- इंटरगवर्नमेंटल प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड ईकोसिस्टम सर्विसेज (IPBES) की एक मूल्यांकन रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में इंसानी गतिविधियों की वजह से कई क्षेत्रों और बायोम में लगभग 3500 हानिकारक आक्रमणकारी बाहरी प्रजातियां प्रवेश कर गई हैं।
- वैश्विक स्तर पर इन बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों की वजह से प्रकृति और इंसानों को होने वाला नुकसान 2019 में ही 423 बिलियन डॉलर यानी लगभग 8287 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। 1970 से यह नुकसान हर दशक में लगभग चौगुना होता गया है।
- लुप्त होने वाली प्रजातियों में से लगभग 60 प्रतिशत ऐसी हैं जिनके लिए ये आक्रमणकारी बाहरी प्रजातियां या तो अकेले या फिर अन्य कारकों के साथ संयुक्त तौर पर जिम्मेदार हैं।
- वैश्विक स्तर पर लुप्त हुईं स्थानीय प्रजातियां जिनका कि दस्तावेजीकरण किया गया है उनमें से 90 प्रतिशत से ज्यादा बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों की वजह से लुप्त हुई हैं. यह लुप्त होना भी खासकर द्वीपों या सुदूर स्थित द्वीपों पर हुआ है।
आक्रमणकारी प्रजातियों का प्रसार जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के सामने मौजूद पांच बड़े खतरों में से एक है। ऐसे जानवर, पौधे, कवक और सूक्ष्म जीव जो कि खुद को अपने प्राकृतिक आवास के बाहर ऐसी जगह पर खुद को विकसित करते हैं जहां कि वे स्थानीय जैव विविधता नकारात्मक असर डालते हैं, उनके बारे में उतनी चर्चा नहीं होती है जितनी कि जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, समुद्र और जमीन के लैंड यूज में बदलाव जैसी चीजों की होती है।
इंटरगवर्नमेंटल प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड ईकोसिस्टम सर्विसेज (IPBES) की एक नई रिपोर्ट में आक्रमणकारी बाहरी प्रजातियों के वैश्विक खतरे को रेखांकित किया गया है। यह रिपोर्ट बताती है कि कई मानवजनित गतिविधियों ने दुनियाभर के क्षेत्रों और बायोम में 3700 से ज्यादा बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों को पैदा कर दिया है और हर साल इस तरह की 200 प्रजातियां और बढ़ती जा रही हैं। स्थापित हो चुकी बाहरी प्रजातियों में 3500 से ज्यादा हानिकारिक प्रजातियां हैं जिनका प्रकृति और मनुष्यों के जीवन पर बुरा असर पड़ता है। 2300 से ज्यादा बाहरी प्रजातियां दुनियाभर के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जमीनों पर पाई गई हैं। लुप्त होने वाली प्रजातियों में से लगभग 60 प्रतिशत ऐसी हैं जिनके लिए ये आक्रमणकारी बाहरी प्रजातियां या तो अकेले या फिर अन्य कारकों के साथ संयुक्त तौर पर जिम्मेदार हैं।
IPBES में बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों के बारे में वैश्विक मूल्यांकन संबंधी एक चर्चा के दौरान हुए फैसले के बाद यह मूल्यांकन किा गया था। IPBES एक स्वतंत्र संस्था है जिसमें 143 देश शामिल हैं, यह संस्था जैव विविधिता के सतत प्रबंध के लिए काम करती है। इन देशों के प्रतिनिधियों की ओर से तैयार की गई इस मूल्यांकन रिपोर्ट का कहना है कि वैश्विक स्तर पर इन बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों की वजह से प्रकृति और इंसानों को होने वाले नुकसान को आंकें तो यह 2019 में ही 423 बिलियन डॉलर यानी लगभग 8287 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। 1970 से यह नुकसान हर दशक में लगभग चौगुना होता गया है।
बेंगलुरु में रहने वाले पारिस्थितिकी वैज्ञानिक और क्रांतिकारी जीव विज्ञानी आलोक बंग इस मूल्यांकन रिपोर्ट में आए नतीजों को हैरान करने वाला मानते हैं। उनका मानना है कि यह रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि हमें जैव आक्रमण के खतरे को गंभीरता से लेने की जरूरत है। वह कहते हैं कि बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों के पारिस्थितिकी प्रभावों को विज्ञान के क्षेत्र में जाना जाता है लेकिन जब इके आर्थिक पहलू को देखा जाता है तो ये और महत्वपूर्ण हो जाते हैं। वह कहते हैं, ‘इस रिपोर्ट में दिखाए गए आर्थिक मूल्य बड़े पर्वत की चोटी के समान ही हैं क्योंकि बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों के प्रभाव जैसे कि स्थानीय प्रजातियों के नुकसान आदि की मात्रा को माप पाना असंभव है।’
भारत में किया गया एक अनुमान बताता है कि पिछले 60 सालों में बाहरी प्रजातियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग 2413 करोड़ का नुकसान हुआ है। पिछले 16 सालों में पूरे भारत में बाहरी आक्रमणकारी पौधों की मॉनिटरिंग से पता चला है कि एक बार के लिए इन पौधों को नियंत्रित करने के लिए कम से कम 260 करोड़ रुपयों की जरूरत होगी और नतीजे भी कुछ निश्चित नहीं हैं।
रिसर्चर्स का कहना है कि जैव आक्रमण के बारे में यह IPBES रिपोर्ट बेहद विस्तृत वैश्विक मूल्यांकन है। अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन ईकोलॉजी एंड एन्वारनमेंट (ATREE) में वरिष्ठ सहायक फैकल्टी अंकिला हिरेमठ का कहना है, ‘यह रिपोर्ट वैज्ञानिक साहित्य, ग्रे साहित्य और दुनियाभर से स्थानीय जानकारियों पर आधारित है जिसमें कि बाहरी आक्रमणकारियों के रास्तों, उनके आने की प्रक्रिया, उन्हें लाने वालों और उनके प्रभावों के बारे में पता चलता है।’ साथ ही, इसमें मौजूदा प्रयासों का विश्लेषण और समीक्षा की गई है और भविष्य के विकल्प तलाशे गए हैं। इसके अलावा, नीति निर्माताओं के लिए सबसे बेहतर संभव सबूत, उपाय और सूचनाएं गई हैं ताकि इसके प्रबंधन के लिए वे नीतियां विकिसत कर सकें।
द्वीपों वाले देशों और स्थानीय समुदाय पर असर
बढ़ती जागरूकता के बावजूद कई देशों में बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नियमों और कानूनों की कमी है और आधे से ज्यादा देश इनके प्रबंधन में ज्यादा निवेश नहीं करते हैं। कई सारे जैव विविधता वाले हॉट-स्पॉट और स्थानिकता को बढ़ावा देने वाले देश जैसे कि भारत के लिए केंद्रित नीतियां जरूरी हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, नीतियों के साथ-साथ एक सरकारी सिस्टम और एक बायो सिक्योरिटी सिस्टम की भी जरूरत है। IPBES रिपोर्ट में में पॉलिसीज और गवर्नेंस पर एक चैप्टर लिखने वाले लेखक निनाद मुंगी ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि मौजूदा पॉलिसी में अप्रत्यक्ष गाइडलाइन, नीतियां और कानून हैं जिनका इस्तेमाल संदर्भ के हिसाब से किया जा सकता है। वह आगे कहते हैं, ‘इसके लिए केंद्रित नीतियां बनाने की सख्त जरूरत है जिसमें कि नई जानकारी और वैज्ञानिक तथ्य शामिल हों।’
जैव आक्रमण के नकारात्मक प्रभाव काफी व्यापक हैं और ये अर्थव्यवस्था, खाद्य सुरक्षा, जल सुरक्षा और इंसानों की सेहत पर असर डालते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि जिन आर्थिक नुकसानों का आकलन किया गया है उनमें से 90 प्रतिशत इंसानों के प्रति प्रकृति के योगदान और जीने के स्तर से जुड़े हुए हैं। इससे, स्थानीय लोग भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं क्योंकि वे सीधे तौर पर प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर होते हैं और स्थानीय प्रजातियों के साथ-साथ प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र पर बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों का असर ज्यादा होता है।
हिरेमठ खूब फैल चुकी दक्षिण अमेरिकी झाड़ी लैंटाना कमारा का उदाहरण देते हुए बताती हैं कि किस तरह यह कर्नाटक में सोलिगा आदिवासियों की आजीविका और उनकी जीवन को प्रभावित करती है। वह कहती हैं, ‘लैंटाना आंवला की पैदावार को प्रभावित करता है जो कि एक गैर टिंबर वन उत्पाद है और लोगों की आजीविका इस पर निर्भर होती है।’
इसके अलावा, लैंटाना के घने विस्तार ने विस्तार ने खुली घांस की जगह ले ली है जिससे कि वन पर निर्भर समुदाय खतरे के सीधे संपर्क में आ गए हैं और बड़े जानवर जैसे कि हाथियों से उनका आमना-सामना ज्यादा होने लगा है। लैंटाना जैसी कुछ बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियां मूल निवासियों के रहन-सहन के पारंपरिक और सांस्कृतिक तरीकों को भी प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए, उनके पवित्र स्थलों की ओर जाने के रास्ते में बाधा बनती हैं।
केरल वन रिसर्च संस्थान के पूर्व निदेशक और IPBES की रिपोर्ट के मुख्य लेखक और इसके संयोजक के वी संकरन के मुताबिक, इसी समय कुछ निश्चित स्थापित बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियां अब मूल निवासियों और स्थानीय समुदायों के सामाजिक-आर्थिक तंत्र का इस कदर हिस्सा बन चुकी हैं कि अब प्रबंधकों के लिए भी यह एक सामाजिक-आर्थिक समस्या बन चुका है। वह आगे कहते हैं, ‘इसका एक उदाहरण एक बाहरी पेड़ प्रोसोपिज जुलेफ्लोरा है। अब इस पेड़ से चारकोल बनाया जाता है और स्थानीय समुदायों के लिए यह आय का हिस्सा बन गया है ऐसे में इन प्रजातियों को प्रबंधित करने के प्रयास करने में भी समस्या होने लगी है।’
भारत ने लैंटाना के साथ ही बाहरी आक्रमणकारी पौधों को पहचानने की दिशा में प्रगति कर ली है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि यह खूब फैलता है और इसके नकारात्मक प्रभाव भी होते हैं। उधाहरण के लिए, आर्थिक नुकसान जिसके चलते ही देश में इसे कम करने के प्रयास किए जाने लगे हैं। यही बात बाहरी आक्रमणकारी रीढ़विहीन जंतुओं, कवकों, अन्य सूक्ष्म जीवों और समुद्री जीव-जंतुओं के लिए नहीं कहा जा सकता है जो कि बायोसिक्योरिटी सिस्टम बनाने में मुख्य बाधा बनते हैं।
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यह रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि वैश्विक स्तर पर लुप्त हुईं स्थानीय प्रजातियां जिनका कि दस्तावेजीकरण किया गया है उनमें से 90 प्रतिशत से ज्यादा बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों की वजह से लुप्त हुई हैं. यह लुप्त होना भी खासकर द्वीपों या सुदूर स्थित द्वीपों पर हुआ है। यह खासकर उन इलाकों में हुआ है जहां स्थानिकता ज्यादा है और सदियों से वहां प्रजातियों के फैलने के अवसर भी ज्यादा हैं। हिरेमथ समझाती हैं कि द्वीपों पर पाई जाने वाली ये प्रजातियां आमतौर पर बायोटा के कुछ खास तत्वों जैसे कि शिकारियों या बीमारियों से सुरक्षित रहते हैं और स्थानिकता और संरक्षण का यह संयोजन उन्हें खासतौर पर संवेदनशील बनाता है।
संकरन कहते हैं कि वैश्वीकरण और पर्यटन को द्वीपों की अर्थव्यवस्था में एकीकृत किया जाता है जिससे कि बाहरी आक्रमण को रोकना मुश्किल हो जाता है। वह आगे कहते हैं, ‘द्वीपों का छोटा आकार, खास प्रजातियों की छोटी जनसंख्या और उनका अकेलापन विकासवादी स्पष्टता बनाता है। साथ ही, प्रजातियों का खराब होना और वर्गीकरण में असंतुलन इन द्वीपों को बाहरी आक्रमण के प्रति और संवेदनशील बनाता है।’ संकरन कहते हैं कि अभी यह नहीं पता है कि भारत का कौन सा क्षेत्र बाहरी आक्रमण के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील है क्योंकि भारत में पाए जाने वाले बाहरी आक्रमणकारी पौधों का मूल स्रोत ऊष्णकटिबंधीय अमेरिका है, ऐसे में भारत की आर्द्र ऊष्णकटिबंधीय जलवायु बाहरी आक्रमणकारी पौधों में बढ़ोतरी के लिए जिम्मेदार है।
सही से नहीं संभाला गया गया तो और हमलों को बढ़ा सकते हैं आक्रमणकारी
बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों को प्रभारी ढंग से नीतियां बनाने की जरूरतों पर जोर देते हुए इस मूल्यांकन रिपोर्ट में कहा गया है कि इन प्रजातियों का आपसी मेलजोल और जैविक आक्रमणों को बढ़ा सकता है। मुंगी कहते हैं कि हम वैश्विक स्तर पर देख रहे हैं कि ‘इनवैजनल मेल्टडाउन हाइपोथेसिस‘ में बढ़ावा हो रहा है। इसमें आक्रमणकारी प्रजातियों में आपसी मेलजोल होता है जिससे ये आक्रमण बढ़ जाते हैं। संकरन ऐसा होने के तरीकों को विस्तार से समझाते हैं। वह आगे कहते हैं, ‘एक बाहरी प्रवासी आक्रणकारी प्रजातियां दूसरी ऐसी ही प्रजातियों से सकारात्मक मेलजोल करती हैं जिससे उनका विस्तार होता है और अन्य प्रजातिया स्थापित होती हैं जिससे पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव होता है। एक स्थापित प्रजाति को जैविक रूप से नियंत्रित करने से कोई दूसरी प्रजाति स्थापित हो सकती है या कुछ खास कैरियर प्रजातियां इन आक्रमणकारी प्रजातियों को नए क्षेत्रों में ले जा सकती हैं।’
कान्हा टाइगर रिजर्व के सूखे जंगलों में की गई एक स्टडी में पाया गया है कि लैंटाना कमारा ने कई स्थानीय पौष्टिक पौधों की विविधता की बढ़ोतरी को रोक दिया। उनसे खाली हुई इन जगहों पर बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों और स्थानीय खतपतवारों की प्रजातियों ने कब्जा कर लिया जिससे स्थानीय पादव विविधता और कम होती है और इसका असर स्थानीय शाकाहारी जीवों और आखिर में मांसाहारी जीवों पर भी होता है।
संकरन कहते हैं कि भारत में जैव आक्रमणों को संभालने के लिए अलग से कार्यक्रम भी हैं लेकिन इनमें से कोई भी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है।
वह आगे कहते हैं कि बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेष फ्रेमवर्क, एक नोडल एजेंसी और बताए गए नियमों को लागू करने के लिए एकीकृत गवर्नेंस सिस्टम के अलावा हमें बायोसिक्योरिटी के नियमों और आधारभूत ढांचों को अपडेट करने और क्वारंटीन कंट्रोल और सर्विलांस सिस्टम को अपेडट करने की जरूरत है। साथ ही, स्थानीय क्वारंटीन नियमों को मजबूत करने और जैव आक्रमणों के प्रबंधन के लिए आधुनिक उपकरणों के इस्तेमाल की क्षमता बढ़ाने जैसे उपाय अहम हैं। वह इस बात पर भी जोर देते हैं कि जनता को इन बाहरी आक्रमणकारी प्रजातियों के बारे में जागरूक किया जाय और सभी हिस्सेदारों जैसे कि मूल निवासियों और स्थानीय लोगों को इसके प्रबंधन में शामिल किया जाय ताकि इसके विस्तार को रोका जा सके।
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बैनर तस्वीर- इचोर्निया क्रैसिप्स को आमतौर पर पानी की जलकुंभी कहा जाता है। यह एक बाहरी आक्रमणकारी प्रजाति है जो भारत में हर जगह पानी में पाई जाती है। तस्वीर– शहादत हुसैन/विकिमीडिया कॉमन्स।