- राजस्थान में उदयपुर जिले का बिछड़ी गांव 35 साल से पानी की विकराल कमी से जूझ रहा है। उर्वरक और एसिड बनाने वाले कारखानों से होने वाले प्रदूषण के चलते गांव का ये हाल हुआ है।
- गांव वालों का दावा है कि प्रदूषण ने ना सिर्फ पीने के पानी की कमी हुई है, बल्कि इससे उपज और मवेशियों की उत्पादकता पर असर पड़ा है।
- साल 1996 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों ने कामकाज पूरी तरह से बंद कर दिया। लेकिन ग्रामीणों का दावा है कि आदेश को असरदार तरीके से लागू नहीं किया गया है। गांव आज तक मुआवजे और साफ पानी का इंतजार कर रहा है।
बिछड़ी गांव की सड़कों पर चहलकदमी करते हुए आपको ज्यादातर घरों के बाहर रखे या खिड़कियों पर लटके हुए सभी आकार के पानी के कंटेनर दिखाई देंगे। ऐसा ही एक घर गांव में रहने वाली 50 साल की आदिवासी महिला लहरी देवी का है। उनका घर आधा बना हुआ है। टिन के शेड से ढका हुआ है। लहरी देवी का घर राजस्थान के इस गांव में प्रवेश करने वाली मुख्य सड़क के किनारे है। वह अपने आंगन में पानी से कंटेनरों की सार-संभाल करते हुए कहती हैं, “हम हमेशा पानी की तलाश में रहते हैं।”
स्कूल से लौटे 16 साल के अपने पोते की तरफ इशारा करते हुए वह कहती हैं, “उसे यह अच्छे से पता है।” “अगर टैंकर यहां रुकता है तो वह पानी भरने के लिए दौड़ पड़ता है।” लहरी देवी कहती हैं, बिछड़ी में ज्यादातर लोग अपना सबसे ज्यादा समय पानी भरने और लाने में बिताते हैं।
बिछड़ी गांव की वही पुरानी कहानी सुनाते-सुनाते लहरी देवी थक गई हैं। आज भी उन्हें इस समस्या की शुरुआत की कहानी अच्छी तरह याद है। तब वह एक दुल्हन बनकर गांव में आई ही थी। “जब मेरी शादी हुई और मैं इस गांव में आई, तो लोग कई तरह की फसलें उगा सकते थे। लेकिन फिर कारखाना शुरू हुआ और सब कुछ अचानक बंद हो गया।”
लहरी देवी साल 1987 की बात कर रही हैं। तब गांव के पास की पहाड़ियों पर एक उद्योगपति ओ. पी. अग्रवाल ने पांच रासायनिक कारखाने लगाए थे। कारखाने में अलग-अलग तरह के रसायन बनते थे। खास तौर पर उर्वरक। लेकिन कुछ कारखानों में ओलियम और एच-एसिड जैसे एसिड भी बनते थे। एच-एसिड बनाने से लौह-आधारित और जिप्सम-आधारित जहरीला कीचड़ निकलता है। एच-एसिड बनाने से पैदा होने वाला पानी अम्लीय होता है और इसमें प्रदूषकों के साथ-साथ घुलनशील ठोस पदार्थों की मात्रा बहुत ज्यादा होती है।
कारखाने से अम्लीय, गहरे भूरे रंग के जहरीले पानी को एक खुले नाले में छोड़ा जाता था, जो बिछड़ी से होकर उदयसागर नहर में गिरता था।
इस जहरीले पानी का एक बड़ा हिस्सा बिना लाइन वाले गड्ढों के जरिए जमीन में चला गया। इससे जमीन के नीचे का पानी दूषित हो गया और उसका रंग गहरा हो गया।
चुन्नी लाल एक किसान और हिंदुस्तान एग्रो लिमिटेड के पूर्व कर्मचारी हैं। यह हानिकारक रसायन छोड़ने वाली फैक्टरियों में से एक थी। वह कहते हैं, “यह पानी ज़मीन पर छोड़ा जा रहा था। उन्होंने कोई ट्रीटमेंट प्लांट नहीं लगाया था। मैंने इसे खुद देखा है। वे गंदे पानी को खुले खेतों में या गहरे गड्ढे खोदकर सीधे जमीन में डाल रहे थे।”
पांच में से दो कारखानों ज्योति केमिकल्स और सिल्वर केमिकल्स में एच-एसिड बनता था। दोनों कारखाने बंद होने से पहले लगभग एक साल से चल रहे थें। इनसे लगभग 8250 क्यूबिक मीटर जहरीला पानी और अन्य प्रदूषकों के साथ 2400-2500 मीट्रिक टन से अधिक बहुत ज्यादा जहरीला कीचड़ पैदा होता था।
खेती पर असर
गांव में पानी का टैंकर आने की आवाज़ से ही पूरी सड़क पर अफरा-तफरी मच जाती है. “वे टैंकर भेजते हैं, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। हम इसके साथ सब काम कैसे करते हैं?” पानी के टैंकर के बारे में लहरी देवी कहती हैं कि पड़ोसी हिंदुस्तान जिंक, कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) पहल के रूप में भेजता है। हिंदुस्तान जिंक का नाम सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही में भी आया है। मोंगाबे इंडिया ने टिप्पणी के लिए ईमेल के जरिए हिंदुस्तान जिंक से संपर्क किया और खबर लिखे जाने तक कंपनी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।
ऐसा भी नहीं है कि बिछड़ी का मामला सिर्फ पीने के पानी की कमी तक ही सीमित है। सालों से जहरीले कीचड़ और जमीन के नीचे पानी में घुलने वाले गंदे पानी ने मिट्टी को प्रदूषित कर दिया है। इससे उपज पर गंभीर असर पड़ रहा है।
लेहरी देवी अपने खेत की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, “इस खेत में इतना गेहूं होता था कि जूट के 20 बोरे भर जाते थे। लेकिन अब उपज घटकर महज पांच बोरे पर रह गई है। इस दो बीघे (1.25 एकड़) के खेत में सिर्फ़ पांच बोरे ही गेहूं हैं।” वह पूछती है, “[मेरे परिवार में] नौ लोग और चार मवेशी हैं। हम क्या खाएंगे? क्या हम गेहूं खरीदेंगे?”
बिछड़ी गांव कभी गन्ने और गेहूं की खेती के लिए मशहूर था। लेकिन अब यहां की जमीन शायद ही कुछ उपज देती है। ऐसा वहां के किसानों का कहना है। चुन्नी लाल कहते हैं, “अब हम गन्ना नहीं उगा सकते। कभी-कभी गेहूं की फसल अचानक बढ़ना बंद कर देती है, जिसके चलते पैदावार घटकर शून्य पर आ जाती है।” वह इसकी वजह कारखानों से होने वाले प्रदूषण को मानते हैं। मिट्टी दूषित होने और खेती पर असर पड़ने के चलते, कुछ लोग अपनी बंजर भूमि छोड़कर गांव से पलायन कर गए हैं।
20 सालों से ज्यादा समय से रसायनों और कचरे से संबंधित मुद्दों पर काम कर रहे गैर सरकारी संगठन, टॉक्सिक्स लिंक के शोधकर्ता ओंकार गांवकर कहते हैं, “संभावित विषाक्त पदार्थ आयरन और कैल्शियम ऑक्साइड (बहुत ज्यादा मात्रा में) हो सकते हैं. क्योंकि एच-एसिड बनाने के दौरान आयरन कीचड़ और जिप्सम का उत्पादन होता है। वह बताते हैं कि अगर मिट्टी में ज्यादा नमक (एच-एसिड बनाने के दौरान उत्पन्न) है, तो मिट्टी की लवणता बदल जाएगी, जिसका सीधा असर उपज पर पड़ेगा।
खेती पर असर के साथ-साथ कुछ स्थानीय निवासियों को संदेह है कि दूषित पर्यावरण का असर मवेशियों पर भी पड़ रहा है। इससे दूध के उत्पान पर भी असर पड़ रहा है।
मवेशियों के स्थानीय चिकित्सक दूधाराम उनके संदेह को सही ठहराते हुए कहते हैं, “बिछड़ी में, अगर आप एक साल के भीतर बाहर से गाय या भैंस लाते हैं, तो उससे मिलने वाला दूध लगभग आधा हो जाती है।” हालांकि, उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि मवेशियों पर प्रदूषण के प्रभाव के बारे में किसी भी नतीजे पर पहुंचने से पहले ज्यादा गहन अध्ययन किया जाना चाहिए।
इंसाफ का इंतजार
ज्योति केमिकल्स ने अप्रैल 1987 और सिल्वर केमिकल्स ने फरवरी 1988 से एच-एसिड बनाना शुरू किया था। स्थानीय लोगों ने जुलाई और अगस्त 1988 से पानी की गुणवत्ता में बदलाव देखा। उन्होंने विरोध-प्रदर्शन शुरू किया और अलग-अलग राजनीतिक दलों के नेताओं और तत्कालीन उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम) को लिखा। इसके बाद जांच शुरू हुई। सितंबर 1988 में, एसडीएम गिर्वा उदयपुर ने धारा 133 के तहत कार्रवाई शुरू की और मार्च 1989 में दोनों कारखानों ज्योति केमिकल्स और सिल्वर केमिकल्स में कामकाज बंद करा दिया गया। उसी महीने, मन्नाराम डांगी नाम के एक वकील और कार्यकर्ता ने सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) अदालत में ओपी अग्रवाल के खिलाफ एक हलफनामा दायर किया। बाद में, अगस्त 1989 में, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की।
इसके बाद शुरू हुई अदालती लड़ाई शुरू 1996 तक जारी रही। इसी साल शीर्ष अदालत ने अपना पहला फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने एच-एसिड बनाने वाले दो कारखानों ज्योति केमिकल्स और सिल्वर केमिकल्स सहित सभी पांच कारखानों को बंद करने का आदेश दिया। जो कई महीने चलने के बाद 1989 में पहले ही बंद हो चुके थे।
फैसले में में कहा गया कि “दुष्ट उद्योगों” ने अपने निजी फायदे के लिए गांव वालों को बहुत ज्यादा दुख पहुंचाया है। उनकी जमीन, पानी के स्रोतों और पर्यावरण पर असर डाला है।
साल 1989 में बंद होने के 35 साल बाद भी इन कारखानों के निशान आज भी दिख रहे हैं।
प्रदूषण करने वालों पर पहली बार भुगतान सिद्धांत हुआ लागू
बिछड़ी मामले को इंडियन काउंसिल ऑफ एनवायरो-लीगल एक्शन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 1996 के रूप में भी जाना जाता है। न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी ने घोषणा की कि पारिस्थितिकी के कारण होने वाले असंतुलन को उलटना औद्योगिक प्रक्रिया का हिस्सा है। इस प्रकार, प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण की वित्तीय जिम्मेदारी उस उद्योग पर होनी चाहिए जिसने प्रदूषण फैलाया है। बिछड़ी मामले में अदालत का फैसला अग्रणी मामला बन गया जहां ‘प्रदूषक भुगतान सिद्धांत‘लागू किया गया। इसके मुताबिक प्रदूषण करने वाला पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदायी है और क्षति के लिए भुगतान करने की ज़रूरत है। इस सिद्धांत को पहली बार परिभाषित किया गया और फिर लागू किया गया था।
इस ‘प्रदूषक भुगतान सिद्धांत‘ और पूरे दायित्व के सिद्धांत के मुताबिक, अदालत ने दोषी उद्योगों को 37.385 करोड़ रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया। इस रकम से प्रभावित कुओं के पानी को बेहतर बनाना था।
ग्रामीणों को हुए निजी नुकसान के सवाल पर, फैसले ने प्रभावित ग्रामीणों को एक नागरिक मुकदमा दायर करने के लिए कहा। फैसले के बाद, लगभग 160 प्रभावित परिवारों ने एक ट्रस्ट पंजीकृत कराया और 28 करोड़ रुपये के मुआवजे का दावा किया किया।
मुआवजे की स्थिति पर चुन्नी लाल ने कहा, “नुकसान का दावा करने के लिए, हमने उदयपुर सिविल कोर्ट में मुकदमा दायर किया। मामला अभी भी चल रहा है। अब तक हमें किसी भी तरह की राहत नहीं मिली है।
बिछड़ी मामले में याचिका दायर करने वाले उदयपुर के वकील मन्नाराम डांगी ने कहा, “फैसला अपने उद्देश्य और कार्यान्वयन में विफल रहा।” वह कहते हैं कि ग्रामीण फैसले से खुश हैं, लेकिन खेतों, फसलों और मवेशियों को हुए नुकसान के लिए तुरंत आर्थिक राहत के रूप में जो अंतरिम राहत ग्रामीणों को दी जानी चाहिए थी, सुप्रीम कोर्ट की तरफ से नहीं दी गई।
उन्होंने कहा, “कारखानों को जब्त करने के साथ-साथ, 1996 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में प्रभावित गांवों को पीने का साफ पानी उपलब्ध कराने का भी आदेश दिया गया था।” वह कहते हैं, “फैसले के इस हिस्से को लागू किया गया था लेकिन मुआवजे की रकम की वसूली पर अदालत के आदेश को कभी पूरा नहीं किया गया।”
साल 2011 में, जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने बिछड़ी मामले में 1996 के फैसले को बहाल किया, न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी ने कहा, “यह एक बहुत ही असामान्य और असाधारण मुकदमा है, जहां इस अदालत के अंतिम फैसले (13 फरवरी 1996) के पंद्रह साल बाद भी मुकदमा चल रहा है। फैसले के अनुपालन से बचने के लिए जानबूझकर कोई न कोई अंतरिम आवेदन दायर कर इसे जीवित रखा गया है।” कोर्ट ने कहा कि 1996 के फैसले को आज तक अंतिम रूप देने की अनुमति नहीं दी गई है। भंडारी ने कहा, “यह इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है कि कैसे कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करके शीर्ष अदालत के अंतिम फैसले को भी डेढ़ दशक से ज्यादा समय तक टाला जा सकता है।”
वे कहते हैं, लंबे इंतजार ने गांव वालों को इस मुद्दे को लेकर जड़ और उदासीन बना दिया है।
डांगी ने कहा, “लोगों की दिलचस्पी कम होने की एक उचित वजह यह है कि उन्हें कभी कोई प्रत्यक्ष (मौद्रिक) प्रोत्साहन नहीं मिला।” उनका दावा है कि यह सरकार की ज़िम्मेदारी है, क्योंकि पर्यावरण मंत्रालय (एमओई) आम लोगों का ट्रस्टी है। आम लोग मिट्टी और पानी को बहाल नहीं कर सकते; इसके लिए विशेषज्ञता की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, इसके अलावा, बहाली के लिए पैसा भी एमओई को वसूलना होगा।
डांगी ने कहा, “मुआवजे की वसूली कौन करेगा और पर्यावरण की बहाली के लिए इसका इस्तेमाल कौन करेगा? यह जिम्मेदारी पर्यावरण मंत्रालय की है। लेकिन फैसले में यह अनिवार्य नहीं था।”
मोंगाबे-इंडिया ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की सचिव लीना नंदन और उदयपुर के जिला कलेक्टर तारा चंद मीना से सुधारात्मक उपायों, मुआवजा राशि और सरकार की तरफ से मिट्टी और पानी को प्रदूषण मुक्त करने की कोशिशों के बारे में संपर्क किया, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। खबर लिखे जाने तक कोई जवाब नहीं मिला था। 14 जुलाई को तारा चंद मीना की जगह अरविंद के. पोसवाल ने ले ली। उन्हें भी सवाल भेजे गए लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।
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बैनर तस्वीरः बिछड़ी में ज्यादातर लोग अपना सबसे ज्यादा समय पानी भरने और लाने में बिताते हैं। तस्वीर- शिवा सिंह।