“देश इस महत्वपूर्ण बदलाव के लिए तैयार नहीं था। इस घोषणा से पहले जैविक खेती के लिए आवश्यक सुविधा को बढ़ावा नहीं दिया गया था। राजपक्षे इस द्वीप को दिवालियेपन की ओर ले जाने के साथ-साथ वह हमारे यहां बड़े पैमाने पर खाद्य संकट के लिए भी जिम्मेदार हैं,” वे कहते हैं।
विथानेज का कहना है कि राष्ट्रपति के साथ अपनी बातचीत के दौरान, उन्होंने महसूस किया कि राजपक्षे की द्वीप को अक्षय ऊर्जा की ओर ले जाने की मंसा थी।
यह लेख सबसे पहले Mongabay.com पर प्रकाशित हुआ था।
बैनर तस्वीरः श्रीलंका की व्यावसायिक राजधानी कोलंबो के मध्य में राष्ट्रपति कार्यालय के सामने बड़े पैमाने पर सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन। तस्वीर : दिलरुक्षी हंडुनेट्टी