- एक नई स्टडी ने ग्लोबल साउथ यानी वैश्विक दक्षिण के लिए जलवायु संबंधित अनुमानों में अनियमितता के चलते आईपीसीसी की रिपोर्ट्स में अनिश्चितताएं पाई हैं।
- भविष्य में ग्लोबल वॉर्मिंग की स्थिति से निपटने का उपाय है कि बेहतर क्लाइमेट मॉडल्स का इस्तेमाल किया जाए, क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु के अनुमान लगाए जाएं और क्षेत्रीय स्तर पर सरकार की ओर से और ज्यादा आकलन किए जाएं।
- आईआईटी दिल्ली एक वैश्विक मॉडल को भारतीय क्षेत्र के हिसाब से कस्टमाइज करने की दिशा में काम कर रहा है ताकि हाई-रेजॉलूशन उपाय किए जा सकें। इस मॉडल से मिलने वाली इनसाइट्स का इस्तेमाल ग्लोबल साउथ के अन्य देशों द्वारा भी किया जा सकेगा।
ग्लोबल नॉर्थ की तुलना में ग्लोबल साउथ खासकर दक्षिण एशिया जलवायु परिवर्तन के प्रति ज्यादा संवेदनशील है। साथ ही, यह क्षेत्र ज्यादा समृद्ध और विकसित देशों की तुलना में ग्लोबल वॉर्मिंग की परिस्थितियों से निपटने में भी कम सक्षम है। नुकसान और क्षति और ग्लोबल वॉर्मिंग को कम करने के तरीकों और उनको अपनाने की फंडिंग के मुद्दे पर बहस के दौरान भी यह असमानता काफी अहम होती है।
इंटरगवर्नमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज (IPCC) की रिपोर्ट्स में ग्लोबल साउथ देशों के लिए जलवायु के जो अनुमान हैं, एक स्टडी ने इन अनुमानों में कई अनियमितताओं को रेखांकित किया है। सबसे बड़ी चूक खेती के लिए प्रभावी नीतियों को लागू करने से जुड़े अनुमानों में है। ग्लोबल साउथ के ज्यादातर देशों के पास खुद का राष्ट्रीय या क्षेत्रीय जलवायु आकलन नहीं है और ये देश IPCC की ओर से समय-समय पर जारी होने वाले आकलन से मदद लेते हैं ताकि ग्लोबल वॉर्मिंग को कम करने और संबंधित नीतियों को लागू करने की दिशा में कदम उठा सकें।
संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी IPCC दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन पर वैज्ञानिक अध्ययन को आधुनिक बनाने के लिए जिम्मेदार है। इस स्टडी में IPCC की सभी 6 आकलन रिपोर्ट (FAR से AR6 तक) की समीक्षा की गई है। इस स्टडी में कहा गया है कि इस आकलन को राष्ट्रीय स्तर या क्षेत्रीय स्तर पर स्वीकार करने में कई खामिया हैं। रिसर्च पेपर में खासकर दो परिस्थितियों को रेखांकित किया गया है- साउथ एशिया में वार्षिक तापमान और बारिश के अनुमान। ये दोनों जलवायु कारक नीति निर्धारण में अहम भूमिका निभाते हैं।
बेहतर नीतियों के लिए जरूरी हैं सटीक आकलन
सभी रिपोर्ट्स में यह अनुमान है कि दक्षिण एशियाई क्षेत्र में सतह की हवा का तापमान हीटवेव और भीषण बारिश जैसी घटनाओं के साथ बढ़ेगा। कई देशों के शोधार्थियों की इस स्टडी में पाया गया है कि तापमान में बदलाव के जो अनुमान हैं उनमें व्यापक तौर पर अनियमितता है और सभी रिपोर्ट में स्थान के हिसाब से वितरण में और भी ज्यादा खामियां हैं। उदाहरण के लिए, रिपोर्ट AR5 में तापमान में परिवर्तन का अनुमान 0.5 डिग्री सेल्सियस से 6 डिग्री सेल्सियस तक का है। यह बदलाव IPCC की रिपोर्ट्स में बताए गए अलग-अलग उत्सर्जन की परिस्थितियों के मुताबिक है।
यह स्टडी रेखांकित करती है कि IPCC की चौथी आकलन रिपोर्ट 2007 यानी AR4 में तापमान में बदलाव का क्षेत्रीय वितरण यह दर्शाता है कि दक्षिणी एशिया का उत्तरी हिस्सा, दक्षिणी हिस्से की तुलना में ज्यादा गर्म हो रहा है। इसमें से सबसे ज्यादा गर्मी (-4 डिग्री) उत्तर पश्चिमी क्षेत्र (अफगानिस्तान, पाकिस्तान और पश्चिमोत्तर भारत) में, मध्यम गर्मी (-3 डिग्री) मध्य भारत में भारत के पठारी हिस्से और म्यांमार में सबसे कम गर्मी (-2 डिग्री) दिख रही है। जबकि AR4 के बाद आई AR5 और AR6 में तापमान में बदलाव का अनुमान इन क्षेत्रों में स्थानीय तौर पर ज्यादा एकरूपी है। यानी पिछली रिपोर्ट्स की तुलना में इन रिपोर्ट में क्षेत्रीय स्तर पर तापमान के बदलाव का अनुमान काफी छोटा है। ऐसी ही अनियमितताएं बारिश के अनुमानों में भी देखी जा रही हैं।
आईआईटी दिल्ली के DST सेंटर ऑफ एक्सीलेंस इन क्लाइमेट मॉडलिंग में प्रोजेक्टर इन्वेस्टिगेटर और वातावरण विज्ञान के प्रोफेसर सरोज के मिश्रा कहते हैं, “ग्लोबल साउथ के ज्यादातर हिस्से के लिए IPCC के 6 जेनरेशन के जलवायु अनुमानों में अनियमितता इस क्षेत्र के लिए प्रभावी नीति निर्धारण में एक बड़ी बाधा है।”
उनका कहना है कि इन अनुमानों में अनियमितता क्लाइमेट मॉडल में पैरामीटराइजेशन की वजह से पैदा होने वाली अनियमितता की वजह से पैदा होती है। प्रोफेसर मिश्रा का कहना है कि ज्यादातर मॉडल विकास के प्रयास ग्लोबल नॉर्थ में किए जाते हैं तो इन देशों में ज्यादा बेहतर जलवायु सिमुलेशन्स देखे जाते हैं क्योंकि मॉडल विकास से जुड़े कई पहलू यहां के हिसाब से अहम होते हैं।
मॉडलिंग क्षमताओं और क्षेत्रीय आकलन को बढ़ाने की है जरूरत
यह पेपर सुझाव देता है कि बेहतर रेजॉलूशन के साथ मॉडलिंग की जाए जैसे कि किलोमीटर स्केल मॉडलिंग की मदद ली जाए। वह कहते हैं कि इससे जटिल टोपोग्राफी और सतह की अन्य चीजों की पहचान बेहतर हो सकती है। साथ ही, मेजोस्केल प्रक्रियाओं और उनसे जुड़े फीडबैक और आर्द्र संवहन और ग्रैविटी वेव ड्रैग की साफ तस्वीर सामने आएगी। प्रोफेसर मिश्रा कहते हैं कि समृद्ध देशों में किलोमीटर स्केल मॉडलिंग का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा करने की वजह है कि इसमें बड़े आधारभूत ढांचों और बेहतर कम्प्युटेशन संसाधनों की जरूरत होती है और कम आय वाले देश ऐसे मॉडल को अपना नहीं सकते हैं। इस पेपर में सुझाव दिया गया है कि कम समृद्ध देश कई सरकार के मिले-जुले सहयोग से द्वीप के स्तर पर प्रयास कर सकते हैं और अपनी मॉडलिंग क्षमताएं विकसित कर सकते हैं।
इस प्रक्रिया में समय काफी ज्यादा लगता है इसलिए इस रिसर्च पेपर में सुझाव दिया गया है कि ग्लोबल दक्षिण के देश मिलकर अंतरिम तौर पर क्षेत्रीय स्तर पर मॉडलिंग के प्रयास करें जिससे कि देश के स्तर पर भविष्य की योजनाओं के लिए आत्मनिर्भरता बढ़ सके।
आईआईटी दिल्ली एक वैश्विक मॉडल को भारतीय क्षेत्र के हिसाब से कस्टमाइज करने की दिशा में काम कर रहा है ताकि हाई-रेजॉलूशन उपाय किए जा सकें। ग्लोबल साउथ के इन देशों में एकरूपता होने के वजह से इस मॉडल से मिलने वाली इनसाइट्स का इस्तेमाल अन्य देशों द्वारा भी किया जा सकेगा। प्रोफेसर मिश्रा सूचित करते हैं, “हमने जलवायु के 50 मॉडल का विश्लेषण किया। हमने वह मॉडल चुना जो इस क्षेत्र के लिए सबसे बेहतर है और अब हम इसे कस्टमाइज करने पर काम कर रहे हैं। बाद में इसे इस क्षेत्र के अन्य देश भी इस्तेमाल कर सकते हैं।”
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रिसर्च लिखने वाले लेखकों ने कुछ अन्य कम समय वाले सुझाव दिए हैं जिनमें सरकार की ओर से कम समय पर जलवायु का आकलन करवाया जाना शामिल है। जहां भारत क्षेत्रीय स्तर पर आकलन की ओर आगे बढ़ रहा है, वहीं रिसर्चर्स का मानना है कि रुक-रुक कर और बिना समय के आने वाली इन रिपोर्ट्स से कोई मदद नहीं मिल पा रही है। इस रिसर्च पेपर में यह भी रेखांकित किया गया है कि दो क्षेत्रीय आकलन रिपोर्ट में एक दशक का अंतर था। तेजी से बदलती जलवायु और तकनीकी क्षमताओं के विस्तार के लिहाज से देखें तो यह अंतर काफी ज्यादा है। रिसर्च पेपर में कहा गया है कि एक और चूक यह है, “ये अनुमान कानून की ओर से लागू और विनियमित नहीं किए जाते हैं, ऐसे में संबंधित सरकारी एजेंसियों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।”
कुछ विशेषज्ञों की राय है कि बेहतर जलवायु मॉडलिंग और कम्प्युटेशनल संसाधनों पर की गई स्टडी भले ही वैज्ञानिक स्तर पर काफी सटीक हो लेकिन व्यापक स्तर पर यह सर्वोच्च प्राथमिकता वाली नहीं है। एम एस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन में क्लाइमेट चेंज के सीनियर फेलो टी जयरामन इस रिसर्च से जुड़े नहीं हैं। उनका मानना है कि कम्प्यूटर मॉडलिंग की महत्ता को अनुपात से बाहर नहीं होना चाहिए। उनका कहना है, “क्षेत्रीय स्तर हमें बेहतर और सटीक मौसम के अनुमान की जरूरत है, इसमें शॉर्ट और मीडियम रेंज फोरकास्टिंग की जरूरत है। हमें मौसम के अनुमान की जानकारी को आखिरी छोर तक पहुंचाने और भविष्य की ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने के लिए बेहतर तरीकों और सामाजिक-आर्थिक वृद्धि की जरूरत है। ग्लोबल नार्थ से हमें फाइनेंस की जरूरत है वह भी ग्रांट के रूप में, लोन के रूप में नहीं।”
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बैनर तस्वीरः लाओस में साल 2019 में आई बाढ़। ग्लोबल साउथ में कुछ जलवायु वैज्ञानिकों का कहना है कि कम आय वाले देशों को ज्यादा स्थानीय जलवायु अनुमान लाने होंगे ताकि वे बेहतर नीतियां विकसित कर सकें। तस्वीर– बेसिल मोरिन/विकिमीडिया कॉमन्स