- ट्रांस-हिमालयी क्षेत्र के नीली भेड़ों के स्थानिक आनुवंशिक पैटर्न पर किया गया एक अध्ययन बताता है कि आबादी के बीच किसी भी तरह का कोई जैनेटिक बदलाव नहीं हुआ है।
- माना जाता है कि भौतिक कॉरिडोर न होने की वजह से उत्तरी भारत के लद्दाख और लाहौल-स्पीति क्षेत्रों में अध्ययन की गई आबादी अपने ही क्षेत्र तक सीमित रही है।
- विशेषज्ञों को डर है कि इसका प्रजातियों के जीन पूल पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकता है। वे रणनीतियों में से एक के रूप में संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क की फिर से जांच की मांग कर रहे हैं।
यह अभी भी बड़ी हैरानी की बात है कि कैसे एक अनगुलेट, जो न तो नीला है, न ही भेड़ है, उसे नीली भेड़ कहा जाने लगा। इनके शरीर की बनावट, व्यवहार और मॉलिक्यूलर विश्लेषणों से पता चला है कि भेड़ जैसे इस जानवर का रंग स्लेटी ग्रे से हल्के भूरे रंग तक अलग-अलग होता है। ये भेड़ की तुलना में बकरियों से अधिक निकटता से संबंधित है। संरक्षण विज्ञान के पास भी इस प्रजाती के बारे में बहुत कम जानकारी है क्योंकि नीली भेड़ का अध्ययन ज्यादातर आकर्षक हिम तेंदुए के शिकार के तौर पर ही किया गया है।
लेकिन प्रजातियों के लिए संरक्षण प्राथमिकता वाले क्षेत्रों की पहचान करने वाले एक हालिया अध्ययन में नीली भेड़ (स्यूडोइस नायौर) पर ध्यान दिया गया है। यह उन परिदृश्य विशेषताओं का अध्ययन करके किया गया है जो भारत के ट्रांस-हिमालयी क्षेत्र में प्रजातियों के विस्तार, आनुवंशिक संरचना, उनके जैनेटिक पैटर्न को निर्धारित करते हैं। क्षेत्र सर्वेक्षण, आबादी के विस्तार, आनुवंशिक विश्लेषण और जनसांख्यिकीय आकलन के जरिए शोधकर्ताओं ने पाया कि अध्ययन क्षेत्र में से केवल 18,775 किमी2 (<20%) ही नीली भेड़ के लिए उपयुक्त है। इस अध्ययन में हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले और लद्दाख के लेह और कारगिल जिले शामिल थे।
पेपर के प्रमुख लेखक और जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के स्टैनजिन डॉल्कर ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि नीली भेड़ इस क्षेत्र में सबसे कम अध्ययन किए गए अनगुलेट्स में से एक है, इसके बावजूद कि यह प्रजाति, आइबेक्स के साथ हिमालय में दो बड़े शिकारियों हिम तेंदुआ और हिमालयी भेड़िया के लिए एक प्रमुख शिकार है।

डॉल्कर ने कहा, हिम तेंदुए का अध्ययन करने में लोगों की दिलचस्पी ज्यादा है और इसके लिए फंड भी मिल जाता है। लेकिन हिम तेंदुए की आबादी को बनाए रखने वाली नीली भेड़ के बारे में कोई नहीं सोचता है। यही कारण है कि उन्होंने आनुवंशिक अध्ययन के लिए इस प्रजाति को चुना। नेपाल स्थित शोधकर्ता कमल थापा ने भी नीली भेड़ों पर अध्ययन किया है। उन्होंने इस प्रयास का स्वागत करते हुए कहा कि अब तक पहाड़ी बकरियों की आनुवंशिक विविधता के बारे में बहुत कम जानकारी थी। परंपरागत रूप से शोधकर्ता अवलोकन के जरिए प्रजातियों का अध्ययन करते आए हैं क्योंकि आनुवंशिक अध्ययन भले ही अलग तरह की विशेष जानकारी देता हो, महंगा है और बिना फंड के इसे कर पाना असंभव है। और अनुगलेट यानी एक खुर वाले स्तनपायी के लिए तो इस तरह का अध्ययन और भी मुश्किल हो जाता है। थापा इस अध्ययन का हिस्सा नहीं थे।
अध्ययन में डीएनए विश्लेषण के लिए जानवरों के मल के नमूनें लिए गए थे और आकलन किया कि कैसे कम संसाधनों के बावजूद बड़े पैमाने पर शुष्क ट्रांस-हिमालयी क्षेत्र ने नीली भेड़ की आबादी को बनाए रखा है। जबकि पिछले कुछ दशकों से इस भेड़ की आबादी घटने की आशंका बनी हुई है। अध्ययन में लाहौल-स्पीति और लद्दाख के दो क्षेत्रों के बीच जैनेटिक स्तर पर बदलाव के साथ-साथ प्रजातियों के स्थानिक आनुवंशिक पैटर्न पर भी गौर किया। अध्ययन में प्रजातियों की आबादी और उसके विस्तार पर पड़ने वाले जैव-जलवायु प्रभाव पर भी नजर रखी गई थी।
लेह, कारगिल, लाहौल और स्पीति जिलों में किए गए अध्ययन में पाया गया कि भले ही ये ट्रांस-हिमालयी क्षेत्र उनके निवास स्थान हो, लेकिन जहां लेह और स्पीति काफी अधिक शुष्क एरिया हैं, वहां बारिश और वनस्पति भी कम है। वहीं कारगिल और लाहौल थोड़ी कम ऊंचाई पर हैं और वहां काफी ज्यादा बारीश होती है और पेड़-पौधे भी काफी हैं।
नीली भेड़ों की आबादी में जैनेटिक स्तर पर बदलाव के लिए कॉरिडोर की जरूरत
यह प्रजाति लुप्तप्राय प्रजातियों की IUCN लाल सूची यानी “सबसे कम जोखिम” में सूचीबद्ध है। विशेषज्ञ इस वर्गीकरण के दो वजह गिनाते हैं। एक तो यह कि बड़े पैमाने पर यहां वहां फैली इस प्रजाति को शायद दुनिया भर में एक बड़ी आबादी मान लिया गया है। दूसरा कारण इनकी गिरती आबादी का दस्तावीजीकरण न किया जाना है। ये प्रजाति दुनिया में सिर्फ भारत, चीन, भूटान, नेपाल और उत्तरी पाकिस्तान में मौजूद है। भारत में ये अधिकतर लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में पाई जाती है। 2021 में एक अध्ययन में बताता है कि इन इलाकों में इंसानी आबादी के बढ़ने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के कारण नीली भेड़ और अन्य पर्वतीय अनगुलेट्स को खतरा बढ़ा है। भारत में यह अनुसूची I प्रजाति है, जिसे वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत उच्च संरक्षण दिया गया है।

जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिक और अध्ययन के सह-लेखक मुकेश ठाकुर ने कहा कि जनसंख्या अनुमान के अभाव में यह कहना मुश्किल है कि क्षेत्र में कितनी नीली भेड़ें मौजूद हैं। वैसे तो उम्मीद यही है कि इनकी संख्या 10,000-15,000 के आस-पास होगी। अध्ययन से पता चला है कि आबादी के अपने-अपने क्षेत्र में सीमित रहने और उनके बीच जैनेटिक स्तर में कोई बदलाव न आने की वजह से इनकी जनसंख्या आनुवंशिक रूप से स्थिर है। ऐसा शायद सीमित कॉरिडोर और वनस्पति में अनियमतता के कारण है। जांस्कर रेंज जो दोनों क्षेत्रों को विभाजित करती है, दोनों क्षेत्रों की आबादी के बीच एक बड़ी बाधा है। कहा जा सकता है कि इन क्षेत्र में आने-जाने के लिए इन भेड़ो के पास कोई रास्ता नहीं है और ये अपने क्षेत्र तक ही सीमित रह जाती हैं। इस कारण इनके जीन में किसी तरह का कोई बदलाव देखने को नहीं मिला है। विशेषज्ञों का कहना है कि आबादी के बीच नई नस्ल का बनना या जीन में परिवर्तन प्रजातियों के दीर्घकालिक स्वास्थ्य और भरण-पोषण के लिए महत्वपूर्ण होता है।
डॉल्कर ने समझाया, “अगर किसी क्षेत्र में वर्षों या पीढ़ियों से आजादी से यहां से वहां घूमने वाली आबादी के जीन में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं आता है, तो आबादी इनब्रीडिंग (सजाती प्रजनन) का सहारा ले सकती है और गंभीर जनसांख्यिकीय परिवर्तनों से गुजर सकती है। यह प्रजातियों के दीर्घकालिक अस्तित्व को प्रभावित कर सकता है।” एक ही क्षेत्र तक सीमित रहने से जीन में बदलाव नहीं आ पाता है और भविष्य में क्षेत्र में एक ही तरह का जैनिटक पैटर्न देखने को मिलता है। उन्होंने कहा, किसी जनसंख्या को तभी व्यवहार्य माना जाता है जब उसके जीन में बदलाव आता रहे।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि सर्दियों के दौरान आबादी निचले इलाकों की ओर चली जाती है। इस दौरान समूहों के बीच नर और मादा भेड़ों के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में चले जाने की संभावना अधिक होती है। ठाकुर ने कहा, “यह एक तरह की व्यवहारिक घटना है जो प्रवास के दौरान समूहों के बीच नर और मादा का आदान-प्रदान करके उनके जीन पूल को समृद्ध करती रहती है।”
ग्लोबल वार्मिंग से जनसंख्या स्थिरता को खतरा
चूंकि अध्ययन कम इंसानी आबादी वाले इलाकों में किया गया था, इसलिए इसमें इंसानों की वजह से पड़ने वाले असर का कोई जिक्र नहीं था। लेकिन पेपर ने जैव-जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता जाहिर की है। पहले के अध्ययनों से पता चला है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय क्षेत्र में हिम तेंदुए ऊपरी इलाकों की तरफ जा रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि नीली भेड़ें भी शायद खाने की तलाश में ऊंचाइयों की ओर रुख कर रही हैं। थापा ने कहा, “नीली भेड़ें अब 5600 मीटर की तुलना में 5800 मीटर की ऊंचाई पर पाई जाती हैं।” उन्होंने बताया कि जलवायु परिवर्तन के अलावा, हिमालय में देशी प्रजातियों की जगह लेने वाली विदेशी आक्रामक प्रजातियों का प्रसार नीली भेड़ की आबादी के ऊपर की ओर बढ़ने का एक और कारण है।
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अध्ययन के मुताबिक, अध्ययन क्षेत्र के लगभग 106,014 किमी2 में से केवल 18,775 किमी2 (<20%) नीली भेड़ के लिए उपयुक्त पाया गया है। यह अध्ययन मुख्य रूप से लद्दाख (एलए) के लेह क्षेत्र और लाहौल-स्पीति के स्पीति क्षेत्र में किया गया था। अध्ययन में संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क की फिर से जांच की मांग की गई है क्योंकि नीली भेड़ों के लिए ज्यादातर उपयुक्त आवास के साथ-साथ भौगोलिक कॉरिडोर भी मौजूदा संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क के बाहर पाए गए हैं। ठाकुर ने कहा, “हमें इस बात की बेहतर समझ की जरूरत है कि नीली भेड़ों के संरक्षण के लिए संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क को कैसे कुशल बनाया जा सकता है क्योंकि यह प्रजाति काफी हद तक स्वदेशी वनस्पति पर निर्भर करती है।” अध्ययन प्रजातियों के स्वस्थ जीन पूल को बनाए रखने के लिए आबादी के लिए भौगोलिक कॉरिडोर को बनाए रखने के महत्व को रेखांकित करता है।
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बैनर तस्वीर:कैमरे में कैद अपने मेमने के साथ एक नीली भेड़ की तस्वीर। विशेषज्ञों का मानना है कि जानवरों के लिए उपयुक्त आवास के रूप में ट्रांस-हिमालयी क्षेत्र में संरक्षित क्षेत्रों के नेटवर्क की फिर पड़ताल की जानी चाहिए। तस्वीर- एनएमएचएस