- ब्लैक कार्बन पर्यावरण के लिए दोहरा खतरा है, क्योंकि यह हवा को प्रदूषित करता है और वातावरण को भी गर्म करता है, जिससे जलवायु परिवर्तन की गति तेज हो जाती है।
- अपने असर के चलते ब्लैक कार्बन किसी भी क्षेत्र में शामिल नहीं होता है और इसके उत्सर्जन को जलवायु फ्रेमवर्क या हवा की गुणवत्ता से जुड़े रेगुलेशन में सीधे नियंत्रित नहीं किया जाता है।
- जानकारों के अनुसार, भारत को अपने स्वच्छ हवा कार्यक्रम में ब्लैक कार्बन उत्सर्जन को शामिल करना चाहिए, जिससे वायु गुणवत्ता बेहतर होगी और जलवायु से जुड़े फायदे भी होंगे।
वायुमंडल में ब्लैक कार्बन की बढ़ती मात्रा के चलते भारत और चीन जैसे एशियाई देशों में बहुत ज्यादा बारिश हो रही है। ब्लैक कार्बन उत्सर्जन भी बारिश के पैटर्न पर असर डाल रहा है, क्योंकि यह बारिश के बादलों को उत्तर की ओर खिसका देता है। सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी (सीएसटीईपी) और क्लीन एयर फंड के एक पॉलिसी ब्रीफ में यह संकेत दिया गया है।
ब्लैक कार्बन वायुमंडल में कम समय तक रहने वाला एक जलवायु प्रदूषक है। इसे कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के बाद जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार दूसरा मुख्य घटक माना जाता है। यह बायोमास, जीवाश्म ईंधन और कचरे को आधा जलाने से बनने वाली कालिख के रूप में उत्सर्जित होता है। ये सूक्ष्म कण PM2.5 का एक अहम हिस्सा हैं। यह एक अल्पकालिक जलवायु बल (एसएलसीएफ) भी है, जिसका मतलब है कि यह CO2 की तुलना में कम समय के लिए वातावरण में रहता है। लेकिन इसमें वायुमंडल को गर्म करने की ज्यादा क्षमता होती है। ब्लैक कार्बन का अनुमानित जीवनकाल कुछ हफ्ते का होता है, लेकिन प्रति इकाई CO2 द्रव्यमान की तुलना में गर्म करने का इसका प्रभाव 1,500 गुना तक ज्यादा मजबूत होता है।
यह रिपोर्ट आर्कटिक, हिमालय और एंडीज में बर्फ पिघलने की गति को तेज करने, पश्चिम अफ्रीका और भारत में मानसून के पैटर्न में बाधा डालने और खतरनाक लू के असर को और बढ़ाने में ब्लैक कार्बन की भूमिका पर रोशनी डालती है।
इसके हानिकारक असर के बावजूद ब्लैक कार्बन अक्सर जलवायु परिवर्तन चर्चाओं से गायब रहता है, क्योंकि ब्लैक कार्बन से समृद्ध स्रोतों पर देशों के बीच विवाद है और वातावरण को गर्म करने में इसके योगदान के बारे में अनिश्चितताएं हैं। जलवायु और वायु प्रदूषक के रूप में इसकी दोहरी प्रकृति के कारण यह किसी भी क्षेत्र में शामिल नहीं होता है और यह मुख्यधारा के जलवायु और स्वास्थ्य एजेंडे से काफी हद तक गायब है। हालांकि, जैसे-जैसे अनुसंधान और अध्ययन जलवायु परिवर्तन, बर्फ के पिघलने, मानसून और मौसम के पैटर्न, बाढ़ और गर्मी के जोखिम और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ब्लैक कार्बन के असर की पहचान करते हैं, इसे जलवायु कार्रवाई से जुड़ी कोशिशों में शामिल करने की मांग बढ़ रही है।
इस पॉलिसी ब्रीफ को दिसंबर, 2023 में दुबई में हुए 28वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन (कॉप-28) के अवसर पर जारी किया गया था।
सीएसटीईपी में वायु गुणवत्ता के प्रमुख और पॉलिसी ब्रीफ के लेखकों में से एक आर. सुब्रमण्यन ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “हवा की गुणवत्ता से जुड़े नियम स्पष्ट रूप से ब्लैक कार्बन को टार्गेट नहीं करते हैं और इसलिए ब्लैक कार्बन उत्सर्जन को जलवायु ढांचे या वायु गुणवत्ता नियमों के जरिए सीधे नियंत्रित नहीं किया जाता है। इस पॉलिसी ब्रीफ के जरिए, हम वायु प्रदूषण (लोग डीजल इंजन, लकड़ी/गोबर के चूल्हे, केरोसिन लैंप वगैरह से उत्सर्जित काले कार्बन/कालिख में सांस लेते हैं) और जलवायु (तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर और समुद्री बर्फ) दोनों के लिए ब्लैक कार्बन की दोहरी प्रकृति को उजागर करने की उम्मीद करते हैं।”
मॉनसून पर असर
रिपोर्ट में बताया गया है कि ब्लैक कार्बन क्षेत्रीय स्तर पर बारिश के पैटर्न में होने वाले बदलावों और जल विज्ञान चक्र (हाइड्रोलॉजिकल सायकल) की गति को धीमा करने में अहम योगदान देता है, जिससे सूखे जैसी स्थिति पैदा होती है। वैश्विक हाइड्रोलॉजिकल संवेदनशीलता पर इसका असर कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) से लगभग दोगुना है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास के सहायक प्रोफेसर चंदन सारंगी कहते हैं,“ब्लैक कार्बन वायुमंडलीय थर्मोडायनामिक्स पर असर डाल सकता है और इस प्रकार संवहन क्षमता को प्रभावित कर सकता है और भारत में बारिश और बारिश के कम होने के मौसमी रुझान को तय कर सकता है। सोखने की अपनी प्रकृति के कारण, यह दो तरह से काम करता है और साथ ही सतह पर पहुंचने वाले सूरज की किरणें और वातावरण को कम गर्म करता है। इस तरह यह सतह के तापमान और वायुमंडल के तापमान और इस प्रकार मानसून परिसंचरण दोनों को प्रभावित करता है।” सारंगी पृथ्वी प्रणाली से जुड़े वैज्ञानिक हैं और उन्होंने एरोसोल-क्लाउड-क्लाइमेट इंटरैक्शन पर बड़े पैमाने पर काम किया है।
हालांकि, ब्रीफ से पता चलता है कि बारिश के क्षेत्रीय पैटर्न पर ब्लैक कार्बन के सटीक असर को जानने के लिए स्थानीय ऊर्जा संतुलन, नमी परिवर्तन और बादल प्रभाव जैसी कई जटिलताओं पर फोकस शोध की जरूरत है।
पेसिफिक नॉर्थवेस्ट नेशनल लेबोरेटरी में पृथ्वी वैज्ञानिक डेलि हाओ कहते हैं, “ब्लैक कार्बन बारिश पर असर डाल सकता है; जमा हुआ काला कार्बन बर्फ और ग्लेशियर के पिघलने में तेजी ला सकता है। यह वायु की गुणवत्ता और फिर इंसानी स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर सकता है। दरअसल, हाई माउंटेन एशिया (एचएमए) जलवायु प्रणाली (बर्फ सहित) में ब्लैक कार्बन के असर का अध्ययन करने के लिए एक हॉटस्पॉट है।”
हालांकि, सारंगी और हाओ दोनों ही पॉलिसी ब्रीफ का हिस्सा नहीं थे।
जंगल की आग से विकराल होती समस्या
हाओ ने ब्लैक कार्बन उत्सर्जन में जंगल की आग की बढ़ती भूमिका पर चिंता भी जताई। वह इस क्षेत्र में आगे की जांच का भी सुझाव देते हैं।
सीएसटीईपी के सुब्रमण्यम के मुताबिक दुनिया भर में ब्लैक कार्बन उत्सर्जन में जंगल की आग का योगदान परिवहन से ज्यादा है। वह कहते हैं, “शहरी क्षेत्रों में, परिवहन को अक्सर ब्लैक कार्बन उत्सर्जन के मुख्य स्रोत के रूप में देखा जाता है। सड़क पर चलने वाले वाहन डीजल उत्सर्जन का लगभग एक-चौथाई और आवासीय बायोमास ईंधन का लगभग 35% मानवजनित ब्लैक कार्बन का योगदान होने का अनुमान है – जो सभी के अनुसार दुनिया भर में ब्लैक कार्बन का दो-तिहाई है। जंगल की आग का योगदान साल-दर-साल बदलता रहता है, लेकिन आम तौर पर यह वैश्विक ब्लैक कार्बन का लगभग एक-तिहाई होता है (परिवहन से काफी अधिक)।”
उत्तराखंड के भागीरथ-खरक ग्लेशियर और गंगोत्री ग्लेशियर घाटी में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि मध्य हिमालय में काले कार्बन के प्रवाह की बहुत ज्यादा दर में जंगल की आग और बायोमास के जलने की बड़ी भूमिका है।
सारंगी कहते हैं, “भारत में, हमें ब्लैक कार्बन के उत्सर्जन और इस प्रकार जंगल की आग से उनमें होने वाली बढ़ोतरी की मात्रा तय करने की जरूरत है। यह अच्छी तरह से तय नहीं है, लेकिन ऐसा करना पहाड़ी क्षेत्रों के लिए अहम हो सकता है जहां उद्योग और यातायात से स्थानीय उत्सर्जन और ब्लैक कार्बन का प्रवाह कम है।”
ज्यादा शोध की जरूरत
पॉलिसी ब्रीफ में इस कम समय वाले जलवायु प्रदूषक (एसएलपीसी) की समझ में बाकी बची अनिश्चितताओं की जांच के लिए ब्लैक कार्बन और एयरोसोल के क्षेत्र में ज्यादा शोध का सुझाव दिया गया है। यह आगे के वैज्ञानिक अनुसंधान में वित्तीय मदद देने के लिए निकायों को मदद देने का भी आह्वान करता है।
हाओ कहते हैं, “हमारे जलवायु सिस्टम पर ब्लैक कार्बन के असर को लेकर बड़ी अनिश्चितताएं हैं। ब्लैक कार्बन के असर को बेहतर ढंग से मापने और समझने के लिए ज्यादा क्षेत्र माप और मॉडल विकसित करने की जरूरत है। इस रिव्यू पेपर से पता चलता है कि बर्फ में ब्लैक कार्बन के असर के अवलोकन और सिमुलेशन के बीच बड़े अंतर हैं और जलवायु प्रणाली में ब्लैक कार्बन की जीवनकाल प्रक्रियाओं की गहरी समझ की तत्काल जरूरत है।”
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सुब्रमण्यन ने कहा, “हालांकि हवा से बर्फ पर गिरने के बाद ब्लैक कार्बन का जलवायु पर असर स्पष्ट हो जाता है, लेकिन इसके प्रभाव अभी भी कम स्पष्ट हैं (ज्यादा अनिश्चितता के साथ) जबकि ब्लैक कार्बन का प्रवाह वायुमंडल के जरिए हो रहा है। यही वजह है कि जलवायु को गर्म करने वाले इस एजेंट की तरफ ज्यादा कार्रवाई के बारे में नहीं सोचा गया है। उन्होंने आगे कहा, “हां, ब्लैक कार्बन के कुछ वैज्ञानिक पहलू अभी भी तय नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर, जब ब्लैक कार्बन वायुमंडल में घुल जाता है, तो वार्मिंग प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि यह कितना प्रकाश अवशोषित करता है (जो फिर गर्मी के रूप में रिलीज होता है और आसपास की हवा को गर्म करता है) और एयरोसोल कितने समय तक वायुमंडल में घुले (और गर्म करता है) रहते हैं।”
सारंगी कहते हैं, “हमें भारत में ज्यादा स्थानीय रिज़ॉल्यूशन और इसके जलवायु प्रभावों की बेहतर मात्रा में तय करने के लिए महीने वाले पैमाने पर ब्लैक कार्बन के उत्सर्जन भंडार में अधिक निश्चितता की जरूरत है।” वे बताते हैं, धूल एक प्राकृतिक एयरोसोल है और वायुमंडल में बड़ी मात्रा में पहुंचती है। ब्लैक कार्बन और ब्राउन कार्बन के साथ, धूल भी एक घुलने वाली एरोसोल है जो वातावरण को गर्म और परिवर्तनों को एक जैसे तरीके से प्रभावित कर सकती है। इसलिए, भारत की भावी नीतियों के लिए ब्लैक कार्बन (मानव निर्मित) और धूल (प्राकृतिक) की भूमिका पर ज्यादा शोध जरूरी है।
भारत को क्या करना चाहिए
ब्लैक कार्बन की बढ़ती समस्या से निपटने की कोशिशों के बारे में बात करते हुए सुब्रमण्यन कहते हैं, “जैसा कि हम पॉलिसी ब्रीफ में दिखाते हैं, समाधान मौजूद हैं और वित्तीय रूप से भी इन पर आगे बढ़ा जा सकता है, लेकिन इसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। इससे विशेष रूप से ग्लोबल साउथ के विकासशील देशों में हवा की गुणवत्ता में अहम सुधार होगा और महत्वपूर्ण जलवायु लाभ भी मिलेंगे यानी एक कीमत पर दो काम।
उनका यह भी सुझाव है कि भारत को अपने प्रदूषणकारी और वातावरण को गर्म करने वाली चीजों का समाधान निकालने के लिए अपने राष्ट्रीय स्वच्छ हवा कार्यक्रम (एनसीएपी 2.0) और राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान (एनडीसी) में ब्लैक कार्बन को शामिल करना चाहिए।
पॉलिसी ब्रीफ में यह भी सुझाव दिया गया है कि मदद करने वाली एजेंसियों और परोपकारी संस्थाओं को ब्लैक कार्बन-समृद्ध क्षेत्रों में डीकार्बोनाइजेशन कोशिशों का समर्थन करने के लिए आगे आना चाहिए।
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बैनर तस्वीर: गावों में खुले में चूल्हा जिसमें आमतौर पर जलावन का इस्तेमाल किया जाता है। इससे बहुत ज्यादा धुआं निकलता है जिसमें बहुत ज्यादा बारीक कण (पीएम2.5) और ब्लैक कार्बन जैसे हानिकारक प्रदूषक होते हैं। तस्वीर – தகவலுழவன்/विकिमीडिया कॉमन्स।