- भारत के मैदानी इलाकों से निकलने वाला ब्लैक कार्बन तिब्बती पठार पर ग्लेशियरों को पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा तेज़ी से पिघला रहा है। इससे एक अरब से ज़्यादा लोगों के लिए पानी की आपूर्ति कम हो रही है।
- ब्लैक कार्बन की कालिख बर्फ को काला कर देती है और बर्फबारी को बाधित करती है, जिससे ग्लेशियरों के पिघलने की गति तेज हो जाती है। लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड के विपरीत ब्लैक कार्बन का प्रभाव अल्पकालिक होता है।
- एक हालिया अध्ययन में पाया गया है कि घरों, उद्योगों और कृषि से उत्सर्जन में कटौती करके हिमालय की बर्फ के पिघलने की प्रक्रिया को कुछ ही वर्षों में धीमा किया जा सकता है।
एक नए अध्ययन में पाया गया है कि हिमालय से बहुत तेज़ी से बर्फ़ पिघल रही है और इसका कारण सिर्फ विश्व का बढ़ता तापमान नहीं है। हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों के लिए सबसे मौजूदा खतरा दक्षिण एशिया के विशाल मैदानों में चूल्हों, ईंट भट्टों, डीजल इंजनों और फ़सलों की आग से निकलने वाला ब्लैक कार्बन है। ब्लैक कार्बन के कणों या इस कालिख की वायुमंडल में मौजूदगी कुछ दिनों से लेकर हफ़्तों तक ही रहती है। फिर भी, इस छोटी सी अवधि के दौरान, वे पूरे क्षेत्र के जल संसाधनों पर बहुत गहरा और असमान प्रभाव डालते हैं।
कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट नामक जर्नल में जून में प्रकाशित हुए इस अध्ययन में पाया गया कि दक्षिण एशिया से आए ब्लैक कार्बन के कारण 2007 से 2016 के बीच दक्षिणी तिब्बती पठार पर ग्लेशियर के द्रव्यमान में 33.7% की गिरावट हुई। यह आंकड़ा दशक भर में हुए बर्फ के नुकसान का लगभग एक तिहाई है। यह अध्ययन चीन के लान्चो स्थित चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंसेज के क्रायोस्फेरिक साइंस एंड फ्रोजन सॉयल इंजीनियरिंग प्रयोगशाला के वैज्ञानिक जुनहुआ यांग के नेतृत्व में किया गया है।
इस अध्ययन के निष्कर्ष हिमालय में सक्रिय एक शोध संगठन, इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD), की चेतावनी को पुष्ट करते हैं, जिसने हिंदू कुश हिमालय में ग्लेशियरों के तेजी से क्षरण को कालिख और धूल के जमाव से होने वाले एल्बिडो परिवर्तनों से जोड़ा है। एल्बिडो परिवर्तन पृथ्वी की जलवायु के संदर्भ में किसी सतह की परावर्तकता में परिवर्तन को दर्शाता है। जब किसी सतह के एल्बिडो में परिवर्तन होता है, तो यह सौर ऊर्जा को परावर्तित करने की मात्रा को अवशोषित करने की मात्रा की तुलना में बदल देता है, जिसका क्षेत्रीय और वैश्विक तापमान पर प्रभाव पड़ता है। इस क्षति का आकलन करने वाला नवीनतम शोध, गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदियों के भविष्य को लेकर गंभीर प्रश्न उठाता है। यह नदियां ग्लेशियरों के अपवाह पर निर्भर हैं और दक्षिण एशिया में एक अरब से ज़्यादा लोगों का भरण-पोषण करती हैं।
ब्लैक कार्बन और तेज़ी से पिघलते ग्लेशियर
ब्लैक कार्बन ग्लेशियर को दो तरह से प्रभावित करता है। पहला, यह ग्लेशियर की सतह पर जमकर सूर्य की किरणों को परावर्तित या रिफ्लेक्ट करने की उनकी क्षमता को कम कर देता है। इस वजह से ग्लेशियर की बर्फ ज़्यादा गर्मी अवशोषित करती है और तेज़ी से पिघलती है। हालिया अध्ययन ने इस परिक्षण के दौरान एल्बिडो में कमी के कारण ग्लेशियर के पिघलने में 7.5% की तेजी रिकॉर्ड की।
दूसरा, वायुमंडल में मौजूद ब्लैक कार्बन बादलों के बनने और उनके व्यवहार को बदल देता है। यह नमी के बहाव में बाधा डालता है और बर्फबारी को रोकता है, जिससे ग्लेशियरों को हर मौसम में मिलने वाली बर्फ नहीं मिल पाती। ICIMOD के ग्लेशियोलॉजिस्ट और वरिष्ठ सलाहकार अरुण श्रेष्ठ, जो इस अध्ययन से जुड़े नहीं थे, ने कहा, “इससे बर्फबारी और बर्फ का जमाव कम होता है, ग्लेशियरों का पोषण कम होता है और कुल द्रव्यमान में हानि बढ़ती है।” यांग के अध्ययन में पाया गया कि इस अप्रत्यक्ष प्रक्रिया के कारण ग्लेशियर के द्रव्यमान में 6.1% की अतिरिक्त कमी आई।

अध्ययन में इस्तेमाल किये गए WRF-Chem मॉडल (वेदर रिसर्च एंड फोरकास्टिंग मॉडल कपल्ड विथ केमिस्ट्री), मौसम संबंधी परिघटनाओं और ट्रेस गैसों व एरोसोल (जल वाष्प) की गतिशीलता, दोनों का अनुकरण करता है, जिससे वायु गुणवत्ता और वायुमंडलीय रसायन विज्ञान की व्यापक समझ विकसित होती है। ट्रेस गैसें वे गैसें हैं जो किसी ग्रह के वायुमंडल में बहुत कम मात्रा में पाई जाती हैं, जैसे पृथ्वी के वायुमंडल में मौजूद आर्गन, मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड, और ओजोन। ये गैसें, भले ही मात्रा में कम हों, वायुमंडलीय रसायन विज्ञान और जलवायु को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
इस मॉडल ने उन वायुमंडलीय मार्गों का पता लगाया जो ब्लैक कार्बन कणों को ले जाते हैं। इस मॉडल ने यह दर्शाया कि कैसे ऊपर की ओर बहने वाली हवाएँ घनी आबादी वाले सिंधु-गंगा के मैदान से प्रदूषण के साथ ब्लैक कार्बन को काली गंडकी जैसी गहरी पर्वतीय घाटियों से होकर हिमालय की सीमा को पार करती हुई ग्लेशियर के अंदरूनी क्षेत्रों तक पहुँचाती हैं।
श्रेष्ठ के अनुसार इस अध्ययन के निष्कर्ष बेहद महत्वपूर्ण हैं। “इससे पता चलता है कि क्रायोस्फीयर में लगभग एक-तिहाई क्षेत्रीय परिवर्तन अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों के कारण हैं, न कि केवल दीर्घकालिक ग्रीनहाउस गैसों के कारण,” उन्होंने बताया।
इन सभी परिवर्तनों का प्रभाव ग्लेशियरों के सिकुड़ने से कहीं आगे तक जाता है। ग्लेशियर के पिघलने के समय और तीव्रता में बदलाव ने जलविद्युत, कृषि और अन्य उपयोगों के लिए पानी की उपलब्धता को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। ग्लेशियरों का अपवाह सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों में वसंत और गर्मी में प्रवाह में योगदान देता है, जिससे वर्षा की परिवर्तनशीलता कम होती है और निचली धाराओं में सिंचाई के नेटवर्क को पोषण मिलता है। ग्लेशियरों की बर्फ का लगातार पिघलना इस नाजुक मौसमी संतुलन को बदल देता है, जिससे लाखों लोगों के लिए भोजन और पानी की सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है।

“हम जानते हैं कि चीज़ें बदल रही हैं, लेकिन यह जानना जरूरी है कि वे कितनी तेजी से बदल रही हैं और उन्हें धीमा करने या रोकने के लिए क्या किया जा सकता है,” नॉर्वेजियन जल संसाधन एवं ऊर्जा निदेशालय के ग्लेशियर, बर्फ और हिम अनुभाग की वैज्ञानिक मिरियम जैक्सन ने कहा। उन्होंने बताया कि ब्लैक कार्बन की अत्यधिक मात्रा वाले उत्सर्जन को कम करने की तत्काल आवश्यकता है।
दक्षिण एशिया में अधिकांश ब्लैक कार्बन उत्सर्जन के कुछ सीमित स्रोत हैं। ऊर्जा अनुसंधान संस्थान (TERI) के वायु गुणवत्ता अनुसंधान केंद्र के फेलो निमिष सिंह के अनुसार, भारत में ब्लैक कार्बन उत्सर्जन में घरेलू बायोमास के जलने का योगदान लगभग आधा है। शेष उत्सर्जन ईंट भट्टों (17%), परिवहन (12%), फसल अवशेषों की आग (8%) और औद्योगिक स्रोतों (7%) से होता है। सिंह ने बताया कि ये मान मौसमी बदलावों के कारण अनुमानित हैं।
इसके बावजूद, भारत का राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) मुख्यतः परिवहन और धूल के नियंत्रण पर केंद्रित है। कौंसिल फॉर एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (CEEW), एक थिंक-टैंक, की समीक्षा के अनुसार, एनसीएपी की नियोजित गतिविधियों में से केवल 2% ही जैव ईंधन दहन पर केंद्रित हैं। ग्लेशियरों के पिघलने का कारण बनने वाले भट्टे और घरेलू उत्सर्जन अक्सर नियंत्रण से बच जाते हैं।
“एनसीएपी कार्यक्रम में परिवहन पर अत्यधिक जोर दिया गया है और घरेलू ईंधन, अनौपचारिक भट्टियों और कृषि ईंधन जलाने की अपेक्षाकृत उपेक्षा की गई है, जिससे उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत लगभग अछूते रह गए हैं,” सिंह ने कहा। क्षेत्रीय अध्ययनों से पता चलता है कि कई परिवार लागत या आपूर्ति संबंधी समस्याओं के कारण एलपीजी की उपलब्धता के बावजूद लकड़ी के ईंधन का उपयोग करते हैं। पारंपरिक भट्टियाँ, जो अभी भी व्यापक रूप से प्रचलित हैं, उच्च उत्सर्जन वाली और अनियमित बनी हुई हैं। शरद ऋतु के दौरान फसल अवशेष जलाने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है, जिससे कालिख हिमालय की ओर बहती है।
सीमा पार से जुड़े मुद्दे
चूँकि ब्लैक कार्बन एरोसोल किसी देश तक सीमित नहीं हैं और सीमा के पार जाते हैं, इसलिए यह नीतिगत हस्तक्षेप और वैज्ञानिक समझ दोनों के लिए जटिलताएँ पैदा करता है। ICIMOD और नॉर्वेजियन इंस्टीट्यूट फॉर एयर रिसर्च द्वारा किए गए शोध में प्रदूषण के प्रवाह का मानचित्रण किया है, जिससे पता चलता है कि भारत, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश से होने वाले उत्सर्जन मिलकर बर्फ के क्षरण में योगदान करते हैं, और दक्षिणी और पूर्वी हिमालय के ग्लेशियर प्रमुख उत्सर्जन स्रोतों के निकट होने के कारण विशेष रूप से असुरक्षित हैं।
ग्लेशियरों पर कालिख या ब्लैक कार्बन के प्रभावों की निगरानी भी बहुत कठिन है। “दक्षिण एशिया में ग्लेशियरों, नदी के बहाव, और हवा के तापमान जैसे संबंधित कारकों की, खासकर ऊँचाई पर, स्थानीय निगरानी सामान्यतः बहुत खराब है,” जैक्सन ने कहा। हालांकि, बेहतर निगरानी की ज़रूरत वैज्ञानिक जिज्ञासा से आगे बढ़कर व्यावहारिक जल प्रबंधन आवश्यकताओं तक भी पहुँचती है।
“हमें इन मापों की और जरूरत है, खासकर पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ परिवर्तन बहुत तेज़ी से हो रहे हैं और बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं,” जैक्सन ने बताया।
सुधार का मौका
हालाँकि, ब्लैक कार्बन का वायुमंडल में कम समय तक रहना, एक सुधार का अवसर प्रदान करता है। कार्बन डाइऑक्साइड के विपरीत, ब्लैक कार्बन वायुमंडल में केवल कुछ दिनों या हफ्तों तक ही रहता है। इसका अर्थ है कि उत्सर्जन में कटौती से त्वरित परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। यांग के अध्ययन में की गई मॉडलिंग से पता चलता है कि दो दशकों में पूरे दक्षिण एशिया में ब्लैक कार्बन उत्सर्जन में 50-80% की कटौती करके, भविष्य में ग्लेशियरों के एक-तिहाई तक के क्षरण को रोका जा सकता है।

“यह मिटिगेशन या शमन के एक महत्वपूर्ण अवसर की ओर इशारा करता है क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड के विपरीत, ब्लैक कार्बन का वायुमंडल में जीवनकाल छोटा होता है और नीतिगत कार्रवाई से इसके प्रभावों को शीघ्रता से कम किया जा सकता है,” श्रेष्ठ ने कहा। इस तरह की कमी के लिए खाना पकाने के साफ़ तरीकों को बढ़ावा देना, भट्टियों का आधुनिकीकरण करना, अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार करना और डीजल मानकों को लागू करना आवश्यक होगा। इन उपायों से न केवल ग्लेशियरों की स्थिरता में सुधार होगा, बल्कि शहरी प्रदूषक, पीएम 2.5, का जोखिम भी कम होगा, जिससे निकट भविष्य में स्वास्थ्य लाभ होंगे।
ब्लैक कार्बन, वायु प्रदूषण के एक प्रमुख घटक के रूप में, श्वसन और हृदय संबंधी रोगों में सीधे तौर पर योगदान देता है, जिससे दक्षिण एशिया में हर साल लाखों लोगों की अकाल मृत्यु होती है। यह अनुमान लगाया गया है कि ब्लैक कार्बन की प्रभावी निवारण रणनीतियों के माध्यम से 2015 से 2030 के बीच 40 लाख से 1.2 करोड़ अकाल मौतों को टाला जा सकता है।
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चूँकि ब्लैक कार्बन दूर तक फैलता है, इसलिए केवल राष्ट्रीय कार्रवाई ही पर्याप्त नहीं होगी।”जलवायु और ग्लेशियरों पर ब्लैक कार्बन के सीमापारीय प्रभावों से निपटने के लिए, विशेष रूप से हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में, क्षेत्रीय सहयोग आवश्यक है,” सिंह ने कह। जहाँ ICIMOD हिमालयी देशों के बीच वैज्ञानिक सहयोग को सुगम बनाता है, वहीं सार्क और बिम्सटेक जैसे राजनीतिक मंचों को समन्वित ब्लैक कार्बन कार्रवाई के लिए बाध्यकारी ढाँचों की आवश्यकता है।
निरंतर निष्क्रियता के व्यापक परिणाम होते हैं। “अगर हमें पता चलता है कि परिवर्तन बहुत तेज़ी से हो रहे हैं, तो यह अनुकूलन की सीमाओं से परे हो सकता है,” जैक्सन ने चेतावनी दी।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 4 अगस्त, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: तिब्बत में स्थित एक ग्लेशियर। प्रतीकात्मक तस्वीर Pixabay के माध्यम से।