- खेसारी, केसरी, तिवरा, लतरी जैसे नाम से चर्चित लेथिरस सेटाइवस प्रजाति की दाल की ख़रीद-बिक्री पर बरसों तक भारत में प्रतिबंध रहा है।
- हालांकि, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी ने हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव के दौरान अपने घोषणापत्र में इस दाल को समर्थन मूल्य पर खरीदने का वादा किया था। कांग्रेस सरकार की विदाई के बाद दाल खरीदी का मामला अब अटक गया है।
- पिछले 60 सालों में तिवरा या खेसारी पर तरह-तरह के शोध हुए और लगातार इस बात की कोशिश हुई कि तिवरा को किस तरह से विषमुक्त किया जा सकता है यानी तिवरा में ओडीएपी को कैसे कम किया जा सकता है।
- तिवरा के क्षेत्रफल और उत्पादन की दृष्टि से छत्तीसगढ़ पूरे देश में पहले स्थान पर है। देश के कुल क्षेत्रफल का 67.26 प्रतिशत और कुल उत्पादन का 59.52 प्रतिशत छत्तीसगढ़ में है। इसके बाद बिहार (13.62 प्रतिशत) और मध्यप्रदेश (8.80 प्रतिशत) आते हैं।
पिछले 50 सालों से भी अधिक समय तक देश में प्रतिबंधित रही, तिवरा या खेसारी दाल की छत्तीसगढ़ में समर्थन मूल्य पर ख़रीदी का मामला अब अटक गया है। असल में कांग्रेस पार्टी ने हाल ही में हुए राज्य के विधानसभा चुनाव के दौरान अपने घोषणापत्र में समर्थन मूल्य पर इस दाल की ख़रीदी का वादा किया था। लेकिन राज्य से कांग्रेस सरकार की विदाई के साथ ही अब तिवरा पर संशय के बादल छा गए हैं।
कांग्रेस पार्टी की घोषणा पर किसानों को यकीन ही नहीं हो रहा था कि तिवरा दाल को भी कोई सरकार समर्थन मूल्य पर ख़रीद सकती है, क्योंकि एक समय तो इसकी फ़सल उगाने पर भी खड़ी फसल जला दी जाती थी और हल-बैल जब्त कर लिए जाते थे।
हालांकि चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत के साथ राज्य से कांग्रेस सरकार की विदाई हो चुकी है। नवगठित सरकार के कृषि मंत्री रामविचार नेताम ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “मेरी जानकारी में नहीं है कि कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में क्या कहा था। लेकिन मैं आज ही इस मामले में अपने विभाग के अधिकारियों से चर्चा करता हूं और तिवरा दाल की खेती, ख़रीद-बिक्री व उपयोग से संबंधित जो भी बेहतर नीतिगत निर्णय लिए जा सकते हैं, उस पर हमारी सरकार ज़रुर विचार करेगी।”
असल में खेसारी, केसरी, तिवरा, लतरी जैसे नाम से चर्चित लेथिरस सेटाइवस प्रजाति की इस दाल की ख़रीद-बिक्री पर बरसों तक भारत में प्रतिबंध रहा है। वैज्ञानिकों का दावा था कि इस दाल के सेवन से मनुष्यों में तंत्रिका संबंधी रोग लैथिरिज्म, न्यूरोलैथिरिज्म या कलायखंज की बीमारी हो सकती है। इसके कारण निचले अंगों में पक्षाघात हो सकता है। लेथिरस के अधिकांश शोध उस अध्ययन पर आधारित थे, जब अकाल के दौरान लोगों ने लंबे समय तक इस दाल का ही मुख्य भोजन के तौर पर सेवन किया।
कहा गया कि एक न्यूरोटॉक्सिन, अमीनो-एसिड β-N-ऑक्सालिल-एल- β डायअमीनोप्रोपियोनिक एसिड या ओडीएपी या बीओएए के कारण इस दाल में विषाक्तता होती है। इस दाल में, ओडीएपी सांद्रता विविधता और कृषि-जलवायु स्थितियों के आधार पर 0.1 प्रतिशत से 2.5 प्रतिशत तक होती है। दुनिया भर में खेसारी की 187 प्रकार की किस्में उपलब्ध हैं लेकिन इनमें से कुछ प्रजातियों का ही उपयोग भोजन या पशु चारा में किया जाता है।
पशु चारा के रुप में तो इसका उत्पादन जारी रहा लेकिन इसकी ख़रीद-बिक्री पर 1961 में भारत सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। वैज्ञानिकों के अनुसार चना, अरहर, मूंग, उड़द जैसी प्रचलित दालों में 22 से 24 फ़ीसदी तक प्रोटीन होता है। लेकिन तिवरा में 31.9 फ़ीसदी प्रोटीन पाया जाता है। इसके अलावा 8 फ़ीसदी एमोनी एसिड भी इसमें पर्याप्त मात्रा में होता है। लेकिन इन गुणों से अनजान होने के बाद भी बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश जैसे इलाकों में ग़रीबों के दाल के रुप में इसकी उपयोगिता बनी रही। इसके अलावा चना दाल और बेसन में भी इसकी मिलावट आम रही। लेकिन प्रतिबंध जारी रहा।
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हालांकि वैज्ञानिक इस बात से सहमत थे कि लंबे समय तक और अधिक मात्रा में इस दाल के सेवन से ही, कुछ लोगों में लैथिरिज्म की बीमारी हो सकती है। साल 1901 के आसपास मध्यप्रदेश के रीवा में भी हर दिन, तीन समय इस दाल को ही मुख्य भोजन की तरह उपयोग करने के कारण कुछ लोगों में इस बीमारी का प्रकोप देखा गया। अकाल और सूखा की स्थिति में यह अकेली फसल थी, जो उपलब्ध थी। यही कारण है कि लोगों ने अकाल के दौरान मुख्य भोजन की तरह तीन से छह महीने की लंबी अवधि तक इसका उपयोग किया और उनमें से कुछ लोगों में लैथिरिज़्म की बीमारी देखी गई। दुनिया के दूसरे देशों में भी इस दाल को लेकर ऐसे ही उदाहरण मिलते हैं। अंतिम बार 1995-97 में इस बीमारी के मामले अकाल के दौरान इथियोपिया में दर्ज़ किए गए।
तिवरा सेवन और लैथिरिज्म
भारत में तिवरा पर प्रतिबंध से सालों पहले लैथिरिज्म को लेकर मध्यभारत में कई शोध किए गए। साल 1922 की एक रिपोर्ट बताती है कि कैसे खेसारी दाल की एक खास किस्म से लोगों में लैथिरिज़्म का प्रकोप बढ़ा।
भोपाल स्टेट में किए गए एक शोध में दावा किया गया कि 1944 में गेहूं की फसल ख़राब होने के बाद सर्वाधिक ग़रीब आबादी द्वारा बड़ी मात्रा में तिवरा की दाल का उपयोग किया गया। इस शोध के अनुसार लैथिरिज्म के व्यापक प्रकोप की रिपोर्ट मिलने के बाद लेखक को भोपाल भेजा गया था और वहां पहुंचने पर पता चला कि जिले में लैथिरिज्म के लगभग 1200 मामले सामने आए थे। उन्होंने लगभग 150 मामले देखे, जिनमें से 73 हालिया मामलों की पूरी जांच की गई। यह बीमारी सभी उम्र में होती है, लेकिन मुख्य रूप से 10 से 30 साल के बीच, और महिलाओं की तुलना में पुरुषों में अधिक सामान्य है। पीड़ित सर्वाधिक ग़रीब श्रेणी के थे और इन 73 में से 68 भूमिहीन मजदूर थे। सभी पीड़ितों ने छः महीने या उससे अधिक समय तक बड़ी मात्रा में तिवरा दाल का सेवन किया था।
इसी तरह 1959 में मध्यप्रदेश के रीवा इलाके के 18 गांवों में 6192 व्यक्तियों की जांच की गई, जिनमें से 250 को लैथिरिज़्म था। इस बीमारी को लेकर भौगोलिक परिस्थिति, सामाजिक वर्ग, आहार, नैदानिक स्थितियों और रोकथाम के मुद्दे पर शोध किया गया। खेसारी या तिवरा को आम तौर पर गेहूं, चना या जौ के साथ मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता था। कुछ मामलों में खेत मजदूरों को मजदूरी के बदले में तिवरा दे दिया जाता था। शोध के अनुसार लैथिरिज़्म मध्यमवर्गीय परिवारों में आम थी लेकिन आय बढ़ने के साथ इसके मामले घट गए।
पिछली शताब्दी की शुरुआत से लेकर 1961 तक, इससे मिलते-जुलते दर्जनों शोध मध्यभारत में किए गए और अंततः 1961 में तिवरा पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
हालांकि कई राज्यों में तिवरा पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया और फसलों के उपजाने पर रोक लगा दी गई लेकिन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में चारा के नाम पर इसकी खेती होती रही और भोजन में भी इसका उपयोग जारी रहा। हालांकि इसकी बिक्री पर प्रतिबंध था। इन राज्यों में तो इसकी भाजी यानी इनकी पत्तियों के साग का उपयोग भी धड़ल्ले से जारी रहा।
विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो गई है कि अधिकांश फलियों की तरह सामान्य आहार के हिस्से के रूप में, खेसारी दाल को अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है और तीन दशकों में भारत से इस बीमारी के लगभग गायब हो जाने से यह बात और स्पष्ट रुप से प्रमाणित होती है।
नए शोध और सवाल
पिछले 60 सालों में तिवरा या खेसारी पर तरह-तरह के शोध हुए और लगातार इस बात की कोशिश हुई कि तिवरा को किस तरह से विषमुक्त किया जा सकता है यानी तिवरा में ओडीएपी को कैसे कम किया जा सकता है। इस तरह के अधिकांश शोध मध्यभारत विशेष कर रायपुर स्थित इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में हुए और तिवरा की ऐसी कई प्रजातियां विकसित की गईं।
साल 2012-15 के आंकड़े बताते हैं कि देश में तिवरा का कुल क्षेत्रफल 4.93 लाख हेक्टेयर और उत्पादन 3.84 लाख टन था। तिवरा के क्षेत्रफल और उत्पादन की दृष्टि से छत्तीसगढ़ पूरे देश में पहले स्थान पर है। देश के कुल क्षेत्रफल का 67.26 प्रतिशत और कुल उत्पादन का 59.52 प्रतिशत छत्तीसगढ़ में है। इसके बाद बिहार (13.62 प्रतिशत) और मध्यप्रदेश (8.80 प्रतिशत) आते हैं।
छत्तीसगढ़ में लगभग 2.5 लाख हेक्टेयर में यह फसल लगाई जाती है और इसका उत्पादन 12.5 लाख क्विंटल के आसपास है। रबी के मौसम में धान की फसल कटने के 20-25 दिन पहले ही, उसी खेत में खड़ी फसल में तिवरा के बीज छिड़क दिए जाते हैं। अधिक पानी या सूखा या अधिक तापमान में भी इसकी फसल पर असर नहीं होता। यही कारण है कि इसकी लागत और मेहनत बेहद कम होती है।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के एक वैज्ञानिक ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “0.2 प्रतिशत से कम ओडीएपी को पूरी तरह से आहार के लिए सुरक्षित माना जाता है। हमने तिवरा की ऐसी कम से कम तीन प्रजातियों को विकसित किया, जिनकी सफलता असंदिग्ध है। ये तीनों प्रजातियां ऐसी हैं, जिसकी फसल 100 से 115 दिन में तैयार हो जाती है। इनमें रतन प्रजाति में ओएडीपी की मात्रा केवल 0.08 प्रतिशत, प्रतीक प्रजाति में 0.07 और महातिवड़ा में 0.074 प्रतिशत ओएडीपी की उपलब्धता है। तीनों ही किस्मों की औसत उपज 15-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के आसपास है।”
छत्तीसगढ़ के समाजवादी किसान नेता और रायपुर स्थित कृषि विश्वविद्यालय की कार्यसमिति के सदस्य आनंद मिश्रा ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “तिवरा दाल की ख़रीदी शुरु हो जाए तो उन किसानों के लिए यह परिवर्तनकारी फ़ैसला होगा, जो अब तक तिवरा दाल के लिए प्रताड़ना का शिकार होते थे। यह एक क्रांतिकारी पहल है, जिसकी शुरुआत राजनीति से परे हट कर, छत्तीसगढ़ की नई सरकार कर सकती है।”
हालांकि कुछ वैज्ञानिक इस पर सवाल भी उठाते हैं। उनका कहना है कि खेतों में किसान कौन-सी प्रजाति लगा रहा है, इसकी जांच मुश्किल है। ऐसे में नुकसान पहुंचाने वाली प्रजाति का उत्पादन जारी रह सकता है। इसके अलावा भारत का मध्यम और उच्च वर्ग तो अरहर और चने की दाल खाता रहेगा लेकिन पहले से ही कुपोषण की शिकार गरीब आबादी इसी विषैली तिवरा दाल को खाकर बीमार व कुपोषित हो सकती है।
कृषि वैज्ञानिक संजय सहाय कहते हैं, “भारत में दाल का उत्पादन कम है और हर साल हमें दाल आयात करना पड़ता है। संभवतः दाल की उसी कमी को पाटने के लिए तिवरा को प्रोत्साहित करने की कोशिश हो रही है। लेकिन इसमें स्वास्थ्य का नुकसान न हो जाए, इसका ध्यान रखना होगा।”
बैनर तस्वीरः तिवरा या खेसारी का फूल। साल 2012-15 के आंकड़े बताते हैं कि देश में तिवरा का कुल क्षेत्रफल 4.93 लाख हेक्टेयर और उत्पादन 3.84 लाख टन था। तस्वीर– रतन रहीम/विकिमीडिया कॉमन्स