- नए शोध से मिली जानकारी के मुताबिक नदियों को आपस में जोड़ने से भारत के शुष्क क्षेत्रों में सितंबर में वर्षा में कमी आने की संभावना है।
- अध्ययन से पता चलता है कि एक नदी बेसिन से मिट्टी की नमी में बदलाव नजदीकी इलाकों के बेसिन में मिट्टी की नमी को भी प्रभावित करेगा और इसकी वजह से वर्षा के पैटर्न में बदलाव आ सकता है।
- विशेषज्ञों का मानना है कि नदियों को जोड़ने की परियोजनाओं में जलवायु प्रभावों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
केन-बेतवा लिंक परियोजना को ‘सैद्धांतिक’ मंजूरी दिए जाने के तकरीबन छह साल बाद ‘पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ की तरफ से 3 अक्टूबर को अंतिम वन मंजूरी दे दी गई। हालांकि पिछले कई दशकों से नदियों को जोड़ने को एक इंजीनियरिंग चमत्कार के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। इसके समर्थन में बड़े-बड़े दावे किए जाते रहे हैं। कहा गया कि नदियों को जोड़ने से सूखे की समस्या का हल निकलेगा और ये तरीका काफी लागत प्रभावी रहेगा। 44,000 करोड़ रुपये की केन-बेतवा परियोजना के दावे भी अलग नहीं हैं। लेकिन नए साक्ष्यों से पता चलता है कि बड़े पैमाने पर नदियों को जोड़ने से वर्षा के पैटर्न पर अनपेक्षित परिणाम हो सकते हैं। जलवायु परिवर्तन को देखते हुए नीति निर्माताओं से नदी के मार्ग को बदलने के बारे में और अधिक गहराई से सोचने का अनुरोध किया गया है।
जब से इस योजना को प्रस्तावित किया गया था, तब से भारत में नदी जोड़ो को लेकर कई विशेषज्ञों के बीच असहमति बनी रही है। नदियों को जोड़ने की वजह से होने वाली ज्यादातर आलोचना इसके स्थलीय प्रभावों को लेकर है। पर्यावरणविदों और कार्यकर्ताओं ने तर्क दिया है कि अन्य पारिस्थितिक चिंताओं के अलावा नदियों को आपस में जोड़ने से भूजल स्तर में भी बदल आ सकता है। साथ ही विदेशी आक्रामक प्रजातियां के आने और नीचे की ओर तलछट जमा कम होने की भी संभावना है। केन-बेतवा इंटरलिंकिंग परियोजना के मामले में पन्ना टाइगर रिजर्व का 10 फीसदी हिस्सा जलमग्न हो जाएगा। सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक, परियोजना के लिए लगभग 6,809 हेक्टेयर वन भूमि का इस्तेमाल किया जाएगा। एनपीपी के तहत 30 नदियों को जोड़ने की परिकल्पना की गई थी और केन-बेतवा लिंक कार्यान्वयन चरण तक पहुंचने वाली इन 30 परियोजनाओं में से पहली है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे का एक नया शोध भी कुछ इसी तरह की चिंताओं की ओर इशारा कर रहा है। इस शोध का विषय था कि बड़ी मात्रा में पानी ले जाने का वायुमंडलीय फीडबैक लूप पर क्या संभावित प्रभाव हो सकता है। यह लूप वाष्पीकरण और वर्षा को नियंत्रित करता है। इको हाइड्रोलॉजिस्ट और इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट्स (आईआईएचएस) में स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट एंड सस्टेनेबिलिटी के डीन जगदीश कृष्णस्वामी ने कहा, “यह शोध नदी जोड़ने की चुनौतियों में एक नया आयाम पेश करता है।”
पेपर में पाया गया है कि सितंबर में जब मानसून वापस जा रहा होता है तो नदियों को जोड़ने जैसी गतिविधियों की वजह से पहले से ही जल संकट से जूझ रहे इलाकों में बारिश में 12 फीसद तक की कमी हो सकती है। नदी जोड़ो को ऐतिहासिक रूप से देश भर के विभिन्न क्षेत्रों में सूखे के समाधान के तौर पर देखा गया है। लेकिन पेपर कुछ और ही कहानी बयां करता नजर आ रहा है। पेपर के मुताबिक, नदियों को आपस में जोड़ने से “आने वाले महीनों में (सितंबर के बाद) नदियां सूख सकती हैं, जिससे देश के विभिन्न हिस्सों में जल संकट कई गुना बढ़ जाएगा।”
‘राष्ट्रीय जल विकास प्राधिकरण’ भारत में नदी जोड़ो की देखरेख कर रहा है, जिसने 19 अक्टूबर को केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना पर अपनी पांचवीं बैठक की थी। पेपर से जुड़ी चिंताओं पर टिप्पणियां लेने के लिए मोंगाबे इंडिया ने ईमेल के जरिए राष्ट्रीय जल विकास प्राधिकरण के महानिदेशक भोपाल सिंह से संपर्क किया था, लेकिन खबर लिखे जाने तक उनका कोई जवाब नहीं आया।
वर्षा में 12 फीसदी की कमी- अध्ययन
राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना पहली बार 1980 में प्रस्तावित की गई थी। इसका मकसद सूखाग्रस्त इलाकों में सिंचाई में सुधार के लिए नदियों के “सरप्लस” पानी को “पानी की कमी” वाली नदियों में ट्रांसफर किया जाना था। आपस में जोड़ने के लिए पहचानी गई 30 नदियों में से 16 प्रायद्वीपीय भारत में और 14 हिमालय क्षेत्र में हैं। कुल मिलाकर, ये परियोजनाएं नहरों के नेटवर्क के जरिए हर साल 174 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी को एक से दूसरी नदी में छोड़ेंगी।
आईआईटी बॉम्बे के एक शोधकर्ता और 22 सितंबर को नेचर जर्नल में प्रकाशित हुए पेपर के सह-लेखक सुबिमल घोष ने कहा, “इस पेपर का विचार वास्तव में नदियों को जोड़ने से नहीं आया है।” वह आगे कहते हैं, “हमारे द्वारा किए गए पिछले शोध से पता चला कि बड़े पैमाने पर सिंचाई के तरीकों में आए बदलाव का मानसून पर प्रभाव पड़ता है और इसलिए हमने यह देखने का फैसला किया कि नदियों को जोड़ने से क्या हो सकता है।”
शोध के दौरान भूमि और वायुमंडलीय घटनाओं जैसे मिट्टी की नमी, गर्मी, आर्द्रता, वर्षा और हवा की गति आदि पर ध्यान दिया गया था, ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि अगर नदियों को जोड़ने का काम किया जाता है तो इनमें क्या बदलाव हो सकते हैं। अध्ययन के नतीजे इस धारणा के साथ तैयार किए गए थे, मानों सभी परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं। शोध करते हुए पाया गया है कि इसकी वजह से जहां जून, जुलाई और अगस्त के महीनों में वर्षा काफी हद तक अप्रभावित रही, वहीं कई वर्षा आधारित क्षेत्रों में सितंबर में बारिश में सांख्यिकीय रूप से खासी गिरावट आई।
सितंबर में वर्षा में सबसे अधिक औसत कमी ओडिशा (12 फीसदी), आंध्र प्रदेश (10 फीसदी), राजस्थान और गुजरात (9 प्रतिशत) में पाई गई। मुख्य मानसून क्षेत्र में मध्य भारत के हिस्सों में भी वर्षा में 8 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है, साथ ही उत्तराखंड और पूर्व-मध्य भारत में पश्चिमी हिमालय की तलहटी में गिरावट (6.4 प्रतिशत) हुई है।
घोष बताते हैं कि ये परिवर्तन मिट्टी की नमी में बदलाव के कारण होते हैं। उन्होंने कहा, “जब एक बेसिन में मिट्टी की नमी में बदलाव होता है, तो यह वाष्पीकरण, कूलिंग और वर्षा को प्रभावित करके नजदीकी इलाकों के बेसिन में भी परिवर्तन ला सकता है। हमने पाया कि नदी बेसिन इन फीडबैक लूप्स द्वारा एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।” पेपर के अनुसार, मिट्टी में बढ़ी हुई नमी वाष्पीकरण के जरिए वायुमंडल में नमी की आपूर्ति कर सकती है, जिससे या तो उसी बेसिन में रीसाइकल वर्षण (बारिश या बर्फबारी) हो सकती है या हवा के जरिए बादल दूर के इलाकों में जाकर बरस सकते हैं।
पेपर में कहा गया, “वाष्पीकरण की वजह से होने वाली ठंडक विभिन्न भूमि क्षेत्रों के तापमान में उतार-चढ़ाव का कारण बन सकती है। हवा के पैटर्न में बदलाव और इसके बाद नमी का एक जगह से दूसरी जगह जाने और वर्षा होने की संभावना है।”
जहां एक तरफ सूखे क्षेत्रों में बारिश कम होने का अनुमान है, वहीं दूसरी तरफ कुछ इलाकों में सितंबर महीने में बारिश में इजाफा होने की भी उम्मीद जताई जा रही है। बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य (12 प्रतिशत वृद्धि), साथ ही महाराष्ट्र और तेलंगाना (10 प्रतिशत) के कुछ हिस्सों में बढोतरी की बात कही गई है।
अध्ययन बताता है कि सभी बेसिनों में मिट्टी की नमी को समान रूप से वितरित कर पाना दूर की बात है। लेकिन नदियों को आपस में जोड़ने से अधिक असंतुलन पैदा हो सकता है, क्योंकि नदियां भूमि, महासागर और वायुमंडल के साथ जुड़ाव का समान संतुलन साझा नहीं करती हैं। नदियों के जुड़ने से कृष्णा बेसिन, गोदावरी और नर्मदा-तापी बेसिन के पश्चिमी भाग और पूर्वी गंगा बेसिन में मिट्टी की नमी बढ़ सकती है। अध्ययन में कहा गया है, “भारतीय राज्यों ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तरी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में महानदी, गोदावरी और गंगा बेसिन के पश्चिमी हिस्से की मिट्टी की नमी में स्पष्ट गिरावट देखी गई है।”
घोष ने कहा, “जल चक्र में जितना महत्वपूर्ण घटक वायुमंडल है, उतना ही महत्वपूर्ण घटक भूमि भी है। इस तरह की परियोजनाएं डिज़ाइन करते समय इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि ‘भूमि और जल के इस्तेमाल में बदलाव होने पर इसकी क्या भूमिका रहेगी’। यह इसलिए जरूरी है ताकि इसके प्रभावों से निपटा जा सके।”
कृष्णास्वामी के अनुसार, इस पेपर के निष्कर्ष और डाउनस्ट्रीम अवसादन पर नदियों को जोड़ने के प्रभावों पर 2018 के पेपर, दोनों ही “इंटरलिंकिंग (नदियों को जोड़ने) के फायदों पर गंभीरता से सवाल उठाने के लिए पर्याप्त कारण देते हैं।” कोलोराडो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के 2018 के पेपर में पाया गया कि नदियों को जोड़ने से गंगा और ब्रह्मपुत्र डेल्टा में गाद जमाव में 30 प्रतिशत की कमी आ सकती है, जिससे यह क्षेत्र समुद्र के स्तर में वृद्धि और तटीय कटाव के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाएगा। इसमें यह भी पाया गया कि जिन 29 नदियों का मूल्यांकन किया गया है, उसमें से 24 नदियों के पानी की मात्रा में कमी आएगी, जो “आर्द्रभूमि को नुकसान पहुंचा सकती है और मीठे पानी और मुहाना पारिस्थितिकी तंत्र के बिगड़ने में योगदान कर सकती है।”
आईआईटी बॉम्बे का पेपर 1991 से 2022 तक की बारिश के आंकड़ों पर आधारित है और बारिश के मौजूदा पैटर्न के साथ नदियों को जोड़ने के परिणामों की तुलना करता है। हालांकि, यह देश पर जलवायु परिवर्तन के भविष्य के प्रभावों को प्रभावित नहीं करता है। घोष ने कहा, “हम इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट नहीं हैं कि ग्लोबल वार्मिंग का भारतीय मानसून पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसलिए हमने अपने अध्ययन के लिए सिर्फ मौजूदा स्थितियों का इस्तेमाल किया है। लेकिन हमने पिछले 50 से 70 सालों में मानसून में आई गिरावट को देखा है।” वह आगे बताते हैं, “भविष्य के लिए कुछ भी कहने से पहले यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि जलवायु परिवर्तन के अनुमान कितने विश्वसनीय हैं।”
कहां तक पहुंची हैं नदी जोड़ो परियोजनाएं
दशकों पहले कल्पना किए जाने के बावजूद नदी जोड़ो परियोजनाओं पर काफी धीमी गति से काम हो रहा है। इसके आगे बढ़ने के रास्ते में कई विवाद भी हैं। गोदावरी को कावेरी से जोड़ने की योजना में राज्यों ने गोदावरी नदी को कावेरी की ओर मोड़ने के लिए पूर्व में पानी की उपलब्धता के बारे में चिंता जताई है और जल बेसिन क्षमता के पुनर्मूल्यांकन की मांग की है। कावेरी को गादावरी से जोड़ने की इस योजना में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ राज्यों के तीन घटक शामिल हैं। फिलहाल यह योजना अटकी हुई है क्योंकि राज्यों के बीच जल बंटवारे समझौते पर अभी तक कोई सहमति नहीं बनी है।
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केंद्रीय जल आयोग के पूर्व अध्यक्ष ए.के. बजाज ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि नदियों में उपलब्ध पानी पर राज्यों के बीच मतभेदों को देखते हुए यह जरूरी नहीं है कि सभी 30 नदियो को जोड़ने की परियोजनाएं पूरी हो पाएंगी।
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश द्वारा 2021 में एक समझौते पर हस्ताक्षर करने और परियोजना को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद, केन-बेतवा नदी जोड़ो योजना कार्यान्वयन चरण तक पहुंचने वाली पहली योजना है। हालांकि, इस महीने की शुरुआत में दी गई वन मंजूरी 46 शर्तों के साथ आती है। इंडियन एक्सप्रेस की हालिया समाचार रिपोर्ट के अनुसार, परियोजना की वन्यजीव मंजूरी अभी भी सुप्रीम कोर्ट में विवादाधीन है और इसे जमीन पर लागू करने से पहले नए पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता हो सकती है।
बजाज ने कहा, “आईआईटी बॉम्बे अध्ययन जिस तरह का परिणाम पेश कर रहा है, हम शायद उस तरह के नतीजे नहीं देख पाएंगे क्योंकि सभी राज्य नदियों को जोड़ने पर सहमत नहीं होंगे। उन्होंने आगे कहा, नदियों को जोड़ने की परियोजना के चलते कई स्टोरेज डैम भी बनेंगे, जो सूखे या कम वर्षा की अवधि से निपटने में मदद कर सकते हैं।
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बैनर तस्वीर: बेतवा नदी मध्य प्रदेश के अशोकनगर से होकर उत्तर प्रदेश की सीमा के पास बहती है। तस्वीर– पंकज सक्सेना/विकिमीडिया कॉमन्स