- उत्तराखंड में एक भी महीना ऐसा नहीं गुजरता जब गुलदार, बाघ, हाथी या अन्य वन्यजीवों के हमले की घटना न होती हो। सभी वन्यजीवों में गुलदार के हमले की घटनाएं और गंभीरता सबसे अधिक है।
- टिहरी और पौड़ी फॉरेस्ट डिवीजन में 2015-16 में ‘लिविंग विद लेपर्ड’ प्रोग्राम शुरू किया गया था। साल 2020 में नरेंद्र नगर और 2022 में पिथौरागढ़ फॉरेस्ट डिवीजन में इस पर काम किया गया। छह वर्षों में चार फॉरेस्ट डिवीजन कवर किए गए।
- टिहरी और पिथौरागढ़ में ‘लिविंग विद लेपर्ड’ सफल कहा जा रहा है। जबकि हॉटस्पॉट के तौर पर चिन्हित पौड़ी में ये असफल रहा। अल्मोड़ा में इस पर अब तक कोई काम नहीं हुआ।
- वर्ष 2001 से 2022 तक राज्य में 76 गुलदार मानव जीवन के लिए खतरा घोषित कर मारे गए। वर्ष 2022 में कुल तीन गुलदार इसी वजह से मारे गए।
इस साल एक जनवरी को जब सभी लोग नए साल की ख़ुशियां मना रहे थे, तभी उत्तराखंड के पौड़ी के चौबट्टाखाल तहसील का पांथर गांव गुस्से में था। इस गाँव की पुष्पा देवी पर गुलदार (तेंदुआ) ने हमला कर उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया। उन्हें इलाज के लिए करीब 250 किलोमीटर दूर ऋषिकेश एम्स ले जाया गया।
पांथर गांव के प्रधान विकास पांथरी बताते हैं, “पुष्पा देवी पर गुलदार (Panthera pardus) के हमले से नाराज लोगों ने 3 जनवरी को तहसील मुख्यालय पर प्रदर्शन किया। हमारे यहां पिछले चार-पांच सालों से गुलदार के हमले बढ़ गए हैं। हम वन विभाग से पिंजड़ा लगाकर उसे पकड़ने और गश्त की मांग करते रहे हैं। लेकिन हर बार कर्मचारियों की कमी का हवाला दिया जाता है।”
वहीं 9 जनवरी को चौबट्टाखाल में “गुलदार भगाओ, पहाड़ बचाओ” नुक्कड़ नाटक मंचित किया गया। चौबट्टाखाल तहसील के मझगांव के किसान सुधीर सुंद्रियाल कहते हैं, “गुलदार की दहशत खत्म करने में वन विभाग नाकाम रहा है। हालात नहीं सुधरे तो ग्रामीण पौड़ी से राजधानी देहरादून तक पदयात्रा करेंगे।”
इससे पहले अल्मोड़ा में दो महिलाओं को दौड़ाते हुए गुलदार का वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ।
11 सालों से चल रही मानव-वन्यजीव संघर्ष कम करने की कोशिश
मानव-वन्यजीव संघर्ष कम करने के लिए उत्तराखंड वन विभाग ने वर्ष 2011 से दो गैर-सरकारी संस्था तितली ट्रस्ट और वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी– इंडिया (डब्ल्यूसीएस-इंडिया) के सहयोग से काम शुरू किया।
राज्य के वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2000 से 2010 के बीच गुलदार के हमले में राज्य में 244 लोगों ने जान गंवाई। साल 2011 से 2021 के बीच 234 लोग मारे गए। साल 2022 में कम से कम 20 लोगों की मौत हुई।
साल 2021-22 में आई तितली ट्रस्ट की एक रिपोर्ट में लिखा गया, “उत्तराखंड में एक भी महीना ऐसा नहीं गुजरता जब गुलदार, बाघ, हाथी या अन्य वन्यजीव के हमले की घटना न होती हो। सभी वन्यजीवों में गुलदार के हमले की घटनाएं और गंभीरता सबसे अधिक है।”
इस संस्था ने 2011 से 2014 तक राज्य में संघर्ष का अध्ययन, ट्रेंड और हॉटस्पॉट की मैपिंग की। पौड़ी गढ़वाल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, टिहरी और नरेंद्र नगर फॉरेस्ट डिवीजन गुलदार हमलों के हॉटस्पॉट के तौर पर चिन्हित किए गए। इनमें पौड़ी और अल्मोड़ा अब भी हॉटस्पॉट बने हुए हैं।
‘लिविंग विद लेपर्ड’ योजना
तितली ट्रस्ट के संस्थापक संजय सोढी बताते हैं कि महाराष्ट्र वन विभाग ने संजय गांधी नेशनल पार्क में गुलदार-मानव संघर्ष को काबू में करने के लिए ‘लिविंग विद लेपर्ड’ योजना के साथ सफलता हासिल की। इससे प्रेरित होकर उत्तराखंड में भी इसे शुरू किया गया। साल 2015 में वन विभाग के अधिकारियों, संस्था और पहाड़ों के अलग-अलग समुदायों के लोगों का एक अध्ययन दल इसके लिए महाराष्ट्र गया। ‘लिविंग विद लेपर्ड’ को स्थानीय भाषा में “गुलदार की दगड़िया” नाम दिया गया।
साल 2015-16 में टिहरी और पौड़ी फॉरेस्ट डिवीजन में इस प्रोग्राम पर काम शुरू किया गया। साल 2020 में नरेंद्र नगर और 2022 में पिथौरागढ़ फॉरेस्ट डिवीजन में इस पर काम किया गया। छह सालों में चार फॉरेस्ट डिवीजन कवर किए गए।
संजय सोढी कहते हैं, “उत्तराखंड में संघर्ष की स्थिति में पारंपरिक तौर पर गुलदार को पकड़ना, रिलोकेट यानी एक जगह से पकड़कर दूसरी जगह छोड़ना या इंसानी जीवन के लिए खतरा घोषित कर मारा जाता था। महाराष्ट्र के उदाहरण से हमने पाया कि ये तरीके संघर्ष बढ़ा रहे थे।”
सोढी आगे कहते हैं, “लिविंग विद लेपर्ड में गांव स्तर पर प्राइमरी रिस्पॉन्स टीम बनाई गई। जो क्षेत्र में गुलदार के दिखने या हमले की सूचना देती है। वन विभाग के अधिकारियों, कर्मचारियों, वेटनरी डॉक्टर, फॉरेस्ट गार्ड को लेकर रैपिड रेस्पॉन्स टीम बनाई गई। इस टीम को जरूरी उपकरणों के साथ प्रशिक्षित किया गया। साथ ही लोगों को झाड़ियों की सफाई, घर के बाहर रोशनी रखने, समूह में आने-जाने जैसे कामों के लिए जागरूक किया गया।”
वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक टिहरी में 2006-09 के बीच गुलदार के हमले की 37 घटनाएं हुईं थी। साल 2010-13 के बीच भी ये आंकड़ा इतना ही रहा। वहीं 2014-16 के बीच ये आंकड़ा 31 रहा जबकि 2017-20 के बीच घटकर नौ पर आ गया। इस हिसाब से अगर टिहरी में देखें तो ये योजना सफल हो रही है।
अगर पौड़ी की बात करें तो 2006-09 के बीच गुलदार के हमले की 63 घटनाएं हुईं। साल 2010-13 के बीच थोड़ी घटकर 56 पर आ गई। लेकिन 2014-16 के बीच फिर बढ़कर 102 हो गई। जबकि 2017-20 के बीच 30 घटनाएं हुईं।
लेकिन संजय सोढी मानते हैं कि पौड़ी में ये कार्यक्रम सफल नहीं रहा। “पौड़ी और अल्मोड़ा में गुलदार के हमले इतने अधिक क्यों है, हमें नहीं पता। वहां अब भी हमले की स्थिति में गुलदार को पकड़ने, रिलोकेट और मारने का पारंपरिक तरीका अपनाया जा रहा है। विभाग और लोगों का व्यवहार बदलने से जुड़ी मुश्किल भी है। पिथौरागढ़ में हम सफल रहे। वहां पिछले साल गुलदार के हमले में एक भी मौत नहीं हुई। नरेंद्र नगर में काम करते हुए सिर्फ दो साल हुए हैं इसलिए कुछ कहना जल्दबाजी होगी।”
उत्तराखंड वन विभाग द्वारा मोंगाबे हिंदी को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2001 से 2022 तक राज्य में 76 गुलदार मानव जीवन के लिए खतरा घोषित कर मारे गए। वर्ष 2022 में तीन गुलदार मारे गए। पौड़ी गढ़वाल में एक, टिहरी में एक और नरेंद्र नगर डिविज़न में एक।
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राज्य में इन प्रयासों के बाद भी स्थिति में कोई सुधार क्यों नहीं हुआ है, इस बारे में डब्ल्यूसीएस-इंडिया की वैज्ञानिक डॉ विद्या आत्रेय कहती हैं कि कई बार वन विभाग लोगों की मदद करने में बहुत रुचि नहीं लेता। जहां भी विभाग और लोगों के बीच अच्छे संबंध हैं, वहां समाधान आसान है।
मौजूदा मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक डॉ समीर सिन्हा कहते हैं, “मानव-वन्यजीव संघर्ष कम करने के लिए हम संघर्ष की परिस्थितियों, हॉटस्पॉट और डेटा के विश्लेषण के लिए एक सेल तैयार कर रहे हैं। जो हमें जरूरी तकनीकी सलाह देगा। राज्य वन्यजीव बोर्ड से मंजूरी मिलने के बाद यह प्रस्ताव केंद्रीय वन्यजीव बोर्ड के पास लंबित है।”
संसाधनों की कमी से विफल होती योजनाएं
गुलदार, हाथी और बाघ जैसे वन्यजीवों से संघर्ष को कम करने के लिए राज्य में मानव-वन्यजीव संघर्ष रोकथाम योजना चलाई जा रही है। ‘लिविंग विद लेपर्ड’ कार्यक्रम पर इसी के तहत कार्य किया गया। इसमें सोलर फेन्सिंग, एलिफेंट प्रूफ ट्रेंच, वन्यजीव रोधी दीवार, जल संरक्षण, लैंटाना जैसी जंगली झाड़ियों का उन्मूलन, सोलर लाइट लगाने जैसे कार्य कराए जाते हैं।
हालांकि, इन सभी कामों में भी वन विभाग में संसाधनों और मानव संसाधन की कमी के साथ साथ उदासीनता दिखाई देती है।
हरिद्वार के श्यामपुर रेंज में राजाजी नेशनल पार्क की सीमा पर आबादी से लगे कुछ हिस्सों में 2021 कुंभ के दौरान सोलर फेन्सिंग की गई। करीब 18 किलोमीटर लंबी ये फेन्सिंग ज्यादातर जगहों पर टूटी और खराब मिली। फेन्सिंग के बीच जंगल में प्रवेश के लिए रास्ता भी छोड़ा गया।
श्यामपुर रेंज से लगते सजनपुर पीली गांव के किसान शंकर सिंह कहते हैं “हमारे गांव में हाथी, गुलदार, नीलगाय, बंदर, सूअर (जंगली) सब आते हैं। हमारी फसल और पशु को नुकसान पहुंचाते हैं। वन विभाग ने फेन्सिंग तो की लेकिन इनकी देखरेख नहीं की। चार पांच महीने तक ये तारें चलीं। इनमें करंट कम होता है इसलिए जानवर इन्हें आसानी से तोड़ देता है। यही तार वन विभाग हमारे गांवों की सीमा पर लगा देता तो गांव वाले इसकी रक्षा करते।”
पौड़ी के चौबट्टाखाल क्षेत्र के दमदेवल रेंज की रेंजर शुचि चौहान बताती हैं, “हमारे यहां रैपिड रिस्पॉन्स टीम बनाई गई है, जिसमें यहां के कर्मचारी ही शामिल हैं। लेकिन कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए हेलमेट या अन्य जरूरी उपकरण नहीं हैं। स्टाफ की कमी है। वन्यजीव का हमला होने पर एक फॉरेस्ट गार्ड एक लाठी के सहारे शाम के समय गश्त करता है। उसे जंगल में आग पर नियंत्रण, वन्यजीव और वन संरक्षण जैसे काम भी करने होते हैं”।
शुचि बताती हैं कि दमदेवल फॉरेस्ट रेंज में नौ बीट हैं। एक बीट में 500 से 2000 हेक्टेयर तक का वनक्षेत्र है। करीब 1000 हेक्टेयर वाले चौबट्टाखाल क्षेत्र की बीट में 100 से ज्यादा गांव हैं। जिसकी ज़िम्मेदारी महज एक फॉरेस्ट गार्ड पर है। वह कहती हैं कि गुलदार से बचाव के लिए जरूरी लैंटाना जैसी जंगली झाड़ियों की सफ़ाई के लिए डेढ़ साल से कोई बजट नहीं मिला है।
उत्तराखंड में कितनी कारगर रही योजनाएं?
उत्तराखंड वन विभाग द्वारा मोंगाबे हिंदी को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक मानव-वन्यजीव संघर्ष रोकथाम योजना के तहत 2018-19 से वर्ष 2022-23 तक 23.74 करोड़ रुपए बजट दिया जा चुका है।
इसी अंतराल में मुआवजे पर 35.26 करोड़ रुपए, वन्यजीवों से खेती की सुरक्षा के लिए 10.37 करोड़ और बंदरों से बचाव के लिए 10 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं।
प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (CAMPA) की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2019-20 में राज्य में मानव-वन्यजीव संघर्ष से निपटने के लिए हाथियों की रेडिओ कॉलरिंग, सोलर फेन्सिंग, पेट्रोलिंग और जागरूकता को लेकर 2.5 करोड़ रुपए दिए गये।
वन्यजीव प्रतिपालक डॉ समीर सिन्हा बताते हैं इनके अलावा भी कैंपा, जल संरक्षण से जुड़े कार्यों समेत अन्य मद में बजट दिया जाता है।
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बीस वर्षों में करोड़ों रुपए खर्च करने और ‘लिविंग विद लेपर्ड’ जैसे प्रोग्राम के बावजूद संघर्ष कम न होने के बारे में बात करते हुए, उत्तराखंड सरकार के अपर सचिव वन एवं पर्यावरण धर्म सिंह मीणा कहते हैं, “मानव-वन्यजीव संघर्ष रोकने के लिए ज्यादातर सतही काम किए गए। इन योजनाओं का ठीक-ठीक क्या असर रहा, इसका कोई अध्ययन नहीं किया गया। हमारे पास इससे जुड़ी कोई रिसर्च या डाटा उपलब्ध नहीं है ताकि इन योजनाओं के असर का आकलन किया जा सके।”
डॉ अनिल के सिंह कहते हैं कि मानव-वन्यजीव संघर्ष वन्यजीवों के संरक्षण से जुड़ा बेहद संजीदा मुद्दा है। गुलदार के हैबिटेट का कम होना (एक से दूसरे जंगल में आवाजाही के रास्ते का बाधित होना), उनके शिकार (हिरण, सांभर जैसे वन्यजीव) की आबादी में गिरावट, मानवीय बस्तियों का विस्तार, जंगल के इर्द गिर्द मानवीय गतिविधियों का बढ़ना और जागरूकता की कमी जैसी वजहों से संघर्ष में इजाफा हुआ है।
वहीं, संजय सोढी सोशल सर्वे रिपोर्ट-2021- 22 का हवाला देते हैं। जिसमें बढ़ते संघर्ष की मुख्य वजहों में- जंगल में गुलदार के लिए भोजन की कमी, जंगल के किनारे सड़क, घर, बढ़ती मानवीय बस्तियां और निर्माण कार्य, लैंटाना जैसी जंगली झाड़ियों का बढ़ता क्षेत्र और गांवों में घटती आबादी जैसी बातें सामने आईं। सोढी कहते हैं कि हम गुलदार के व्यवहार को नहीं बदल सकते लेकिन लोग अपने व्यवहार को बदल सकते हैं।
बैनर तस्वीरः हरिद्वार के श्यामपुर रेंज में राजाजी नेशनल पार्क की सीमा पर लगा वॉच टॉवर। तस्वीर- वर्षा सिंह(बाएं)। गुलदार की प्रतीकात्मक तस्वीर। तस्वीर– उदय किरण/विकिमीडिया कॉमन्स (दाएं)