- महाराष्ट्र और तमिलनाडु राज्यों में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, भारत के प्रस्तावित ‘नेशनल सेंट्रलाइज्ड पॉवर मार्केट’ में विद्युत वितरण कंपनियों के लिए रोजाना 1.5 से 4 करोड़ रुपये तक की लागत बचाने की क्षमता है।
- ऊर्जा मंत्रालय ने 2021 की शुरुआत में मार्केट बेस्ड इकोनॉमिक डिस्पैच (एमबीईडी) नामक इस केंद्रीकृत विद्युत बाजार की अवधारणा का प्रस्ताव रखा था और इसे चरणबद्ध तरीके से लागू करने की योजना बनाई थी। लेकिन इसे अभी तक शुरू नहीं किया गया है।
- विशेषज्ञों ने दावा किया कि नया मॉडल नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादकों के लिए बचत और अधिक लाभ की ओर इशारा कर रहा है। लेकिन इसके सामने कई चुनौतियां हैं जो इस बदलाव में बाधा साबित हो सकती हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा थिंक टैंक आरएमआई ने हाल ही में अपने एक अध्ययन में महाराष्ट्र और तमिलनाडु में प्रस्तावित ‘सेंट्रलाइज्ड पॉवर मार्केट’ की क्षमता का विश्लेषण किया। उन्हें वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के लिए वित्तीय बचत की काफी संभावनाएं नजर आईं।
मार्केट बेस्ड इकोनॉमिक डिस्पैच (एमबीईडी) नामक केंद्रीकृत विद्युत बाजार की यह अवधारणा पूरे देश के लिए एक इलेक्ट्रिसिटी ट्रेडिंग मार्केट की बात कहती है। इस प्रस्ताव के मुताबिक, इसमें भाग लेने वाले सभी बिजली उत्पादक एक ही बाजार के तहत अपनी बिजली इकट्ठी कर पाएंगे। मौजूदा समय में भारत एक विकेन्द्रीकृत विद्युत बाजार के तहत काम करता है जिसमें बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के पास चुनिंदा ऊर्जा उत्पादकों के साथ दीर्घकालिक बिजली खरीद समझौते (पीपीए) होते हैं, जिनसे वे अपनी बिजली की अधिकांश जरूरतों की एक निश्चित मूल्य पर खरीदी करते हैं।
अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक, डिस्कॉम की आर्थिक हालत ठीक नहीं है। उस पर सामूहिक रूप से 1000 अरब रुपये (12.3 बिलियन डॉलर) का कर्ज है। इसकी वजह से ऊर्जा उत्पादक भुगतान में देरी, ग्रिड के बुनियादी ढांचे में अपर्याप्त निवेश और प्रभावी संचालन के लिए संसाधनों की कमी जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। अध्ययन रिपोर्ट में आगे कहा गया, “यह नवीनीकरण ऊर्जा उत्पादकों के सामने आने वाले वित्तीय जोखिम की वजह बन रहा है। भारत में बिजली की बढ़ती मांग और एनडीसी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आर्थिक रूप से मजबूत वितरण क्षेत्र और नवीकरणीय ऊर्जा का विकास महत्वपूर्ण हैं।”
एमबीईडी मैकेनिज्म के जरिए डिस्कॉम के पास वितरण के लिए बिजली उत्पादकों का एक बड़ा पूल होगा, जिसका उसे फायदा मिलेगा। क्योंकि प्रतिस्पर्धा के कारण इसकी कीमत कम होने की संभावना है। एमबीईडी मैकेनिज्म डे-अहेड-मार्केट (डीएएम) विधि का इस्तेमाल करता है। इसमें उपभोक्ताओं के लिए डिस्कॉम की ओर से विद्युत शेड्यूलिंग से एक दिन पहले, जनरेटर और डिस्कॉम नीलामियों और बोली के जरिए बिजली का व्यापार करते हैं।
दो राज्यों की बिजली व्यवस्था का अध्ययन
एमबीईडी के जरिए बचत के अपने विश्लेषण में, आरएमआई ने डिस्कॉम के लिए लागत बचत की संभावना उस समय जताई, जब एमबीईडी के तहत बिजली उत्पादन की अधिशेष क्षमता का पुन: आवंटन किया जाता है।
इस दौरान परिवर्तनीय और निश्चित लागतों पर दैनिक जनरेटर-स्तर के डेटा पर विचार किया गया था। 15 जुलाई से 15 अगस्त के बीच उत्पादन की क्षमता और वास्तविक उत्पादन को साल 2022 का पीक डिमांड सीजन माना गया। वहीं 15 दिसंबर से 15 जनवरी को ऑफ-पीक डिमांड सीजन माना गया। इन पीक और ऑफ-पीक मामलों में, जब वास्तविक उत्पादन किया गया था, तो दोनों राज्यों की संयुक्त परिवर्तनीय लागत भी निर्धारित की गई थी।
रोजाना होने वाली बचत का पता लगाते हुए शोधकर्ताओं ने संबंधित स्थितियों और लागत व पूल किए गए मामले के तहत कीमत में अंतर पाया। रिपोर्ट में कहा गया, “अनुभवजन्य विश्लेषण में पीक और ऑफ-पीक डिमांड सीज़न का प्रतिनिधित्व करने वाली दो वास्तविक समय अवधि में लागत, घोषित क्षमता और प्लांट्स के लिए वास्तविक उत्पादन के जनरेटर-स्तरीय डेटा का इस्तेमाल किया गया है। हमारे विश्लेषण से पीक और ऑफ-पीक सीज़न में प्रतिदिन 1.5 से 4 करोड़ (184,000 से 491,000 डॉलर) की संभावित बचत या क्रमशः 2.8% से 7.0% वार्षिक बचत का पता चलता है।”
हालांकि सरकार ने कुछ पायलट परियोजनाएं चलाईं हैं और 1 अप्रैल, 2022 से एमबीईडी को चरणबद्ध तरीके से लागू करने की योजना भी है, लेकिन कुछ तार्किक और अन्य चुनौतियां हैं, जो इसे शुरू होने से रोक रही हैं।
आरएमआई इंडिया के प्रिंसिपल (पावर सेक्टर) जगबंता निंगथौजम ने कहा, “विकसित अर्थव्यवस्था में भी मार्केट ट्रांजिशन इतना आसान नहीं होता है। यह एक धीरे-धीरे आगे बढ़ाया जाने वाला कदम है। इसमें समय लगता है और उचित विचार-विमर्श के बाद ही इस पर आगे बढ़ा जा सकता है। यहां तक कि उन्नत देशों में भी जहां इसे आजमाया जा चुका है, उन्हें भी इस बदलाव में काफी समय लगा था। भारतीय पावर सेक्टर में लेगेसी भी एक बड़ा मसला है। अलग-अलग राज्यों और डिस्कॉम की अलग-अलग स्थितियां हैं। कुछ नकदी की तंगी से जूझ रहे हैं और संघर्ष कर रहे हैं। दूसरे देशों की तरह सफल मार्केट ट्रांजिशन मॉडल को हूबहू अपनाना यहां तर्कसंगत नहीं है क्योंकि भौगोलिक स्थितियां और चुनौतियां अलग हैं। यह एक प्रेरणा हो सकती है, लेकिन मार्केट ट्रांजिशन के लिए भारत को खास समाधान के साथ आगे आने की जरूरत है।”
एमबीईडी के फायदे और चुनौतियां
केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (सीईआरसी) ने 2018 की शुरुआत में एमबीईडी के मुद्दे पर एक चर्चा पत्र जारी किया था और विभिन्न हितधारकों से विचार मांगे थे। साल 2021 में बिजली मंत्रालय ने एक बार फिर से एमबीईडी मार्केट को लागू करने के लिए फ्रेमवर्क जारी किया और नए राष्ट्रीय स्तर के थोक बिजली बाजार को चरणबद्ध तरीके से शुरू करने की वकालत की। पहले चरण में पहले चयनित ताप विद्युत संयंत्रों को कवर करना था। यह 1 अप्रैल, 2022 को शुरू होने वाला था।
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बिजली मंत्रालय के एक बयान में कहा गया था, “एमबीईडी को आम सहमति और चरणबद्ध तरीके से लागू किए जाने की जरूरत है। इससे प्रतिभागियों, बिजली एक्सचेंजों और लोड डिस्पैच केंद्रों को धीरे-धीरे नई व्यवस्था के अनुकूल बनने में मदद मिलेगी… विद्युत मंत्रालय ने चरणबद्ध दृष्टिकोण और अंतरराज्यीय जेनेरेटिंग स्टेशनों की अनिवार्य भागीदारी के साथ एमबीईडी के चरण 1 को लागू करने की प्रक्रिया पर सभी प्रमुख हितधारकों के बीच पर्याप्त एकजुटता देखी है। दूसरे उत्पादन संयंत्र भी चरण 1 में स्वेच्छा से भाग ले सकते हैं।”
आरएमआई की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि डिस्कॉम के लंबे समय के लिए किए गए पीपीए (पावर परचेज एग्रीमेंट) उन्हें नवीकरणीय ऊर्जा की घटती उत्पादन लागत का पूरा लाभ उठाने से रोकते हैं। ये अनुबंध लगभग 25 वर्षों के लिए है, ये कम लागत वाली बिजली खरीदने से डिस्कॉम को रोकते हैं और उनकी वित्तीय व्यवहार्यता को प्रभावित कर सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें अक्सर कम से कम उपयोग में आने वाले अकुशल संयंत्र क्षमता के न्यूनतम उपयोग के लिए उच्च निश्चित शुल्क भुगतान के लिए मजबूर किया जाता है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अकुशल बिजली खरीद आमतौर पर राष्ट्रीय औसत बिजली खरीद लागत को बढ़ाती है, जो 2015-16 और 2021-22 के बीच 13 प्रतिशत बढ़ गई है।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कई नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादक भी वित्तीय जोखिम में हैं क्योंकि अपर्याप्त ग्रिड उपलब्धता और अन्य तकनीकी कारणों से अक्सर उनकी ऊर्जा सीमित हो जाती है। एमबीईडी बाजार के तहत इन उत्पादकों को अपनी ऊर्जा बेचने का अधिक अवसर मिलेगा।
अन्य विशेषज्ञों ने दावा किया कि नई बाजार व्यवस्था को लागू करना भी डिस्कॉम के लिए चुनौतियों से भरा हुआ है। पुणे के प्रयास ग्रुप के एन. जोसे ने कहा कि इस तरह की प्रणाली के खास प्रभावों का असर डिस्कॉम पर भी पड़ सकता है। भारत में कई डिस्कॉम आर्थिक रूप से कमजोर हैं और कई तरह की परेशानियां झेल रहे हैं।
जोसे ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “एमबीईडी को अनिवार्य बनाए जाने के प्रस्ताव के साथ कई जोखिम जुड़े हैं। अग्रिम भुगतान की आवश्यकता से डिस्कॉम पर आर्थिक दबाव पड़ेगा। प्राइस डिस्कवरी में ट्रांसमिशन चार्ज बेहिसाब हैं, डिस्कॉम के पास इतनी बचत नहीं होगी। प्रस्तावित मैकेनिज्म यह मान कर चल रहा है कि डिस्कॉम कुशल व्यापारी हैं और इसके मामले में ऐसा कुछ नहीं होने वाला है। इस योजना के शुरू होने से पहले बचत, जोखिम का आकलन करने के लिए पायलट स्टडी की जरूरत है।”
रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि एमबीईडी मार्केट की सफलता के लिए जरूरी है कि सरकार पहले विभिन्न हितधारकों की संरचनाओं और जिम्मेदारियों पर विवरण देते हुए एक मजबूत ट्रांजीशन प्लान का प्रस्ताव रखे। सरकार को चाहिए कि वह होलसेल इलेक्ट्रिसिटी मार्केट के संचालन का आकलन करने के लिए एक सार्वजनिक डेटा पोर्टल बनाएं, ट्रांसमिशन प्लानिंग को अपडेट करें। इसके अलावा एमबीईडी मैकेनिज्म के जरिए लाभ बढ़ाने के लिए कॉम्प्लिमेंट्री होलसेल मार्केट के लिए एक रोडमैप तैयार करे और उसे विकसित करे।
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बैनर तस्वीर: चेन्नई सिटीस्केप। तस्वीर– वीटीटीएन/विकिमीडिया कॉमन्स